वेदांग कौन-कौन से हैं उनके नाम एवं शरीर में स्थान बताइए - vedaang kaun-kaun se hain unake naam evan shareer mein sthaan bataie

Part of a series on
हिंदू शास्त्र और ग्रंथ
वेदांग कौन-कौन से हैं उनके नाम एवं शरीर में स्थान बताइए - vedaang kaun-kaun se hain unake naam evan shareer mein sthaan bataie
  • श्रुति
  • स्मृति

वेद

  • ऋग्वेद
  • सामवेद
  • यजुर्वेद
  • अथर्ववेद

खण्ड

  • संहिता
  • ब्राह्मण-ग्रन्थ
  • आरण्यक
  • उपनिषद

उपनिषद

Rig vedic

  • ऐतरेय
  • कौषीतकि

Sama vedic

  • छांदोग्य
  • केनोपनिषद

Yajur vedic

  • बृहदारण्यक
  • ईशा
  • तैत्तिरीयोपनिषद
  • कठ
  • श्वेताश्वतर
  • मैत्रायणी उपनिषद्

Atharva vedic

  • मुण्डक
  • माण्डूक्य
  • प्रश्न

अन्य शास्त्र

  • श्रीमद्भगवद्गीता
  • आगम

संबंधित हिंदू ग्रंथ

वेदांग

  • Shiksha
  • Chandas
  • Vyakarana
  • Nirukta
  • Kalpa
  • Jyotisha

पुराण

Brahma puranas

  • Brahma
  • Brahmānda
  • Brahmavaivarta
  • Markandeya
  • Bhavishya

Vaishnava puranas

  • Vishnu
  • Bhagavata
  • Naradiya
  • Garuda
  • Padma
  • Vamana
  • Varaha Purana
  • Kurma
  • Matsya

Shaiva puranas

  • Shiva
  • Linga
  • Skanda
  • Vayu
  • Agni

इतिहास

  • रामायण
  • महाभारत

शास्त्र तथा सूत्र

  • धर्मशास्त्र
  • अर्थशास्त्र
  • कामसूत्र
  • ब्रह्मसूत्र
  • Samkhya Sutras
  • मीमांसासूत्र
  • न्यायसूत्र
  • वैशेषिकसूत्र
  • योगसूत्र
  • Pramana Sutras
  • चरक संहिता
  • सुश्रुत संहिता
  • नाट्य शास्त्र
  • वास्तु शास्त्र
  • पञ्चतन्त्र
  • दिव्य प्रबन्ध
  • Tirumurai
  • रामचरितमानस
  • Yoga Vasistha
  • Swara yoga
  • Shiva Samhita
  • Gheranda Samhita
  • Panchadasi
  • Vedantasara
  • स्तोत्र

कालक्रम

  • हिन्दू धर्मग्रन्थों का कालक्रम

  • दे
  • वा
  • सं

वेदाङ्ग हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं। वेदार्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र को ही वेदांग कहा जाता है।[1] शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये छः वेदांग है।[2]

  1. शिक्षा - इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।
  2. कल्प - वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।
  3. व्याकरण - इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
  4. निरुक्त - वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है। इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है। इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
  5. ज्योतिष - इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
  6. छन्द - वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है। इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है। ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।

छन्द को वेदों का पाद, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक, व्याकरण को मुख कहा गया है।

छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यतेज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्तस्मात्सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥

परिचय[संपादित करें]

वेदांग छह हैं; वेद का अर्थज्ञान होने के लिए इनका उपयोग होता है। वेदांग ये हैं -

शिक्षा[संपादित करें]

वेदों के स्वर, वर्ण आदि के शुद्ध उच्चारण करने की शिक्षा जिससे मिलती है, वह 'शिक्षा' है। वेदों के मंत्रों का पठन पाठन तथा उच्चारण ठीक रीति से करने की सूचना इस 'शिक्षा' से प्राप्त होती है। इस समय 'पाणिनीय शिक्षा' भारत में विशेष मननीय मानी जाती है।

स्वर, व्यंजन ये वर्ण हैं; ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत ये स्वर के उच्चारण के तीन भेद हैं। उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित ये भी स्वर के उच्चारण के भेद हैं। वर्णों के स्थान आठ हैं -

(1) जिह्वा, (2) कंठ, (3) मूर्धा , (4) जिह्वामूल, (5) दंत, (6) नासिका, (7) ओष्ठ और (8) तालु।

कण्ठः – अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः – (अ‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ ड्。‚ ह्‚ : = विसर्गः )

तालुः – इचुयशानां तालुः – (इ‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ ञ्‚ य्‚ श् )

मूर्धा – ऋटुरषाणां मूर्धा – (ऋ‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्)

दन्तः – लृतुलसानां दन्तः – (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्)

ओष्ठः – उपूपध्मानीयानां ओष्ठौ – (उ‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ उपध्मानीय प्‚ फ्)

नासिका च – ञमङ णनानां नासिका च (ञ्‚ म्‚ ङ्‚ ण्‚ न्)

कण्ठतालुः – एदैतोः कण्ठतालुः – (ए‚ एे)

कण्ठोष्ठम् – ओदौतोः कण्ठोष्ठम् – (ओ‚ औ)

दन्तोष्ठम् – वकारस्य दन्तोष्ठम् (व)

जिह्वामूलम् – जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् (जिह्वामूलीय क्‚ ख्)

नासिका – नासिकानुस्वारस्य (ं = अनुस्वारः)


इन आठ स्थानों में से यथायोग्य रीति से, जहाँ से जैसा होना चाहिए वैसा, वर्णोच्चार करने की शिक्षा यह पाणिनीय शिक्षा देती है। अत: हम इसको 'वर्णोच्चार शिक्षा' भी कह सकते हैं।

कल्पसूत्र[संपादित करें]

वेदोक्त कर्मों का विस्तार के साथ संपूर्ण वर्णन करने का कार्य कल्पसूत्र ग्रंथ करते हैं। ये कल्पसूत्र दो प्रकार के होते हैं। एक 'श्रौतसूत्र' हैं और दूसरे 'स्मार्तसूत्र' हैं। वेदों में जिस यज्ञयाग आदि कर्मकांड का उपदेश आया है, उनमें से किस यज्ञ में किन मंत्रों का प्रयोग करना चाहिए, किसमें कौन सा अनुष्ठान किस रीति से करना चाहिए, इत्यादि कर्मकांड की सम्पूर्ण विधि इन कल्पसूत्र ग्रंथों में कही होती है। इसलिए कर्मकांड की पद्धति जानने के लिए इन कल्पसूत्र ग्रंथों की विशेष आवश्यकता होती है। यज्ञ यागादि का ज्ञान श्रौतसूत्र से होता है और षोडश संस्कारों का ज्ञान स्मार्तसूत्र से मिलता है।

वैदिक कर्मकांड में यज्ञों का बड़ा भारी विस्तार मिलता है। और हर एक यज्ञ की विधि श्रौतसूत्र से ही देखनी होती है। इसलिए श्रौतसूत्र अनेक हुए हैं। इसी प्रकार गृह्यसूत्र सोलह संस्कारों का वर्णन करते हैं, इसलिए ये भी पर्याप्त विस्तृत हैं। श्रौतसूत्रों में यज्ञयाग के सब नियम मिलेंगे और स्मार्तसूत्रों में अर्थात्‌ गृह्यसूत्रों में उपनयन, जातकर्म, विवाह, गर्भाधान, आदि षोडश संस्कारों का विधि विधान रहेगा।

व्याकरण[संपादित करें]

वेदों के ज्ञान के लिए जिन छः वेदांगों का विवेचन किया गया है उनमें व्याकरण भी महत्त्वपूर्ण वेदांग है। शब्दों व धातु रूपों आदि की शुद्धता पर व्याकरण में विचार किया जाता है। व्याकरण का अर्थ- व्याकरण शब्द का अर्थ अनेक रूपों में प्राप्त होता है- (क) व्याकरण का व्युत्पत्तिगत अर्थ है- व्याक्रियन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम् (ख) आचार्य सायण के शब्दों में व्याकरणमपि प्रकृति-प्रत्ययादि-उपदेशेन पदस्वरूपं तदर्थं निश्चयाय प्रसज्यते। (ग) पाणिनीय शिक्षा में व्याकरण को वेद-पुरुष का मुख कहा गया है- मुखं व्याकरणं स्मृतम्।

व्याकरण के प्रयोजन

आचार्य वररुचि ने व्याकरण के पाँच प्रयोजन बताए हैं- (1) रक्षा (2) ऊह (3) आगम (4) लघु (5) असंदेह

(1) व्याकरण का अध्ययन वेदों की रक्षा करना है।

(2) ऊह का अर्थ है-कल्पना। वैदिक मन्त्रों में न तो लिंग है और न ही विभक्तियाँ। लिंगों और विभक्तियों का प्रयोग वही कर सकता है जो व्याकरण का ज्ञाता हो।

(3) आगम का अर्थ है- श्रुति। श्रुति कहती है कि ब्राह्मण का कर्त्तव्य है कि वह वेदों का अध्ययन करे।

(4) लघु का अर्थ है-शीघ्र उपाय। वेदों में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनकी जानकारी एक जीवन में सम्भव नहीं है।व्याकरण वह साधन है जिससे समस्त शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है।

(5) असंदेह का अर्थ है-संदेह न होना। संदेहों को दूर करने वाला व्याकरण होता है, क्योंकि वह शब्दों का समुचित ज्ञान करवाता है।

निरुक्त[संपादित करें]

शब्द की उत्पत्ति तथा व्युत्पत्ति कैसे हुई, यह निरुक्त बताता है। इसविषय पर यही महत्व का ग्रंथ है। यास्काचार्य जी का यह निरुक्त प्रसिद्ध है। इसको शब्द-व्युत्पत्ति-शास्त्र भी कह सकते हैं। वेद का यथार्थ अर्थ समझने के लिए इस निरुक्त की अत्यंत आवश्यकता है। निरुक्त के माध्यम से ही व्यक्ति किसी भी शब्द की जड़ तक पहुंचता है।

छन्द[संपादित करें]

गायत्री, अनुष्टुप्‌, त्रिष्टुप्‌, वृहती आदि छंदों का ज्ञान होने के लिए छंद:शास्त्र की उपयोगिता है। प्रत्येक छंद के पाद कितने होते हैं और ह्रस्व दीर्घादि अक्षर प्रत्येक पाद में कैसे होने चाहिए, यह विषय इसका है।पिन्गल मुनि द्वारा रचित छन्द सूत्र सबसे प्राचीन सहित्य हैं ।

ज्योतिष[संपादित करें]

खगोल में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि आदि ग्रह किस प्रकार गति करते हैं, सूर्य, चंद्र आदि के ग्रहण कब होंगे, अन्य तारकों की गति कैसी होती है, यह विषय ज्योतिष शास्त्र का है। वेदमंत्रों में यह नक्षत्रों का जो वर्णन है, उसे ठीक प्रकार से समझने के लिए ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान बहुत उपयोगी है।

इस प्रकार वेदांगों का ज्ञान वेद का उत्तम बोध होने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • वेद
  • वेदान्त - वेदों का अन्तिम भाग अर्थात् उपनिषद्

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "Sound and meaning of Veda".
  2. Morgan, Kenneth W. (1953). The Religion of the Hindus (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass Publ. पृ॰ 269. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120803879.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • वेदांग हिन्दू एन्साइक्लोपीडिया पर
  • THE VEDANGASFORTHE FIRST TIME READER (BYN.KRISHNASWAMY)

वेदांग कौन कौन से हैं उनके नाम एवं शरीर के स्थान बताइए?

वेदाङ्ग हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं। वेदार्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र को ही वेदांग कहा जाता है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये छः वेदांग है। शिक्षा - इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है।

वेदों के 6 अंग कौन कौन से हैं?

शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष और कल्प। इन्हीं 6 अंगों को वेदाङ्ग कहा जाता है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर के सभी अंगों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। दूसरा कोई अंग उसका स्थान नहीं ले सकता, उसी प्रकार वेदों के पूर्ण अर्थ को समझने के लिए प्रत्येक अंग का अपना-अपना महत्त्व है।

वेदांत कितने प्रकार के होते हैं?

'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अन्त' (अथवा सार)। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य को क्रमशः इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है।

वेदांग के रचयिता कौन हैं?

इसके रचयिता 'लगध मुनि' हैं