Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Aroh Chapter 1 नमक का दारोगा Textbook Exercise Questions and Answers. Show
RBSE Class 11 Hindi Solutions Aroh Chapter 1 नमक का दारोगाRBSE Class 11 Hindi नमक का दारोगा Textbook Questions and Answersपाठ के साथ - प्रश्न 1. प्रेमचन्द जी ने उनके रूप में एक आदर्श पात्र की परिकल्पना की है तथा कहानी से यह संदेश दिया है कि जो सत्य, न्याय, ईमानदारी एवं नैतिकता पर टिका रहता है, अन्तिम विजय उसी की होती है। मुंशी वंशीधर ने पण्डित अलोपीदीन को नमक की चोरबाजारी करते हुए गिरफ्तार किया था। उन्हें बड़ी रिश्वत देने का प्रयास किया गया पर व डिगे नहीं। अलोपीदीन अपने धन - बल से अदालत से छूट गए किन्तु उनके हृदय पर वंशीधर की ईमानदारी की ऐसी छाप पड़ी कि उन्होंने वंशीधर को ऊँचे वेतन पर अपनी जमींदारी का मैनेजर नियुक्त कर दिया। इस प्रकार सत्य एवं ईमानदारी की विजय का उद्घोष करते हुए प्रेमचन्द ने इसे आदर्शवादी कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि कहानी का पात्र मुंशी वंशीधर हमें सबसे अधिक प्रभावित करता है। प्रश्न 2. 2. गुण ग्राहक - अभी तक अलोपीदीन को ऐसा कोई व्यक्ति न मिला था जो वंशीधर की तरह ईमानदार और कर्त्तव्यपरायण हो। अपने धन के बल पर वे चाहे जिसको खरीद सकते थे और मन मुताबिक झुका लेते थे. पर वंशीधर को वे नहीं झुका सके। उनको अपनी विशाल सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए ऐसे ही दृढ़ - 'त्र वाले व्यक्ति की आवश्यकता थी! एक सप्ताह बाद ही वे वंशीधर के घर आए और वशीधर को अपनी जमींदारी का स्थायी मैनेजर नियुक्त करने का स्टाम्प लगा पत्र देते हुए कहा कि कृपया आप इस पद को स्वीकार कीजिए। छह हजार वार्षिक वेतन के साथ अनेक सुविधाएँ, नौकर - चाकर, सवारी, बँगला मुफ्त। यह उस समय बड़ा वेतन था। अलोपीदीन ने कहा - मुझे विद्वान् और अनुभव या कार्यकुशलता की दरकार नहीं, मुझे तो आप जैसा ईमानदार, दृढ़ - प्रतिज्ञ, कर्तव्यपरायण एवं धर्मनीति पर स्थिर रहने वाला व्यक्ति ही अपनी जायदाद के मैनेजर के रूप में चाहिए। प्रश्न 3. (ब) समाज की सच्चाई - वृद्ध मुंशी के माध्यम से कहानीकार ने समाज के उन अभिभावकों का स्वभाव उजागर किया है, जो अपने पाल्यों (पुत्रों) को अच्छे संस्कार देने के स्थान पर धन कमाने के लिए अनैतिक आचरण, रिश्वत, भ्रष्टाचार करने के लिए प्रेरित करते हैं। बेटा ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता और नीति पर चले इस बात पर बल नहीं बल्कि बल इस बात पर देते है कि जल्दी से जल्दी धन कमाकर हमारी आवश्कताओं की पूर्ति करो। हमने अपनी आशाएँ तुम्हीं पर लगा रखी हैं। जब ईमानदारी एवं कर्तव्य परायणता के कारण वंशीधर को निलम्बित कर दिया गया, तब वृद्ध मुंशी ने पुत्र को बुरा - भला कहा। अलोपीदीन के घर आने पर वे यही कहते हैं कि क्या करूँ मेरा पुत्र कपूत निकला। (ख) वकील - (ब) समाज की सच्चाई - आज अदालतों में न्याय की विजय नहीं होती, असत्य की विजय होती है। वकील झूठे गवाह तैयार करके किसी भी कमजोर केस को पैसे के बल पर जीत लेते हैं। फिर धनवान् व्यक्ति से मुँहमाँगी रकम प्राप्त कर लेते हैं। आज गरीबों को न्याय नहीं मिल पाता। ईमानदार एवं कर्त्तव्यपरायण व्यक्ति न्याय के लिए तरसते रह जाते हैं और बेईमान लोग धन के बल पर न्याय को अपने पक्ष में मोड़ लेते हैं, इसी सच्चाई को कहानीकार उजागर कर रहा है। (ग) शहर की भीड़ - (ब) समाज की सच्चाई - जब कोई भला या बड़ा व्यक्ति किसी कानूनी शिकंजे में फंस जाता है तो शहर की भीड़ अत्यन्त उत्सुकता से उसका तमाशा देखती है। ऐसे लोग जो गले तक बेईमानी में फंसे हैं, अनैतिक आचरण करते हैं, वे भी टीका - टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। अलोपीदीन को हथकड़ी में अदालत जाते हुए जब शहर की भीड़ ने देखा तो लोग तरह - तरह की बातें करने लगे। भले ही वे सब दैनिक जीवन में अनैतिक आचरण करते रहे हैं। पर आज अलोपीदीन पर छींटाकशी करने का जो अवसर उन्हें मिला था उसका भरपूर लाभ उठा रहे थे। प्रश्न 4. प्रश्न 5. 1. 'नमक का दारोगा' प्रेमचन्द की आदर्शवादी कहानी है जिसमें यह बताया गया है कि जो ईमानदारी, नैतिकता, धर्म एवं सत्य पर दृढ़े रहते हैं अन्तिम विजय उन्हीं की होती है। मुंशी वंशीधर ने अलोपीदीन की रिश्वत ठुकरा दी और अपनी ईमानदारी का परिचय दे दिया। भले ही उन्हें विभाग से निलम्बित कर दिया गया हो पर अलोपीदीन उनकी ईमानदारी से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपनी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त कर दिया। इसीलिए इस कहानी का शीर्षक हो सकता है - सत्यमेव जयते। 2. शीर्षक कहानी की जान होता है, क्योकि शीर्षक देखकर ही लोग कहानी की विषय - वस्तु का अनुमान कर उसे पढ़ना प्रारंभ करते हैं। वंशीधर की ईमानदारी ही इस कहानी की मुख्य घटना है और उस ईमानदारी का फल उन्हें ऊँचे वेतन वाली नौकरी के रूप में अलोपीदीन ने प्रदान किया। इसलिए कहानी का उपयुक्त शीर्षक 'ईमानदारी का फल' भी हो सकता है। प्रश्न 6. 2. अलोपीदीन अनुभवी व्यक्ति थे। जो व्यक्ति चालीस हजार की रिश्वत ठुकरा सकता है, वह कितना ईमानदार एवं कर्तव्यपरायण होगा। ऐसा विश्वासपात्र व्यक्ति उन्हें फिर कहाँ मिल सकता था ? इसीलिए उन्होंने वंशीधर को अपनी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त कर दिया। 3. अलोपीदीन बहुत बड़े जमींदार थे। उनके पास अनुचित उपायों से अर्जित ढेरों धन भी था। लेकिन इस सारे वैभव की सुरक्षा और सुप्रबंध के लिए मुंशी वंशीधर जैसे विश्वासपात्र कर्मचारी की आवश्यकता थी वैसा व्यक्ति मिलना आज के समाज में बहुत कठिन था। अत: अलोपीदीन ने एक परखे हुए व्यक्ति (वंशीधर) को सबसे उपयुक्त पात्र माना। वंशीधर को मैनेजर बनाकर पंडित अलोपीदीन का स्वार्थ तो सिद्ध हो ही गया, पाप का प्रायश्चित भी हो गया। कहानी का अन्त मेरे अनुसार कहानी का अन्त सर्वथा उचित है। कहानीकार का उद्देश्य धन पर धर्म की, अन्याय पर न्याय की और बेईमानी पर ईमानदारी की विजय दिखाना है। कहानी का अन्त इन सारे उद्देश्यों को पूरा करता है। अत: मैं भी कहानी का अन्त इसी रूप में करना चाहता। पाठ के आस - पास - प्रश्न 1. प्रश्न 2. वर्तमान समय में भी कई पद इस प्रकार के हैं जिनमें ऊपरी आमदनी बहत है। आयकर अधिकारी, व्यापार कर अधिकारी, सीमाशुल्क अधिकारी के साथ - साथ कुछ पद ऐसे भी हैं जिनमें अधिकतर रौब - रुतबा एवं ऊपरी आमदनी बहुत अधिक है। पुलिस विभाग में उच्चाधिकारी, जिले के कलक्टर या मुख्य विकास अधिकारी का पद इसी श्रेणी का है। इन पदों के अधिकार भी हैं और ऊपरी आमदनी भी। अतः लोग इन पदों को पाने के लिए ललचाते हैं। प्रश्न 3. प्रश्न 4. (क) जब आपको पढ़ना - लिखना व्यर्थ लगा हो। ... कभी - कभी व्यक्ति को ऐसा लगता है कि उसकी पढ़ाई - लिखाई व्यर्थ है क्योंकि जीवन के वास्तविक अनुभव से वह शून्य है। बाहुबली जब किसी पढ़े - लिखे को धमकाते हैं और अपना रौब गालिब करते हैं, तब मुझे लगता है कि पढ़ाई - लिखाई व्यर्थ है। गुण्डों की समाज में धाक है, पढ़े - लिखों को कोई पूछता नहीं। (ख) जब आपको पढ़ना - लिखना सार्थक लगा हो मेरे परिवार में मेरे पिता एक सफल वकील हैं। बड़े भाई डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर हैं और मेरी माँ भी कॉलेज की प्रधानाचार्या हैं। इसे देखकर मुझे लगा कि शिक्षा प्राप्त करना कभी व्यर्थ नहीं हो सकता। (ग) पढ़ना - लिखना' शिक्षा के अर्थ में प्रयुक्त है, साक्षरता के अर्थ में नहीं। शिक्षा और साक्षरता समानार्थी नहीं हैं। जिसे केवल अक्षर ज्ञान हो और जो अपना नाम लिख लेता हो, किताब पढ़ सकता हो वह साक्षर होता है, किन्तु जो ज्ञानवान् है, शिक्षित है, विवेकवान् है उसे लोग पढ़ा - लिखा कहते हैं। प्रश्न 5. प्रश्न 6. समझाइये तो जरा - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. भाषा की बात - प्रश्न 1. 2. लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे से युक्त भाषा
3. हिन्दी - उर्दू के बोलचाल के शब्दों का प्रयोग - घूस, बरकन्दाजी, फारसीदां, रोजगार, कगारे का वृक्ष, पीर का मजार, आमदनी, बरकत, गरजवाला, कलवार, गोलमाल, . तमंचा, काना - फूसी, सदाव्रत, दारोगा, लिहाफ, नमकहराम, हिरासत, हुक्म, रौब, मुख्तार, पैरों तले कुचलना, जीभ चलना, बिना मोल के गुलाम, गवाह, दंडवत्। चित्रात्मक भाषा के प्रयोग से पूरा दृश्य आँखों के समक्ष आ जाता है जबकि लोकोक्तियों एवं मुहावरों के प्रयोग से भाषा की अभिव्यक्ति - क्षमता में वृद्धि हुई है। बोल - चाल के शब्दों का प्रयोग होने से भाषा में अद्भुत रवानगी एवं प्रवाह आ गया है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. (ख) सरकारी हुक्म! ऐसा कहकर वंशीधर ने अलोपीदीन को यह बताना चाहा कि मैं सरकारी हुक्म से आपकी गाड़ियाँ रोक रहा हूँ। नमक का व्यवसाय गैर - कानूनी है और नमक ले जाने पर पाबंदी सरकार ने लगा रखी है। हम तो सरकारी हुक्म के गुलाम हैं, इस वाक्य का अर्थ होगा कि हम वही करते हैं जो सरकार चाहती है। (ग) दातागंज के ! जब वंशीधर ने पूछा कि गाड़ियाँ किसकी हैं ? तो उत्तर मिला पंडित अलोपीदीन की और जब पूछा कि कौन पंडित अलोपीदीन ? तो बताया गया दातागंज के। अर्थात् पंडित अलोपीदीन दातागंज (मोहल्ले) के निवासी थे। यदि इसे इस प्रकार प्रयुक्त करें दातागंज कहाँ है ? तब इसका अर्थ होगा कि दातागंज मोहल्ला किस शहर में है ? उसका नाम बताओ। (घ)कानपुर ! गाड़ियाँ कहाँ जाएँगी ? उत्तर मिला कानपुर। अर्थात् गाड़ियों का गंतव्य स्थान कानपुर था। यदि यह पूछा जाता . कि कानपुर में आपकी क्या रिश्तेदारी है तो इसका उत्तर कुछ और होता। तब हम यह जानना चाहते हैं कि कानपुर से हमारा सम्बन्ध क्या है ? इससे स्पष्ट है कि संदर्भ बदलने से एक ही वाक्य के अर्थ बदल जाया करते हैं। RBSE Class 11 Hindi नमक का दारोगा Important Questions and Answersअति लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. दीर्घ उत्तरात्मक प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. भले ही इन्हीं गुणों के कारण उन्हें प्रारम्भ में कठिनाई हुई, उनकी नौकरी छूट गई, पिता से खरी - खोटी सुननी पड़ी और पत्नी ने भी सीधे मुँह बात तक न की, अन्तत: अपनी ईमानदारी से ही वे अलोपीदीन को परास्त कर सके। अलोपीदीन ने इसी ईमानदारी पर प्रसन्न होकर उन्हें एक ऊँचे वेतन वाली नौकरी देते हुए अपनी जायदाद का स्थायी प्रबन्धक नियुक्त कर दिया। प्रश्न 2. प्रश्न 3. अदालत ने उन्हें फटकार लगाई, विभाग ने मुअत्तल कर दिया, पिता ने खरी - खोटी सुनाई और पत्नी ने सीधे मुँह बात तक न की, किन्तु वे अपने कर्तव्यपथ से विचलित नहीं हुए। इसी का परिणाम यह हुआ कि अलोपीदीन स्वयं उनके घर आए, उनकी ईमानदारी से प्रभावित होकर अपनी जायदाद का स्थायी प्रबन्धक नियुक्त कर दिया और ऊँचे वेतन वाली सुविधा सम्पन्न नौकरी उन्हें प्रदान कर दी। यह कहानी हमें "सत्यमेव जयते" का पाठ पढ़ाती है। वंशीधर की तरह यदि हम भी सत्य, ईमानदारी एवं कर्तव्यपरायणता पर डटे रहें तो उसका पुरस्कार हमें किसी - न - किसी दिन अवश्य मिलेगा। यही बताना कहानीकार का उद्देश्य है। प्रश्न 4. प्रेमचन्द जी ने इस कथानक के अन्तिम भाग को आदर्शवादी रूप प्रदान किया है। वंशीधर का नमक के दारोगा के रूप में अलोपीदीन की गाड़ियों को पकड़ना और उन्हें हिरासत में लेना, कोर्ट द्वारा वंशीधर को फटकार तथा अलोपीदीन की बाइज्जत रिहाई, विभाग द्वारा वंशीधर को निलम्बित करना और वंशीधर के पिता द्वारा पुत्र को खरी-खरी सुनाना-यहाँ तक का घटनाक्रम पूर्णत: यथार्थवादी है, किन्तु इसके बाद का घटनाक्रम आदर्शवादी है। पंडित अलोपीदीन का वंशीधर के घर आकर यह आग्रह करना कि आप मेरी जायदाद और जमींदारी के स्थायी प्रबन्धक का दायित्त्व स्वीकार करें और वंशीधर का थोड़ी हिचक के बाद इसे स्वीकार कर लेना--पूर्णत: आदर्शवादी घटनाक्रम है। प्रश्न 5. धन की ताकत से वे भलीभाँति परिचित हैं, किन्तु जब इसी ताकत के होते हुए भी वे वंशीधर को नहीं खरीद पाते तो अपने को पराजित अनुभव करते हैं। उनमें आदमी को पहचानने की विलक्षण क्षमता है। वंशीधर की ईमानदारी एवं नैतिकता को पहचानकर और उन्हें। अपनी जायदाद का स्थायी प्रबन्धक नियुक्त कर, उन्होंने गुणग्राहक होने का परिचय दिया है। उनकी समझदारी, उदारता एवं गुण-ग्राहकता उन्हें खलनायक होने से बचा लेती है और अन्त में वे पाठकों के प्रिय पात्र बन जाते हैं। नमक का दारोगा Summary in Hindiलेखक परिचय : हिन्दी कथा - साहित्य के शिखर पुरुष मुंशी प्रेमचन्द का जन्म सन् 1880 में वाराणसी के समीपवर्ती गाँव लमही में हुआ था। आपका वास्तविक नाम धनपतराय था। आपने बी. ए.तक शिक्षा प्राप्त की। आपने नवाब राय नाम से उर्दू में लेखन प्रारम्भ किया। आपका पहला कहानी संग्रह 'सोजेवतन' राष्ट्रप्रेम और क्रान्तिकारी भावनाओं से ओत-प्रोत था। अत: अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया। आप उस समय सरकारी सेवा में थे, अत: अपनी पहचान छिपाए रखने के लिए आप उर्दू छोड़कर हिन्दी में कहानियाँ लिखने लगे और ये कहानियाँ आपके 'प्रेमचन्द' नाम से छपी। तब से आपका यही नाम चलने लगा। प्रेमचन्द की कहानियों में ग्रामीण-जीवन तथा पात्रों का यथार्थ चित्रण है। उन्होंने बचपन से ही गरीबी को देखा था और भूख की पीड़ा सहन की थी। प्रेमचन्द के पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था। आपकी कहानियों में समाज के शोषित और दलित वर्ग के दयनीय जीवन का जीवन्त चित्रण है। आपने अपने कथा-साहित्य द्वारा श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों को पूरा समर्थन प्रदान किया। आपका देहावसान सन् 1936 में हो गया। कृतियाँ-आपकी प्रमुख कृतियाँ निम्न प्रकार हैं उपन्यास-सेवासदन, रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, कायाकल्प, निर्मला, प्रेमाश्रम, गोदान। 'कहानी संग्रह-प्रेमचन्द ने लगभग 300 कहानियाँ लिखी जो 'मानसरोवर' नाम से आठ खण्डों में संग्रहीत हैं। आपकी प्रसिद्ध कहानियाँ नमक का दारोगा, पंच परमेश्वर, ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी तथा मन्त्र आदि हैं। पाठ-सारांश : 'नमक का दारोगा' हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित एक आदर्शवादी कहानी है, जिसमें कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि ईमानदारी, नैतिकता एवं कर्त्तव्यपरायणता जैसे मूल्य अभी समाप्त नहीं हुए हैं और इन मूल्यों पर चलने वालों को अन्तिम विजय अवश्य प्राप्त होती है। इस कहानी का सारांश निम्न प्रकार है मुंशी वंशीधर एक गरीब परिवार के युवक थे। उनकी नियुक्ति नमक विभाग में दारोगा पद पर हो गई। उनके पिता चाहते थे कि मेरा पुत्र ऊपरी आमदनी करके घर की आर्थिक स्थिति को ठीक कर दे, जिससे ऋण का बोझ समाप्त हो सके और लड़कियों की शादी की जा सके। किन्तु वंशीधर एक कर्त्तव्यपरायण एवं ईमानदार अफसर थे। पिता को जब यह सूचना मिली कि उनके पुत्र की नियुक्ति नमक के दारोगा पद पर हो गई है तो वे फूले नहीं समाए, क्योंकि इस नौकरी में ऊपरी आमदनी की पर्याप्त सम्भावना थी। वंशीधर कर्त्तव्यपरायण एवं ईमानदार अफसर थे। थोड़े ही दिनों में अपनी कार्य-कुशलता से उन्होंने विभागीय अफसरों को प्रसन्न कर लिया और वे विभाग के एक विश्वस्त अफसर के रूप में प्रसिद्ध हो गए। जिस स्थान पर उनकी नियुक्ति हुई वहाँ पण्डित अलोपीदीन सबसे प्रतिष्ठित जमींदार एवं व्यापारी थे। लाखों का लेन-देन, लम्बा-चौड़ा व्यापार। एक रात उनकी कई गाड़ियाँ, जिनमें नमक लदा हुआ था, वंशीधर ने पकड़ लीं, क्योंकि नमक पर प्रतिबन्ध लगा था। अलोपीदीन ने उन्हें रिश्वत देकर गाड़ियाँ छुड़ानी चाही किन्तु वंशीधर ने एक न सुनी। रिश्वत एक हजार से बढ़ाकर चालीस हजार तक देने की बात अलोपीदीन ने कही, किन्तु वंशीधर टस-से-मस न हुए और उन्होंने पण्डित अलोपीदीन को गिरफ्तार कर लिया। अलोपीदीन चलते-पुरजे व्यक्ति थे। अधिकारी उनके भक्त, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक थे। मुकदमा अदालत में पहुँचा और डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपना फैसला अलोपीदीन के पक्ष में सुनाया। अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया और वंशीधर को उद्दण्ड, विचारहीन बताते हुए चेतावनी दी कि व्यर्थ में भलेमानुषों को इस तरह बिना सोचे-विचारे तंग न करें। वकील प्रसन्न हो गए। अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। वंशीधर पर चारों ओर से व्यंग्य बाणों की बौछार होने लगी। धनवान् व्यक्ति से बैर मोल लेने का नतीजा वंशीधर को भुगतना पड़ा। विभाग ने भी उन्हें निलम्बित कर दिया। कर्त्तव्यपरायणता का दण्ड उन्हें भुगतना पड़ रहा था, अत: वे निराश, दुःखी एवं व्यथित थे। घर पर पहुँचे तो पिता ने भी खूब खरी-खोटी सुनाई, पत्नी ने तो कई दिनों तक सीधे मुँह बात तक नहीं की। एक सप्ताह बाद पण्डित अलोपीदीन सजे हुए रथ पर सवार होकर कई नौकरों के साथ वंशीधर के घर पर आए। उनके पिता ने अपने बेटे की नालायकी का उल्लेख करते हुए अलोपीदीन की अगवानी की और कहा-“लड़का अभागा है, कपूत है नहीं तो आपसे मुझे आज मुँह कहाँ छिपाना पड़ता" ? अलोपीदीन ने उन्हें रोकते हुए कहा- “आप ऐसा न कहें। संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं, जो धर्म पर अपना सब कुछ न्योछावर कर सकें। पण्डित अलोपीदीन ने वंशीधर के समक्ष यह स्वीकार किया कि उन्होंने धन-बल से बड़े-बड़े अधिकारियों को परास्त किया, किन्तु आपकी कर्तव्यपरायणता, नैतिकता एवं ईमानदारी से मैं परास्त हो गया हूँ। वंशीधर ने विनम्रता दिखाते हुए कहा कि मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, इसीलिए आपको गिरफ्तार करना पड़ा, अन्यथा मैं आपका दास हूँ। आप जो आज्ञा देंगे, अवश्य पूरी करूँगा। पण्डित अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ कागज निकाला। इस पत्र पर वंशीधर को उन्होंने अपनी सम्पूर्ण जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त किया था। छः हजार वार्षिक वेतन और अन्य सारी सुविधाएँ-नौकर-चाकर, सवारी, घोड़े-गाड़ी, बंगला-सब मुफ्त। अलोपीदीन ने कहा, मुझे ऐसा ईमानदार व्यक्ति तो चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। वंशीधर ने कहा, मैं इस पद के योग्य नहीं हूँ। तब अलोपीदीन ने कहा मुझे आप जैसे अयोग्य की ही जरूरत है, वंशीधर ने उस कागज पर हस्ताक्षर कर दिए और वह पद स्वीकार कर लिया। अलोपीदीन ने उन्हें गले से लगा लिया। कठिन शब्दार्थ :
सप्रसंग व्याख्याएँ एवं अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - 1. यह वह समय था, जब अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरहकथा समाप्त करके मजनू और फरहाद के प्रेम - वृत्तान्त को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्त्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे - बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास - फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पडूं। अब तुम्हीं घर के मालिक - मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते - घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है। तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ? इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में वंशीधर के नौकरी की खोज में घर से निकलने के समय का वर्णन है। व्याख्या - जिस समय मुंशी वंशीधर नौकरी की खोज में घर से चले उस समय भारतीय लोग अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्म को एक ही बात मानते थे। जो भी भारतीय अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करता था, उसे लोग विधर्मी जैसा ही समझते थे। उस समय अच्छी नौकरियाँ पाने के लिए फारसी भाषा की प्रेम कथाएँ पढ़ लेना काफी समझा जाता था। फारसी के ज्ञाता को ऊँचे से ऊँचा पद मिल जाया करता था। मुंशी वंशीधर ने भी फारसी की जुलेखा, मजनू और फरहाद आदि की प्रेम कथाएँ पढ़ ली थी। उनको ये कथाएँ उस समय के युद्ध और आविष्कारों से भी अधिक महत्वपूर्ण लगती थीं। घर से चलते समय उनके पिता ने उन्हें व्यावहारिक महत्व की सीखें दीं। उन्हें समझाया कि परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। वह कर्ज में दबे हुए थे। लड़कियाँ बड़ी हो रही थीं। उनकी अवस्था भी बहुत हो चुकी थी। इसलिए ऊँचे पद पर अधिक ध्यान मत देना। जैसे किसी पीर के मजार (समाधि स्थल) पर रहने वाला व्यक्ति उस पर आने वाले चढ़ावे की आमदनी पर ध्यान देता है, उसी तरह नौकरी भी ऐसी होनी चाहिए जिसमें ऊपरी आमदनी अधिक हो। मासिक वेतन तो एक दिन ही पूरा दिखाई देता है और फिर खर्च होता चला जाता है। ऊपर की आमदनी सदा बहते रहने जलधारा के समान होती है। प्यास उसी से बुझा करती है। वेतन आदमी देता है और ऊपरी आमदनी ईश्वर की कृपा से होती है। इसलिए आदर्शों पर अधिक ध्यान मत देना। पिता ने कहा कि वह तो स्वयं ही बहुत समझदार है। नौकरी का चुनाव करते समय आदमी को व्यावहारिकता और विवेक पर ध्यान देना चाहिए। विशेष - कहानीकार ने अपने समय के अनुसार जो शिक्षा वंशीधर को दिलवाई है, वर्तमान में भी इसी प्रवृत्ति का प्राबल्य है। प्रश्न : 2. पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले - चलो, हम आते हैं। यह कहकर पंडित जी ने बड़ी निश्चितता से पान के बीड़े लगाकर खाए। फिर लिहाफ़ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले - बाबूजी, आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन - सा अपराध हुआ कि गाड़ियाँ रोक दी गईं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा - दृष्टि रहनी चाहिए। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में कर चोरी करके नमक ले जा रहे पं. अलोपीदीन की गाड़ियों को दारोगा वंशीधर ने हिरासत में ले लिया है और वह अलोपीदीन की चिकनी - चुपड़ी बातों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। व्याख्या - पं. अलोपीदीन उस क्षेत्र के एक नामी जमींदार थे। पैसे के बल पर. उनकी हर सरकारी विभाग में धाक थी। अलोपीदीन का मानना था कि लक्ष्मी अर्थात् धन से हर काम इच्छानुसार कराया जा सकता था। उनका कहना था कि मनुष्य लोक में ही नहीं स्वर्ग लोक में भी लक्ष्मी की धाक है। लेखक के अनुसार अलोपीदीन का ऐसा कहना सच था। समाज में न्याय और नीति के अनुसार चलने की बातें तो खूब होती हैं परन्तु सच्चाई यही है कि लक्ष्मी (धन) इन सबको कठपुतली की भाँति नचाती रहती है। धन के बल पर न्यायालय के फैसले अपने पक्ष में कराये जा सकते हैं। नैतिकता की बड़ी - बड़ी बातें करने वाले भी धन के हाथों बिक जाते हैं। जब नमक विभाग के दारोगा बन गए मुंशी वंशीधर ने एक रात को अलोपीदीन को रंगे हाथों नमक पर कर की चोरी करते नदी किनारे पकड़ लिया तो गाड़ीवान इसकी सूचना देने अलोपीदीन के पास पहुँचे। अलोपीदीन रथ में लेटे हुए थे। लेटे ही लेटे बड़े बेफिक्री से कहा कि वे (गाड़ीवान) चलें, वह (अलोपीदीन) आ रहे हैं। इसके बाद पं. अलोपीदीन ने पान के बीड़े मुंह में दबाए, लिहाफ ओढ़ लिया और दारोगा के पास पहुँचकर पहले तो दारोगा को आशीर्वाद दिया और फिर दिखावटी विनम्रता से कहा कि वह तो गरीब ब्राह्मण है। उन पर तो दारोगा जी की कृपा दृष्टि होनी चाहिए। उनसे क्या गलती हो गई जो उनकी गाड़ियाँ रोक ली गई हैं। विशेष - 1. पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर को भी 'नमक हरामी' में लिप्त साधारण कर्मचारी समझा। यह उनकी पहली और बहुत बड़ी गलती थी। प्रश्न : 3. वंशीधर रुखाई से बोले - सरकारी हुक्म ! संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में पं. अलोपीदीन दारोगा वंशीधर को धन के बल पर खरीदना चाहता है लेकिन वंशीधर पर इस धन की शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। व्याख्या - जब अलोपीदीन ने दारोगा वंशीधर से पूछा कि उनसे कौन - सा अपराध हो गया था कि उनकी नमक से भरी गाड़ियाँ रोक दी गईं तो वंशीधर ने रूखेपन से उत्तर दिया कि सरकार का हुक्म था कि नमक की चोर - बाजारी को सख्ती से रोका जाए। सौदेबाजी में कुशल अलोपीदीन ने बड़ी विनम्र वाणी में कहा कि वे किसी सरकार और सरकारी हुक्म को नहीं जानते। उनकी सरकार और सरकारी हुक्म तो दारोगा जी ही थे। रिश्वत की पेशकश करते हुए वंशीधर ने कहा कि उनके और दारोगा साहब के तो घर के से संबंध हैं। वह भला उनकी उपेक्षा कैसे कर सकते थे। वह व्यर्थ में आधी रात में उठकर नदी किनारे तक आए। उनकी भेंट तो स्वयं ही उनके पास पहुँच जाती। भला यह कैसे हो सकता है कि हम नदी के घाट से होकर जाएँ और वहाँ के अधिकारी को भेंट चढ़ा के न जाएँ। अलोपीदीन ने कहा कि वह तो स्वयं ही दारोगा जी के पास सेवा करने आ रहे थे। रिश्वत की दुनिया के सारे दाव - पेंच अलोपीदीन जानते थे। परन्तु इस बार उनका पाला एक ईमानदार नौजवान से पड़ा था। उन्होंने कड़ककर कहा कि वह उन भ्रष्ट कर्मचारियों में से नहीं है जो जरा - जरा - सी रिश्वत के लिए अपना ईमान बेच देते हैं। उन्होंने अलोपीदीन से कहा कि उनको हिरासत में लेने का हुक्म हो गया था। उनका अगले दिन बाकायदा चालान होगा। उन्होंने अपने अधीनस्थ कर्मचारी बदलू सिंह को आदेश दिया कि वह अलोपीदीन को हिरासत में लेकर चले। विशेष : प्रेमचंद ने अपने समय के भ्रष्ट व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों के चाल - चलन की जीवंत झाँकी प्रस्तुत की है। वहीं वंशीधर जैसे चरित्रवान युवकों का आत्मविश्वास बढ़ाया है। प्रश्न : 4. पंडित अलोपीदीन स्तंभित हो गए। गाड़ीवानों में हलचल मच गई। पंडित जी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को यह ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं। बदलू सिंह आगे बढ़ा किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उदंड लड़का है। माया - मोह के जाल में अभी नहीं पड़ा। अल्हड़ है, झिझकता है। बहुत दीन - भाव से बोले - बाबू. साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी! हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण हमारी पाट्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अवतरण में पं. अलोपीदीन के धन पर आधारित अहंकार के नष्ट होने का वर्णन हुआ है। व्याख्या - अलोपीदीन को धन की शक्ति पर अटूट विश्वास था। उन्होंने इसी बल पर दारोगा वंशीधर को भी खरीदना चाहा था। लेकिन वंशीधर की चरित्रनिष्ठा के आगे उनका अहंकार चूर - चूर हो गया? वह दारोगा के व्यवहार से चकित और असहाय से हो गए। गाड़ीवानों ने भी ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था। वे भी घबरा गए। इससे पहले लक्ष्मी जी के उपासक पंडित अलोपीदीन को एक साधारण सरकारी कर्मचारी से ऐसी कठोर बातें नहीं सुननी पड़ी थीं। उनके धनबल के सामने बड़े - बड़े अधिकारी भी परास्त होते रहे थे। धर्म या सदाचार द्वारा धन का ऐसा अपमान होते उन्होंने पहली बार देखा था। लेकिन पंडित जी ने हार नहीं मानी। उन्होंने सोचा कि अभी दारोगा में जवानी और ईमानदारी का जोश है और धन से मिलने वाली जीवन की सुख - सुविधाओं के मोह जाल में नहीं पड़ा है। अभी रिश्वत लेने में झिझक रहा है। अत: अलोपीदीन ने तुरंत नया पैंतरा बदला। अलोपीदीन वह बड़ी दीनता दिखाते हुए बोले कि दारोगा साहब ऐसा न कीजिए। हिरासत में देखकर लोग उनकी हँसी उड़ाएंगे। उनकी इज्जत धूल में मिल जाएगी। इस व्यवहार से आपको क्या लाभ मिलेगा? वह उनके (दारोगा के) आदेश से बाहर नहीं रहेंगे। पूरी कीमत चुकाएँगे। लेकिन दारोगा ने अलोपीदीन को कठोरता से फटकार दिया। विशेष - यद्यपि आज के समाज में भ्रष्ट आचरण का बोलबाला है। रिश्वत का लेन - देन साधारण सी बात समझी जाती है। किन्तु चरित्रवान लोग पहले भी थे और आज भी हैं। विजय धर्म को ही होती है। यही संदेश इस अवतरण में दिया गया है। प्रश्न : 5. वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा - हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'न' का दारोगा' से लिया गया है। इस गद्यांश में कहानीकार ने दारोगा की ईमानदारी के आगे अलोपीदीन के धन - बल को परास्त होत खाया है। व्याख्या - जब कर चोरी में अलोपीदीन पकड़े गए और दारोगा बंशीधर ने उन्हें हिरासत में लेने का आदेश दिया तो वह घबरा गए। उन्होंने वंशीधर को पटाने के लिए बड़ी दीनता से प्रार्थना की और पैसे की पेशकश भी की। किन्तु जब दारोगा ने कठोर रुख दिखाया तो अलोपीदीन के पैरों के नीचे जमीन खिसकने लगी। वह तो अब तक समझते थे कि पैसा हर समस्या को हल कर सकता है। किन्तु दारोगा के व्यवहार से उनके धन का घमण्ड चूर हो गया। इसके साथ ही उनके स्वाभिमान को भी चोट लगी। फिर भी अलोपीदीन ने हथियार नहीं डाले। उन्हें धन की संख्या बढ़ाकर दारोगा को वश में कर लेने का विश्वास था। उन्होंने अपने कर्मचारी से कहा कि वह दारोगा को एक हजार रुपये भेंट करे। उस समय एक हजार रुपये बड़ी रकम होतो थी। उन्होंने व्यंग्य भी किया कि दारोगा भूखे शेर के समान रिश्वत का भूखा था। इसीलिए कड़ाई दिखा रहा था। विशेष - चरित्रवान व्यक्तियों के लिए रुपया एक तुच्छ वस्तु होती है। वे पैसे के लिए आत्मसम्मान को दाँव पर नहीं लगाते। प्रश्न : 6. वंशीधर ने गरम होकर कहा - एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में कहानीकार ने चरित्रबल व धनबल के बीच संग्राम दिखाते हुए, चरित्रवान वंशीधर को विजयी दिखाया है। व्याख्या - जब अलोपीदीन ने अपने मुख्तार से वंशीधर को एक हजार रुपये देने को कहा तो वंशीधर भड़क गये और बोले कि एक हजार तो क्या आप मुझे एक लाख भी रिश्वत दें तो भी वह सच्चाई के मार्ग से नहीं डिग सकते। लेखक कहता है कि उस रिश्वत और घूसखोरी के आलम में वंशीधर का इतनी बड़ी रकम को ठुकराना उनकी मूर्खता ही मानी जाती। इतना बड़ा त्याग तो देवता भी नहीं कर सकते। अपनी धनशक्ति का धर्माचरण पर दृढ़ वंशीधर द्वारा तिरस्कार होता देख अलोपीदीन को बड़ी झुंझलाहट हुई। अब तो एक नया ही दृश्य उपस्थित हो गया। धर्मशक्ति और धनशक्ति के बीच संग्राम सा छिड़ गया। अलोपीदीन ने एक हजार से पाँच हजार, पाँच हजार से दस, पन्द्रह और बीस हजार तक धनराशि बढ़ा दी। परंतु धन के इन आक्रमणों का धर्म पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। वंशीधर अपनी आन पर पर्वत के समान अडिग खड़े थे। धर्म के ब्रह्मास्त्र से उन्होंने धन के सारे प्रहार विफल कर दिए। अलोपीदीन थक गए। हथियार डाल दिए। बोले कि इससे अधिक धन देने की उनमें शक्ति नहीं थी। लेकिन यह कुछ क्षण भर का युद्ध विराम था। विशेष - धन के उपासकों को वंशीधर का आचरण भले ही उनकी मूर्खता लगे लेकिन ऐसे ही चरित्रवान लोगों पर आज भी दलित, पीड़ित और सदाचारी लोगों की आशाएँ टिकी हुई हैं। प्रश्न : 7. वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलू सिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा। पंडित घबराकर दो - तीन कदम पीछे हट गए। अत्यन्त दीनता से बोले - 'बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूँ। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में अलोपीदीन द्वारा रिश्वत की रकम चालीस हजार तक ले जाने और वंशीधर द्वारा ठुकरा देने का वर्णन है। व्याख्या - वंशीधर ने रुष्ट होकर अपने जमादार को ललकार कर कहा कि वह तुरंत अलोपीदीन को हिरासत में ले ले। जमादार बदलू सिंह दारोगा की हठ देखकर उसे कोस रहा था। अगर दारोगा अलोपीदीन से घूस ले लेता तो जमादार को भी कुछ इनाम पाने की आशा थी। अत: वह मन ही मन वंशीधर को गालियाँ देता हुआ अलोपीदीन की ओर बढ़ा। उसे अपनी ओर आते देखकर अलोपीदीन घबराकर दो - तीन कदम पीछे हट गए। बड़ी दीनता दिखाते हुए बोले कि मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार रुपयों पर मामला निपटाने को तैयार हूँ। लेकिन दारोगा वंशीधर ने चालीस लाख पर भी अपना कर्तव्य - धर्म न छोड़ने की घोषणा कर दी। बदलू सिंह से कहा कि अब वह इस बारे में एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते। वह तुरंत उस आदमी को हिरासत में ले। आखिरकार धर्म, धन पर विजयी हो गया। धन को धर्म ने पद - दलित कर डाला। जब अलोपीदीन ने बदलू सिंह को अपनी ओर हथकड़ियाँ लिए आते देखा तो वह बड़े असहाय और निराश होकर चारों तरफ देखने लगे। इतना बड़ा अपमान नहीं सह सके और वहीं मूर्छित होकर गिर पड़े। विशेष - ऐसे दृश्य आजकल दुर्लभ हो चुके हैं। आज तो आदमी पैसे के बदले कुछ भी करने को तैयार रहता है। अवतरण से यही संदेश मिलता है कि देश आज भी वंशीधर जैसे कर्मचारी चाहता है। प्रश्न : 8. दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक - वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका - टिप्पणी कर रहा था, निन्दा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोज़नामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफ़र करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साहूकार, यह सब - के - सब देवताओं की भाँति गरदनें चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गरदन झुकाए अदालत की तरफ़ चले, तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित् आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में पण्डित अलोपीदीन की गिरफ्तारी पर जनता की प्रतिक्रिया दिखाई गई है। व्याख्या - जब शहर के लोगों को पता चला कि पंडित अलोपीदीन नमक की चोर - बाजारी में गिरफ्तार हो गए थे, तो सारे शहर में हलचल - सी मच गई। भ्रष्टाचार और रिश्वत की ओर ध्यान न देने वाले साधारण लोग भी अलोपीदीन के इस कारनामे पर टीका - टिप्पणी कर रहे थे। भले - बुरे सभी की जबान आलोचना करने में लगी हुई थी। लोग इतने बड़े आदमी के द्वारा नमक कर की चोरी करने पर धिक्कार रहे थे। ऐसा लगता था कि जैसे संसार में केवल अलोपीदीन ने ही पाप किया था और सभी पापियों का पाप माफ हो गया था। जो खुद बेईमानी, धोखाधड़ी, मिलावट और सूदखोरी करने वाले लोग थे, वे भी उस समय देवता बने हुए थे। अपने पापों को भूल गए थे। दूध में पानी मिलाकर बेचने वाला ग्वाला, जाली डायरी भरने वाले अधिकारी, रेलगाड़ी में बिना टिकट चलने वाले सभ्य लोग, जाली कागजात तैयार करके कर्जदारों को ठगने वाले सेठ - साहूकार सभी इस समय परम धर्मात्माओं की तरह गरदन चला - चलाकर अलोपीदीन के कार्य की निंदा कर रहे थे। जब अगले दिन पुलिस द्वारा गिरफ्तार होकर अलोपीदीन अपराधी की तरह हथकड़ियाँ पहने बाजार से निकले तो उनका मन ग्लानि और लज्जा से तार - तार हो रहा था। लज्जा और क्षोभ से उनका सिर झुका हुआ था। उनको देखने के लिए गली, बाजार और ' छतों पर भीड़ इकट्ठी हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे सारा शहर सड़कों पर आ गया हो। मेलों में भी लोग किसी वस्तु को देखने लिए इतने बेचैन नहीं होते जितना अपराधी के रूप में जा रहे आलोपीदीन को देखने के लिए हो रहे थे। दीवारों पर, छतों पर और जमीन पर जिधर देखो उत्सुक लोगों की भीड़ लगी थी। विशेष - कहानीकार ने इस दृश्य की योजना के द्वारा भारतीय समाज के विचित्र आचरण के दर्शन कराए हैं। प्रश्न : 2. अलोपीदीन की आलोचना करने वालों में समाज के हर स्तर और चरित्र के लोग सम्मिलित थे। दूध में पानी मिलाकर ग्राहकों की जेब काटना, फर्जी डायरियाँ भरकर भत्ते बनाना, जाली कागजात बनाकर सीधे - सादे लोगों की जमीन - जायदाद पर कब्जा करना या मनमानी ब्याज वसूलना, रेल में बिना टिकट यात्रा कर रेलवे विभाग को चूना लगाना, क्या ये सभी काम अपराध की श्रेणी में नहीं आते ? लेकिन अलोपीदीन के पकड़े जाने पर ये सारे भ्रष्ट - चरित्र वाले लोग देवताओं के समान पवित्र बन रहे थे और गरदने हिला - हिलाकर पंडित अलोपीदीन के आचरण पर टीका - टिप्पणी कर रहे थे। 3. पंडित अलोपीदीन अपने इलाके के बहुत बड़े जमींदार और दबदबे वाले व्यक्ति थे। धन के बल पर उन्होंने सरकारी अधिकारी और कर्मचारी सभी को अपना मुरीद बना रखा था। वह कानून के अनुसार नहीं बल्कि कानून उनके अनुसार चलता था। ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति को साधारण अपराधी की तरह हथकड़ी पहने और गरदन झुकाए रास्ते पर चलते देखकर व सुनकर शहर में हलचल मचना स्वाभाविक था। 4. अलोपीदीन अपने इलाके के बहुत बड़े जमींदार और धनी व्यक्ति थे। अपने पैसे के बल पर उन्होंने जनता में ही नहीं सरकारी विभागों में भी दबदबा कायम कर रखा था। लेकिन एक साधारण से दारोगा से पराजित होने के कारण और सार्वजनिक रूप में हथकड़ियाँ पहने न्यायालय जाते हुए उनका मन लज्जा और ग्लानि से भरा हुआ था। उनका सिर झुका हुआ था। 9. सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करनेवाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किन्तु लोभ से डाँवाडोल। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। अदालत में न्याय का नाटक हुआ। वकील, गवाह और न्यायाधीश सब धन के गुलाम नजर आ रहे थे। इसी दृश्य को कहानीकार ने इस अंश में साकार किया है। व्याख्या - जब अलोपीदीन न्यायालय में पहुँचे तो वहाँ उपस्थित लोग उन्हें देखने को दौड़े चले आए। ये सभी लोग बड़े चकित हो रहे थे। ये लोग इसलिए आश्चर्य नहीं कर रहे थे कि अलोपीदीन ने ऐसा काम क्यों किया। ये तो इसलिए चकित हो रहे थे कि अलोपीदीन जैसा चतुर खिलाड़ी कानून के पंजे में कैसे फंस गया? अलोपीदीन के पास धन की कोई कमी नहीं थी। धन के बल पर तो बड़े - बड़े कठिन कार्य भी संपन्न हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अलोपीदीन वाक्पटुता से प्रभावित करने में भी बड़े कुशल थे। न्यायालय में विद्यमान हर व्यक्ति अलोपीदीन के प्रति सहानुभूति दिखा रहा था। शीघ्र ही कानून के बंधन काटने के लिए वकीलों की सेना तैयार की गई। अब न्यायालय में धर्म (वंशीधर) और धन (अलोपीदीन) फिर आमने - सामने थे। वंशीधर के साथ कोई नहीं था। सत्य आचरण ही उनका साथी था। सत्य और स्पष्ट बातों के अलावा उनके पास आत्मरक्षा के लिए कोई अन्य हथियार भी नहीं था। यद्यपि नदी किनारे हुई घटना के गवाह भी मौजूद थे लेकिन उनको पैसे से खरीदना बड़ा आसान था। इस प्रकार एक कर्तव्यनिष्ठ राजकर्मचारी को अपनी लड़ाई अकेले ही लड़नी थी। विशेष - गद्यांश में दिखाया गया न्यायालयों का वातावरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है। कानून का प्रयोग अपराधी की रक्षा के लिए होना, हमारी न्याय व्यवस्था पर आज भी एक प्रश्न - चिह्न बना हुआ है। प्रश्न : 2. सारा न्याय विभाग अलोपीदीन के पक्ष में एकजुट था। वंशीधर को केवल अपने सत्यनिष्ठ आचरण और स्पष्ट भाषण का सहारा था। उनके गवाह भी धन के हाथों बिक चुके थे। यहाँ तक कि स्वयं न्यायाधीश की सहानुभूति भी अलोपीदीन की ओर झुकी प्रतीत होती थी। यही कारण था कि बेचारे वंशीधर असहाय भाव से चुपचाप खड़े थे। 3. अलोपीदीन को कानूनी पंजे से बचाने के लिए न्यायालय में वकीलों की एक सेना तैयार की गई। 4. वंशीधर द्वारा लाए गए गवाहों के मन पैसों के लोभ से चलायमान थे। 10. यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ दीख पड़ता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल ? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं हैं, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दडंता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम से सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक से महकमे की बढ़ी हुई नमकहलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में न्यायालय में एक कर्तव्यनिष्ठ राजकर्मचारी के साथ हुए अन्याय का वर्णन है। न्यायाधीश ने वंशीधर को ही दोषी ठहरा दिया। व्याख्या - वंशीधर को लगा कि उनके साथ न्याय हो पाना कठिन है। न्यायालय तो न्याय का स्थान होता है किन्तु इस न्यायालय के हर कर्मचारी में अलोपीदीन के प्रति पक्षपात की भावना भरी हुई थी। जहाँ पक्षपात होगा वहाँ भला न्याय की आशा कैसे की जा सकती है। न्याय का यह नाटक थोड़ी ही देर में समाप्त हो गया। न्यायाधीश के आसन पर विराजमान डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपने निर्णय में लिखा कि दारोगा वंशीधर द्वारा अलोपीदीन पर लगाए गए आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण सही सिद्ध नहीं हुआ। ये सभी प्रमाण निराधार है और सही नीयत से प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। अलोपीदीन बहुत बड़े आदमी हैं। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि इतना संपन्न व्यक्ति थोड़ा - सा कर बचाने के लिए इतना खतरा मोल लेगा। मजिस्ट्रेट ने आगे लिखा था कि मुंशी वंशीधर का दोष बहुत अधिक नहीं था लेकिन उन्होंने मनमानी करते हुए जो कदम उठाया उसके कारण समाज के एक सज्जन व्यक्ति को अपमान का सामना करना पड़ा। अपने पक्षपात पर पर्दा डालने को न्यायाधीश ने कहा कि उन्हें प्रसन्नता है कि दारोगा वंशीधर अपने कर्तव्य पालन में तत्पर रहता है किन्तु नमक विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण उसकी बुद्धि और विवेक भी भ्रष्ट हो गए और उसने ऐसा निंदनीय कार्य किया। उसे भविष्य में बहुत सावधानी से कार्य करना चाहिए। विशेष : न्यायालयों में आज भी लगभग यही वातावरण है। वकीलों की फौज इकट्ठी करने में समर्थ, समाज के संपन्न लोगों ने न्याय को साधारण और सच्चे लोगों की पहुँच से बाहर कर दिया है। प्रश्न : 11. वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य - परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढे मुंशीजी तो पहले ही से कुड़बुड़ा रहे थे कि चलते - चलते इस लड़के को समझाया था लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठे और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे, लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में कर्तव्यनिष्ठ और सच्चाई पर दृढ़ रहने वाले दारोगा वंशीधर को पद से हटा दिए जाने और परिवार में उनके अपमान का वर्णन है। व्याख्या - धर्म और सच्चाई पर आरूढ़ दारोगा वंशीधर ने धनी व्यक्ति अलोपीदीन से शत्रुता मोल ली थी। उसका बदला तो उन्हें चुकाना ही था। एक सप्ताह ही बीता होगा कि उनको पद से बरखास्त कर दिया गया। कर्तव्यनिष्ठा के बदले बेचारे नवयुवक को दंड का पुरस्कार मिला। वंशीधर को इस विचित्र अनुभव ने भीतर तक झकझोर दिया। उनका हृदय टूट गया। बड़े दुखी मन से घर लौट आए। जब पिता को यह समाचार ज्ञात हुआ तो वह बहुत बड़बड़ाये। कहने लगे कि उन्होंने चलते - चलते इस लड़के को बहुत समझाया था लेकिन इसने मनमानी करके अपना जीवन खराब कर लिया। घर तो उधारी पर चल रहा है। हम तो रोज तकादे सहते हैं। भगत बनकर किसी तरह जीवन बिता रहे हैं। ऊपर की कोई आमदनी नहीं। कहीं सूखी तनख्वाह में घर चला करते हैं। पिता ने पुत्र की ईमानदारी पर भी व्यंग्य किया। विशेष - व्यवस्था और भ्रष्ट लोगों से टकराना सबके वश की बात नहीं। वंशीधर को जो दंड मिला वह हमारे देश के युवाओं को भविष्य के बारे में सोचने को मजबूर करता है। प्रश्न : 2. जब वंशीधर के पिता ने वंशीधर द्वारा अलोपीदीन को गिरफ्तार किए जाने के बारे में सुना तो उन्हें अपने लड़के के व्यवहार पर बहुत क्षोभ हुआ। वह पैसे को महत्त्व देते थे। उन्होंने घर से चलते समय वंशीधर को ऊपरी आमदनी को महत्त्व देने का उपदेश दिया था, लेकिन पुत्र ने इसके ठीक विपरीत आचरण किया। अत: उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। 3. पिता ने वंशोधर को समझाया था कि वह ऊँचे ओहदे पर ध्यान न दे। ऐसी नोकरी करे जिसमें ऊपरी आमदनी अच्छी हो। 4. इसका आशय यह है कि पूजा - पाठ में मन लगाकर रहना। 12. पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा - दारोगा जी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार - बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था किन्तु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा, किन्तु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ। वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया किन्तु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं। क्षमा - प्रार्थना करने की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुर - सुहाती की बात असह्य - सी प्रतीत हुई। पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन का मैल मिट गया। पंडितजी की ओर उड़ती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शरमाते हुए बोले - यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी, वह मेरे सिर - माथे पर। संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में अलोपीदीन द्वारा वंशीधर के सद्गुणों की प्रशंसा करने का वर्णन है। व्याख्या - दारोगा वंशीधर ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा की उमंग में पंडित अलोपीदीन के धन बल के अहंकार को चूर - चूर कर दिया था और उसके परिणामस्वरूप उन्हें अपनी नौकरी भी गँवानी पड़ी थी। परन्तु अलोपीदीन ने दारोगा के भीतर छिपे हीरे को पहचान लिया था। एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि अलोपीदीन वंशीधर के घर जा पहुंचे। वंशीधर ने सोचा कि ये महाशय उन्हें लज्जित करने को पधारे हैं। किन्तु जब अलोपीदीन ने वंशीधर के पिता के सामने वंशीधर की प्रशंसा की तो वंशीधर का विचार बदला। अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा कि वह उनकी खुशामद करने वहाँ नहीं आए थे। इतनी दूर आकर उन्हें खुशामद करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उस दिन नदी किनारे आपने मुझे एक पुलिस अधिकारी के रूप में बल प्रयोग से गिरफ्तार किया था। किन्तु आज मैं स्वयं चलकर आपकी हिरासत में आया हूँ। इसका कारण है कि मैंने अपने धन बल और वाक्पटुता से आज तक न जाने कितने रईसों, अमीरों और उच्च पदाधिकारियों को वश में कर लिया। उनसे मनचाहा काम कराया। किन्तु आप पर मेरा जादू नहीं चल सका। मुझे आपसे हार माननी पड़ी। अलोपीदीन ने कहा कि वह उनसे (दारोगा से) कुछ अनुरोध करना चाहते थे वंशीधर अलोपीदीन की बातें सुनकर चकित से रह गए। जब अलोपीदीन आये थे तो वंशीधर ने उनका स्वागत - सत्कार किया था, किन्तु स्वाभिमान के साथ किया था। अपने पिता की भाँति लल्लो - चप्पो या खुशामद नहीं की थी। उन्होंने अलोपीदीन से क्षमा भी नहीं माँगी थी। उनको अपने पिता द्वारा अलोपीदीन के प्रति दिखाया गया क्षमा का भाव भी असहनीय हो रहा था। परन्तु जब अलोपीदीन के मनोभावों का पता चला तो उन्होंने अलोपीदीन की ओर उपेक्षा भरी नजर से देखा। उन्हें लगा कि वास्तव में अलोपीदीन उनसे प्रभावित हुए हैं। उनकी आँखों से स्नेह भाव झलक रहा था। यह देखकर वंशीधर के मन में अलोपीदीन के प्रति जो कटुता थी वह दूर हो गई। अपनी सोच पर उन्हें कुछ लज्जा का भी अनुभव हुआ। उन्होंने कुछ लजाते हुए अलोपीदीन से कहा कि एक पुलिस अधिकारी के रूप में उनसे जो कठोर व्यवहार हो गया, उसके लिए वह क्षमा चाहते थे। उस समय वह अपने कर्तव्य से बंधे थे। अब वह उनके अनुरोध को आज्ञा मानकर स्वीकार करने को तैयार थे। विशेष - कहानीकार ने अपनी कहानी द्वारा 'सत्यमेव जयते' (सच्चाई को ही विजय होती है) इस आदर्श को प्रमाणित किया। प्रश्न : 2. अलोपीदीन ने वंशीधर के पिता के विचारों का खण्डन करते हुए वंशीधर के चरित्र को भूरि - भूरि प्रशंसा की थी। यह सब उन्होंने वंशीधर की खुशामद करने की दृष्टि से नहीं कहा था। अलोपीदीन ने हीरे को पहचान लिया था। उन्होंने अपने जीवन में हजारों रईस और उच्च पदाधिकारियों को अपने धन के बल पर गुलाम बनाकर छोड़ दिया था लेकिन वंशीधर के सामने उनकी ऐश्वर्य - मोहिनी का जादू नहीं चल पाया। वह वंशीधर की धर्मनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता से परास्त हो गए। 3. जब अलोपीदीन सजीले रथ में बैठकर वंशीधर के घर पहुंचे तो वंशीधर ने यही समझा था कि वह उन्हें लज्जित करने और जलाने आए थे। अलोपीदीन द्वारा की गई अपनी प्रशंसा को भी उन्होंने व्यंग्य वचन ही माना था, लेकिन जब उन्होंने अलोपीदीन द्वारा शुद्ध भाव से कही गई बातें सुनीं तो उनके विचार बदल गए। उनके मन का सारा मैल धुल गया। 4. जब वंशीधर ने अलोपीदीन की ओर देखा तो उन्हें उनके मुख पर सद्भावना नजर आई। अत: उन्होंने गर्व त्यागकर लजाते हुए अलोपीदीन से अपने कठोर व्यवहार के लिए क्षमा माँगी। उन्होंने कहा कि कर्तव्यपालन के बन्धन में पड़े होने के कारण उनको कठोर बनना पड़ा अन्यथा वह उनकी हर आज्ञा का पालन करने को प्रस्तुत हैं। अलोपीदीन स्तंभित क्यों हो गए?वे इलाके के सबसे प्रतिष्ठित ज़मींदार थे। वे लाखों रुपये का लेन-देन करते थे। (ग) वंशीधर ने पंडित अलोपीदीन को हिरासत में लेने के लिए जमादार बदलू सिंह को हुक्म दिया, तो पंडित अलोपीदीन स्तंभित हो गए।
अलोपीदीन संपदा में वंशीधर क्या बने?Expert-Verified Answer. अलोपीदीन की संपदा में बंशीधर मैनेजर बने। 'दो नमक का दरोगा' कहानी में जब दरोगा मुंशी वंशीधर ने अलोपदीन को गिरफ्तार कर लिया तो अलोपदीन ने अपने धन के बल पर न्याय को अपने पक्ष में करवा लिया और दरोगा मुंशी वंशीधर को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
कहानी के अंत में अलोपीदीन के बंशीधर के मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?दारोगा वंशीधर गैरकानूनी कार्यों की वजह से पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करता है, लेकिन कहानी के अंत में इसी पंडित अलोपीदीन की सहायता से मुग्ध होकर उसके यहाँ मैनेजर की नौकरी को तैयार हो जाता है।
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