Dadi Maa – Class 7 Hindi Vasant Bhag 2 book chapter 2 detailed explanation of lesson 2 ”Dadi Maa” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with a Summary and all the exercises, Questions, and Answers given at the back
of the lesson. Take Free Online MCQs Test for Class 7 लेखक परिचय – हमारे बड़े बुजुर्ग हमेशा हमें किसी न किसी लिए सीख देते ही रहते हैं। जब कभी वो हमें किसी गलती पर डाँट देते हैं तो कभी हमें अच्छा नहीं लगता , कभी लगता है कि वो बेवजह डाँट रहे हैं और
कभी – कभी तो हम उल्टा पलट कर भी कह सुनाते हैं। जब तक हमें एहसास होता है या हम समझ पाते हैं कि वे सही थे और हम गलत , तब तक बहुत देर हो जाती है। काहवत भी प्रसिद्ध है कि , “किसी चीज़ का मोल तभी ज्ञात होता है जब आप उस चीज़ को खो देते हैं। ” प्रस्तुत पाठ ‘ दादी माँ ‘ के लेखक ‘ शिव प्रसाद सिंह ‘ जी ने इस पाठ में अपनी दादी माँ के साथ अपनी स्मृतियों को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। साथ – ही – साथ बचपन की बहुत सी यादें भी लेखक इस पाठ में साँझा कर रहे हैं। प्रस्तुत पाठ में लेखक अपने बारे में हमें बताता हुआ कहता है कि
लेखक के आस – पास के लोग लेखक के व्यवहार में कुछ चीजों को लेखक की कमजोरी समझते हैं , इसी के कारण लेखक के कुछ भलाई चाहने वाले मित्र लेखक के मुँह पर तो लेखक को खुश करने के लिए आने वाली छुट्टियों की सूचना देते हैं ताकि लेखक छुट्टियों की बात सुन कर खुश हो जाए परन्तु वही पीठ भलाई चाहने वाले मित्र लेखक की पीठ पीछे लेखक को कमजोर और थोड़ी – सी विपरीत परिस्थिति से घबराने वाला कहकर लेखक का मज़ाक उड़ाते हैं। अपने कठिन समय में लेखक किसी को याद न भी करना चाहे फिर भी उसको किसी अपने की याद आ ही जाती है। लेखक
अपने बीते हुए दिनों को याद करता हुआ कहता है कि उसे ऐसा लग रहा है जैसे अश्विन महीने के दिन आ गए हैं। इस महीने में गाँव की सीमावर्ती भूमि से पानी के साथ बहकर आए हुए मोथा ( जलीय भूमि में होने वाला एक क्षुप ) और साईं ( फूल ) की घासें जो पूरी तरह से नहीं सड़ी होती हैं , खेतों अथवा तालाबों में उगने वाली जंगली घास की जड़ें तथा कई तरह का बरसात में उगने वाले घासों के बीज , सूरज की गरमी में उबलते हुए पानी में सड़कर एक बहुत ही अनोखी गंध छोड़ रहे हैं। लेखक बताता है की हर मौसम की अपनी – अपनी खूबियाँ
होती हैं। लेखक अपने ह्रदय की गहराइयों तक तड़प रहा था क्योंकि उस गंध से भरे हुए झागभरे जल में दो – एक दिन ही तो कूद सका था , उस पानी में नहा – धोकर वह बीमार हो गया था। लेखक बताता है कि हलकी बीमारी न जाने क्यों लेखक को अच्छी लगती है। इस बार लेखक को बुखार हुआ तो तो चढ़ता ही गया। लेखक रजाई पर रजाई डालता गया और बुखार उतरा भी तो रात के बारह बजे के बाद। लेखक बताता है कि गंध से भरे हुए झाग भरे जल में नहाने के बाद बीमार पड़ जाने के कारण दिन में लेखक चादर को लपेट कर सोया हुआ था। उस समय लेखक की दादी माँ
आईं , शायद वह भी उसी झाग वाले जल में नहाकर आई थी। दादी माँ ने आते ही लेखक के सर और पेट को छुआ। दादी ने अपने पल्ले में बाँधी गाँठ खोली और दिखाई न देने वाले किसी शक्तिधारी के ईंट या पत्थर से बनी ऊँची जगह की मिट्टी लेखक के मुँह में डाली और माथे पर भी लगाई। लेखक बताता है कि जब तक लेखक ठीक नहीं हुआ उसकी दादी माँ दिन – रात लेखक की चारपाई के पास ही बैठी रहती थी , लाखों प्रश्न पूछ – पूछकर लेखक की दादी घरवालों को परेशान कर देती थी। लेखक कहता है कि गाँव में कोई भी बीमार होता तो लेखक की दादी माँ उसके पास
पहुँच जाती थी और वहाँ पर भी वही काम शुरू कर देती थी जैसे हाथ छूना , माथा छूना , पेट छूना जैसा वह लेखक के साथ करती जब लेखक बीमार पड़ जाता था। लेखक के अनुसार सफाई करना तो सभी को उसकी दादी माँ से सीखना चाहिए। लेखक कहता है कि अगर कभी उसकी दवा देने में किसी तरह की देर हो जाती , मिश्री या शहद खत्म हो जाता , चादर या गिलाफ नहीं बदले जाते , तो वे जैसे पागल ही हो जाती। लेखक वर्तमान समय की बात करता है कि बुखार तो लेखक को अब भी आता है। अब लेखक को दादी माँ की जगह नौकर पानी दे जाता है , मेस – महाराज
अपने मन से पकाकर खिचड़ी या साबू दे देते हैं। डॉक्टर साहब आकर लेखक की नाड़ी देख जाते हैं और डॉक्टर के द्वारा मलेरिया के बुखार में दिया जाने वाले उस कड़वे सत मिक्सचर की शीशी इतनी तीखी कि उसके डर से बुखार अपने आप ही भाग भी जाता है , पर लेखक को अब न जाने क्यों ऐसा बुखार अच्छा नहीं लगता। किशन भैया की शादी में दादी माँ के हौसले और ख़ुशी की कोई सीमा ही नहीं थी कहने का अर्थ है कि किशन भैया की शादी से दादी माँ बहुत खुश थी। उन दिनों दादी माँ दिनभर गायब रहती थी यानि घर के कामों में उलझी रहती थी। वैसे तो
सही को पता था कि दादी माँ कोई काम नहीं करती। पर किसी भी काम में अगर वे हाज़िर न हों तो असल में वह काम देरी से होता था। एक दिन दोपहर को लेखक कही बाहर से घर लौटा। बाहर के आँगन में लेखक की दादी माँ किसी पर बिगड़ रही थी। जब लेखक ने देखा तो उसने पाया कि पास के कोने में रामी की चाची दुबक के खड़ी है। दादी माँ की डाँट से रामी की चाची रोती हुई दादी माँ सेब कहने लगी कि वह जल्दी ही पैसे दे देगी। रामी की चाची ने अपने दोनों हाथों से अपना आँचल पकड़े हुए दादी माँ के पैरों की ओर झुकी और कहने लगी कि उसकी बिटिया
की शादी है। अगर लेखक की दादी ही दया नहीं करेंगी तो उनकी बेचारी बेटी का उद्धार कैसे होगा ! लेखक कहता है कि उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए लेखक ने दादी माँ और रामी की चाची के बीच होने वाली इस अच्छी न लगने वाली बात – चीत को समाप्त करने की इच्छा से अपनी दादी माँ से कहा कि वह रामी की चाची बेचारी गरीब है , कभी न कभी दे देगी आपके पैसे। लेखक की बात सुन कर लेखक की दादी माँ ने लेखक को भी यह कहते हुए कि चल , चल ! चला है समझाने , डाँट लगा दी। लेखक कहता है कि कई दिन बीत गए थे दादी माँ और रामी की
चाची के बीच हुई उस बातचीत को। लेखक भी उस प्रसंग को एकदम भूल – सा गया था। लेकिन लेखक को एक दिन रास्ते में रामी की चाची मिल गई। वह लेखक की दादी माँ को आशीर्वाद दे रही थी ! लेखक ने रामी की चाची से दादी माँ को ‘ पूतों फलो दूधों नहाओ ’ का आशीर्वाद देने का कारण पूछा कि धन्नो चाची क्या बात है ? इस पर रामी की चची ने लेखक से बिना किसी बनावटी ढंग के कहा कि बेटा आज ॠण से मुक्त हो गई हूँ , लेखक की दादी को और आशीर्वाद देते हुए कहने लगी कि भगवान मालकिन का भला करे। दादी माँ कल ही रामी की चाची के पास आई थी।
उन्होंने रामी की चाची का पीछे का सारा ऋण छोड़ दिया था यानि दादी माँ ने रामी की चाची का सारा ऋण माफ़ कर दिया था , साथ में ऊपर से दस रुपये का नोट देकर रामी की चाची से बोलीं थी कि देखना धन्नो , जैसी तेरी बेटी वैसी मेरी , दस – पाँच के लिए हँसाई न हो। लेखक अपने भाई किशन के विवाह के दिनों की बात करता हुआ कहता है कि विवाह के चार – पाँच दिन पहले से ही पड़ोस की औरतें रात – रातभर गीत गाती हैं। विवाह की रात को एक नाटक भी होता है और यह नाटक अक्सर एक ही कथा का हुआ करता है। लेखक का ममेरा भाई राघव भी बरामदें
में सो रहा था क्योंकि वह जब तक पहुँचा तब तक बारात जा चुकी थी , वह भी बरात में नहीं जा पाया था। लेखक कहता है कि उसके वहाँ पर सोने के कारण औरतों ने उस पर दुःख प्रकट किया। दादी माँ ने लेखक को भी पास ही की एक चारपाई पर चादर उढ़ाकर चुपके से सुला दिया था। औरतों को लेखक के बारे पता नहीं चला। लेखक कहता है कि नाटक देख – कर उसे बड़ी हँसी आ रही थी। लेखक ने सोचा कि अगर कहीं उसे जोर से हँसी आ गई तो उसका वहाँ छुपने का भेद खुल जाएगा और उसे वहाँ से बाहर निकाल दिया जाएगा , इसी कारण लेखक अपनी हँसी को रोक कर छुपा
रहा परन्तु जब उसकी भाभी का दृश्य आया तो लेखक अपनी हँसी नहीं रुक सका और लेखक के छुपे होने का भेद प्रकट हो गया। लेखक अपनी दादी माँ को याद करता हुआ कहता है कि उसकी दादी माँ प्यार और ममता की मूर्ति थी , आज लेखक अपनी दादी माँ की सभी बातों को अलग ही दृष्टिकोण से देखता है। आज लेखक को अपनी दादी माँ के प्यार और ममता का अनुभव ज्यादा अच्छे से होता है। लेखक के दादा की मृत्यु के बाद से ही लेखक की दादी माँ बहुत उदास रहती थी। हानि पहुँचाने वाली सलाह देने वाले लोगों के कारण लेखक की दादी माँ की परेशानियाँ और भी
ज्यादा बढ़ गई थी। दादा के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म में दादी माँ के मना करने पर भी लेखक के पिता जी ने जो अत्यधिक धन – संपत्ति खर्च की थी , वह घर की तो थी नहीं। लेखक माघ के दिनों में हुई एक घटना का वर्णन करता हुआ कहता है कि । उन दिनों बहुत अधिक ठण्ड पड़ रही थी। एक शाम को लेखक ने देखा कि उसकी दादी माँ गीली धोती पहने , कोने वाले घर में एक संदूक पर दिया जलाए , हाथ जोड़कर बैठी हुई है। लेखक ने अपनी दादी माँ की प्यार से भरी हुई आँखों में कभी आँसू नहीं देखे थे और इस समय वो रो रही थी। जब लेखक की
दादी माँ ने आँखें खोलीं तो लेखक ने धीरे से अपनी दादी को बुलाया। जब लेखक ने दादी माँ को धीरे से पुकारा तो दादी माँ चौंक गई और लेखक से पूछने लगी कि लेखक वहाँ उसके बगल में बैठ कर क्या कर रहा है ? लेखक ने दादी माँ से से पूछा कि क्या वह रो रही थी ? लेखक की बात का उसकी दादी माँ ने मुस्कुरा कर बात को बदलते हुए कहा कि लेखक ने अभी तक खाना भी नहीं खाया होगा तो चल कर पहले खाना खा लें। कहने का तात्पर्य यह है कि दादी माँ किसी को भी अपने दुखी होने की बात का एहसास नहीं होने देती थी। लेखक कहता है कि अगली सुबह
उसने देखा कि उसके पिता जी और किशन भैया चारपाई पर बैठे परेशानी में कुछ सोच रहे हैं। लेखक ने सुना कि उसके पिता जी लगभग रोने की सी आवाज में बोल रहे थे कि उनके पास अब कोई दूसरा चारा ही नहीं है , रूपया कोई देता नहीं और कितने लोगों के तो अभी पिछला उधार भी देना बाकी है ! लेखक की दादी ने उनका एक संदूक खोला और उसके अंदर से एक चमकती – सी चीज निकाली। उन्होंने लेखक के पिता जी से कहा कि वह चमकता कंगन उन्हें दादा जी ने इसी दिन के लिए पहनाया था। लेखक अपनी दादी माँ की प्रशंसा करते हुए कहता है कि लेखक को उसकी
दादी माँ सचमुच में एक ऐसी महीला लगी जिसमें कोई दोष न हो। लेखक अपनी दादी माँ के बारे में जो कुछ सोच रहा था वह धुँधली छाया की तरह लुप्त हो गई। लेखक ने देखा , दिन काफी चढ़ आया था। लेखक के हाथ में अब भी उसके किशन भैया का पत्र था , जो काँप रहा है। लेखक अपने मन से बार – बार यही पूछ रहा था कि क्या सचमुच दादी माँ नहीं रहीं ? कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक की दादी माँ का देहांत हो गया था जिसकी खबर करने के लिए किशन भैया ने पत्र लिखा था। परन्तु लेखक को इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था। कमजोरी ही है अपनी , पर सच तो यह है कि ज़रा – सी कठिनाई पड़ते ; बीसों गरमी , बरसात और वसंत देखने के बाद भी , मेरा मन सदा नहीं तो प्रायः अनमना – सा हो जाता है। मेरे शुभचिंतक मित्र मुँह पर मुझे प्रसन्न करने के लिए आने वाली छुट्टियों की सूचना देते हैं और पीठ पीछे मुझे कमजोर और ज़रा – सी प्रतिकूलता से घबराने वाला कहकर मेरा मज़ाक उड़ाते हैं। मैं सोचता हूँ , ‘ अच्छा , अब कभी उन बातों को न सोचूँगा। ठीक है , जाने दो , सोचने से होता ही क्या है ’। पर , बरबस मेरी आँखों के
सामने शरद की शीत किरणों के समान स्वच्छ , शीतल किसी की धुँधली छाया नाच उठती है। मुझे लगता है जैसे क्वार के
दिन आ गए हैं। मेरे गाँव के चारों ओर पानी ही पानी हिलोरें ले रहा है। दूर के सिवान से बहकर आए हुए मोथा और साईं की अधगली घासें , घेऊर और बनप्याज की जड़ें तथा नाना प्रकार की बरसाती घासों के बीज, सूरज की गरमी में खौलते हुए पानी में सड़कर एक विचित्र गंध छोड़ रहे हैं। रास्तों में कीचड़ सूख गया है और गाँव के लड़के किनारों पर झागभरे जलाशयों में धमाके से कूद रहे हैं। अपने – अपने मौसम की अपनी – अपनी बातें होती हैं। आषाढ़ में आम और जामुन न मिलें , चिंता नहीं , अगहन में चिउड़ा और गुड़ न मिले , दुख नहीं
, चैत के दिनों में लाई के साथ गुड़ की पट्टी न मिले , अफ़सोस नहीं , पर क्वार के दिनों में इस गंधपूर्ण झागभरे जल में कूदना न हो तो बड़ा बुरा मालूम होता है। मैं भीतर हुड़क रहा था। दो-एक दिन ही तो कूद सका था , नहा – धोकर बीमार हो गया। हलकी बीमारी न जाने क्यों मुझे अच्छी लगती है। थोड़ा – थोड़ा ज्वर हो , सर में साधारण दर्द और खाने के लिए दिनभर नींबू और साबू। लेकिन इस बार ऐसी चीज़ नहीं थी। ज्वर जो चढ़ा तो चढ़ता ही गया। रजाई पर रजाई और उतरा रात बारह बजे के बाद। दिन में मैं चादर लपेटे सोया था। दादी माँ आईं, शायद नहाकर आई थीं, उसी झागवाले जल में। पतले-दुबले स्नेह – सने शरीर पर सफेद किनारीहीन धोती, सन – से सफेद बालों के सिरों पर सध्यः टपके हुए जल की शीतलता। आते ही उन्होंने सर , पेट छुए। आँचल की गाँठ खोल किसी अदृश्य शक्तिधारी के चबूतरे की मिट्टी मुँह में डाली , माथे
पर लगाई। दिन – रात चारपाई के पास बैठी रहतीं , कभी पंखा झलतीं , कभी जलते हुए हाथ – पैर कपड़े से सहलातीं , सर पर दालचीनी का लेप करतीं और बीसों बार छू – छूकर ज्वर का अनुमान करतीं। हाँडी में पानी आया कि नहीं ? उसे पीपल की छाल से छौंका कि नहीं ? खिचड़ी में मूँग की दाल एकदम मिल तो गई है ? कोई बीमार के घर में सीधे बाहर से आकर तो नहीं चला गया , आदि लाखों प्रश्न पूछ – पूछकर घरवालों को परेशान कर देतीं। व्याख्या – लेखक बताता है कि गंध से भरे हुए झाग भरे जल में नहाने के बाद बीमार पड़ जाने
के कारण दिन में लेखक चादर को लपेट कर सोया हुआ था। उस समय लेखक की दादी माँ आईं , शायद वह भी उसी झाग वाले जल में नहाकर आई थी। लेखक अपनी दादी माँ का वर्णन करता हुआ कहता है कि उसकी दादी माँ पतले – दुबले शरीर वाली थी। लेखक के अनुसार उसकी दादी के शरीर के हर अंग से प्यार झलकता था। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक की दादी माँ सभी से प्यार करने वाली थी। लेखक कहता है कि जब उसकी दादी माँ उस झाग वाले जल में नहा कर आई थी तब उन्होंने शरीर पर ऐसी सफेद धोती पहन राखी थी जिसके किनारे पर कोई भी सजावटी गोटा
नहीं लगाया गया था। दादी माँ के सफेद बाल जो सन के पौधे के रेशों की तरह थे , उन बालों के सिरों पर से जल की ठंडी बूंदें टपक रही थी। लेखक बताता है कि जैसे ही उसकी दादी माँ आई उन्होंने आते ही लेखक के सर और पेट को छुआ। दादी ने अपने पल्ले में बाँधी गाँठ खोली और दिखाई न देने वाले किसी शक्तिधारी के ईंट या पत्थर से बनी ऊँची जगह की मिट्टी लेखक के मुँह में डाली और माथे पर भी लगाई। लेखक बताता है कि जब तक लेखक ठीक नहीं हुआ उसकी दादी माँ दिन – रात लेखक की चारपाई के पास ही बैठी रहती थी , कभी लेखक के लिए
पंखा झुलाती थी , कभी लेखक के जलते हुए हाथ – पैर ठन्डे कपड़े से सहलाती रहती , कभी लेखक के सर पर दालचीनी का लेप करती और बीसो बार अर्थात कई बार छू – छूकर बुखार का अनुमान करती। लेखक बताता है कि उसकी दादी में सभी घर वालों से पूछती रहती कि हाँडी में पानी आया कि नहीं ? उसे पीपल की छाल से छौंका कि नहीं ? खिचड़ी में मूँग की दाल एकदम मिल तो गई है ? कोई बीमार के घर में सीधे बाहर से आकर तो नहीं चला गया , इस तरह के लाखों प्रश्न पूछ – पूछकर लेखक की दादी घरवालों को परेशान कर देती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि
लेखक के बीमार पड़ जाने के कारण लेखक की दादी माँ बहुत चिंतित हो जाया करती थी। दादी माँ को गँवई – गाँव की पचासों किस्म की दवाओं के नाम याद थे। गाँव में कोई बीमार होता , उसके पास पहुँचती और वहाँ भी वही काम। हाथ छूना , माथा छूना , पेट छूना। फिर भूत से लेकर मलेरिया , सरसाम , निमोनिया तक का अनुमान विश्वास के साथ सुनातीं। महामारी और विशूचिका के दिनों में रोज सवेरे उठकर स्नान के बाद लवंग और गुड़ – मिश्रित जलधार , गुग्गल और धूप। सफाई कोई उनसे सीख ले। दवा में देर होती , मिश्री या शहद
खत्म हो जाता , चादर या गिलाफ नहीं बदले जाते , तो वे जैसे पागल हो जातीं। बुखार तो मुझे अब भी आता है। नौकर पानी दे जाता है , मेस – महाराज अपने मन से पकाकर खिचड़ी या साबू। डॉक्टर साहब आकर नाड़ी देख जाते हैं और कुनैन मिक्सचर की शीशी की तिताई के डर से बुखार भाग भी जाता है , पर न जाने क्यों ऐसे बुखार को बुलाने का जी नहीं होता ! किशन भैया की शादी ठीक हुई , दादी माँ के उत्साह और आनंद का क्या कहना ! दिनभर गायब रहतीं। सारा घर जैसे उन्होंने सर पर उठा लिया हो। पड़ोसिनें आतीं। बहुत बुलाने पर दादी माँ आतीं , ” बहिन बुरा न मानना। कार – परोजन का घर ठहरा। एक काम अपने हाथ से न करूँ , तो होने वाला नहीं। ” जानने को यों सभी जानते थे कि दादी माँ कुछ करतीं नहीं। पर किसी काम में उनकी अनुपस्थिति वस्तुतः विलंब का कारण बन जाती। उन्हीं दिनों की बात है। एक
दिन दोपहर को मैं घर लौटा। बाहरी निकसार में दादी माँ किसी पर बिगड़ रही थीं। देखा , पास के कोने में दुबकी रामी की चाची खड़ी है। ” सो न होगा , धन्नो ! रुपये मय सूद के आज दे दे। तेरी आँख में तो शरम है नहीं। माँगने के समय कैसी आई थी ! पैरों पर नाक रगड़ती फिरी , किसी ने एक पाई भी न दी। अब लगी है आजकल करने – फसल में दूँगी , फसल में दूँगी… अब क्या तेरी खातिर दूसरी फसल कटेगी ? “ ” दूँगी , मालकिन ! ” रामी की चाची रोती हुई , दोनों हाथों से आँचल पकड़े दादी माँ के पैरों की ओर झुकी , ” बिटिया की शादी है। आप न दया करेंगी तो उस बेचारी का निस्तार कैसे होगा ! “ मैं चुपके से आँगन की ओर चला गया। कई दिन बीत गए , मैं इस प्रसंग को एकदम भूल – सा गया। एक दिन रास्ते में रामी की चाची
मिली। वह दादी को ‘ पूतों फलो दूधों नहाओ ’ का आशीर्वाद दे रही थी ! मैंने पूछा , ” क्या बात है , धन्नो चाची ” , तो उसने विह्नल होकर कहा , ” उरिन हो गई बेटा , भगवान भला करे हमारी मालकिन का। कल ही आई थीं। पीछे का सभी रुपया छोड़ दिया , ऊपर से दस रुपये का नोट देकर बोलीं , ‘ देखना धन्नो , जैसी तेरी बेटी वैसी मेरी , दस – पाँच के लिए हँसाई न हो। ’ देवता है बेटा , देवता। “ व्याख्या – लेखक अपनी दादी माँ से डाँट खा कर चुपके से आँगन की ओर चला गया। लेखक कहता है कि कई दिन बीत गए थे दादी माँ और रामी की चाची के बीच हुई उस बातचीत को। लेखक भी उस प्रसंग को एकदम भूल – सा गया था। लेकिन लेखक को एक दिन रास्ते में रामी की चाची मिल गई। वह लेखक की दादी माँ को ‘ पूतों फलो दूधों नहाओ ’ का आशीर्वाद दे रही थी ! लेखक ने रामी की चाची से दादी माँ को ‘ पूतों फलो दूधों नहाओ ’ का आशीर्वाद देने का कारण पूछा कि धन्नो चाची क्या बात है ? इस पर रामी की चची ने लेखक से बिना किसी बनावटी ढंग के कहा कि बेटा आज ॠण से मुक्त हो गई हूँ , लेखक की दादी को और आशीर्वाद देते हुए कहने लगी कि भगवान मालकिन का भला करे। दादी माँ कल ही रामी की चाची के पास आई थी। उन्होंने रामी की चाची का पीछे का सारा ऋण छोड़ दिया था यानि दादी माँ ने रामी की चाची का सारा ऋण माफ़ कर दिया था , साथ में ऊपर से दस रुपये का नोट देकर रामी की चाची से बोलीं थी कि देखना धन्नो , जैसी तेरी बेटी वैसी मेरी , दस – पाँच के लिए हँसाई न हो। अर्थात थोड़े से रुपयों के लिए बेज़्ज़ती नहीं होनी चाहिए। रामी की चाची लेखक की दादी माँ को देवता की जगह पर रख रही थी। ये सब सुनने के बाद लेखक ने रामी की चाची से पूछा कि उस दिन तो वे बहुत डाँट रही थीं। लेखक की बात सुन कर रामी की चाची ने एक तर्क दिया कि रूपया देकर डाँटना तो बड़े लोगों का काम है , अगर वे ऐसा भी न करे तो क्या लाभ ! लेखक को यह तर्क बहुत मजाकिया लगा और लेखक मन – ही – मन इस तर्क पर हँसता हुआ आगे बढ़ गया। किशन के विवाह के दिनों की बात है। विवाह के चार – पाँच रोज पहले से ही औरतें रात – रातभर गीत गाती हैं। विवाह की रात को अभिनय भी होता है। यह प्रायः एक ही कथा का हुआ करता है , उसमें विवाह से लेकर पुत्रोत्पत्ति तक के सभी दृश्य दिखाए जाते हैं – सभी पार्ट औरतें ही करती हैं। मैं बीमार होने के कारण बारात में न जा सका। मेरा ममेरा भाई राघव
दालान में सो रहा था ( वह भी बारात जाने के बाद पहुँचा था। ) औरतों ने उस पर आपत्ति की। दादी माँ बिगड़ीं , ” लड़के से क्या परदा ? लड़के और ब्रह्मा का मन एक – सा होता है। “ स्नेह और ममता की मूर्ति दादी माँ की एक – एक बात आज कैसी – कैसी मालूम होती है। परिस्थितियों का वात्याचक्र जीवन को सूखे पत्ते –
सा कैसा नचाता है , इसे दादी माँ खूब जानती थीं। दादा की मृत्यु के बाद से ही वे बहुत उदास रहतीं। संसार उन्हें धोखे की टट्टी मालूम होता। दादा ने उन्हें स्वयं जो धोखा दिया। वे सदा उन्हें आगे भेजकर अपने पीछे जाने की झूठी बात कहा करते थे। दादा की मृत्यु के बाद कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ने वाले , मुँह में राम बगल में छुरी वाले दोस्तों की शुभचिंता ने स्थिति और भी डाँवाडोल कर दी। दादा के श्राद्ध में दादी माँ के मना करने पर भी पिता जी ने जो अतुल संपत्ति व्यय की , वह घर की तो थी नहीं। दादी माँ अकसर उदास रहा करतीं। माघ के दिन थे।
कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था। पछुवा का सन्नाटा और पाले की शीत हड्डियों में घुसी पड़ती। शाम को मैंने देखा , दादी माँ गीली धोती पहने , कोने वाले घर में एक संदूक पर दिया जलाए , हाथ जोड़कर बैठी हैं। उनकी स्नेह – कातर आँखों में मैंने आँसू कभी नहीं देखे थे। मैं बहुत देर तक मन मारे उनके पास बैठा रहा। उन्होंने आँखें खोलीं। ” दादी माँ ! ” , मैंने धीरे से कहा। ” क्या है रे , तू यहाँ क्यों बैठा है ? “ ” मुझे सरदी – गरमी नहीं लगती बेटा। ” वे मुझे खींचती रसोई में ले गईं। ” रोता क्यों है रे ! ” दादी माँ ने उनका माथा सहलाते हुए कहा , ” मैं तो अभी हूँ ही। ” उन्होंने संदूक खोलकर एक चमकती – सी चीज निकाली , ” तेरे दादा ने यह कंगन मुझे इसी दिन के लिए पहनाया था। ” उनका गला भर आया , ” मैंने इसे पहना नहीं , इसे सहेजकर रखती आई हूँ। यह उनके वंश की
निशानी है। ” उन्होंने आँसू पोंछकर कहा , ” पुराने लोग आगा – पीछा सब सोच लेते थे , बेटा। “ सचमुच मुझे दादी माँ शापभ्रष्ट देवी – सी लगीं। धुँधली छाया विलीन हो गई। मैंने देखा , दिन काफी चढ़ आया है। पास के लंबे खजूर के पेड़ से उड़कर एक कौआ अपनी घिनौनी काली पाँखें फैलाकर मेरी खिड़की पर बैठ गया। हाथ में अब भी किशन भैया का पत्र काँप रहा है। काली चींटियों – सी कतारें धूमिल हो रही हैं। आँखों पर विश्वास नहीं होता। मन बार – बार अपने से ही पूछ बैठता है – ‘ क्या सचमुच दादी माँ नहीं रहीं ? ’ Dadi Maa Question Answers (“दादी माँ” – प्रश्न अभ्यास)प्रश्न 1 – लेखक को अपनी दादी माँ की याद के साथ – साथ बचपन की और किन – किन बातों की याद आ जाती है ? प्रश्न 2 – दादा की मृत्यु के बाद लेखक के घर की आर्थिक स्थिति खराब क्यों हो गई थी ? प्रश्न 3 – दादी माँ के स्वभाव का कौन – सा पक्ष आपको सबसे अच्छा लगता है और क्यों ? दादी मां के लेखक कौन है?उत्तर- दादी माँ पाठ की विधा - कहानी है और लेखक शिवप्रसाद सिंह हैं।
दादी माँ पाठ में लेखक बारात में क्यों नहीं गया *?हँसमुख व सरल स्वभाव- किशन भैया की शादी के समय जब केवल औरतें ही गाना और अभिनय में व्यस्त थीं तो लेखक बीमारी के कारण और भाई विलंब के कारण बारात में नहीं जा सके तो दादी ने दोनों को चुपके से चादर उढ़ा कर सुला दिया परंतु भेद खुलने पर दादी ने उनकी रक्षा की व औरतों को डांट दिया.
लेखक की कमजोरी क्या थी class 7?लेखक की कमजोरी यह है कि थोड़ी-सी कठिनाई आने पर उसका मन प्रायः व्यथित हो जाता है, यानी वह घबरा जाता है। (ख) मित्र किस प्रकार का दो मुँहा व्यवहार करते हैं। लेखक के मित्र उसे खुश करने के लिए मुँह पर तो आने वाले छुट्टियों की सूचना देते हैं और पीठ पीछे उसे कमज़ोर और घबराने वाला कहकर उनका हँसी उड़ाते हैं।
दादी माँ पाठ में किसकी शादी की बात की गई है?उत्तर: किशन भैया की शादी तय हो गयी थी। दादी माँ ने घर को सर पर उठा लिया था।
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