अनेक मासूम दिल वाले लोग धनी, उच्च पदस्थ तथा बाहुबली लोगों से दया की आशा से निहारते हैं। कुछ लोग बड़े होने पर भी विनम्र हो सकते हैं पर सभी के अंदर सहृदयता का भाव होना संभव नहीं है। माया के फेर में फंसे लोगों से दया, परोपकार और अपने से कमजोर व्यक्ति के प्रति सहृदयता दिखाने की उम्मीद करना निरर्थक है। खासतौर से आजकल अंग्रेजी शिक्षा तथा जीवन पद्धति के साथ जीने के आदी हो चुके समाज में तो यह आशा करना ही मूर्खता है कि धनी, उच्च पदस्थ तथा शक्तिशाली लोग समाज के प्रति उत्तरदायित्व निभायेंगे। अंग्रेजी शिक्षा उपभोग के लिये गुलाम तक बनने के लिये प्रेरित करती है तो जीवन शैली अपना पूरा ध्यान सांसरिक विषयों की तरफ ले जाती है। ऐसे में सामान्य मनुष्य से आशा करना कि वह भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन करेगा, बेकार है| कविवर दादू दयाल कहते हैं कि --------------------------- ‘दादू’ माया का खेल देखि करि, आया अति अहंकार। अंध भया सूझे नहीं, का करिहै सिरजनहार ।। सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-माया का खेल अत्यंत विकट है। यह संभव ही नहीं है कि जिस मनुष्य के पास धन, पद और प्रतिष्ठा का अंबार हो वह अहंकार का समंदर में न डूबे। जिसके पास माया है उसे कभी भी परमात्मा की भक्ति हो ही नहीं सकती। माखन मन पांहण भया, माया रस पीया। पाहण मन मांखण भया, राम रस लीया।। सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-जिनका मन मक्खन की तरह है उनके पास धन, पद और प्रतिष्ठा यान माया के प्रभाव में वह भी पत्थर हो जाता है। राम का रस पी ले तो पत्थर मन भी मक्खन हो जाता है। सच बात तो यह है कि भारत ने हर क्षेत्र में पाश्चात्य व्यवस्था का अनुकरण किया है। एक अंग्रेजी विद्वान ने बहुत पहले कहा था कि इस संसार में बिना बेईमानी या दो नंबर के धन के बिना कोई धनपति बन ही नहीं सकता। जब हम अपनी प्राचीन पद्धतियों से दूर हो गये हैं और भारतीय अध्यात्म दर्शन की बात नहीं भी करें तो पश्चिमी विद्वानों का सिद्धांत भी यही कहता है कि बिना बेईमानी के किसी के पास अधिक धन आ ही नहीं सकता। हम यह भी देखें कि जब किसी के पास बेईमानी से काला धन आता है तो यकीनन उसके साथ अनेक प्रकार के संकट भी जुउ़ते हैं। ऐसे में ऐसे काले धन के स्वामियों की रात की नींद हराम हो जाती है तो दिन का चैन भी साथ छोड़ देता है। अपने संकटों से दो चार हो रहे बड़े लोग अपनी रक्षा करेंगे या दूसरों पर दया करने का समय निकालेंगे? इसलिये जहां तक हो सके अपने ही पवित्र साधनों से जीवन बिताना चाहिये और धनी, उच्च पदस्थ तथा प्रतिष्ठावान लोगों से कोई सरोकार न रखते हुए उनसे आशा करना त्याग देना चाहिये। दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’ Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep" Gwalior Madhyapradesh संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए दोहे / दादू दयालKavita Kosh से दादू दीया है भला, दिया करो सब कोय। दादू इस संसार मैं, ये द्वै रतन अमोल। हिन्दू लागे
देहुरा, मूसलमान मसीति। मेरा बैरी 'मैं मुवा, मुझे न मारै कोई। तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर। खुसी तुम्हारी त्यूँ करौ, हम तौ मानी हारि। सतगुर कीया फेरि करि, मन का औरै रूप। बिरह जगावै दरद कौं, दरद जगावै जीव। दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होई। सुन्य सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव। दादू हरि रस पीवताँ, कबँ अरुचि न होई। माया विषै विकार थैं, मेरा मन भागै। माया विषै विकार थैं, मेरा मन भागै। सोई कीजै साइयाँ, तूँ मीठा लागै॥ दादू हरि रस पीवताँ, कबँ अरुचि न होई। पीवत प्यासा नित नवा, पीवण हारा सोई॥ सुन्य सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव। दादू यह रस विलसिये, ऐसा अलख अभेव॥ दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होई। जब यहु आपा मरि गया, तब दूजा नहिं कोई॥ बिरह जगावै दरद कौं, दरद जगावै जीव। जीव जगावै सुरति कौं, तब पंच पुकारै पीव। सतगुर कीया फेरि करि, मन का औरै रूप। दादू पंचौं पलटि करि, कैसे भये अनूप॥ खुसी तुम्हारी त्यूँ करौ, हम तौ मानी हारि। भावै बंदा बकसिये, भावै गहि करि मारि॥ तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर। पल-पल का मैं गुनही तेरा, बकसहु ऑंगुण मोर॥ मेरा बैरी 'मैं मुवा, मुझे न मारै कोई। मैं ही मुझकौं मारता, मैं मरजीवा होई॥ हिन्दू लागे देहुरा, मूसलमान मसीति। हम लागे एक अलख सौं, सदा निरंतर प्रीति॥ दादू इस संसार मैं, ये द्वै रतन अमोल। इक साईं इक संतजन, इनका मोल न तोल॥ दादू दीया है भला, दिया करो सब कोय। घर में धरा न पाइए, जो कर दिया न होय। |