विवाह के बाद लेखिका बिहार के कौन से पिछड़े नगर में रहीं - vivaah ke baad lekhika bihaar ke kaun se pichhade nagar mein raheen

भारत भूमि राजनीतिज्ञों का गढ़ रही है. यह वीर प्रसविनी धरती है. एक से एक राजनेता यहां हुए हैं. अनेक तो ऐसे जिनमें महामानवों के गुण रहे हैं. पर जैसे-जैसे समाज में गिरावट आई, नेताओं का स्तर भी गिरता गया. आजादी के बाद जो मोहभंग साहित्य में देखा गया वह केवल साहित्य का मोहभंग नहीं था, वह राजनेताओं की कथनी व करनी में बरते गए फासले से उपजे अवसाद का मोहभंग था. यह सच है कि हर राजनेता नेहरू नहीं हो सकता, गांधी नहीं हो सकता, पटेल नहीं हो सकता, सुभाषचंद बोस नहीं हो सकता, आचार्य नरेंद्रदेव, लोकनायक जयप्रकाश नहीं हो सकता. ये बलिदानी नेता थे. देश की आजादी के लिए जीने मरने वाला जज्बा इनमें था. पर आजादी के बाद आजादी के दीवाने और बलिदानी नेता तो नेपथ्य में चले गए, आजादी की चांदी काटने वाले खद्दरधारियों की एक लुटेरी पीढ़ी ही पैदा हो गयी. तभी तो इस मोहभंग से कुपित होकर दुष्यंत को कहना पड़ा था-
यहां तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियां
हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा.
पर इस कलियुग में भी हमारे बीच ऐसे राजनेता हुए हैं, जो आज भी जनता के लिए रोल माडल हैं. ऐसे ही राजनीति के उच्चादर्श पर चलने वाली राजनेता थीं मृदुला सिन्हा, जिनकी लोक में इस कदर पैठ थी कि वह लोगों के बीच अपनी जैसी लगती थीं. वे लोक संस्कृति के पहलुओं पर लिखने वाली लोकप्रिय लेखिका थीं. उनकी कहानियां गांव-घर-देहात की कहानियां हैं. वे लोक रस में पगी कहानियां हैं. अपनी राजनीतिक आपाधापी में भी वे लिखने का वक्त निकाल लेती थीं. यहां तक कि राज्यपाल रहने के दौरान राजभवन की अपनी गरिमामयी भूमिका और व्यस्तता को उन्होंने कभी अपनी रचनात्मकता में बाधा नहीं बनने दिया. इस दौरान भी उनकी अनेक कृतियां प्रकाशित हुईं. आज वे नहीं हैं तो हमें महसूस हो रहा है कि हमने क्या कुछ खो दिया है, जिसकी पूर्ति असंभव है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब हमने उच्च राजनीतिक मान मूल्यों वाली राजनेता सुषमा स्वराज को खोया है, जिनकी प्रशंसा पक्ष-विपक्ष दोनों दलों के लोग करते थे. मृदुला सिन्हा भी ऐसी ही राजनेता थीं, जिनमें कभी नेताओं वाला अहंकार आया ही नहीं. इसका कारण यह था कि एक तो वे उच्चतर मानमूल्यों वाले परिवार से जुड़ी थीं, दूसरे वे लोगों का सुख-दुख लिखने वाली लेखिका थीं, जिनके मन का एक तार महादेवी वर्मा से जुड़ता था, तो दूसरा तार गांधी जैसे महापुरुष और दिनकर जैसे राष्ट्रभक्त कवियों से, जिनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा था.  

मृदुला सिन्हा को बोलते तो कई बार सुना था पर उनसे मुलाकात गोवा में एक कार्यक्रम के सिलसिले में हुई. बोलते-बोलते वे अतीत में चली जाती थीं, जहां गांव घर की बात ऐसे करती थीं जैसे लगता था हमारे बीच कोई बुजुर्ग बोल रहा हो. वे अपने परिवार के उदाहरणों से लोक संस्कृति की बातें बतातीं. जब गोवा में वे राज्यपाल बनीं तो लगा कि एक गैर भाषाभाषी सांस्कृतिक रीति-नीति वाले प्रदेश में कैसे काम कर सकेंगी. कैसे गोवावासियों से तालमेल बना सकेंगी. कैसे वहां राजनीतिक संतुलन कायम कर सकेंगी. पर वे बतातीं कि कैसे उन्‍होंने अपने लोक-संस्कृति के अनुभवों से यहां भी विभिन्न समुदायों में जाकर वहां के लोगों के सांस्कृतिक रीति रिवाजों का अवलोकन किया तथा यह पता लगाया कि विविधवर्णी इस देश में सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावजूद लोक समुदाय कितना भोला-भाला है.

एक बार की बात है कि गोवा में गांधी व दिनकर को लेकर एक समारोह का आयोजन जयते फाउंडेशन की ओर से किया गया, जिसमें मैं भी आमंत्रित था. इस कार्यक्रम को इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रिगेंजा, पणजी, गोवा के प्रशस्त सभागार में आयोजित किया गया था. इस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित गोवा की राज्यपाल के परिचय में उनके पदनाम के साथ लिखा था, हिंदी की जानी-मानी कथाकार, उपन्यासकार, विमर्शकार, लोक साहित्य एवं संस्कृति की परम विदुषी माननीया मृदुला सिन्हा. इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि थे पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद डा सी पी ठाकुर, दिनकर की नातिन एवं समाज सेविका ऊषा ठाकुर भी वहां मौजूद थीं. उनके बारे में बहुत कुछ सुन चुका था. एक कटु विवाद भी सुनने में आया था कि कैसे कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की एक कृति को हटा कर उनकी एक कृति किसी पाठ्यक्रम में लगायी गयी थी. पर मिल कर लगा कि मृदुला सिन्हा सादगी और गांधीवादी चिंतन की एक सौम्य  प्रतिमूर्ति हैं. उनके भीतर परदुखकातरता का भाव झलकता है. वे लेखिका पहले थीं, राजनीतिज्ञ बाद में. बेशक विचारधारा के स्तर पर उनकी भाजपा से मैत्री थी पर दलीय पूर्वग्रह शायद ही उनमें था. उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति उनके सादगीपूर्ण व्यक्तित्व का कायल हो जाता था.
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स्‍वागत में पुष्‍पगुच्‍छ नहीं, फल
किसी भी आयोजन में आमतौर पर मुख्य अतिथि सबसे अंत में बोलता है, जब सब लोग बोल चुके होते हैं. यानी सब कुछ लगभग कहा जा चुका होता है. यहां भी लोग गांधी और दिनकर की राष्ट्रीय चेतना पर बोल चुके थे. सारा वातावरण गांधी और दिनकरमय हो उठा था. मंच पर आयोजन के सूत्रधार सहित अपने गृह प्रदेश के लोगों के बीच अपनापा पाकर वह खुश थीं. गोवा के तमाम प्रबुद्ध जन सभागार में थे. जानी-मानी कथाकार जयश्री राय व गोवा विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ वरुशाली एम मेंढ्रेंकर से लेकर अनेक लेखक अध्यापक संस्कृतिकर्मी सभागृह में थे. वहां यह देख कर मुझे आश्चर्य हुआ कि लोगों को स्वागत में पुष्पगुच्छ न देकर फलों की टोकरी भेंट की जा रही है. यह एक नई बात थी. इससे पहले संसदीय राजभाषा समिति के कुछ मान्य सदस्यों के सुझाव पर पुस्तकें देकर स्वागत की परंपरा चल चुकी थी, पर यह स्वागत तो और भी अनूठा था. पुष्प कुछ देर में मुरझा जाएंगे, दूसरे उन्हें डालियों से तोड़ना कोई अच्छी बात नही है. वे तो कुदरत का हिस्सा हैं, उन्हें नुकसान क्यों  पहुंचाना. पर फलों के बारे में तो कहा ही गया है कि पेड़ अपना फल स्वयं नहीं खाते, नदियां अपना पानी स्वयं नहीं पीतीं. ये तो लोगों की भूख मिटाने के लिए हैं. पूछने पर पता चला कि यह स्वागत का तरीका मृदुला सिन्हा ने सुझाया है. अपने संबोधन में उन्होंने बताया भी कि राजभवन में ढेर सारे लोग स्वागत के रूप में बहुत सा फल ले आते हैं जिन्हें मैं गोवा के लोक समुदायों के बीच बांट देती हूं. ऐसा करने में मुझे बहुत सुकून मिलता है. इस स्वागत परंपरा के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि मुझे राज्यपाल होने के बाद अक्सर कहीं न कहीं उदघाटन व अध्यक्षता आदि के लिए जाना होता था, जहां मैं देखती थी कि पुष्प गुच्छ से स्वागत हो रहा है. यह कुदरत के साथ अन्याय लगा. बहुत सारे फूल अनावश्यक रूप से तोड़ लिए जाते हैं, बस कुछ क्षणों की शोभा के लिए. इसलिए ख्याल आया कि क्यों न स्वागत की ऐसी परंपरा चले कि स्वागत भी हो और इस बहाने फल घरों तक पहुंचे. ऐसी थी मृदुला जी की सोच.
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भारतीय संस्कृति: पुरखों की थाती
गांधी और दिनकर की राष्ट्रीय चेतना संगोष्ठी में मेरे, दिनकर जी की नातिन उषा ठाकुर व दिनकर व लोकनायक जयप्रकाश नारायण के चिकित्‍सक रहे डॉ सीपी ठाकुर के बोलने के बाद जब अंत में उनकी बारी आई तो उनके संबोधन के साथ ही समां बंध गया. सभी में पिन ड्राप साइलेंस. मृदुला सिन्हा ने कहा कि उनका लेखन तो भारतीय व लोक संस्कृति को ही समर्पित है. इसलिए जब गोवा के राज्यपाल का पद सम्हाला तो लोगों ने कहा कि अब आप गोवा में क्या करेंगी. वहां तो आपको ऐसी संस्कृति देखने को नहीं मिलेगी. मैंने यही कहा कि मैं मांडवी व जुआरी नदियों में गंडक व वागमती का जल मिला दूंगी और इन नदियों को अपना बना लूंगी. मैंने यहां छठ पूजा भी की- करायी. घाट पर गए तो बिना गाए नहीं रहा गया. क्योंकि हमारे पांव लोक संस्कृति में पगे हैं. जहां तक संस्कृति की बात है, काफी कुछ सांस्कृतिक समानता अनेक संस्कृतियों में देखने को मिलती है. सीमाएं तो हमने खींची हैं. उन्होंने संस्कृति के चार अध्याय की याद दिलाते हुए कहा कि जिस भारतीय संस्कृति की गौरव गाथा दिनकर ने गाई है, उसे हम पुरखों की थाती समझ कर याद करते हैं. कहने लगीं, कहा भी गया है-
पड़ोसी पुरखों की छाया.
शीतल कर दे जल की काया.

दिनकर व गांधी की बात चली तो वे भावुक हो उठीं. जैसे लगा वे हैं तो ओज और उदात्त के कवि रश्मिरथी और हुंकार के कवि दिनकर की धरती से पर उनके भीतर गांधी के संस्कार हैं. कवियों के प्रति आस्था है. अपनी परंपराओं के प्रति आस्था है. अच्छी परंपराओं पर सवाल उठाने की बात कभी मन में आई ही नहीं. जहां तक हो सका उन्होंने अपने लेखन के जरिए राजनीति व सामाजिक जीवन में स्त्रिायों की स्वतंत्रता, समता, समान अवसर आदि दिए जाने की बातें ही उठाई हैं. वे बोलते-बोलते लोक शिक्षण पर उतर आईं. हमारी जीवन में तीज-त्योहारों की क्या अहमियत है, यह बताते हुए कहने लगीं, ''हम अक्सर अनेक तीज-त्योहारों के समय सात पीढ़ियों के बाबा को याद करते हैं. कोई शुभ कार्य हो तो हम पुरखों का आह्वान करते हैं और अनुष्ठान सम्पन्न होने पर उन्हें आदर से विदा भी करते हैं. इसका अर्थ यह है कि वे हमारी स्मृति में आएं, वे हमारे आंगन में आएं और परिवार को फलने-फूलने का आशीष दें. इसी तरह साहित्यकार को याद करना हमारी परंपरा का हिस्सा है. गांधी को हम इसलिए याद करते हैं कि उन्होंने हमें आजाद कराया. चरखे के साथ हमें स्वावलंबन की शिक्षा दी. चरखा केवल सूत कातने का यंत्र नहीं वह एक विचार और विचारधारा भी है. स्वराज का एक अचूक प्रतीक. अब तो चरखे को इलेक्ट्रिक से जोड़ा जा रहा है ताकि अधिक सूत बने, अधिक कपड़े बनें- तो चरखा स्वावलंबन का प्रतीक है. उन्होंने कहा कि यदि भारत स्वावलंबी बनता है तो इसका सपना देखने वाला राष्ट्रपिता और राष्‍ट्रकवि  ही हो सकता है. मृदुला जी ने बताया कि मुझे भी दिनकर जी का सान्निध्य मिला है. जहां पढ़ती थी उस स्कूल में उनका आना-जाना होता था तो उन्हें सुनना और चाचा-चाचा जी कहने की बात अब भी ध्यान में है.''
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पनडब्बा और लोक संस्कृति: सरौता कहां भूलि आए प्यारे ननदोइया
बोलते-बोलते उन्हें बिहार में अपने घर के पनडब्बे की याद हो आई और बताने लगीं, ''जब बिहार व गोवा की लोक संस्कृति को समझने की बात आई तो सबसे पहले यहां आकर मैंने इच्छा जाहिर की कि मैं गोवा के गांव में जाकर उनकी संस्कृति को देखना-परखना समझना चाहती हूं. मैं एक गांव के संयुक्त परिवार में गई, जहां लोग साथ-साथ रहते थे. वहां मेरी निगाह कोने में पड़े एक पनडब्बे पर पड़ी. धूसर चांदी का डिब्बा था वह पर उस पर सरौता नहीं रखा था. मैंने पूछा सरौता कहां गया. मुझे अचानक वह गीत याद हो आया: सरौता कहां भूलि आये प्यारे ननदोइया. मैंने जानना चाहा कि यह पनडब्बा कहां से आया तो बताया गया कि यह दादी की शादी में उनके मायके से आया था. तब मैंने जानना चाहा अपने घर में कि मेरी शादी वाला पनडब्बा कहां गया तो पता चला वह मेरी ननद के घर चला गया. ननद से पूछा तो कहा कि वह तो बेटी को दे दिया. अब कहां-कहां तक पता चलाती कि वह पनडब्बा आखिर कहां है. तो यह है भारतीय संस्कृति जो हमारी राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है.''

फिर वे घूम फिर कर साहित्य की ओर मुड़ीं और कहने लगीं कि ''साहित्य के हर वक्त बलिदानी बातें नहीं होतीं. ऐसे कवि भी बार-बार पैदा नहीं होते जैसे दिनकर थे. ऐसे कवियों से पूरी माटी सुगंधित हो जाती है.''  मृदुला जी ने कहा कि ''मैं तो ऐसे ही हर जगह लोक संस्कृति खोजती रहती हूं. जरूरत इस बात की है कि लोक गीतों में राष्ट्रीय भावना का अध्ययन करा कर दिनकर के काव्य से उसकी तुलना करायी जाए, तो इस बात की पुष्टि होगी कि लोक व हमारे कवियों के विचारों में कितनी समानता है. गांधी की लोकप्रियता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि उनके जमाने में लड़कियां गाया करती थीं- ''खादी कै चुनरी रंगादे पियवा.''  तो चरखा भूलने वाली चीज नहीं है. जब जब राष्ट्रीयता की चर्चा होगी तब-तब चरखे की याद आएगी.''  उन्होंने कहा कि मैं चाहती हूं कि दिनकर-गांधी  पर चर्चा के बहाने चरखे की पुन: चर्चा हो ताकि आने वाली पीढ़ियों को संदेश जाए.

पता चला वे उस दिन उसी कार्यक्रम में कुछ देर पहले ही दिल्ली से हवाई जहाज से लौटी थीं किन्तु गांधी और दिनकर पर कार्यक्रम हो और वह भी गोवा में और वे मायके वालों का आमंत्रण ठुकरा दें, ऐसा नहीं हो सकता. वे थकान के बावजूद आईं और जम कर बोलीं. सबको सुना और कहा समारोह में आने का मतलब केवल बोलना नहीं होता, सुनना भी होता है कि लोग क्या बोलते हैं. कहने लगीं हालांकि मैं थकी थी पर यहां आकर थकान जैसे भूल गयी. उस दिन जाना कि मृदुला सिन्हा की शख्सियत के इतने दीवाने क्यों हैं. वे बोलती थीं तो लगता था, जैसे साहित्य और संस्कृति की अधिष्ठात्री देवी बोल रही हों.  उन्होंने अपने लेखन से लोक संस्कृति, लोक शिक्षण का एक पर्यावरण विकसित किया. स्त्रियों के अधिकारों की बात उठाई, उन्हें जागरूक किया. वह 'ज्यों मेंहदी को रंग', 'घर वास', 'देखन में छोटे लगें', 'ढाई बीघा जमीन', 'सीता पुनि बोलीं' व राजमाता विजयाराजे सिंधिया पर 'राजपथ से लोकपथ' नामक जीवनी जैसी पुस्तकों की लेखिका व 'पांचवा स्तंभ' पत्रिका की संस्थापक संपादक यों ही न थीं.
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स्त्री विमर्श: मृदुला सिन्हा की दृष्टि में
एक बार मुझे उनकी पुस्तक 'महिला विकास: अवलोकन और आकलन' पर मानवाधिकार आयोग की पत्रिका के लिए लिखना था. इसे पढ़ते हुए पाया कि वे स्त्री की स्वतंत्रता की पक्षधर तो हैं पर स्त्री-विमर्श के चालू प्रतिमानों से अलग उनकी सोच रही हैं. उनके लिए स्त्री-पुरुष एक दूसरे के विलोम नहीं बल्कि प्रतिपूरक हैं. वे कहती हैं, जो मेरी नानी थीं, वह मेरी मां नहीं, जो मेरी मां थीं, वह मैं नहीं और मेरी बेटी भी मेरी तरह नहीं है और उसकी बेटी तो उसकी छायाप्रति भी नहीं होगी. परिवर्तन के सूचकांक को वे इस रूप में आकलित करती हैं. पर वे कवयित्री महादेवी वर्मा के कथन का तिरस्कार नहीं करतीं. उसके सकारात्मक रूप को हमेशा अपने सम्मुख रखती हैं. वे कहती हैं कि आंचल का दूध और आंखों का पानी ही तो स्त्री को विशेष बनाता है. आंचल में दूध न हो तो वह पुरुष की निर्मात्री कैसे कहलाएगी और आंखों में पानी तो उसके शील का निरूपक है. उसकी लज्जा का प्रमाण है. स्त्री सुलभ लज्जा को वे स्त्री का आभूषण मानती हैं. परिवर्तनों और विकास की सीढ़ियां चढती हुई भी स्त्री, स्त्री बनी रहे, मां के रूप में, बेटी के रूप में, बहिन के रूप में, अपने रिश्तों को सार्थक करती हुई शिक्षा, राजनीति, व्यवसाय व सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में अपनी उपस्थिति को लगातार प्रमाणित करती रहे, मृदुला जी स्त्री की इस बहुव्यापी शख्सियत का एक खाका अपने दिमाग में रखती थीं.

महिला विकास, रोजगार, राजनीतिक भागीदारी, मातृत्व, दाम्पत्य में दरार, आर्थिक आधार, स्त्री शिक्षा, नारी सशक्तीकरण, महिला आरक्षण, आर्थिक अंत्योदय, महिला अधिकार, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, योग और महिलाएं, नारी आंदोलन और पंचायती राज कानून और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी- ऐसा कौन सा मुद्दा है, जिसे उन्होंने अपनी पुस्तकों व कहानियों में नहीं उठाया. पर वे नारीमुक्ति आंदोलनो को नहीं सराहतीं क्योंकि उनकी दृष्टि में इस आंदोलन की नींव पुरुष प्रतिद्वंद्विता के आधार पर रखी गयी. वे इस बात की सराहना भी करती थीं कि पंचायतराज कानून में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण की बदौलत ही देश की दस लाख महिलाएं स्थानीय विकास प्रक्रिया से सीधे जुड़ सकीं. एक समय सरोगेट मदर पर काफी बहस चली तथा यह पाया गया कि पढ़ी-लिखी व नारीवादी स्त्रियां मां नहीं बनना चाहतीं. जन्म देने की पीड़ा से बचना चाहती हैं. मृदुला जी सरोगेसी को व्यापार मानती थीं तथा स्वाभाविक रूप से मां बनने को सराहती रही हैं.

आज स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ते तनाव की स्थि‍ति पर वे रहीम का दोहा: रहिमन धागा प्रेम का- दुहराने से नहीं चूकती थीं कि प्रेम के धागे को मत तोड़ो क्‍योंकि यदि यह धागा एक बार टूट गया तो फिर आसानी से नहीं जुड़ता, उसमें कहीं न कहीं गांठ पड़ जाती है. वे नारीवादी आंदोलन को केवल पश्चिम के चश्मे से देखे जाने का विरोध करती हैं और कहती हैं कि नारीवादी आंदोलन पुरुष व स्त्री के बीच समरसता पैदा करने के लिए हों न कि उनके बीच कलह व अलगाव को जन्म देने के लिए.

एक लेखिका, राजनीतिज्ञ, गृहिणी, बहू हर रूप में उनका व्यक्तित्व बहुत उदार किन्तु परंपरा का आदर करने वाला रहा है. वे बिहार जैसे पिछड़े किन्तु संस्कृति-सजग प्रदेश में जन्मी पर अपने व्यक्तित्व से लाखों लोगों को प्रभावित, प्रेरित किया और राजनीति में अपनी उपस्थिति से यह जताया कि महिलाएं आज कहीं भी किसी भी जगह हों, वे अपने पद दायित्व का बखूबी निर्वाह कर रही हैं तथा देश की नींव को मजबूत करने में किसी से कम नहीं.

मृदुला जी आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी सौम्य आभा हमारी स्मृतियों में सुरक्षित रहेगी. नमन.
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# डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक, कवि एवं भाषाविद हैं. आपकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों अन्वय एवं अन्विति सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार, आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब के शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से समादृत हैं. संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059. मेलः

शादी के बाद लेखिका को कौन से नगर में रहना पड़ा?

शादी के बाद लेखिका बिहार के डालमियानगर नामक कस्बे में रही थी। लेखिका को शादी के बाद बिहार के एक छोटे से कस्बे डालमियानगर में रहना पड़ा था। लेखिका ने देखा कि वहाँ का समाज पिछड़ा हुआ था। वहाँ के पुरुष-स्त्री भले ही वे पति पत्नी क्यों ना हों, फिल्म देखते समय अलग-अलग बैठे थे।

शादी के बाद लेखिका बिहार के कौन से कस्बे में रही?

उत्तर- शादी के बाद लेखिका बिहार के छोटे से कस्बे डालमियानगर में और कर्नाटक के बागलकोट में रही

शादी के बाद लेखिका मृदुला गर्ग कहाँ रहने लगी?

मित्र शादी के बाद मृदुला गर्ग बिहार के डालमिया नगर में रह रही थीं। और वह नाटकों में अभिनय करने की शौकीन थी।

लेखिका बिहार के कौन से कस्बे में गई जहां नाटक के माध्यम से उसने पैसा इकट्ठा किया?

अगले चार साल तक हमने कई नाटक किए। अकाल राहत कोष के लिए, उन्हीं के माध्यम से पैसा भी इकट्ठा किया। वहाँ से निकली तो कर्नाटक के और भी छोटे कस्बे, बागलकोट में पहुँच गई