वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Aroh Chapter 1 नमक का दारोगा Textbook Exercise Questions and Answers.

RBSE Class 11 Hindi Solutions Aroh Chapter 1 नमक का दारोगा

RBSE Class 11 Hindi नमक का दारोगा Textbook Questions and Answers

पाठ के साथ -

प्रश्न 1.
कहानी का कौन - सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों?
उत्तर :
'नमक का दारोगा' प्रेमचन्द द्वारा रचित एक आदर्शवादी कहानी है जिसके सर्वाधिक प्रभावशाली पात्र मुंशी वंशीधर हैं। वे ही इस कहानी के नायक हैं तथा सम्पूर्ण घटनाओं के केन्द्र - बिन्दु हैं। उनके चरित्र के उज्ज्वल पक्ष को प्रस्तुत करना ही कहानीकार का मूल उद्देश्य है। वंशीधर एक योग्य, कर्त्तव्यपरायण, ईमानदार, नैतिकतावादी, स्वाभिमानी एवं साहसी व्यक्ति हैं। उनकी चारित्रिक दृढ़ता अनुकरणीय है। 

प्रेमचन्द जी ने उनके रूप में एक आदर्श पात्र की परिकल्पना की है तथा कहानी से यह संदेश दिया है कि जो सत्य, न्याय, ईमानदारी एवं नैतिकता पर टिका रहता है, अन्तिम विजय उसी की होती है। मुंशी वंशीधर ने पण्डित अलोपीदीन को नमक की चोरबाजारी करते हुए गिरफ्तार किया था। उन्हें बड़ी रिश्वत देने का प्रयास किया गया पर व डिगे नहीं। 

अलोपीदीन अपने धन - बल से अदालत से छूट गए किन्तु उनके हृदय पर वंशीधर की ईमानदारी की ऐसी छाप पड़ी कि उन्होंने वंशीधर को ऊँचे वेतन पर अपनी जमींदारी का मैनेजर नियुक्त कर दिया। इस प्रकार सत्य एवं ईमानदारी की विजय का उद्घोष करते हुए प्रेमचन्द ने इसे आदर्शवादी कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि कहानी का पात्र मुंशी वंशीधर हमें सबसे अधिक प्रभावित करता है। 

प्रश्न 2.
नमक का दारोगा'कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन से दो पहलू (पक्ष)उभरकर आते हैं?
उत्तर :
पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्त्व के दो प्रमुख गुण हैं - 1. धन की शक्ति से परिचित होना, 2. गुण गाहका
1. धन की शक्ति से परिचय - पंडित अलोपीदीन धन की ताकत से परिचित थे और जानते थे कि पैसे से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता था। धन की जिस शक्ति को पंडित जी सबसे बड़ी ताकत मान रहे थे उसे धर्म (सत्य) ने पैरों तले कुचल दिया। किन्तु कचहरी में सारे वकील, मुख्तार, अलोपीदीन ने पैसे के बल पर अपने पक्ष में कर लिए, परिणामत: अलोपीदीन बाइज्जत बरी हो गए और मुंशी वंशीधर नमक के दारोगा पद से निलम्बित कर दिए गये

2. गुण ग्राहक - अभी तक अलोपीदीन को ऐसा कोई व्यक्ति न मिला था जो वंशीधर की तरह ईमानदार और कर्त्तव्यपरायण हो। अपने धन के बल पर वे चाहे जिसको खरीद सकते थे और मन मुताबिक झुका लेते थे. पर वंशीधर को वे नहीं झुका सके। उनको अपनी विशाल सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए ऐसे ही दृढ़  - 'त्र वाले व्यक्ति की आवश्यकता थी! 

एक सप्ताह बाद ही वे वंशीधर के घर आए और वशीधर को अपनी जमींदारी का स्थायी मैनेजर नियुक्त करने का स्टाम्प लगा पत्र देते हुए कहा कि कृपया आप इस पद को स्वीकार कीजिए। छह हजार वार्षिक वेतन के साथ अनेक सुविधाएँ, नौकर - चाकर, सवारी, बँगला मुफ्त। यह उस समय बड़ा वेतन था। अलोपीदीन ने कहा -  मुझे विद्वान् और अनुभव या कार्यकुशलता की दरकार नहीं, मुझे तो आप जैसा ईमानदार, दृढ़ - प्रतिज्ञ, कर्तव्यपरायण एवं धर्मनीति पर स्थिर रहने वाला व्यक्ति ही अपनी जायदाद के मैनेजर के रूप में चाहिए। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

प्रश्न 3.
कहानी के लगभग सभी पात्र समाज की किसी न किसी सच्चाई को उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में पाठ से उस अंश को उद्धृत करते हुए बताइये कि यह समाज की किस सच्चाई को उजागर करते हैं -
(क) वृद्ध मुंशी
(ख) वकील
(ग) शहर की भीड़
उत्तर :
प्रेमचंद की कहानियों में यह विशेषता हैं कि उनके पात्र जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करते हैं। नमक का दारोगा' कहानी के निम्न पात्र समाज को सच्चाई को उजागर करते हैं।
(क) वृद्ध मुंशी -
(अ) पाठ का अंश - बेटा ! नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते - घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है। 

(ब) समाज की सच्चाई - वृद्ध मुंशी के माध्यम से कहानीकार ने समाज के उन अभिभावकों का स्वभाव उजागर किया है, जो अपने पाल्यों (पुत्रों) को अच्छे संस्कार देने के स्थान पर धन कमाने के लिए अनैतिक आचरण, रिश्वत, भ्रष्टाचार करने के लिए प्रेरित करते हैं। बेटा ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता और नीति पर चले इस बात पर बल नहीं बल्कि बल इस बात पर देते है कि जल्दी से जल्दी धन कमाकर हमारी आवश्कताओं की पूर्ति करो। हमने अपनी आशाएँ तुम्हीं पर लगा रखी हैं। जब ईमानदारी एवं कर्तव्य परायणता के कारण वंशीधर को निलम्बित कर दिया गया, तब वृद्ध मुंशी ने पुत्र को बुरा - भला कहा। अलोपीदीन के घर आने पर वे यही कहते हैं कि क्या करूँ मेरा पुत्र कपूत निकला। 

(ख) वकील -
(अ) पाठ का अंश - वकीलों ने फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। स्वजन - बांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा, उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी। 

(ब) समाज की सच्चाई - आज अदालतों में न्याय की विजय नहीं होती, असत्य की विजय होती है। वकील झूठे गवाह तैयार करके किसी भी कमजोर केस को पैसे के बल पर जीत लेते हैं। फिर धनवान् व्यक्ति से मुँहमाँगी रकम प्राप्त कर लेते हैं। आज गरीबों को न्याय नहीं मिल पाता। ईमानदार एवं कर्त्तव्यपरायण व्यक्ति न्याय के लिए तरसते रह जाते हैं और बेईमान लोग धन के बल पर न्याय को अपने पक्ष में मोड़ लेते हैं, इसी सच्चाई को कहानीकार उजागर कर रहा है। 

(ग) शहर की भीड़ -
(अ) पाठ का अंश  - दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक - वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका - टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से सब पापियों का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ - साहूकार ये सभी देवताओं की भाँति गर्दनें चला रहे थे। 

(ब) समाज की सच्चाई - जब कोई भला या बड़ा व्यक्ति किसी कानूनी शिकंजे में फंस जाता है तो शहर की भीड़ अत्यन्त उत्सुकता से उसका तमाशा देखती है। ऐसे लोग जो गले तक बेईमानी में फंसे हैं, अनैतिक आचरण करते हैं, वे भी टीका - टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। अलोपीदीन को हथकड़ी में अदालत जाते हुए जब शहर की भीड़ ने देखा तो लोग तरह - तरह की बातें करने लगे। भले ही वे सब दैनिक जीवन में अनैतिक आचरण करते रहे हैं। पर आज अलोपीदीन पर छींटाकशी करने का जो अवसर उन्हें मिला था उसका भरपूर लाभ उठा रहे थे। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

प्रश्न 4.
निम्न पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए -
नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे. और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते - घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें ज्या समझाऊँ।
(क) यह किसकी उक्ति है ?
(ख) मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद क्यों कहा गया है?
(ग) क्या आप एक पिता के इस वक्तव्य से सहमत हैं?
उत्तर :
(क) यह उक्ति मुंशी वंशीधर के पिता (वृद्ध मुंशी) की है।
(ख) जैसे पूर्णिमा को चाँद पूरा होता है फिर उसका घटना प्रारंभ हो जाता है और अमावस्या आते - आते वह पूरी तरह लुप्त हो जाता है। इसी प्रकार मासिक वेतन एक बार पूरा मिलता है और उसमें से प्रतिदिन खर्च होता रहता है जिससे वह घटता जाता है। और एक दिन पूरा खर्च हो जाता है। इसलिए मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद कहा गया है। .
(ग) नहीं, इस कथन से मैं सहमत नहीं हूँ। एक पिता यदि अपने पुत्र को रिश्वत लेने के लिए कहे तो यह किसी प्रकार भी उचित नहीं है। पिता का कर्त्तव्य है कि वह अपने पुत्र को अच्छे संस्कार दे न कि रिश्वत लेने के लिए प्रेरित करे। 

प्रश्न 5.
'नमक का दारोगा'कहानी के कोई दो अन्य शीर्षक बताते हुए उसके आधार को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
नमक का दारोगा कहानी के दो अन्य शीर्षक हो सकते हैं
1. सत्यमेव जयते
2. ईमानदारी का फल।

1. 'नमक का दारोगा' प्रेमचन्द की आदर्शवादी कहानी है जिसमें यह बताया गया है कि जो ईमानदारी, नैतिकता, धर्म एवं सत्य पर दृढ़े रहते हैं अन्तिम विजय उन्हीं की होती है। मुंशी वंशीधर ने अलोपीदीन की रिश्वत ठुकरा दी और अपनी ईमानदारी का परिचय दे दिया। भले ही उन्हें विभाग से निलम्बित कर दिया गया हो पर अलोपीदीन उनकी ईमानदारी से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपनी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त कर दिया। इसीलिए इस कहानी का शीर्षक हो सकता है - सत्यमेव जयते। 

2. शीर्षक कहानी की जान होता है, क्योकि शीर्षक देखकर ही लोग कहानी की विषय - वस्तु का अनुमान कर उसे पढ़ना प्रारंभ करते हैं। वंशीधर की ईमानदारी ही इस कहानी की मुख्य घटना है और उस ईमानदारी का फल उन्हें ऊँचे वेतन वाली नौकरी के रूप में अलोपीदीन ने प्रदान किया। इसलिए कहानी का उपयुक्त शीर्षक 'ईमानदारी का फल' भी हो सकता है। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

प्रश्न 6.
कहानी के अन्त में अलोपीदीन द्वारा वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं ? तर्क सहित उत्तर दीजिए। आप इस कहानी का अन्त किस प्रकार करते?
उत्तर :
कहानी के अन्त में अलोपीदीन द्वारा वंशीधर को अपनी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करने के उपयुक्त कारण ये हैं -
1. अलोपीदीन वंशीधर की ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता देखकर दंग थे। आज की दुनिया में ऐसा ईमानदार आदमी मिलना कठिन था। 

2. अलोपीदीन अनुभवी व्यक्ति थे। जो व्यक्ति चालीस हजार की रिश्वत ठुकरा सकता है, वह कितना ईमानदार एवं कर्तव्यपरायण होगा। ऐसा विश्वासपात्र व्यक्ति उन्हें फिर कहाँ मिल सकता था ? इसीलिए उन्होंने वंशीधर को अपनी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त कर दिया। 

3. अलोपीदीन बहुत बड़े जमींदार थे। उनके पास अनुचित उपायों से अर्जित ढेरों धन भी था। लेकिन इस सारे वैभव की सुरक्षा और सुप्रबंध के लिए मुंशी वंशीधर जैसे विश्वासपात्र कर्मचारी की आवश्यकता थी वैसा व्यक्ति मिलना आज के समाज में बहुत कठिन था। अत: अलोपीदीन ने एक परखे हुए व्यक्ति (वंशीधर) को सबसे उपयुक्त पात्र माना। वंशीधर को मैनेजर बनाकर पंडित अलोपीदीन का स्वार्थ तो सिद्ध हो ही गया, पाप का प्रायश्चित भी हो गया।

कहानी का अन्त मेरे अनुसार कहानी का अन्त सर्वथा उचित है। कहानीकार का उद्देश्य धन पर धर्म की, अन्याय पर न्याय की और बेईमानी पर ईमानदारी की विजय दिखाना है। कहानी का अन्त इन सारे उद्देश्यों को पूरा करता है। अत: मैं भी कहानी का अन्त इसी रूप में करना चाहता। 

पाठ के आस - पास -

प्रश्न 1.
दारोगा वंशीधर गैर - कानूनी कार्यों की वजह से पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करता है लेकिन कहानी के अन्त में इसी पंडित अलोपीदीन की सहृदयता पर मुग्ध होकर उसके यहाँ मैनेजर की नौकरी को तैयार हो जाता है। आपके विचार से क्या वंशीधर का ऐसा करना उचित था ? आप उसकी जगह होते तो क्या करते?
उत्तर :
दारोगा वंशीधर ने गैरकानूनी काम करने पर पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार किया था और ऐसा करके अपने कर्तव्य का पालन ही किया था। किन्तु अलोपीदीन से उनकी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। अतः जब अलोपीदीन वंशीधर के घर नौकरी का अच्छा - खासा प्रस्ताव लेकर आए तो वंशीधर ने उसे स्वीकार करके कोई गलत काम नहीं किया। आज के समाज में स्वीकृत चरित्र के मानदण्डों के हिसाब से तो मुझे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन अनुचित और गैर - कानूनी ... कार्यों से कमाई गई सम्पत्ति का संरक्षक बनने को मेरी अन्तरात्मा शायद स्वीकार नहीं कर पाती। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

प्रश्न 2.
नमक विभाग के दारोगा पद के लिए बड़ों - बड़ों का जी ललचाता था। वर्तमान समाज में ऐसा कौन - सा पद होगा जिसे पाने के लिए लोग लालायित रहते होंगे और क्यों?
उत्तर :
नमक विभाग के दारोगा पद के लिए बड़ों - बड़ों का जी इसलिए ललचाता था कि ओहदा भले ही बड़ा न हो किन्तु इसमें ऊपरी आमदनी (रिश्वत) बहुत थी इसलिए लोग अच्छी - खासी नौकरी छोड़कर भी इस पद पर नौकरी करने को ललचाते थे। 

वर्तमान समय में भी कई पद इस प्रकार के हैं जिनमें ऊपरी आमदनी बहत है। आयकर अधिकारी, व्यापार कर अधिकारी, सीमाशुल्क अधिकारी के साथ - साथ कुछ पद ऐसे भी हैं जिनमें अधिकतर रौब - रुतबा एवं ऊपरी आमदनी बहुत अधिक है। पुलिस विभाग में उच्चाधिकारी, जिले के कलक्टर या मुख्य विकास अधिकारी का पद इसी श्रेणी का है। इन पदों के अधिकार भी हैं और ऊपरी आमदनी भी। अतः लोग इन पदों को पाने के लिए ललचाते हैं। 

प्रश्न 3.
अपने अनुभवों के आधार पर बताइए कि जब आपके तर्कों ने आपके भ्रम को पुष्ट किया हो।
उत्तर :
एक बार मैं घर से बाहर निकल रहा था। बिजली अचानक चली गई और रात का अँधेरा था। दरवाजे के बाहर तीन फीट की रस्सी का टुकड़ा टेढ़ा - मेढ़ा पड़ा था। मुझे भ्रम हुआ कि शायद साँप है। तभी ऐसा लगा जैसे यह टुकड़ा हिल रहा है। शायद हवा चलने से उसमें कुछ हरकत हुई। मुझे लगने लगा कि निश्चय ही यह सर्प है और मैं सहायता के लिए पुकारता हुआ घर के भीतर जा पहुँचा। घर से दो - तीन लोग लाठी लेकर आए और जब लाठी से उस टुकड़े को टटोला गया तब पता चला कि यह तो रस्सी है, साँप नहीं। 

प्रश्न 4.
'पढ़ना - लिखना सब अकारथ गया।' वृद्ध मुंशीजी द्वारा यह बात एक विशिष्ट संदर्भ में कही गयी थी। अपने, निजी अनुभवों के आधार पर बताइए
(क) जब आपको पढ़ना - लिखना व्यर्थ लगा हो।
(ख) जब आपको पढ़ना - लिखना सार्थक लगा हो।
(ग) पढ़ना - लिखना' को किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया होगा: साक्षरता अथवा शिक्षा? (क्या आप इन दोनों को समान मानते हैं ?)
उत्तर :
पढ़ना - लिखना सब अकारथं गया का तात्पर्य है कि तुम्हारी शिक्षा व्यर्थ चली गयी। शिक्षा व्यक्ति को ज्ञान देकर विवेक प्रदान करती है, जिससे व्यक्ति में अपना भला - बुरा सोचकर निर्णय लेने की क्षमता आती है। किन्तु वंशीधर ने इतनी अच्छी नौकरी पाकर भी विवेक से काम नहीं लिया और अलोपीदीन जैसे धनवान् व्यक्ति को गिरफ्तार कर उनसे बैर मोल ले लिया। यह बात वृद्ध मुंशीजी (वंशीधर के पिता) के गले नहीं उतर रही थी। इतना अच्छा पद मिलने के बाद भी जो ईमानदारी दिखाता हो, फिर उसे वृद्ध मुंशीजी मूर्ख तो मानेंगे ही।

(क) जब आपको पढ़ना - लिखना व्यर्थ लगा हो। ... कभी - कभी व्यक्ति को ऐसा लगता है कि उसकी पढ़ाई - लिखाई व्यर्थ है क्योंकि जीवन के वास्तविक अनुभव से वह शून्य है। बाहुबली जब किसी पढ़े - लिखे को धमकाते हैं और अपना रौब गालिब करते हैं, तब मुझे लगता है कि पढ़ाई - लिखाई व्यर्थ है। गुण्डों की समाज में धाक है, पढ़े - लिखों को कोई पूछता नहीं।

(ख) जब आपको पढ़ना - लिखना सार्थक लगा हो मेरे परिवार में मेरे पिता एक सफल वकील हैं। बड़े भाई डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर हैं और मेरी माँ भी कॉलेज की प्रधानाचार्या हैं। इसे देखकर मुझे लगा कि शिक्षा प्राप्त करना कभी व्यर्थ नहीं हो सकता। 

(ग) पढ़ना - लिखना' शिक्षा के अर्थ में प्रयुक्त है, साक्षरता के अर्थ में नहीं। शिक्षा और साक्षरता समानार्थी नहीं हैं। जिसे केवल अक्षर ज्ञान हो और जो अपना नाम लिख लेता हो, किताब पढ़ सकता हो वह साक्षर होता है, किन्तु जो ज्ञानवान् है, शिक्षित है, विवेकवान् है उसे लोग पढ़ा - लिखा कहते हैं। 

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प्रश्न 5.
लड़कियाँ हैं, वह घास - फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं।' वाक्य समाज में लड़कियों की स्थिति की किस वास्तविकता को प्रकट करता है ?
उत्तर :
लड़कियों की तुलना घास - फूस से करके लेखक ने उनके प्रति अच्छा भाव नहीं दिखाया है। समाज में लड़कियों की स्थिति घास - फूस की तरह बताई है जो अनचाहे ही उग आती है और जल्दी ही बढ़ने लगती है। घास - फूस की कोई देखभाल नहीं की जाती। इसी प्रकार समाज में लड़कियों के खान - पान की कोई व्यवस्था नहीं करता। फिर भी वे बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं और उनके विवाह की चिंता घरवालों को सताने लगती है। यही इस वाक्य के द्वारा व्यक्त किया गया है। 

प्रश्न 6.
"इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आये। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आये। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था।" अपने आस - पास अलोपीदीन जैसे व्यक्तियों को देखकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? उपर्युक्त टिप्पणी को ध्यान में रखते हुए लिखें।
उत्तर :
अलोपीदीन धनवान्, साधन - सम्पन्न और चलखे - पुरजा व्यक्ति थे। ऐसे व्यक्ति गैरकानूनी काम करते हुए भी कानून के पंजे में नहीं फंसते। धन - बल से वे जिसे चाहें खरीद सकते हैं और जो चाहें करा सकते हैं।
मेरे पड़ोस में भी एक चलते - पुरजा धनवान सज्जन निवास करते हैं। पर एक दिन जब उनके यहाँ आयकर की टीम का छापा पड़ा तब पता चला कि वे सज्जन करोड़ों की आयकर चोरी करते थे। उनकी करोड़ों की अघोषित सम्पत्ति पकड़ी गयी और दो दिनों तक लगातार उनके घर की तलाशी होती रही। सभी मोहल्लेवासियों को उनकी स्थिति का पता चलने पर आश्चर्य हुआ कि वे तो बड़े चलते - पुर्जा व्यक्ति थे, फिर आयकर के चंगुल में कैसे आ गये? 

समझाइये तो जरा - 

प्रश्न 1.
नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए।
उत्तर :
वृद्ध मुंशीजी ने अपने बेटे वंशीधर को समझाते हुए कहा कि नौकरी में 'ओहदा' उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितनी महत्त्वपूर्ण ऊपरी आमदनी है। 'ओहदा' तो पीर का मजार है जिसके दर्शन करने लोग आते हैं पर असली कमाई तो मजार पर चढ़ने । वाली चादरों और चढ़ावे से होती है, अतः इसी पर निगाह रखनी चाहिए। उनके कथन का आशय यह था कि ओहदा चाहे छोटा ही क्यों न हो पर ऊपरी आमदनी अधिक हो, ऐसी नौकरी तुम्हें अपने लिए तलाशनी है।

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प्रश्न 2.
इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथ - प्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था ?
उत्तर :
वंशीधर जब नौकरी खोजने के लिए निकले तो उनके पिता ने सीख दी कि ओहदे (पद) पर नहीं अपितु ऊपरी आमदनी पर ध्यान देना अर्थात् ऐसी नौकरी खोजना जिसमें पद चाहे छोटा ही क्यों न हो पर ऊपरी आमदनी अधिक होनी चाहिए। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे, अत: पिता की बातें ध्यान से सुनीं, परन्तु वे ईमानदार, विवेकवान् एवं कर्त्तव्यपरायण व्यक्ति थे। इस संसार में धैर्य ही उनका मित्र था, बुद्धि ही उन्हें मार्ग दिखाने वाली पथ - प्रदर्शक थी और उन्हें केवल अपने आत्मबल का ही सहारा था। 

प्रश्न 3.
तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया।
उत्तर :
रात के समय जब नमक के दारोगा पद पर नवनियुक्त मुंशी वंशीधर की आँखें खुली तो उन्हें बैलगाड़ियों की गड़गड़ाहट और मल्लाहों का शोर सुनाई पड़ा। वे समझ गए कि अवश्य ही कुछ गड़बड़ है। रात के समय इतना शोर क्यों है ? जरूर कोई गोलमाल है, इस तर्क ने उनका भ्रम पुष्ट कर दिया है, अत: वरदी पहनकर और रिवाल्वर लेकर वे घोड़े पर चढ़कर मामले की तहकीकात करने पुल पर जा पहुँचे।

प्रश्न 4.
न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं। इन्हें वह जैसा चाहती हैं नचाती हैं।
उत्तर :
अलोपीदीन जानते थे कि धन की महिमा अपार है। लक्ष्मी (धन) की शक्ति से वे परिचित थे और जानते थे कि लक्ष्मी न्याय, नीति को अपनी इच्छानुसार नचा सकती है, क्योंकि धन के बल पर न्याय और नीति को खरीदा जा सकता है। धन की विजय होती है, न्याय और नीति को आहत होना पड़ता है।

प्रश्न 5.
दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी?
उत्तर :
अलोपीदीन को जब गैर - कानूनी नमक का व्यवसाय करते पकड़ लिया गया और हथकड़ी लगाकर अदालत ले . जाया गया तो लोग तरह - तरह की आलोचनाएँ एवं टीका - टिप्पणी करने लगे। ऐसे - ऐसे लोग जो स्वयं अनेक प्रकार की बेईमानी करते थे, गैर - कानूनी काम करते थे, अलोपीदीन की निन्दा इस तरह कर रहे थे, कि जैसे वे स्वयं देवताओं की भाँति निष्पाप और पवित्र हों।
किन्तु सच्चरित्रता, कर्तव्यनिष्ठा, स्वच्छ व्यवहार और नैतिकता आदि गुणों के महत्त्व पर लोगों का ध्यान नहीं जाता था। उनकी ओर से लोगों ने आँखें बंद कर रखी थीं, वे सो रहे थे। 

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प्रश्न 6.
खेद ऐसी समझ पर! पढ़ना - लिखना सब अकारथ गया।
उत्तर :
वृद्ध मुंशी को जब यह पता चला कि उनका बेटा मुंशी वंशीधर नमक का दारोगा बनकर भी ऊपरी कमाई नहीं करता, रिश्वत नहीं लेता तो उन्हें उसकी विवेक - बुद्धि पर तरस आने लगा। वे मन ही मन बड़बड़ाते कि मुझे तो इसकी समझ पर खेद है, इसकी पढ़ाई - लिखाई व्यर्थ गई, क्योंकि यह तो अपना भला - बुरा ही नहीं सोच पाता। ऐसा अवसर बार - बार नहीं मिलता। ऊपरी आमदनी करके घर. की हालत सुधारता, यह तो सूखी तनख्वाह ही लेता है। इसे नौकरी बने और ऊपरी कमाई करने की तमीज ही नहीं है। इसीलिए वे वंशीधर पर असंतोष व्यक्त करते हुए सोच रहे थे कि इसकी पढ़ाई - लिखाई अकारथ (व्यर्थ) चली गई।

प्रश्न 7.
धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला।
उत्तर :
अलोपीदीन को अपने धन की शक्ति पर बड़ा विश्वास था और वे सोचते थे कि धन (रिश्वत) से किसी को भी खरीदा जा सकता है, किन्तु जब मुंशी वंशीधर ने उनकी भारी रिश्वत की पेशकश ठुकरा दी और अपने जमादार को हुक्म दिया कि - कानूनी नमक का व्यवसाय करने पर हिरासत में ले लो, तब ऐसा लगा जैसे धन की ताकत क्षीण हो गई, वह परास्त ही गया और धर्म जीत गया। इसीलिए कहानीकार ने लिखा है कि धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। 

प्रश्न 8.
न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया।
उत्तर :
अलोपीदीन को हथकड़ी लगाकर अदालत में ले जाया गया। अलोपीदीन धनवान व्यक्ति थे। अदालत में सब उन्हीं के पक्षधर थे। अमले (कर्मचारी), वकील, मजिस्ट्रेट सबको उन्होंने धन से सन्तुष्ट कर रखा था। मुकद्दमा लड़ने के लिए वकीलों की पूरी फौज तैयार की गई थी। यह सब अलोपीदीन के धन का प्रताप था। दूसरी ओर मुंशी वंशीधर के पास केवल सत्य और धर्म का बल था। इस प्रकार अदालत में धन और धर्म के पक्षों में युद्ध हो रहा था। 

भाषा की बात -

प्रश्न 1.
भाषा की चित्रात्मकता, लोकोक्तियों एवं मुहावरों के जानदार उपयोग तथा हिन्दी - उर्दू के साझा रूप एवं बोलचाल की भाषा के लिहाज से यह कहानी अद्भुत है। कहानी में से ऐसे उदाहरण छाँटकर लिखिए और यह भी बताइए कि इनके प्रयोग से किस तरह इस कहानी का कथ्य अधिक असरदार बना है?
उत्तर :
1. भाषा की चित्रात्मकता।
संध्या का समय था। बूढ़े मुंशीजी बैठे राम - नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिएँ बैलों की जोड़ी, उनकी गर्दनों में नीले धागे, सींगें पीतल से जड़ी हुई। कई नौकर लाठियाँ कंधे पर रखे साथ थे। 

2. लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे से युक्त भाषा 

  1. अधिकारियों के पौ - बारह थे।  
  2. मैं कगारे पर का वृक्ष हूँ। 
  3. मासिक वेतन पूर्णमासी का चाँद है। 
  4. यही मेरी जन्म भर की कमाई है। 
  5. पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे। 
  6. अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। 
  7. बड़े चलते - पुरजे आदमी थे। 
  8. पंडित जी को लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। 
  9. घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें। 
  10. कोड़ियों पर ईमान बेचते फिरते हैं। 
  11. हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं। 
  12. आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं। 
  13. दुनिया की जीभ जागती थी। 
  14. बिना मोल के गुलाम थे। 
  15. न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। 
  16. घर में चाहे जैसा अँधेरा हो मस्जिद में अवश्य दीया जलायेंगे। 
  17. पत्नी ने तो कई दिन सीधे मुँह बात तक न की। 
  18. आपको कौन - सा मुँह दिखावें, मुंह पर तो कालिख लगी हुई है। 

3. हिन्दी - उर्दू के बोलचाल के शब्दों का प्रयोग -

घूस, बरकन्दाजी, फारसीदां, रोजगार, कगारे का वृक्ष, पीर का मजार, आमदनी, बरकत, गरजवाला, कलवार, गोलमाल, . तमंचा, काना - फूसी, सदाव्रत, दारोगा, लिहाफ, नमकहराम, हिरासत, हुक्म, रौब, मुख्तार, पैरों तले कुचलना, जीभ चलना, बिना मोल के गुलाम, गवाह, दंडवत्। 

चित्रात्मक भाषा के प्रयोग से पूरा दृश्य आँखों के समक्ष आ जाता है जबकि लोकोक्तियों एवं मुहावरों के प्रयोग से भाषा की अभिव्यक्ति - क्षमता में वृद्धि हुई है। बोल - चाल के शब्दों का प्रयोग होने से भाषा में अद्भुत रवानगी एवं प्रवाह आ गया है। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

प्रश्न 2.
कहानी में मासिक वेतन के लिए किन - किन विशेषणों का प्रयोग किया गया है ? इसके लिए आप अपनी ओर से दो - दो विशेषण और बताइए साथ ही विशेषणों के आधार को तर्क सहित पुष्ट कीजिए।
उत्तर :
कहानी में मासिक वेतन को 'पूर्णमासी का चाँद' और 'ईश्वर की देन' कहा गया है। इसके लिए दो और विशेषण हो सकते हैं
1. मुट्ठी की रेत। 2. रिसता बरतन।
मासिक वेतन एक दिन ही पूरा रह पाता है, दूसरे दिन से खर्च होना प्रारम्भ होता है और एक दिन पूरा खर्च हो जाता है। इसीलिए यह मुट्ठी में भरा रेत है जो धीरे - धीरे गिरकर एक दिन पूरी मुट्ठी को खाली कर देता है। इसी प्रकार यदि बाल्टी की पेंदी में छेद हो तो उसमें भरा पानी एक - एक बूंद रिसकर बाल्टी को खाली कर देता है। यही हाल वेतन का होता है। 

प्रश्न 3.
(क) बाबू जी आशीर्वाद!
(ख) सरकारी हुक्म!
(ग) दातागंज के!
(घ) कानपुर ! दी गई विभिन्न अभिव्यक्तियाँ एक निश्चित संदर्भ में निश्चित अर्थ देती हैं। संदर्भ बदलते ही अर्थ भी परिवर्तित हो जाता है। अब आप किसी अन्य संदर्भ में इन भाषिक अभिव्यक्तियों का प्रयोग करते हुए समझाइए।
उत्तर :
(क) बाबू जी आशीर्वाद! पण्डित अलोपीदीन ने मुंशी वंशीधर के पास आकर आशीर्वाद देते हुए कहा बाबूजी आशीर्वाद ! किन्तु यदि इसे ऐसे कर दिया जाए तो अर्थ बदल जाएगा 'बाबूजी जरा आशीर्वाद अब बाबूजी से आशीर्वाद माँगा जा रहा है जबकि मूल वाक्य में बाबू जी को आशीर्वाद दिया जा रहा था। 

(ख) सरकारी हुक्म! ऐसा कहकर वंशीधर ने अलोपीदीन को यह बताना चाहा कि मैं सरकारी हुक्म से आपकी गाड़ियाँ रोक रहा हूँ। नमक का व्यवसाय गैर - कानूनी है और नमक ले जाने पर पाबंदी सरकार ने लगा रखी है। हम तो सरकारी हुक्म के गुलाम हैं, इस वाक्य का अर्थ होगा कि हम वही करते हैं जो सरकार चाहती है। 

(ग) दातागंज के ! जब वंशीधर ने पूछा कि गाड़ियाँ किसकी हैं ? तो उत्तर मिला पंडित अलोपीदीन की और जब पूछा कि कौन पंडित अलोपीदीन ? तो बताया गया दातागंज के। अर्थात् पंडित अलोपीदीन दातागंज (मोहल्ले) के निवासी थे। यदि इसे इस प्रकार प्रयुक्त करें दातागंज कहाँ है ? तब इसका अर्थ होगा कि दातागंज मोहल्ला किस शहर में है ? उसका नाम बताओ। 

(घ)कानपुर ! गाड़ियाँ कहाँ जाएँगी ? उत्तर मिला कानपुर। अर्थात् गाड़ियों का गंतव्य स्थान कानपुर था। यदि यह पूछा जाता . कि कानपुर में आपकी क्या रिश्तेदारी है तो इसका उत्तर कुछ और होता। तब हम यह जानना चाहते हैं कि कानपुर से हमारा सम्बन्ध क्या है ? इससे स्पष्ट है कि संदर्भ बदलने से एक ही वाक्य के अर्थ बदल जाया करते हैं। 

RBSE Class 11 Hindi नमक का दारोगा Important Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर - 

प्रश्न 1.
प्रेमचन्द ने कुल कितनी कहानियाँ लिखीं? और उनके प्रमुख संकलन का क्या नाम है ?
उत्तर :
प्रेमचन्द ने कुल 300 कहानियाँ लिखीं जो 'मानसरोवर' के आठ भागों में संकलित हैं।

प्रश्न 2.
प्रेमचन्द के लिखे प्रमुख उपन्यासों के नाम बताइए?
उत्तर :
प्रेमचन्द के लिखे उपन्यासों के नाम हैं - सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, गबन, निर्मला, गोदान, मंगलसूत्र (अपूर्ण)। 

प्रश्न 3.
वंशीधर के पिता किस प्रकार की नौकरी अपने पुत्र के लिए चाहते थे ?
उत्तर :
वंशीधर के पिता चाहते थे कि उनके पुत्र को ऐसी नौकरी मिले जिसमें ओहदा (पद) चाहे बड़ा न हो पर ऊपरी आमदनी पर्याप्त हो। 

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प्रश्न 4.
वृद्ध मुंशीजी वेतन की और ऊपरी आमदनी की तुलना किससे करते हैं ? और क्यों?
उत्तर :
वृद्ध मुंशीजी का मानना था कि वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन पूरा दिखने के बाद घटना प्रारंभ हो जाता है और घटते - घटते एक दिन पूरी तरह लुप्त हो जाता है, जबकि ऊपरी आमदनी बहता जल स्रोत है जिससे प्यास बुझती है और जिसका प्रवाह कभी रुकता नहीं। 

प्रश्न 5.
'नमक का दारोगा' किस प्रकार की कहानी है? और क्यों?
उत्तर :
'नमक का दारोगा' प्रेमचन्द की आदर्शवादी कहानी है। जिसमें यह दिखाया गया है कि 'सत्यमेव जयते'। भले ही वंशीधर धन - बल के सम्मुख अदालत में परास्त हो गए हों, नौकरी से उनको मुअत्तिल कर दिया गया हो पर अलोपीदीन ने उनकी ईमानदारी एवं कर्त्तव्यपरायणता को पहचानकर उन्हें अपनी जमींदारी का स्थायी प्रबन्धक नियुक्त कर दिया और वह भी ऊँचे वेतन पर। इस प्रकार वंशीधर को अपनी ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठता का पुरस्कार तो मिल ही गया। 

प्रश्न 6.
वृद्ध मुंशीजी ने वंशीधर के घर लौटने पर क्या कहा?
उत्तर :
जब वंशीधर नौकरी से निलम्बित होकर घर आए और वृद्ध मुंशीजी को यह सब पता चला तो बोले - जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लूँ। बहुत देर तक पछता - पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं। 

लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर - 

प्रश्न 1.
'नमक का दारोगा' कहानी की भाषा तथा शैली पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भाषा - शैली - प्रेमचन्द की कहानियों की भाषा सरल, व्यावहारिक, पात्रानुकूल होती है। उसमें उर्दू एवं अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों के साथ - साथ मुहावरों एवं लोकोक्तियों का सटीक प्रयोग भी होता है। नमक का दारोगा नामक कहानी में प्रयुक्त कुछ मुहावरों के प्रयोग देखिए -
1. पौ - बारह होना अर्थात् लाभ ही लाभ होना। यथा अधिकारियों के पौ - बारह थे।
2. हृदय में शूल उठना - अर्थात् ईर्ष्या होना। यथा पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।
3. भूखा सिंह होना - अत्यन्त क्रोध करना। यथा लालाजी एक हजार के नोट बाबूजी को भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।
4. मिट्टी में मिलना - अर्थात् नष्ट हो जाना। यथा जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गईं।
सम्पूर्ण कहानी में कहानीकार ने वर्णनात्मक शैली अपनाई है। कहीं - कहीं संवाद शैली का प्रयोग भी किया गया है। 

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प्रश्न 2.
'नमक का दारोगा' कहानी के कथोपकथनों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कथोपकथन या संवाद योजना - संवाद यद्यपि नाटक का तत्त्व है किन्तु कहानी में भी प्राय: संवाद योजना होती है। एक अच्छी कहानी के संवाद संक्षिप्त, रोचक, पात्रानुकूल एवं चरित्राभिव्यंजक होने चाहिए। नमक का दारोगा कहानी के संवादों में ये सभी विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं। यथा -
"बाबू साहब ! मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूँ" "असंभव बात है" "तीस हजार पर" ? "किसी तरह संभव नहीं। "क्या चालीस हजार पर भी नहीं"?
"चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असंभव है। संवाद पात्रानुकूल, संक्षिप्त, रोचक एव चरित्र - प्रकाशक होने के साथ - साथ सरल भी हैं। 

दीर्घ उत्तरात्मक प्रश्नोत्तर -

प्रश्न 1.
नमक का दारोगा कहानी के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कहानी केवल मनोरंजन नहीं करती, अपितु वह एक सन्देश भी देती है। इसी को कहानी का उद्देश्य कहा जाता है। प्रेमचन्द जी ने इस कहानी के द्वारा पाठकों को यह सन्देश दिया है कि सत्य, ईमानदारी, नैतिकता, कर्तव्यपरायणता का मार्ग कठिन एवं कष्टसाध्य है; किन्तु अन्तिम विजय इन्हीं नैतिक मूल्यों की होती है। वंशीधर के आचरण एवं चरित्र में ये गुण विद्यमान हैं। 

भले ही इन्हीं गुणों के कारण उन्हें प्रारम्भ में कठिनाई हुई, उनकी नौकरी छूट गई, पिता से खरी - खोटी सुननी पड़ी और पत्नी ने भी सीधे मुँह बात तक न की, अन्तत: अपनी ईमानदारी से ही वे अलोपीदीन को परास्त कर सके। अलोपीदीन ने इसी ईमानदारी पर प्रसन्न होकर उन्हें एक ऊँचे वेतन वाली नौकरी देते हुए अपनी जायदाद का स्थायी प्रबन्धक नियुक्त कर दिया। 

प्रश्न 2.
नमक का दारोगा कहानी में चित्रित देश - काल एवं वातावरण पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
नमक का दारोगा कहानी का घटनाक्रम उस समय. का है जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था। नमक जैसी जरूरी चीज पर भी सरकार ने प्रतिबन्ध लगा रखा था तथा व्यापारी नमक की कालाबाजारी करते थे। तत्कालीन देश - काल का चित्रण कहानी के प्रारम्भ में ही प्रेमचन्द ने इन शब्दों में किया है - "यह वह समय था जब अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। वातावरण चित्रण के द्वारा भी कहानी में रोचकता उत्पन्न की गई है। एक उदाहरण देखिए जाड़े के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे।....अचानक आँख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गड़ाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया।" 

प्रश्न 3.
सिद्ध कीजिए कि वंशीधर एक आदर्शवादी नवयुवक हैं ? उनके चरित्र से हमें क्या शिक्षा मिलती है ?
उत्तर :
'नमक का दारोगा' कहानी के प्रमुख पात्र वंशीधर उन आदर्शवादी नवयुवकों की श्रेणी में हैं, जो सत्य, ईमानदारी, नैतिकता एवं कर्तव्यपरायणता को अपने जीवन का आदर्श मानते हैं। वे जानते हैं कि आज की दुनिया में इन नैतिक मूल्यों की कदर नहीं है तथा इन पर टिके रहने वाले व्यक्तियों को यथार्थ जीवन में कष्ट झेलने पड़ते हैं। फिर भी वे अपने लिए आदर्श के इस कठोर मार्ग को चुनते हैं। धनवान् व्यक्ति अलोपीदीन को गिरफ्तार करने के कारण और उनकी रिश्वत स्वीकार न करने से उन्हें कष्ट - ही - कष्ट झेलने पड़े। 

अदालत ने उन्हें फटकार लगाई, विभाग ने मुअत्तल कर दिया, पिता ने खरी - खोटी सुनाई और पत्नी ने सीधे मुँह बात तक न की, किन्तु वे अपने कर्तव्यपथ से विचलित नहीं हुए। इसी का परिणाम यह हुआ कि अलोपीदीन स्वयं उनके घर आए, उनकी ईमानदारी से प्रभावित होकर अपनी जायदाद का स्थायी प्रबन्धक नियुक्त कर दिया और ऊँचे वेतन वाली सुविधा सम्पन्न नौकरी उन्हें प्रदान कर दी। यह कहानी हमें "सत्यमेव जयते" का पाठ पढ़ाती है। वंशीधर की तरह यदि हम भी सत्य, ईमानदारी एवं कर्तव्यपरायणता पर डटे रहें तो उसका पुरस्कार हमें किसी - न - किसी दिन अवश्य मिलेगा। यही बताना कहानीकार का उद्देश्य है।

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प्रश्न 4.
नमक का दारोगा कहानी के कथानक का मूल ढाँचा संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
यह एक उद्देश्यपूर्ण कहानी है। इस कहानी के कथानक का मूल ढाँचा संक्षिप्त है और उसमें गिनी-चुनी घटनाएँ ही हैं। इस कथानक में एक ओर तो वंशीधर के चरित्र को उभारा गया है तो दूसरी ओर तत्कालीन अंग्रेजी शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार का उल्लेख है। धन-बल से सब कुछ खरीदा जा सकता था, यहाँ तक कि न्यायालय भी पैसे वालों का पक्ष लेता था। 

प्रेमचन्द जी ने इस कथानक के अन्तिम भाग को आदर्शवादी रूप प्रदान किया है। वंशीधर का नमक के दारोगा के रूप में अलोपीदीन की गाड़ियों को पकड़ना और उन्हें हिरासत में लेना, कोर्ट द्वारा वंशीधर को फटकार तथा अलोपीदीन की बाइज्जत रिहाई, विभाग द्वारा वंशीधर को निलम्बित करना और वंशीधर के पिता द्वारा पुत्र को खरी-खरी सुनाना-यहाँ तक का घटनाक्रम पूर्णत: यथार्थवादी है, किन्तु इसके बाद का घटनाक्रम आदर्शवादी है। पंडित अलोपीदीन का वंशीधर के घर आकर यह आग्रह करना कि आप मेरी जायदाद और जमींदारी के स्थायी प्रबन्धक का दायित्त्व स्वीकार करें और वंशीधर का थोड़ी हिचक के बाद इसे स्वीकार कर लेना--पूर्णत: आदर्शवादी घटनाक्रम है। 

प्रश्न 5.
कहानी के आधार पर पंडित अलोपीदीन की चारित्रिक विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
पंडित अलोपीदीन अपने इलाके के प्रतिष्ठित जमींदार हैं। वे गैर-कानूनी व्यापार भी करते हैं। नमक पर सरकार ने प्रतिबन्ध लगा रखा था पर अलोपीदीन अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से अपनी गाड़ियों में नमक लेकर आए थे। धन कमाना उनका एकमात्र लक्ष्य है। धन बल से वे सब कुछ हासिल कर सकते हैं। अधिकारी, अमले वकील, हुक्काम, सब उनके पैसे के गुलाम हैं। 

धन की ताकत से वे भलीभाँति परिचित हैं, किन्तु जब इसी ताकत के होते हुए भी वे वंशीधर को नहीं खरीद पाते तो अपने को पराजित अनुभव करते हैं। उनमें आदमी को पहचानने की विलक्षण क्षमता है। वंशीधर की ईमानदारी एवं नैतिकता को पहचानकर और उन्हें। अपनी जायदाद का स्थायी प्रबन्धक नियुक्त कर, उन्होंने गुणग्राहक होने का परिचय दिया है। उनकी समझदारी, उदारता एवं गुण-ग्राहकता उन्हें खलनायक होने से बचा लेती है और अन्त में वे पाठकों के प्रिय पात्र बन जाते हैं।

नमक का दारोगा Summary in Hindi

लेखक परिचय :

हिन्दी कथा - साहित्य के शिखर पुरुष मुंशी प्रेमचन्द का जन्म सन् 1880 में वाराणसी के समीपवर्ती गाँव लमही में हुआ था। आपका वास्तविक नाम धनपतराय था। आपने बी. ए.तक शिक्षा प्राप्त की। आपने नवाब राय नाम से उर्दू में लेखन प्रारम्भ किया। 

आपका पहला कहानी संग्रह 'सोजेवतन' राष्ट्रप्रेम और क्रान्तिकारी भावनाओं से ओत-प्रोत था। अत: अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया। आप उस समय सरकारी सेवा में थे, अत: अपनी पहचान छिपाए रखने के लिए आप उर्दू छोड़कर हिन्दी में कहानियाँ लिखने लगे और ये कहानियाँ आपके 'प्रेमचन्द' नाम से छपी। तब से आपका यही नाम चलने लगा।

प्रेमचन्द की कहानियों में ग्रामीण-जीवन तथा पात्रों का यथार्थ चित्रण है। उन्होंने बचपन से ही गरीबी को देखा था और भूख की पीड़ा सहन की थी। प्रेमचन्द के पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था। आपकी कहानियों में समाज के शोषित और दलित वर्ग के दयनीय जीवन का जीवन्त चित्रण है। आपने अपने कथा-साहित्य द्वारा श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों को पूरा समर्थन प्रदान किया। आपका देहावसान सन् 1936 में हो गया। 

कृतियाँ-आपकी प्रमुख कृतियाँ निम्न प्रकार हैं उपन्यास-सेवासदन, रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, कायाकल्प, निर्मला, प्रेमाश्रम, गोदान। 'कहानी संग्रह-प्रेमचन्द ने लगभग 300 कहानियाँ लिखी जो 'मानसरोवर' नाम से आठ खण्डों में संग्रहीत हैं। आपकी प्रसिद्ध कहानियाँ नमक का दारोगा, पंच परमेश्वर, ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी तथा मन्त्र आदि हैं।
नाटक प्रेम की वेदी, कर्बला, संग्राम। सम्पादन-हंस, जागरण, मर्यादा, माधुरी। निबन्ध संग्रह-कुछ विचार, विविध प्रसंग। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

पाठ-सारांश :

'नमक का दारोगा' हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित एक आदर्शवादी कहानी है, जिसमें कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि ईमानदारी, नैतिकता एवं कर्त्तव्यपरायणता जैसे मूल्य अभी समाप्त नहीं हुए हैं और इन मूल्यों पर चलने वालों को अन्तिम विजय अवश्य प्राप्त होती है। इस कहानी का सारांश निम्न प्रकार है मुंशी वंशीधर एक गरीब परिवार के युवक थे। 

उनकी नियुक्ति नमक विभाग में दारोगा पद पर हो गई। उनके पिता चाहते थे कि मेरा पुत्र ऊपरी आमदनी करके घर की आर्थिक स्थिति को ठीक कर दे, जिससे ऋण का बोझ समाप्त हो सके और लड़कियों की शादी की जा सके। किन्तु वंशीधर एक कर्त्तव्यपरायण एवं ईमानदार अफसर थे। पिता को जब यह सूचना मिली कि उनके पुत्र की नियुक्ति नमक के दारोगा पद पर हो गई है तो वे फूले नहीं समाए, क्योंकि इस नौकरी में ऊपरी आमदनी की पर्याप्त सम्भावना थी। 

वंशीधर कर्त्तव्यपरायण एवं ईमानदार अफसर थे। थोड़े ही दिनों में अपनी कार्य-कुशलता से उन्होंने विभागीय अफसरों को प्रसन्न कर लिया और वे विभाग के एक विश्वस्त अफसर के रूप में प्रसिद्ध हो गए। जिस स्थान पर उनकी नियुक्ति हुई वहाँ पण्डित अलोपीदीन सबसे प्रतिष्ठित जमींदार एवं व्यापारी थे। लाखों का लेन-देन, लम्बा-चौड़ा व्यापार। एक रात उनकी कई गाड़ियाँ, जिनमें नमक लदा हुआ था, वंशीधर ने पकड़ लीं, क्योंकि नमक पर प्रतिबन्ध लगा था। अलोपीदीन ने उन्हें रिश्वत देकर गाड़ियाँ छुड़ानी चाही किन्तु वंशीधर ने एक न सुनी। रिश्वत एक हजार से बढ़ाकर चालीस हजार तक देने की बात अलोपीदीन ने कही, किन्तु वंशीधर टस-से-मस न हुए और उन्होंने पण्डित अलोपीदीन को गिरफ्तार कर लिया। 

अलोपीदीन चलते-पुरजे व्यक्ति थे। अधिकारी उनके भक्त, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक थे। मुकदमा अदालत में पहुँचा और डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपना फैसला अलोपीदीन के पक्ष में सुनाया। अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया और वंशीधर को उद्दण्ड, विचारहीन बताते हुए चेतावनी दी कि व्यर्थ में भलेमानुषों को इस तरह बिना सोचे-विचारे तंग न करें। वकील प्रसन्न हो गए। अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। वंशीधर पर चारों ओर से व्यंग्य बाणों की बौछार होने लगी।

धनवान् व्यक्ति से बैर मोल लेने का नतीजा वंशीधर को भुगतना पड़ा। विभाग ने भी उन्हें निलम्बित कर दिया। कर्त्तव्यपरायणता का दण्ड उन्हें भुगतना पड़ रहा था, अत: वे निराश, दुःखी एवं व्यथित थे। घर पर पहुँचे तो पिता ने भी खूब खरी-खोटी सुनाई, पत्नी ने तो कई दिनों तक सीधे मुँह बात तक नहीं की।

एक सप्ताह बाद पण्डित अलोपीदीन सजे हुए रथ पर सवार होकर कई नौकरों के साथ वंशीधर के घर पर आए। उनके पिता ने अपने बेटे की नालायकी का उल्लेख करते हुए अलोपीदीन की अगवानी की और कहा-“लड़का अभागा है, कपूत है नहीं तो आपसे मुझे आज मुँह कहाँ छिपाना पड़ता" ? अलोपीदीन ने उन्हें रोकते हुए कहा- “आप ऐसा न कहें। संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं, जो धर्म पर अपना सब कुछ न्योछावर कर सकें।

पण्डित अलोपीदीन ने वंशीधर के समक्ष यह स्वीकार किया कि उन्होंने धन-बल से बड़े-बड़े अधिकारियों को परास्त किया, किन्तु आपकी कर्तव्यपरायणता, नैतिकता एवं ईमानदारी से मैं परास्त हो गया हूँ। वंशीधर ने विनम्रता दिखाते हुए कहा कि मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, इसीलिए आपको गिरफ्तार करना पड़ा, अन्यथा मैं आपका दास हूँ। आप जो आज्ञा देंगे, अवश्य पूरी करूँगा।

पण्डित अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ कागज निकाला। इस पत्र पर वंशीधर को उन्होंने अपनी सम्पूर्ण जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त किया था। छः हजार वार्षिक वेतन और अन्य सारी सुविधाएँ-नौकर-चाकर, सवारी, घोड़े-गाड़ी, बंगला-सब मुफ्त।

अलोपीदीन ने कहा, मुझे ऐसा ईमानदार व्यक्ति तो चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। वंशीधर ने कहा, मैं इस पद के योग्य नहीं हूँ। तब अलोपीदीन ने कहा मुझे आप जैसे अयोग्य की ही जरूरत है, वंशीधर ने उस कागज पर हस्ताक्षर कर दिए और वह पद स्वीकार कर लिया। अलोपीदीन ने उन्हें गले से लगा लिया। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

कठिन शब्दार्थ :

  • ईश्वर प्रदत्त = ईश्वर के द्वारा दी गई 
  • निषेध = मना करना
  • सूत्रपात्र = प्रारम्भ
  • घूस = रिश्वत
  • पौ-बारह होना = लाभ ही लाभ
  • बरकंदाजी = चौकीदारी (बन्दूक लेकर साथ चलने वाले सिपाही को बरकंदाज कहा जाता है)
  • प्राबल्य = प्रबलता
  • फारसीदां = फारसी भाषा के जानकार 
  • जुलेखा = यूसुफ़-जुलेखा नामक प्रेम-कथा की नायिका
  • मजनू = लैला-मजनू नामक प्रेम-कथा का नायक
  • फरहाद = शीरी-फरहाद नामक प्रेम-कथा का नायक-ये तीनों प्रेम-कथाएँ फारसी साहित्य में प्रसिद्ध रही हैं। 
  • दुर्दशा = बुरी हालत (आर्थिक तंगी)
  • कगारे पर का वृक्ष होना = नदी किनारे का वृक्ष जो कभी भी गिर सकता है (अभिप्राय यह है कि कभी भी संसार से विदा हो सकता हूँ), 
  • मालिक-मुख्तार = स्वामी (निर्णय लेने में सक्षम) 
  • ओहदा = पद
  • निगाह = दृष्टि 
  • चढ़ावे और चादर = लक्षणा से अर्थ है ऊपरी आमदनी (रिश्वत)
  • लुप्त = छिपना 
  • स्रोत = झरना। 
  • बरकत = बढ़ोत्तरी (समृद्धि)
  • पथ-प्रदर्शक = रास्ता दिखाने वाली 
  • फूले न समाए = अत्यन्त प्रसन्न हुए 
  • कलवार = शराब बनाने वाला
  • मोहित = मुग्ध (प्रसन्न) 
  • मल्लाहों = केवटों
  • कोलाहल = शोर
  • गोलमाल = गड़बड़ 
  • हृदय में धूल उठना = ईर्ष्या होना (मुहावरा)
  • कतार = पंक्ति (लाइन)। 
  • काना-फूसी होना = कान में बात कहना
  • प्रतिष्ठित = सम्माननीय
  • चलते-पुरजे आदमी = होशियार (काम बना लेने में कुशल) 
  • सदाव्रत = अन्न बाँटने का कार्य (गरीबों को मुफ्त में भोजन कराना)। 
  • बाट = प्रतीक्षा
  • लक्ष्मीजी पर अखण्ड विश्वास होना = धन की ताकत का पता होना
  • यथार्थ = वास्तविक, ठीक
  • लिहाफ = रजाई (दुशाला)
  • रुखाई = रूखे स्वर में
  • ऐश्वर्य = धन
  • मोहिनी वंशी = मोहित कर लेने वाली बाँसुरी (रिश्वत देने की बात) 
  • हिरासत = गिरफ्तार किया जाना।
  • स्तंभित = जड़, कदाचित् शायद
  • निरादर = अपमान 
  • उद्दण्ड = अक्खड़ स्वभाव का (धृष्ट)
  • मुख्तार = जमींदार का एक कर्मचारी जिसे काफी अधिकार प्राप्त होते हैं
  • अलौकिक वीरता = ऐसी वीरता जो इस लोक में नहीं दिखती
  • बहुसंख्यक सेना = रिश्वत की बड़ी रकम की पेशकश।
  • निपटारा = समापन
  • हिरासत में लेना = गिरफ्तार करना
  • हृष्ट-पुष्ट = स्वस्थ (शक्तिशाली)
  • कातर = दयनीय
  • जीभ जागती थी = तरह-तरह की बातें लोग कह रहे थे
  • टीका-टिप्पणी करना = आलोचना करना 
  • रोजनामचे = दैनिक डायरी
  • अभियुक्त = जिस पर अभियोग लगाया गया हो 
  • कांस्टेबलों = सिपाहियों
  • ग्लानि = मन ही मन होने वाली लज्जा
  • क्षोभ = दुःख, अमले = कर्मचारी
  • अरदली = बड़े अफसरों की व्यक्तिगत सेवा के लिए नियुक्त सरकारी कर्मचारी (खास चपरासी)। 
  • विस्मित = आश्चर्यचकित
  • असाध्य = जो काम बन न सके उसे असाध्य कहते हैं
  • अनन्य वाचालता = बातचीत की कुशलता 
  • कानून के पंजे में आना = कानूनी दाँव-पेंच में फंस जाना
  • तजवीज = फैसला, निर्मूल = जड़रहित
  • दुस्साहस = खतरा उठाकर हिम्मत दिखाते हुए बुरा काम करना
  • नमक हलाल = जो नमक का हक अदा करता है (सरकार मुंशी वंशीधर को वेतन देती है, उन्होंने सरकार के नमक का हक अपराधी को पकड़कर अदा किया)
  • स्वजन बांधवों = अपने भाई-बंधुओं ने
  • कटुवाक्य = कड़वे वचन
  • गर्वाग्नि = गर्व की आग।
  • प्रज्वलित करना = भड़काना
  • मुअत्तली का परवाना = नौकरी से निलम्बन (सस्पेंशन) का आदेश 
  • भग्न हृदय = टूटे हुए दिल वाले
  • व्यथित = परेशान
  • कुड़बुड़ाना = बड़-बड़ाना (बुरा-भला कहना) 
  • ओहदेदार = बड़े पद पर
  • अकारथ = व्यर्थ
  • दुरावस्था = विपत्ति (बुरी हालत)
  • सिर पीट लिया = अपना क्षोभ व्यक्त करना 
  • पछहिएँ बैल = पछाँह (पश्चिम दिशा) के बैल (मजबूत एवं स्वस्थ), 
  • अगवानी = स्वागत 
  • दंडवत = जमीन पर लेटकर प्रणाम करना। 
  • लल्लो-चप्पो करना = खुशामद करना
  • मुँह पै कालिख लगी होना = शर्मिन्दा होना (आपका अपराधी हूँ जो मेरे पुत्र ने आपको गिरफ्तार किया), 
  • कपूत = बुरा पुत्र
  • कीर्ति = यश
  • धर्म-परायण = धर्म के रास्ते पर चलने वाले
  • अर्पण करना = समर्पित करना 
  • स्वेच्छा = अपनी इच्छा से 
  • परास्त = पराजित
  • सत्कार = आदर
  • ठकुर सुहाती = खुशामदी बातें
  • असा = जो सहन करने योग्य न हो
  • मन की मैल = मन का दुर्भाव
  • दास = सेवक 
  • सिर-माथे पर होना = स्वीकार करना। 
  • त्रुटि = भूल (गलती)
  • कृतज्ञता = अहसान 
  • नियत किया था = बना दिया था। 
  • सामर्थ्य = क्षमता
  • मर्मज्ञ = मर्म को जानने वाला
  • दस्तखत = हस्ताक्षर 
  • धर्मनिष्ठ = धर्म के प्रति निष्ठा रखने वाला। 
  • संकुचित पात्र = छोटा-सा बर्तन
  • आँखें डबडबा आई = आँखों में (कृतज्ञता के) आँसू आ गए
  • प्रफुल्लित = प्रसन्न।

सप्रसंग व्याख्याएँ एवं अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - 

1. यह वह समय था, जब अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरहकथा समाप्त करके मजनू और फरहाद के प्रेम - वृत्तान्त को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्त्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे - बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। 

ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास - फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पडूं। अब तुम्हीं घर के मालिक - मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते - घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है। तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ? इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में वंशीधर के नौकरी की खोज में घर से निकलने के समय का वर्णन है। 

व्याख्या - जिस समय मुंशी वंशीधर नौकरी की खोज में घर से चले उस समय भारतीय लोग अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्म को एक ही बात मानते थे। जो भी भारतीय अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करता था, उसे लोग विधर्मी जैसा ही समझते थे। उस समय अच्छी नौकरियाँ पाने के लिए फारसी भाषा की प्रेम कथाएँ पढ़ लेना काफी समझा जाता था। फारसी के ज्ञाता को ऊँचे से ऊँचा पद मिल जाया करता था। मुंशी वंशीधर ने भी फारसी की जुलेखा, मजनू और फरहाद आदि की प्रेम कथाएँ पढ़ ली थी। उनको ये कथाएँ उस समय के युद्ध और आविष्कारों से भी अधिक महत्वपूर्ण लगती थीं। घर से चलते समय उनके पिता ने उन्हें व्यावहारिक महत्व की सीखें दीं। 

उन्हें समझाया कि परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। वह कर्ज में दबे हुए थे। लड़कियाँ बड़ी हो रही थीं। उनकी अवस्था भी बहुत हो चुकी थी। इसलिए ऊँचे पद पर अधिक ध्यान मत देना। जैसे किसी पीर के मजार (समाधि स्थल) पर रहने वाला व्यक्ति उस पर आने वाले चढ़ावे की आमदनी पर ध्यान देता है, उसी तरह नौकरी भी ऐसी होनी चाहिए जिसमें ऊपरी आमदनी अधिक हो। मासिक वेतन तो एक दिन ही पूरा दिखाई देता है और फिर खर्च होता चला जाता है। ऊपर की आमदनी सदा बहते रहने जलधारा के समान होती है। प्यास उसी से बुझा करती है। वेतन आदमी देता है और ऊपरी आमदनी ईश्वर की कृपा से होती है। 

इसलिए आदर्शों पर अधिक ध्यान मत देना। पिता ने कहा कि वह तो स्वयं ही बहुत समझदार है। नौकरी का चुनाव करते समय आदमी को व्यावहारिकता और विवेक पर ध्यान देना चाहिए। 

विशेष - कहानीकार ने अपने समय के अनुसार जो शिक्षा वंशीधर को दिलवाई है, वर्तमान में भी इसी प्रवृत्ति का प्राबल्य है। 

प्रश्न :
1. सर्वोच्च पदों पर नियुक्ति पाने के लिए उस समय कैसी शैक्षिक योग्यता पर्याप्त समझी जाती थी ?
2. नौकरी की खोज में जाते समय वंशीधर के परिवार की क्या दशा थी ?
3. वंशीधर के पिता ने उन्हें कैसी नौकरी करने की सलाह दी ?
4. ऊपर की आमदनी के बारे में वंशीधर के पिता के क्या विचार थे ?
उत्तर :
1. उस समय फारसी भाषा का बोलबाला था। प्रेम कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसी पढ़े लोग उच्च पदों पर नियुक्त हो जाते थे। मुंशी वंशीधर भी सामयिक विषयों का ज्ञान पाने के बजाय ऐसी ही प्रेमकथाएँ पढ़कर नौकरी की खोज में चल दिए।
2. नौकरी की खोज में जाते समयं परिवार ऋण के बोझ से दबा हुआ था। लड़कियाँ तेजी से बड़ी हो रही थी और उनके पिता अत्यन्त वृद्ध हो चुके थे। परिवार को एक कमाऊ सदस्य की अत्यन्त आवश्यकता थी।
3. वंशीधर के पिता ने सीख दी कि वह ऊँचे. पद पर अधिक ध्यान न दे। वह ऐसी नौकरी खोजे जिसमें ऊपर की आमदनी होती हो। ऊँचे पद से केवल सम्मान मिलता है, लेकिन काम ऊपरी आय से ही चलता है।
4. वंशीधर के पिता एक यथार्थवादी व्यक्ति थे। ऊँचे आदर्शों पर डटे रहना उनके अनुसार बुद्धिमानी नहीं थी। वह ऊपरी आय (रिश्वत) को ईश्वर की देन मानते थे। उनके अनुसार वेतन तो पूर्णमासी के चाँद के समान एक ही दिन पूरा दिखाई देता है और फिर कम होता जाता है, लेकिन ऊपरी आय निरन्तर बहने वाला वह स्रोत है, जो सदा प्यास बुझाता रहता है। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

2. पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले - चलो, हम आते हैं। यह कहकर पंडित जी ने बड़ी निश्चितता से पान के बीड़े लगाकर खाए। फिर लिहाफ़ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले - बाबूजी, आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन - सा अपराध हुआ कि गाड़ियाँ रोक दी गईं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा - दृष्टि रहनी चाहिए। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में कर चोरी करके नमक ले जा रहे पं. अलोपीदीन की गाड़ियों को दारोगा वंशीधर ने हिरासत में ले लिया है और वह अलोपीदीन की चिकनी - चुपड़ी बातों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। 

व्याख्या - पं. अलोपीदीन उस क्षेत्र के एक नामी जमींदार थे। पैसे के बल पर. उनकी हर सरकारी विभाग में धाक थी। अलोपीदीन का मानना था कि लक्ष्मी अर्थात् धन से हर काम इच्छानुसार कराया जा सकता था। उनका कहना था कि मनुष्य लोक में ही नहीं स्वर्ग लोक में भी लक्ष्मी की धाक है। लेखक के अनुसार अलोपीदीन का ऐसा कहना सच था। समाज में न्याय और नीति के अनुसार चलने की बातें तो खूब होती हैं परन्तु सच्चाई यही है कि लक्ष्मी (धन) इन सबको कठपुतली की भाँति नचाती रहती है। धन के बल पर न्यायालय के फैसले अपने पक्ष में कराये जा सकते हैं। 

नैतिकता की बड़ी - बड़ी बातें करने वाले भी धन के हाथों बिक जाते हैं। जब नमक विभाग के दारोगा बन गए मुंशी वंशीधर ने एक रात को अलोपीदीन को रंगे हाथों नमक पर कर की चोरी करते नदी किनारे पकड़ लिया तो गाड़ीवान इसकी सूचना देने अलोपीदीन के पास पहुँचे। अलोपीदीन रथ में लेटे हुए थे। लेटे ही लेटे बड़े बेफिक्री से कहा कि वे (गाड़ीवान) चलें, वह (अलोपीदीन) आ रहे हैं। 

इसके बाद पं. अलोपीदीन ने पान के बीड़े मुंह में दबाए, लिहाफ ओढ़ लिया और दारोगा के पास पहुँचकर पहले तो दारोगा को आशीर्वाद दिया और फिर दिखावटी विनम्रता से कहा कि वह तो गरीब ब्राह्मण है। उन पर तो दारोगा जी की कृपा दृष्टि होनी चाहिए। उनसे क्या गलती हो गई जो उनकी गाड़ियाँ रोक ली गई हैं। 

विशेष - 1. पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर को भी 'नमक हरामी' में लिप्त साधारण कर्मचारी समझा। यह उनकी पहली और बहुत बड़ी गलती थी। 

प्रश्न :
1. पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी के विषय में क्या विश्वास था ?
2. लेखक ने लक्ष्मी के विषय में अलोपीदीन के कथन को यथार्थ क्यों माना है ?
3. लेखक ने न्याय और नीति को क्या बताया है ?
4. अलोपीदीन दारोगा से क्या आशा करते हैं ?
उत्तर :
1. पं. अलोपीदीन का मानना था कि लक्ष्मी अर्थात् धन से हर काम इच्छानुसार कराया जा सकता था। उनका कहना था कि मनुष्य लोक में ही नहीं स्वर्गलोक में भी लक्ष्मी का राज्य है।
2. लेखक ने अलोपीदीन के कथन को यथार्थ इसलिए माना है क्योंकि समाज में न्याय और नीति के अनुसार चलने की बातें तो खूब होती हैं परन्तु सच्चाई यही है कि लक्ष्मी (धन) इन सबको कठपुतली की भाँति नचाती रहती है।
3. लेखक ने न्याय और नीति को लक्ष्मी का खिलोना बताया है।
4. अलोपीदीन दारोगा से आशा करते हैं कि वंशीधर रिश्वत लेकर उनकी गाड़ियों को छोड़ देगा। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

3. वंशीधर रुखाई से बोले - सरकारी हुक्म !
पंडित अलोपीदीन ने हँसकर कहा - हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं ? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारी की नयी उमंग थी। कड़ककर बोले - हम उन नमक हरामों में नहीं हैं जो कौड़ियों में अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपका कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुरसत नहीं है। जमादार बदलू सिंह ! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में पं. अलोपीदीन दारोगा वंशीधर को धन के बल पर खरीदना चाहता है लेकिन वंशीधर पर इस धन की शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। 

व्याख्या - जब अलोपीदीन ने दारोगा वंशीधर से पूछा कि उनसे कौन - सा अपराध हो गया था कि उनकी नमक से भरी गाड़ियाँ रोक दी गईं तो वंशीधर ने रूखेपन से उत्तर दिया कि सरकार का हुक्म था कि नमक की चोर - बाजारी को सख्ती से रोका जाए। सौदेबाजी में कुशल अलोपीदीन ने बड़ी विनम्र वाणी में कहा कि वे किसी सरकार और सरकारी हुक्म को नहीं जानते। उनकी सरकार और सरकारी हुक्म तो दारोगा जी ही थे। रिश्वत की पेशकश करते हुए वंशीधर ने कहा कि उनके और दारोगा साहब के तो घर के से संबंध हैं। 

वह भला उनकी उपेक्षा कैसे कर सकते थे। वह व्यर्थ में आधी रात में उठकर नदी किनारे तक आए। उनकी भेंट तो स्वयं ही उनके पास पहुँच जाती। भला यह कैसे हो सकता है कि हम नदी के घाट से होकर जाएँ और वहाँ के अधिकारी को भेंट चढ़ा के न जाएँ। अलोपीदीन ने कहा कि वह तो स्वयं ही दारोगा जी के पास सेवा करने आ रहे थे। रिश्वत की दुनिया के सारे दाव - पेंच अलोपीदीन जानते थे। परन्तु इस बार उनका पाला एक ईमानदार नौजवान से पड़ा था। 

उन्होंने कड़ककर कहा कि वह उन भ्रष्ट कर्मचारियों में से नहीं है जो जरा - जरा - सी रिश्वत के लिए अपना ईमान बेच देते हैं। उन्होंने अलोपीदीन से कहा कि उनको हिरासत में लेने का हुक्म हो गया था। उनका अगले दिन बाकायदा चालान होगा। उन्होंने अपने अधीनस्थ कर्मचारी बदलू सिंह को आदेश दिया कि वह अलोपीदीन को हिरासत में लेकर चले। 

विशेष : प्रेमचंद ने अपने समय के भ्रष्ट व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों के चाल - चलन की जीवंत झाँकी प्रस्तुत की है। वहीं वंशीधर जैसे चरित्रवान युवकों का आत्मविश्वास बढ़ाया है।

प्रश्न :
1. वंशीधर ने नमक से भरी अलोपीदीन की गाड़ियों को रोके जाने का क्या कारण बताया ?
2. अलोपीदीन ने सरकार और सरकारी हुक्म के बारे में क्या कहा?
3. 'ऐश्वयं की मोहिनी वंशी' का क्या आशय है ?
4. नमक के दारोगा वंशीधर ने अलोपीदीन को अपने बारे में क्या बताया ?
उत्तर :
1. "धर ने अलोपीदीन की गाड़ियाँ रोके जाने का कारण सरकारी आदेश को बताया। बिना कर चुकाये चोरी - छिपे नमक का व्यापार पर रोक लगा दी गई थी।
2. अलोपीदीन दारोगा वंशीधर को खुश करने और अपना काम बनाने के लिए कहा कि वह तो दारोगा साहब को ही सरकार और सरकारी हुक्म मानते थे।
3. 'ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी' का आशय है - धन में सबको वश में करने की शक्ति है। पंडित अलोपीदीन अपने पैसे के बल पर दारोगा को अपने वश में करना चाहते थे लेकिन ईमानदार दारोगा ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
4. दारोगा वंशीधर ने अलोपीदीन की चिकनी - चुपड़ी बातों पर ध्यान नहीं दिया और कहा कि वह उन भ्रष्ट कर्मचारियों में से नहीं है। जो थोड़ी - सी रिश्वत के लिये अपना ईमान बेच देते हैं। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

4. पंडित अलोपीदीन स्तंभित हो गए। गाड़ीवानों में हलचल मच गई। पंडित जी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को यह ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं। बदलू सिंह आगे बढ़ा किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उदंड लड़का है। माया - मोह के जाल में अभी नहीं पड़ा। अल्हड़ है, झिझकता है। बहुत दीन - भाव से बोले - बाबू. साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी! हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण हमारी पाट्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अवतरण में पं. अलोपीदीन के धन पर आधारित अहंकार के नष्ट होने का वर्णन हुआ है। 

व्याख्या - अलोपीदीन को धन की शक्ति पर अटूट विश्वास था। उन्होंने इसी बल पर दारोगा वंशीधर को भी खरीदना चाहा था। लेकिन वंशीधर की चरित्रनिष्ठा के आगे उनका अहंकार चूर - चूर हो गया? वह दारोगा के व्यवहार से चकित और असहाय से हो गए। गाड़ीवानों ने भी ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था। वे भी घबरा गए। इससे पहले लक्ष्मी जी के उपासक पंडित अलोपीदीन को एक साधारण सरकारी कर्मचारी से ऐसी कठोर बातें नहीं सुननी पड़ी थीं।

उनके धनबल के सामने बड़े - बड़े अधिकारी भी परास्त होते रहे थे। धर्म या सदाचार द्वारा धन का ऐसा अपमान होते उन्होंने पहली बार देखा था। लेकिन पंडित जी ने हार नहीं मानी। उन्होंने सोचा कि अभी दारोगा में जवानी और ईमानदारी का जोश है और धन से मिलने वाली जीवन की सुख - सुविधाओं के मोह जाल में नहीं पड़ा है। अभी रिश्वत लेने में झिझक रहा है। अत: अलोपीदीन ने तुरंत नया पैंतरा बदला। 

अलोपीदीन वह बड़ी दीनता दिखाते हुए बोले कि दारोगा साहब ऐसा न कीजिए। हिरासत में देखकर लोग उनकी हँसी उड़ाएंगे। उनकी इज्जत धूल में मिल जाएगी। इस व्यवहार से आपको क्या लाभ मिलेगा? वह उनके (दारोगा के) आदेश से बाहर नहीं रहेंगे। पूरी कीमत चुकाएँगे। लेकिन दारोगा ने अलोपीदीन को कठोरता से फटकार दिया। 

विशेष - यद्यपि आज के समाज में भ्रष्ट आचरण का बोलबाला है। रिश्वत का लेन - देन साधारण सी बात समझी जाती है। किन्तु चरित्रवान लोग पहले भी थे और आज भी हैं। विजय धर्म को ही होती है। यही संदेश इस अवतरण में दिया गया है। 

प्रश्न :
1. पण्डित अलोपीदीन स्तंभित क्यों हो गए ?
2. अलोपीदीन के जीवन में पहला अवसर क्या था ?
3. दारोगा के व्यवहार को देखकर अलोपीदीन क्या सोचने लगे ?
4. अलोपीदीन ने दीन - भाव से क्या कहा ?
उत्तर :
1. अलोपीदीन ने अब तक धन के बल पर सैकड़ों लोगों को झकाया और खरीदा था लेकिन दारोगा की कठोर बातें सुनकर वह चकित रह गया। ऐसा कठोर व्यवहार और धन का निरादर जीवन में पहली बार ही उन्हें झेलना पड़ा था।
2. पण्डित जी अलोपीदीन को पहली बार किसी साधारण सरकारी कर्मचारी के द्वारा ऐसी कठोर और अपमानजनक बातें सुननी पड़ी थीं।
3. दारोगा का कठोर व्यवहार देखकर अलोपीदीन सोचने लगे कि यह अभी लड़का है, इसलिए उद्दण्डतापूर्ण व्यवहार कर रहा है। अभी धन की महिमा से परिचित नहीं है। नासमझ होने के कारण इसे रिश्वत लेने में झिझक हो रही है।
4. अलोपीदीन ने बड़े दीनभाव से दारोगा से कहा कि वह उनको हिरासत में न लें। इससे उनकी सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

5. वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा - हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।
अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन - ऐश्वर्य को कड़ी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने गुख्तार से बोले - लाला जी, एक हजार के नोट बाबू साहब को भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'न' का दारोगा' से लिया गया है। इस गद्यांश में कहानीकार ने दारोगा की ईमानदारी के आगे अलोपीदीन के धन - बल को परास्त होत खाया है।

व्याख्या - जब कर चोरी में अलोपीदीन पकड़े गए और दारोगा बंशीधर ने उन्हें हिरासत में लेने का आदेश दिया तो वह घबरा गए। उन्होंने वंशीधर को पटाने के लिए बड़ी दीनता से प्रार्थना की और पैसे की पेशकश भी की। किन्तु जब दारोगा ने कठोर रुख दिखाया तो अलोपीदीन के पैरों के नीचे जमीन खिसकने लगी। वह तो अब तक समझते थे कि पैसा हर समस्या को हल कर सकता है। 

किन्तु दारोगा के व्यवहार से उनके धन का घमण्ड चूर हो गया। इसके साथ ही उनके स्वाभिमान को भी चोट लगी। फिर भी अलोपीदीन ने हथियार नहीं डाले। उन्हें धन की संख्या बढ़ाकर दारोगा को वश में कर लेने का विश्वास था। उन्होंने अपने कर्मचारी से कहा कि वह दारोगा को एक हजार रुपये भेंट करे। उस समय एक हजार रुपये बड़ी रकम होतो थी। उन्होंने व्यंग्य भी किया कि दारोगा भूखे शेर के समान रिश्वत का भूखा था। इसीलिए कड़ाई दिखा रहा था।

विशेष - चरित्रवान व्यक्तियों के लिए रुपया एक तुच्छ वस्तु होती है। वे पैसे के लिए आत्मसम्मान को दाँव पर नहीं लगाते। 

प्रश्न :
1. अलोपीदीन के रिश्वत के प्रस्ताव पर वंशीधर ने क्या कहा ?
2. अलोपीदीन ने किस सहारे को चट्टान के समान मजबूत और विश्वास योग्य समझ रखा था?
3. 'धन की सांख्यिक शक्ति' का अभिप्राय क्या है ?
4. 'भूखे सिंह के समान' किसे और क्यों कहा गया है ?
उत्तर :
1. वंशीधर ने कहा कि वह इस तरह की बातें नहीं सुनना चाहता।
2. अलोपीदीन ने धन की शक्ति को चट्टान के समान मजबूत सहारा समझ रखा था।
3. 'धन की सांख्यिक शक्ति' का आशय है - धन की मात्रा बढ़ाना अर्थात अधिक पैसा रिश्वत में देना।
4. वंशीधर को अलोपीदीन ने भूखा सिंह बताया उनको लगता था कि और अधिक रिश्वत पाने के लिए दारोगा सख्ती दिखा 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

6. वंशीधर ने गरम होकर कहा - एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।
धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव - दुर्लभ त्याग पर धन बहुत झुंझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल - उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पन्द्रह और पन्द्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ इस बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खड़ा था।
अलोपीदीन निराश होकर बोले - अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में कहानीकार ने चरित्रबल व धनबल के बीच संग्राम दिखाते हुए, चरित्रवान वंशीधर को विजयी दिखाया है। 

व्याख्या - जब अलोपीदीन ने अपने मुख्तार से वंशीधर को एक हजार रुपये देने को कहा तो वंशीधर भड़क गये और बोले कि एक हजार तो क्या आप मुझे एक लाख भी रिश्वत दें तो भी वह सच्चाई के मार्ग से नहीं डिग सकते। लेखक कहता है कि उस रिश्वत और घूसखोरी के आलम में वंशीधर का इतनी बड़ी रकम को ठुकराना उनकी मूर्खता ही मानी जाती। इतना बड़ा त्याग तो देवता भी नहीं कर सकते। 

अपनी धनशक्ति का धर्माचरण पर दृढ़ वंशीधर द्वारा तिरस्कार होता देख अलोपीदीन को बड़ी झुंझलाहट हुई। अब तो एक नया ही दृश्य उपस्थित हो गया। धर्मशक्ति और धनशक्ति के बीच संग्राम सा छिड़ गया। अलोपीदीन ने एक हजार से पाँच हजार, पाँच हजार से दस, पन्द्रह और बीस हजार तक धनराशि बढ़ा दी। परंतु धन के इन आक्रमणों का धर्म पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। वंशीधर अपनी आन पर पर्वत के समान अडिग खड़े थे। धर्म के ब्रह्मास्त्र से उन्होंने धन के सारे प्रहार विफल कर दिए।

अलोपीदीन थक गए। हथियार डाल दिए। बोले कि इससे अधिक धन देने की उनमें शक्ति नहीं थी। लेकिन यह कुछ क्षण भर का युद्ध विराम था। 

विशेष - धन के उपासकों को वंशीधर का आचरण भले ही उनकी मूर्खता लगे लेकिन ऐसे ही चरित्रवान लोगों पर आज भी दलित, पीड़ित और सदाचारी लोगों की आशाएँ टिकी हुई हैं। 

प्रश्न :
1. अलोपीदीन द्वारा एक हजार रुपये देने के प्रस्ताव पर वंशीधर ने क्या कहा ?
2. अलोपीदीन को झुंझलाहट क्यों हुई ?
3. अलोपीदीन ने वंशीधर को झुकाने के लिए क्या करना प्रारम्भ कर दिया ?
4. लेखक ने धर्म की अलौकिक वीरता किसे बताया है ?
उत्तर :
1. वंशीधर ने कहा कि अलोपीदीन एक लाख रुपये भी दें तो भी वह रिश्वत स्वीकार नहीं करेंगे।
2. अलोपीदीन के लिए धन ही सबसे बड़ा हथियार था। जब उन्होंने दारोगा को अपने चरित्र पर दृढ़ देखा तो उन्हें यह काम दारोगा की मूर्खता प्रतीत हुई। इसी कारण वह झुंझला उठे।
3. अलोपीदीन ने अपनी धन शक्ति का प्रभाव जमाने के लिए रिश्वत की राशि को बढ़ाना आरम्भ कर दिया। 4. लेखक ने धर्म (वंशीधर) की अलौकिक वीरता धन की शक्ति के आगे न झुकने को बताया है। 

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

7. वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलू सिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा। पंडित घबराकर दो - तीन कदम पीछे हट गए। अत्यन्त दीनता से बोले - 'बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूँ।
'असम्भव बात है।'
'तीस हजार पर?'
'किसी तरह संभव नहीं।'
"क्या चालीस हजार पर भी नहीं?'
'चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असंभव है। बदलूसिंह, इस आदमी को अभी हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।'
धर्म ने धन को पैरों - तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट - पुष्ट मनुष्य को हथकड़ियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद एकाएक मूर्छित होकर गिर पड़े।

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में अलोपीदीन द्वारा रिश्वत की रकम चालीस हजार तक ले जाने और वंशीधर द्वारा ठुकरा देने का वर्णन है। 

व्याख्या - वंशीधर ने रुष्ट होकर अपने जमादार को ललकार कर कहा कि वह तुरंत अलोपीदीन को हिरासत में ले ले। जमादार बदलू सिंह दारोगा की हठ देखकर उसे कोस रहा था। अगर दारोगा अलोपीदीन से घूस ले लेता तो जमादार को भी कुछ इनाम पाने की आशा थी। अत: वह मन ही मन वंशीधर को गालियाँ देता हुआ अलोपीदीन की ओर बढ़ा। उसे अपनी ओर आते देखकर अलोपीदीन घबराकर दो - तीन कदम पीछे हट गए। बड़ी दीनता दिखाते हुए बोले कि मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार रुपयों पर मामला निपटाने को तैयार हूँ। 

लेकिन दारोगा वंशीधर ने चालीस लाख पर भी अपना कर्तव्य - धर्म न छोड़ने की घोषणा कर दी। बदलू सिंह से कहा कि अब वह इस बारे में एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते। वह तुरंत उस आदमी को हिरासत में ले। आखिरकार धर्म, धन पर विजयी हो गया। धन को धर्म ने पद - दलित कर डाला। जब अलोपीदीन ने बदलू सिंह को अपनी ओर हथकड़ियाँ लिए आते देखा तो वह बड़े असहाय और निराश होकर चारों तरफ देखने लगे। इतना बड़ा अपमान नहीं सह सके और वहीं मूर्छित होकर गिर पड़े।

विशेष - ऐसे दृश्य आजकल दुर्लभ हो चुके हैं। आज तो आदमी पैसे के बदले कुछ भी करने को तैयार रहता है। अवतरण से यही संदेश मिलता है कि देश आज भी वंशीधर जैसे कर्मचारी चाहता है। 

प्रश्न :
1. बदलू सिंह मन ही मन दारोगा जी को गालियाँ क्यों दे रहा होगा ?
2. 'चालीस हजार नहीं, चालीस लोख पर भी असम्भव है' इस कथन से वंशीधर की कौन - सी चारित्रिक विशेषता का परिचय मिलता है ?
3. धर्म ने धन को किस प्रकार पैरों तले कुचल डाला ?
4. वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए वंशीधर के आचरण को आप समझदारी मानेंगे या बुद्धिहीनता ?
उत्तर :
1. बदलू सिंह भी चाहता था कि दारोगा जी रिश्वत ले लें। इससे उसे भी कुछ इनाम पा जाने की उम्मीद थी। दारोगा जी उसका भी नुकसान करा रहे थे।
2. इस कथन से ज्ञात होता है कि वंशीधर कर्तव्यनिष्ठ और चरित्रवान व्यक्ति था।
3. अलोपीदीन चालीस हजार के प्रलोभन से भी दारोगा वंशीधर को नहीं खरीद पाए। उनका धन - बल का सारा अहंकार चूर - चूर हो गया। धर्म ने धन को चरणों पर गिरने को मजबूर कर दिया।
4. वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए लोग उन्हें कदापि बुद्धिमान नहीं मानेंगे। भला चालीस हजार की रकम को, निष्ठा और चरित्र के नाम पर ठुकरा देने वाला व्यक्ति, आज के परिवेश में समझदार कैसे माना जाएगा। 

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8. दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक - वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका - टिप्पणी कर रहा था, निन्दा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोज़नामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफ़र करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साहूकार, यह सब - के - सब देवताओं की भाँति गरदनें चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गरदन झुकाए अदालत की तरफ़ चले, तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित् आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में पण्डित अलोपीदीन की गिरफ्तारी पर जनता की प्रतिक्रिया दिखाई गई है। 

व्याख्या - जब शहर के लोगों को पता चला कि पंडित अलोपीदीन नमक की चोर - बाजारी में गिरफ्तार हो गए थे, तो सारे शहर में हलचल - सी मच गई। भ्रष्टाचार और रिश्वत की ओर ध्यान न देने वाले साधारण लोग भी अलोपीदीन के इस कारनामे पर टीका - टिप्पणी कर रहे थे। भले - बुरे सभी की जबान आलोचना करने में लगी हुई थी। लोग इतने बड़े आदमी के द्वारा नमक कर की चोरी करने पर धिक्कार रहे थे। 

ऐसा लगता था कि जैसे संसार में केवल अलोपीदीन ने ही पाप किया था और सभी पापियों का पाप माफ हो गया था। जो खुद बेईमानी, धोखाधड़ी, मिलावट और सूदखोरी करने वाले लोग थे, वे भी उस समय देवता बने हुए थे। अपने पापों को भूल गए थे। दूध में पानी मिलाकर बेचने वाला ग्वाला, जाली डायरी भरने वाले अधिकारी, रेलगाड़ी में बिना टिकट चलने वाले सभ्य लोग, जाली कागजात तैयार करके कर्जदारों को ठगने वाले सेठ - साहूकार सभी इस समय परम धर्मात्माओं की तरह गरदन चला - चलाकर अलोपीदीन के कार्य की निंदा कर रहे थे।

जब अगले दिन पुलिस द्वारा गिरफ्तार होकर अलोपीदीन अपराधी की तरह हथकड़ियाँ पहने बाजार से निकले तो उनका मन ग्लानि और लज्जा से तार - तार हो रहा था। लज्जा और क्षोभ से उनका सिर झुका हुआ था। उनको देखने के लिए गली, बाजार और ' छतों पर भीड़ इकट्ठी हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे सारा शहर सड़कों पर आ गया हो। मेलों में भी लोग किसी वस्तु को देखने लिए इतने बेचैन नहीं होते जितना अपराधी के रूप में जा रहे आलोपीदीन को देखने के लिए हो रहे थे। दीवारों पर, छतों पर और जमीन पर जिधर देखो उत्सुक लोगों की भीड़ लगी थी। 

विशेष - कहानीकार ने इस दृश्य की योजना के द्वारा भारतीय समाज के विचित्र आचरण के दर्शन कराए हैं। 

प्रश्न :
1. 'दुनिया की जीभ जागने' का आशय क्या है ?
2. अलोपीदीन की आलोचना करने वालों में कैसे - कैसे लोग शामिल थे ?
3. शहर में हलचल मचने का कारण क्या था ?
4. गिरफ्तार होकर जा रहे अलोपीदीन की मनोदशा कैसी थी?
उत्तर :
1. आम आदमी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को देखते हुए भी उसकी तरफ से उदासीन बना रहता है। दुनिया के सोने का यही आशय है, लेकिन किसी भ्रष्ट व्यक्ति के पकड़े जाने पर हर आदमी उसकी निन्दा करने, टीका - टिप्पणी करने में आगे रहता है। यही कारण था कि अलोपीदीन के कर चोरी में गिरफ्तार होने पर समाज के भले - बुरे सभी लोग अलोपीदीन की निन्दा कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि मानो अलोपीदीन के पकड़े जाते ही संसार का सारा पाप समाप्त हो गया था। 

2. अलोपीदीन की आलोचना करने वालों में समाज के हर स्तर और चरित्र के लोग सम्मिलित थे। दूध में पानी मिलाकर ग्राहकों की जेब काटना, फर्जी डायरियाँ भरकर भत्ते बनाना, जाली कागजात बनाकर सीधे - सादे लोगों की जमीन - जायदाद पर कब्जा करना या मनमानी ब्याज वसूलना, रेल में बिना टिकट यात्रा कर रेलवे विभाग को चूना लगाना, क्या ये सभी काम अपराध की श्रेणी में नहीं आते ? लेकिन अलोपीदीन के पकड़े जाने पर ये सारे भ्रष्ट - चरित्र वाले लोग देवताओं के समान पवित्र बन रहे थे और गरदने हिला - हिलाकर पंडित अलोपीदीन के आचरण पर टीका - टिप्पणी कर रहे थे। 

3. पंडित अलोपीदीन अपने इलाके के बहुत बड़े जमींदार और दबदबे वाले व्यक्ति थे। धन के बल पर उन्होंने सरकारी अधिकारी और कर्मचारी सभी को अपना मुरीद बना रखा था। वह कानून के अनुसार नहीं बल्कि कानून उनके अनुसार चलता था। ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति को साधारण अपराधी की तरह हथकड़ी पहने और गरदन झुकाए रास्ते पर चलते देखकर व सुनकर शहर में हलचल मचना स्वाभाविक था। 

4. अलोपीदीन अपने इलाके के बहुत बड़े जमींदार और धनी व्यक्ति थे। अपने पैसे के बल पर उन्होंने जनता में ही नहीं सरकारी विभागों में भी दबदबा कायम कर रखा था। लेकिन एक साधारण से दारोगा से पराजित होने के कारण और सार्वजनिक रूप में हथकड़ियाँ पहने न्यायालय जाते हुए उनका मन लज्जा और ग्लानि से भरा हुआ था। उनका सिर झुका हुआ था।

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9. सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करनेवाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किन्तु लोभ से डाँवाडोल। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। अदालत में न्याय का नाटक हुआ। वकील, गवाह और न्यायाधीश सब धन के गुलाम नजर आ रहे थे। इसी दृश्य को कहानीकार ने इस अंश में साकार किया है। 

व्याख्या - जब अलोपीदीन न्यायालय में पहुँचे तो वहाँ उपस्थित लोग उन्हें देखने को दौड़े चले आए। ये सभी लोग बड़े चकित हो रहे थे। ये लोग इसलिए आश्चर्य नहीं कर रहे थे कि अलोपीदीन ने ऐसा काम क्यों किया। ये तो इसलिए चकित हो रहे थे कि अलोपीदीन जैसा चतुर खिलाड़ी कानून के पंजे में कैसे फंस गया? अलोपीदीन के पास धन की कोई कमी नहीं थी। धन के बल पर तो बड़े - बड़े कठिन कार्य भी संपन्न हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अलोपीदीन वाक्पटुता से प्रभावित करने में भी बड़े कुशल थे। 

न्यायालय में विद्यमान हर व्यक्ति अलोपीदीन के प्रति सहानुभूति दिखा रहा था। शीघ्र ही कानून के बंधन काटने के लिए वकीलों की सेना तैयार की गई। अब न्यायालय में धर्म (वंशीधर) और धन (अलोपीदीन) फिर आमने - सामने थे। वंशीधर के साथ कोई नहीं था। सत्य आचरण ही उनका साथी था। सत्य और स्पष्ट बातों के अलावा उनके पास आत्मरक्षा के लिए कोई अन्य हथियार भी नहीं था। यद्यपि नदी किनारे हुई घटना के गवाह भी मौजूद थे लेकिन उनको पैसे से खरीदना बड़ा आसान था। इस प्रकार एक कर्तव्यनिष्ठ राजकर्मचारी को अपनी लड़ाई अकेले ही लड़नी थी। 

विशेष - गद्यांश में दिखाया गया न्यायालयों का वातावरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है। कानून का प्रयोग अपराधी की रक्षा के लिए होना, हमारी न्याय व्यवस्था पर आज भी एक प्रश्न - चिह्न बना हुआ है। 

प्रश्न :
1. लोगों के विस्मित होने का क्या कारण था ?
2. वंशीधर न्यायालय में चुपचाप क्यों खड़े थे ?
3. अलोपीदीन को कानूनी पंजे से बचाने के लिए क्या किया गया ?
4. वंशीधर द्वारा लाए गए गवाहों की मानसिक स्थिति कैसी थी?
उत्तर :
1. अलोपीदीन को अपराधी के रूप में अदालत आया देखकर न्यायालय के सभी कर्मचारी चकित हो रहे थे। वे लोग इस बात को लेकर विस्मित हो रहे थे कि अलोपीदीन जैसा व्यक्ति कानून के चक्कर में कैसे फंस गया ? जिसके पास असम्भव को भी सम्भव बना देने वाला धन हो और जो बातें बनाने में परम कुशल हो, उसका कानून की पकड़ में आ जाना उनके लिए अविश्वसनीय बात थी। 

2. सारा न्याय विभाग अलोपीदीन के पक्ष में एकजुट था। वंशीधर को केवल अपने सत्यनिष्ठ आचरण और स्पष्ट भाषण का सहारा था। उनके गवाह भी धन के हाथों बिक चुके थे। यहाँ तक कि स्वयं न्यायाधीश की सहानुभूति भी अलोपीदीन की ओर झुकी प्रतीत होती थी। यही कारण था कि बेचारे वंशीधर असहाय भाव से चुपचाप खड़े थे।

3. अलोपीदीन को कानूनी पंजे से बचाने के लिए न्यायालय में वकीलों की एक सेना तैयार की गई। 

4. वंशीधर द्वारा लाए गए गवाहों के मन पैसों के लोभ से चलायमान थे।

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10. यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ दीख पड़ता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल ? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। 

वह एक बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं हैं, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दडंता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम से सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक से महकमे की बढ़ी हुई नमकहलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में न्यायालय में एक कर्तव्यनिष्ठ राजकर्मचारी के साथ हुए अन्याय का वर्णन है। न्यायाधीश ने वंशीधर को ही दोषी ठहरा दिया।

व्याख्या - वंशीधर को लगा कि उनके साथ न्याय हो पाना कठिन है। न्यायालय तो न्याय का स्थान होता है किन्तु इस न्यायालय के हर कर्मचारी में अलोपीदीन के प्रति पक्षपात की भावना भरी हुई थी। जहाँ पक्षपात होगा वहाँ भला न्याय की आशा कैसे की जा सकती है। न्याय का यह नाटक थोड़ी ही देर में समाप्त हो गया। न्यायाधीश के आसन पर विराजमान डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपने निर्णय में लिखा कि दारोगा वंशीधर द्वारा अलोपीदीन पर लगाए गए आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण सही सिद्ध नहीं हुआ। 

ये सभी प्रमाण निराधार है और सही नीयत से प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। अलोपीदीन बहुत बड़े आदमी हैं। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि इतना संपन्न व्यक्ति थोड़ा - सा कर बचाने के लिए इतना खतरा मोल लेगा। मजिस्ट्रेट ने आगे लिखा था कि मुंशी वंशीधर का दोष बहुत अधिक नहीं था लेकिन उन्होंने मनमानी करते हुए जो कदम उठाया उसके कारण समाज के एक सज्जन व्यक्ति को अपमान का सामना करना पड़ा। अपने पक्षपात पर पर्दा डालने को न्यायाधीश ने कहा कि उन्हें प्रसन्नता है कि दारोगा वंशीधर अपने कर्तव्य पालन में तत्पर रहता है किन्तु नमक विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण उसकी बुद्धि और विवेक भी भ्रष्ट हो गए और उसने ऐसा निंदनीय कार्य किया। उसे भविष्य में बहुत सावधानी से कार्य करना चाहिए।

विशेष : न्यायालयों में आज भी लगभग यही वातावरण है। वकीलों की फौज इकट्ठी करने में समर्थ, समाज के संपन्न लोगों ने न्याय को साधारण और सच्चे लोगों की पहुँच से बाहर कर दिया है। 

प्रश्न :
1. न्याय का दरबार किसे बताया गया है ? वहाँ के कर्मचारियों का आचरण कैसा था ?
2. न्याय की कल्पना कहाँ नहीं की जा सकती ?
3. मजिस्ट्रेट महोदय ने पंडित अलोपीदीन को कैसा आदमी बताया ?
4. न्यायाधिकारी ने दारोगा वंशीधर के चरित्र पर क्या टिप्पणी की ?
उत्तर :
1. अदालत को न्याय का दरबार बताया गया है। वहाँ के कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था।
2. जहाँ न्यायकर्ताओं और न्यायालय कर्मियों के मन में पक्षपात की भावना रहती है, वहाँ न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
3. मजिस्ट्रेट महोदय ने अलोपीदीन को एक बहुत बड़ा आदमी बताया।
4. न्यायाधीश ने अपने निर्णय में लिखा कि नमक विभाग में भ्रष्टाचार व्याप्त था। इसी कारण दारोगा की बुद्धि और विवेक नष्ट हो गए। उसने अकारण एक सज्जन व्यक्ति को अपमानित कराया। उसे भविष्य में सावधान रहना चाहिए। 

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11. वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य - परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढे मुंशीजी तो पहले ही से कुड़बुड़ा रहे थे कि चलते - चलते इस लड़के को समझाया था लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठे और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे, लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में कर्तव्यनिष्ठ और सच्चाई पर दृढ़ रहने वाले दारोगा वंशीधर को पद से हटा दिए जाने और परिवार में उनके अपमान का वर्णन है। 

व्याख्या - धर्म और सच्चाई पर आरूढ़ दारोगा वंशीधर ने धनी व्यक्ति अलोपीदीन से शत्रुता मोल ली थी। उसका बदला तो उन्हें चुकाना ही था। एक सप्ताह ही बीता होगा कि उनको पद से बरखास्त कर दिया गया। कर्तव्यनिष्ठा के बदले बेचारे नवयुवक को दंड का पुरस्कार मिला। वंशीधर को इस विचित्र अनुभव ने भीतर तक झकझोर दिया। उनका हृदय टूट गया। बड़े दुखी मन से घर लौट आए। जब पिता को यह समाचार ज्ञात हुआ तो वह बहुत बड़बड़ाये। कहने लगे कि उन्होंने चलते - चलते इस लड़के को बहुत समझाया था लेकिन इसने मनमानी करके अपना जीवन खराब कर लिया। घर तो उधारी पर चल रहा है। हम तो रोज तकादे सहते हैं। भगत बनकर किसी तरह जीवन बिता रहे हैं। ऊपर की कोई आमदनी नहीं। कहीं सूखी तनख्वाह में घर चला करते हैं। पिता ने पुत्र की ईमानदारी पर भी व्यंग्य किया। 

विशेष - व्यवस्था और भ्रष्ट लोगों से टकराना सबके वश की बात नहीं। वंशीधर को जो दंड मिला वह हमारे देश के युवाओं को भविष्य के बारे में सोचने को मजबूर करता है।

प्रश्न :
1. वंशीधर ने किससे बैर मोल लिया था और इसका क्या परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा?
2. वंशीधर द्वारा अलोपीदीन के प्रति किए गए व्यवहार के बारे में सुनकर उनके पिता की क्या प्रतिक्रिया हुई ? 3. बूढ़े मुंशी जी ने पुत्र को चलते - चलते क्या समझाया था, जो वंशीधर ने नहीं माना।
4. 'बुढ़ापे में भगत बनकर बैठे' का आशय क्या है ?
उत्तर :
1. वंशीधर ने धन से अर्थात् धन - बल से सम्पन्न अलोपीदीन से बैर मोल लिया था। अलोपीदीन ने अपने प्रभाव से वंशीधर को नौकरी से मुअत्तल करा दिया। कर्तव्यनिष्ठ वंशीधर को पुरस्कार के बजाय दंड का भागी होना पड़ा। बेचारे दुखी मन से घर लौट आए। धन की शक्ति को चुनौती देने का यही दुष्परिणाम उन्हें भोगना पड़ा। 

2. जब वंशीधर के पिता ने वंशीधर द्वारा अलोपीदीन को गिरफ्तार किए जाने के बारे में सुना तो उन्हें अपने लड़के के व्यवहार पर बहुत क्षोभ हुआ। वह पैसे को महत्त्व देते थे। उन्होंने घर से चलते समय वंशीधर को ऊपरी आमदनी को महत्त्व देने का उपदेश दिया था, लेकिन पुत्र ने इसके ठीक विपरीत आचरण किया। अत: उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। 

3. पिता ने वंशोधर को समझाया था कि वह ऊँचे ओहदे पर ध्यान न दे। ऐसी नोकरी करे जिसमें ऊपरी आमदनी अच्छी हो। 

4. इसका आशय यह है कि पूजा - पाठ में मन लगाकर रहना।

वंशीधर की बातों को सुनकर अलोपीदीन स्तंभित क्यों रह गए? - vansheedhar kee baaton ko sunakar alopeedeen stambhit kyon rah gae?

12. पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा - दारोगा जी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार - बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था किन्तु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा, किन्तु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ। 

वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया किन्तु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं। क्षमा - प्रार्थना करने की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुर - सुहाती की बात असह्य - सी प्रतीत हुई। पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन का मैल मिट गया। पंडितजी की ओर उड़ती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शरमाते हुए बोले - यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी, वह मेरे सिर - माथे पर। 

संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इस अंश में अलोपीदीन द्वारा वंशीधर के सद्गुणों की प्रशंसा करने का वर्णन है।

व्याख्या - दारोगा वंशीधर ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा की उमंग में पंडित अलोपीदीन के धन बल के अहंकार को चूर - चूर कर दिया था और उसके परिणामस्वरूप उन्हें अपनी नौकरी भी गँवानी पड़ी थी। परन्तु अलोपीदीन ने दारोगा के भीतर छिपे हीरे को पहचान लिया था। एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि अलोपीदीन वंशीधर के घर जा पहुंचे। वंशीधर ने सोचा कि ये महाशय उन्हें लज्जित करने को पधारे हैं। 

किन्तु जब अलोपीदीन ने वंशीधर के पिता के सामने वंशीधर की प्रशंसा की तो वंशीधर का विचार बदला। अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा कि वह उनकी खुशामद करने वहाँ नहीं आए थे। इतनी दूर आकर उन्हें खुशामद करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उस दिन नदी किनारे आपने मुझे एक पुलिस अधिकारी के रूप में बल प्रयोग से गिरफ्तार किया था। किन्तु आज मैं स्वयं चलकर आपकी हिरासत में आया हूँ। इसका कारण है कि मैंने अपने धन बल और वाक्पटुता से आज तक न जाने कितने रईसों, अमीरों और उच्च पदाधिकारियों को वश में कर लिया। उनसे मनचाहा काम कराया। किन्तु आप पर मेरा जादू नहीं चल सका। मुझे आपसे हार माननी पड़ी। अलोपीदीन ने कहा कि वह उनसे (दारोगा से) कुछ अनुरोध करना चाहते थे

वंशीधर अलोपीदीन की बातें सुनकर चकित से रह गए। जब अलोपीदीन आये थे तो वंशीधर ने उनका स्वागत - सत्कार किया था, किन्तु स्वाभिमान के साथ किया था। अपने पिता की भाँति लल्लो - चप्पो या खुशामद नहीं की थी। उन्होंने अलोपीदीन से क्षमा भी नहीं माँगी थी। उनको अपने पिता द्वारा अलोपीदीन के प्रति दिखाया गया क्षमा का भाव भी असहनीय हो रहा था। 

परन्तु जब अलोपीदीन के मनोभावों का पता चला तो उन्होंने अलोपीदीन की ओर उपेक्षा भरी नजर से देखा। उन्हें लगा कि वास्तव में अलोपीदीन उनसे प्रभावित हुए हैं। उनकी आँखों से स्नेह भाव झलक रहा था। यह देखकर वंशीधर के मन में अलोपीदीन के प्रति जो कटुता थी वह दूर हो गई। अपनी सोच पर उन्हें कुछ लज्जा का भी अनुभव हुआ। उन्होंने कुछ लजाते हुए अलोपीदीन से कहा कि एक पुलिस अधिकारी के रूप में उनसे जो कठोर व्यवहार हो गया, उसके लिए वह क्षमा चाहते थे। उस समय वह अपने कर्तव्य से बंधे थे। अब वह उनके अनुरोध को आज्ञा मानकर स्वीकार करने को तैयार थे। 

विशेष - कहानीकार ने अपनी कहानी द्वारा 'सत्यमेव जयते' (सच्चाई को ही विजय होती है) इस आदर्श को प्रमाणित किया।
कहानी आज के राजकर्मचारियों और समाज के धनाढ्य वर्ग दोनों के लिए मार्गदर्शक का काम कर सकती है। 

प्रश्न :
1. 'स्वेच्छा से हिरासत में होने से अलोपीदीन का क्या आशय था ? ।
2. अलोपीदीन ने वंशीधर से परास्त होने का क्या कारण बताया ?
3. वंशीधर के मन का मैल क्यों मिट गया ?
4. अलोपीदीन के मुख पर सद्भाव झलकता देखकर वंशीधर ने क्या उत्तर दिया ?
उत्तर :
1. पहले वंशीधर ने अपने पद से प्राप्त अधिकार के बल पर अलोपीदीन को गिरफ्तार किया था। लेकिन अब अलोपीदीन अपनी इच्छा से उनके सामने उपस्थित हुए थे। उनको आज वंशीधर जैसे सत्यनिष्ठ, कर्तव्यपरायण और विश्वासपात्र व्यक्ति की आवश्यकता पड़ गई थी। इसी कारण उन्होंने अपने आगमन को स्वेच्छा से हिरासत में होना कहा। 

2. अलोपीदीन ने वंशीधर के पिता के विचारों का खण्डन करते हुए वंशीधर के चरित्र को भूरि - भूरि प्रशंसा की थी। यह सब उन्होंने वंशीधर की खुशामद करने की दृष्टि से नहीं कहा था। अलोपीदीन ने हीरे को पहचान लिया था। उन्होंने अपने जीवन में हजारों रईस और उच्च पदाधिकारियों को अपने धन के बल पर गुलाम बनाकर छोड़ दिया था लेकिन वंशीधर के सामने उनकी ऐश्वर्य - मोहिनी का जादू नहीं चल पाया। वह वंशीधर की धर्मनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता से परास्त हो गए। 

3. जब अलोपीदीन सजीले रथ में बैठकर वंशीधर के घर पहुंचे तो वंशीधर ने यही समझा था कि वह उन्हें लज्जित करने और जलाने आए थे। अलोपीदीन द्वारा की गई अपनी प्रशंसा को भी उन्होंने व्यंग्य वचन ही माना था, लेकिन जब उन्होंने अलोपीदीन द्वारा शुद्ध भाव से कही गई बातें सुनीं तो उनके विचार बदल गए। उनके मन का सारा मैल धुल गया। 

4. जब वंशीधर ने अलोपीदीन की ओर देखा तो उन्हें उनके मुख पर सद्भावना नजर आई। अत: उन्होंने गर्व त्यागकर लजाते हुए अलोपीदीन से अपने कठोर व्यवहार के लिए क्षमा माँगी। उन्होंने कहा कि कर्तव्यपालन के बन्धन में पड़े होने के कारण उनको कठोर बनना पड़ा अन्यथा वह उनकी हर आज्ञा का पालन करने को प्रस्तुत हैं।

अलोपीदीन स्तंभित क्यों हो गए?

वे इलाके के सबसे प्रतिष्ठित ज़मींदार थे। वे लाखों रुपये का लेन-देन करते थे। (ग) वंशीधर ने पंडित अलोपीदीन को हिरासत में लेने के लिए जमादार बदलू सिंह को हुक्म दिया, तो पंडित अलोपीदीन स्तंभित हो गए

अलोपीदीन संपदा में वंशीधर क्या बने?

Expert-Verified Answer. अलोपीदीन की संपदा में बंशीधर मैनेजर बने। 'दो नमक का दरोगा' कहानी में जब दरोगा मुंशी वंशीधर ने अलोपदीन को गिरफ्तार कर लिया तो अलोपदीन ने अपने धन के बल पर न्याय को अपने पक्ष में करवा लिया और दरोगा मुंशी वंशीधर को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

कहानी के अंत में अलोपीदीन के बंशीधर के मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?

दारोगा वंशीधर गैरकानूनी कार्यों की वजह से पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करता है, लेकिन कहानी के अंत में इसी पंडित अलोपीदीन की सहायता से मुग्ध होकर उसके यहाँ मैनेजर की नौकरी को तैयार हो जाता है।