भारत भूमि राजनीतिज्ञों का गढ़ रही है. यह वीर प्रसविनी धरती है. एक से एक राजनेता यहां हुए हैं. अनेक तो ऐसे जिनमें महामानवों के गुण रहे हैं. पर जैसे-जैसे समाज में गिरावट आई, नेताओं का स्तर भी गिरता गया. आजादी के बाद जो मोहभंग साहित्य में देखा गया वह केवल साहित्य का मोहभंग नहीं था, वह राजनेताओं की कथनी व करनी में बरते गए फासले से उपजे अवसाद का मोहभंग था. यह सच है कि हर राजनेता नेहरू नहीं हो सकता, गांधी नहीं हो सकता, पटेल नहीं हो सकता, सुभाषचंद बोस नहीं हो सकता, आचार्य नरेंद्रदेव, लोकनायक
जयप्रकाश नहीं हो सकता. ये बलिदानी नेता थे. देश की आजादी के लिए जीने मरने वाला जज्बा इनमें था. पर आजादी के बाद आजादी के दीवाने और बलिदानी नेता तो नेपथ्य में चले गए, आजादी की चांदी काटने वाले खद्दरधारियों की एक लुटेरी पीढ़ी ही पैदा हो गयी. तभी तो इस मोहभंग से कुपित होकर दुष्यंत को कहना पड़ा था- Show मृदुला सिन्हा को बोलते तो कई बार सुना था पर उनसे मुलाकात गोवा में एक कार्यक्रम के सिलसिले में हुई. बोलते-बोलते वे अतीत में चली जाती थीं, जहां गांव घर की बात ऐसे करती थीं जैसे लगता था हमारे बीच कोई बुजुर्ग बोल रहा हो. वे अपने परिवार के उदाहरणों से लोक संस्कृति की बातें बतातीं. जब गोवा में वे राज्यपाल बनीं तो लगा कि एक गैर भाषाभाषी सांस्कृतिक रीति-नीति वाले प्रदेश में कैसे काम कर सकेंगी. कैसे गोवावासियों से तालमेल बना सकेंगी. कैसे वहां राजनीतिक संतुलन कायम कर सकेंगी. पर वे बतातीं कि कैसे उन्होंने अपने लोक-संस्कृति के अनुभवों से यहां भी विभिन्न समुदायों में जाकर वहां के लोगों के सांस्कृतिक रीति रिवाजों का अवलोकन किया तथा यह पता लगाया कि विविधवर्णी इस देश में सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावजूद लोक समुदाय कितना भोला-भाला है. एक बार की बात है कि गोवा में गांधी व दिनकर को लेकर एक समारोह का आयोजन जयते फाउंडेशन की ओर से किया गया, जिसमें मैं भी आमंत्रित था. इस कार्यक्रम को इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रिगेंजा,
पणजी, गोवा के प्रशस्त सभागार में आयोजित किया गया था. इस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित गोवा की राज्यपाल के परिचय में उनके पदनाम के साथ लिखा था, हिंदी की जानी-मानी कथाकार, उपन्यासकार, विमर्शकार, लोक साहित्य एवं संस्कृति की परम विदुषी माननीया मृदुला सिन्हा. इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि थे पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद डा सी पी ठाकुर, दिनकर की नातिन एवं समाज सेविका ऊषा ठाकुर भी वहां मौजूद थीं. उनके बारे में बहुत कुछ सुन चुका था. एक कटु विवाद भी सुनने में आया था कि कैसे कथा सम्राट
मुंशी प्रेमचंद की एक कृति को हटा कर उनकी एक कृति किसी पाठ्यक्रम में लगायी गयी थी. पर मिल कर लगा कि मृदुला सिन्हा सादगी और गांधीवादी चिंतन की एक सौम्य प्रतिमूर्ति हैं. उनके भीतर परदुखकातरता का भाव झलकता है. वे लेखिका पहले थीं, राजनीतिज्ञ बाद में. बेशक विचारधारा के स्तर पर उनकी भाजपा से मैत्री थी पर दलीय पूर्वग्रह शायद ही उनमें था. उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति उनके सादगीपूर्ण व्यक्तित्व का कायल हो जाता था. स्वागत में पुष्पगुच्छ नहीं, फल भारतीय संस्कृति: पुरखों की थाती दिनकर व गांधी की बात चली तो वे भावुक हो उठीं. जैसे लगा वे हैं तो ओज और उदात्त के कवि रश्मिरथी और हुंकार के कवि दिनकर की धरती से पर उनके भीतर गांधी
के संस्कार हैं. कवियों के प्रति आस्था है. अपनी परंपराओं के प्रति आस्था है. अच्छी परंपराओं पर सवाल उठाने की बात कभी मन में आई ही नहीं. जहां तक हो सका उन्होंने अपने लेखन के जरिए राजनीति व सामाजिक जीवन में स्त्रिायों की स्वतंत्रता, समता, समान अवसर आदि दिए जाने की बातें ही उठाई हैं. वे बोलते-बोलते लोक शिक्षण पर उतर आईं. हमारी जीवन में तीज-त्योहारों की क्या अहमियत है, यह बताते हुए कहने लगीं, ''हम अक्सर अनेक तीज-त्योहारों के समय सात पीढ़ियों के बाबा को याद करते हैं. कोई शुभ कार्य हो तो हम पुरखों का
आह्वान करते हैं और अनुष्ठान सम्पन्न होने पर उन्हें आदर से विदा भी करते हैं. इसका अर्थ यह है कि वे हमारी स्मृति में आएं, वे हमारे आंगन में आएं और परिवार को फलने-फूलने का आशीष दें. इसी तरह साहित्यकार को याद करना हमारी परंपरा का हिस्सा है. गांधी को हम इसलिए याद करते हैं कि उन्होंने हमें आजाद कराया. चरखे के साथ हमें स्वावलंबन की शिक्षा दी. चरखा केवल सूत कातने का यंत्र नहीं वह एक विचार और विचारधारा भी है. स्वराज का एक अचूक प्रतीक. अब तो चरखे को इलेक्ट्रिक से जोड़ा जा रहा है ताकि अधिक सूत बने, अधिक
कपड़े बनें- तो चरखा स्वावलंबन का प्रतीक है. उन्होंने कहा कि यदि भारत स्वावलंबी बनता है तो इसका सपना देखने वाला राष्ट्रपिता और राष्ट्रकवि ही हो सकता है. मृदुला जी ने बताया कि मुझे भी दिनकर जी का सान्निध्य मिला है. जहां पढ़ती थी उस स्कूल में उनका आना-जाना होता था तो उन्हें सुनना और चाचा-चाचा जी कहने की बात अब भी ध्यान में है.'' पनडब्बा और लोक संस्कृति: सरौता कहां भूलि आए प्यारे ननदोइया फिर वे घूम फिर कर साहित्य की ओर मुड़ीं और कहने लगीं कि ''साहित्य के हर वक्त बलिदानी बातें नहीं होतीं. ऐसे कवि भी बार-बार पैदा नहीं होते जैसे दिनकर थे. ऐसे कवियों से पूरी माटी सुगंधित हो जाती है.'' मृदुला जी ने कहा कि ''मैं तो ऐसे ही हर जगह लोक संस्कृति खोजती रहती हूं. जरूरत इस बात की है कि लोक गीतों में राष्ट्रीय भावना का अध्ययन करा कर दिनकर के काव्य से उसकी तुलना करायी जाए, तो इस बात की पुष्टि होगी कि लोक व हमारे कवियों के विचारों में कितनी समानता है. गांधी की लोकप्रियता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि उनके जमाने में लड़कियां गाया करती थीं- ''खादी कै चुनरी रंगादे पियवा.'' तो चरखा भूलने वाली चीज नहीं है. जब जब राष्ट्रीयता की चर्चा होगी तब-तब चरखे की याद आएगी.'' उन्होंने कहा कि मैं चाहती हूं कि दिनकर-गांधी पर चर्चा के बहाने चरखे की पुन: चर्चा हो ताकि आने वाली पीढ़ियों को संदेश जाए. पता चला वे उस दिन उसी कार्यक्रम में कुछ देर पहले ही दिल्ली से हवाई जहाज से लौटी थीं किन्तु गांधी और दिनकर पर कार्यक्रम हो और वह भी गोवा में और वे मायके वालों का आमंत्रण ठुकरा दें, ऐसा नहीं हो सकता. वे थकान के बावजूद आईं और जम कर बोलीं. सबको सुना और कहा समारोह में आने का मतलब केवल बोलना नहीं होता, सुनना भी होता है कि लोग क्या बोलते हैं. कहने लगीं
हालांकि मैं थकी थी पर यहां आकर थकान जैसे भूल गयी. उस दिन जाना कि मृदुला सिन्हा की शख्सियत के इतने दीवाने क्यों हैं. वे बोलती थीं तो लगता था, जैसे साहित्य और संस्कृति की अधिष्ठात्री देवी बोल रही हों. उन्होंने अपने लेखन से लोक संस्कृति, लोक शिक्षण का एक पर्यावरण विकसित किया. स्त्रियों के अधिकारों की बात उठाई, उन्हें जागरूक किया. वह 'ज्यों मेंहदी को रंग', 'घर वास', 'देखन में छोटे लगें', 'ढाई बीघा जमीन', 'सीता पुनि बोलीं' व राजमाता विजयाराजे सिंधिया पर 'राजपथ से लोकपथ' नामक जीवनी जैसी पुस्तकों
की लेखिका व 'पांचवा स्तंभ' पत्रिका की संस्थापक संपादक यों ही न थीं. स्त्री विमर्श: मृदुला सिन्हा की दृष्टि में महिला विकास, रोजगार, राजनीतिक भागीदारी, मातृत्व, दाम्पत्य में दरार, आर्थिक आधार, स्त्री शिक्षा, नारी सशक्तीकरण, महिला आरक्षण, आर्थिक अंत्योदय, महिला अधिकार, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, योग और महिलाएं, नारी आंदोलन और पंचायती राज कानून और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी- ऐसा कौन सा मुद्दा है, जिसे उन्होंने अपनी पुस्तकों व कहानियों में नहीं उठाया. पर वे नारीमुक्ति आंदोलनो को नहीं सराहतीं क्योंकि उनकी दृष्टि में इस आंदोलन की नींव पुरुष प्रतिद्वंद्विता के आधार पर रखी गयी. वे इस बात की सराहना भी करती थीं कि पंचायतराज कानून में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण की बदौलत ही देश की दस लाख महिलाएं स्थानीय विकास प्रक्रिया से सीधे जुड़ सकीं. एक समय सरोगेट मदर पर काफी बहस चली तथा यह पाया गया कि पढ़ी-लिखी व नारीवादी स्त्रियां मां नहीं बनना चाहतीं. जन्म देने की पीड़ा से बचना चाहती हैं. मृदुला जी सरोगेसी को व्यापार मानती थीं तथा स्वाभाविक रूप से मां बनने को सराहती रही हैं. आज स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ते तनाव की स्थिति पर वे रहीम का दोहा: रहिमन धागा प्रेम का- दुहराने से नहीं चूकती थीं कि प्रेम के धागे को मत तोड़ो क्योंकि यदि यह धागा एक बार टूट गया तो फिर आसानी से नहीं जुड़ता, उसमें कहीं न कहीं गांठ पड़ जाती है. वे नारीवादी आंदोलन को केवल पश्चिम के चश्मे से देखे जाने का विरोध करती हैं और कहती हैं कि नारीवादी आंदोलन पुरुष व स्त्री के बीच समरसता पैदा करने के लिए हों न कि उनके बीच कलह व अलगाव को जन्म देने के लिए. एक लेखिका, राजनीतिज्ञ, गृहिणी, बहू हर रूप में उनका व्यक्तित्व बहुत उदार किन्तु परंपरा का आदर करने वाला रहा है. वे बिहार जैसे पिछड़े किन्तु संस्कृति-सजग प्रदेश में जन्मी पर अपने व्यक्तित्व से लाखों लोगों को प्रभावित, प्रेरित किया और राजनीति में अपनी उपस्थिति से यह जताया कि महिलाएं आज कहीं भी किसी भी जगह हों, वे अपने पद दायित्व का बखूबी निर्वाह कर रही हैं तथा देश की नींव को मजबूत करने में किसी से कम नहीं. मृदुला जी आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी सौम्य आभा हमारी स्मृतियों में सुरक्षित रहेगी. नमन. # डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक, कवि एवं भाषाविद हैं. आपकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों अन्वय एवं अन्विति सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार, आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब के शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से समादृत हैं. संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059. मेलः शादी के बाद लेखिका को कौन से नगर में रहना पड़ा?➲ शादी के बाद लेखिका बिहार के डालमियानगर नामक कस्बे में रही थी। लेखिका को शादी के बाद बिहार के एक छोटे से कस्बे डालमियानगर में रहना पड़ा था। लेखिका ने देखा कि वहाँ का समाज पिछड़ा हुआ था। वहाँ के पुरुष-स्त्री भले ही वे पति पत्नी क्यों ना हों, फिल्म देखते समय अलग-अलग बैठे थे।
शादी के बाद लेखिका बिहार के कौन से कस्बे में रही?उत्तर- शादी के बाद लेखिका बिहार के छोटे से कस्बे डालमियानगर में और कर्नाटक के बागलकोट में रही।
शादी के बाद लेखिका मृदुला गर्ग कहाँ रहने लगी?मित्र शादी के बाद मृदुला गर्ग बिहार के डालमिया नगर में रह रही थीं। और वह नाटकों में अभिनय करने की शौकीन थी।
लेखिका बिहार के कौन से कस्बे में गई जहां नाटक के माध्यम से उसने पैसा इकट्ठा किया?अगले चार साल तक हमने कई नाटक किए। अकाल राहत कोष के लिए, उन्हीं के माध्यम से पैसा भी इकट्ठा किया। वहाँ से निकली तो कर्नाटक के और भी छोटे कस्बे, बागलकोट में पहुँच गई।
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