Show
ऐसी व्यक्तिगत स्वतंत्रता धर्म और राष्ट्र विरोधी होती है...सामाजिक बंधन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में से यदि किसी को चुनना हो तो स्वभावत: आप व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ही चुनेंगे। स्वतंत्रता के अर्थ है कि आप क्या खाना-पीना, पहनना और रहना चाहते हैं। यह भी कि आप किससे विवाह करना चाहते हैं, कहां घुमना चाहते हैं और कहां प्रार्थना करना चाहते हैं। यह सभी आपकी निजता और स्वतंत्रता के हिस्से हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं अथवा मैं जो चाहूं करूं अथवा वैसा ही वर्तन करूं, यह भी नहीं। दरअस्ल हिन्दू धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देता है सामाजिक बंधन या नियमों को नहीं। जैसे आप मंदिर जाएं या न जाए, आप ईश्वर को माने या न माने यह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। हिन्दू धर्म के अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता बहुत मायने रखती है। लेकिन यह स्वतंत्रता सभी तक जायज है जब तक की आप दूसरे की स्वतंत्रता में दखल न देते हों और आप समाज के लिए कोई खतरा खड़ा न करते हों। स्वतंत्रता का अर्थ परिवार, कुटुंब, समाज या राष्ट्र से स्वतंत्र होने वाली बात नहीं। दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करना भी जरूरी है। स्वतंत्रता मोक्ष का प्रथम पड़ाव है। स्वतंत्रता का अर्थ आप किस तरह का जीवन जीना चाहते हैं उसके लिए कोई सामाजिक दबाव नहीं। आप क्या है यह जानने के लिए आपकी आत्मा पर किसी भी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए। उपनिषद और गीता यही शिक्षा देते हैं। सामाजिक नियमों से जरूरी है आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता। लेकिन यदि यह स्वंत्रता समाज को बिगाड़ने या समाज के विध्वंस को करने के लिए उत्सुक है तो यह स्वतंत्रता नहीं बल्कि यह स्वच्छंदता, विद्रोह या अलगाववाद है। संसार में मुख्यतः दो प्रकार के धर्म हैं। एक कर्म-प्रधान दूसरे विश्वास-प्रधान। हिन्दू धर्म कर्म-प्रधान है, अहिन्दू धर्म विश्वास-प्रधान। जैन, बौद्ध, सिख ये तीनों हिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। हिन्दू धर्म लोगों को निज विश्वासानुसार ईश्वर या देवी-देवताओं को मानने व पूजने की और यदि विश्वास न हो तो न मानने व न पूजने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है। अहिन्दू धर्म में ऐसी स्वतंत्रता नहीं है। विद्वान व दूरदर्शी लोग भली-भांति जानते हैं कि सांसारिक उन्नति और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र विचारों की कितनी बड़ी आवश्यकता रहती है। हिन्दू धर्म व्यक्ति स्वतंत्रता को महत्व देता है, जबकि दूसरे धर्मों में सामाजिक बंधन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लागू हैं। आप ईशनिंदा नहीं कर सकते और आप समाज के नियमों का उल्लंघन करके अपने तरीके से जीवन-यापन भी नहीं कर सकते। मनुष्यों को कड़े सामाजिक बंधन में किसी नियम के द्वारा बांधना अनैतिकता और अव्यावहारिकता है। ऐसा जीवन घुटन से भरा तो होता ही है और समाज में प्रतिभा का भी नाश हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की अनुपम कृति है और उसे स्वतंत्रता का अधिकार है। वह इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह मंदिर जाए, प्रार्थना करे या समाज के किसी नियम को माने। यही कारण रहा कि हिन्दुओं में हजारों वैज्ञानिक, समाज सुधारक और दार्शनिक हुए जिन्होंने धर्म को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और जिन्होंने धर्म में बाहर से आ गई बुराइयों की समय-समय पर आलोचना भी की। किसी को भी धार्मिक या सामाजिक बंधन में रखना उसकी चेतना के विस्तार को रोकना ही माना जाता है। वेद, उपनिषद और गीता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में भगवान (ईश्वर नहीं) होने की संभावना है। भगवान बन जाना प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है। ऐसी स्वतंत्रता को स्वंत्रता नहीं कहेंगे।:- 1. व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र श्रेष्ठ होता है । इसलिए, राष्ट्र जीवित रहने पर ही समाज जीवित रहता है और समाज जीवित रहने पर व्यक्ति जीवित रहता है। 2. राष्ट्र की अखंडता को हानि पहुंचाने वाली, लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत करने वाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता अनुचित है। 3. समलैंगिकता, लिव इन रिलेशनशिप आदि विकृतियों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर महिमामंडित करना राष्ट्र और धर्म द्रोह है। 4. यदि आपने अपनी स्वच्छंदता, विद्रोह, विरोध, अश्लीलता, मनमानी या अलगाववाद को ही अपनी स्वतंत्रता समझ लिया है तो निश्चित ही आप पर राज्य का कानून लागू होना चाहिए। 5.आप यदि आपने विचारों अनुसार जीना चाहते हैं तो निश्चित ही जिये लेकिन इस शर्त पर नहीं कि आप देश, समाज और धर्म को गाली बककर जिये। दूसरे के विचारों का सम्मान करना भी जरूरी है। संतों के प्रवचनों से प्रेरित सन्दर्भलोकतंत्र का आधार स्वतंत्रता है तथा भारत में स्वतंत्रता की स्थापना का सर्वाधिक दायित्व न्यायपालिका का है। परिचयभारतीय संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र की रक्षा हेतु स्वतंत्र न्यायपालिका का गठन किया तथा भारतीय जनता की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा का सर्वाधिक भार न्यायपालिका पर डाला गया। विगत वर्ष हुए बहुचर्चित अर्नव गोस्वामी मामले में न्यायपालिका ने 2 दिनों में जमानत देकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया। इसी निर्णय के एक भाग "ह्यूमन लिबर्टी एंड द रोल ऑफ़ कोर्ट" में न्यायालय ने मानवीय स्वतंत्रता को संविधान के आधारभूत मूल्यों में एक माना है। अतः स्पष्ट है कि न्यायपालिका मानवीय स्वतंत्रता को अत्यंत महत्वपूर्ण मान रही है। स्वतंत्रता का सिद्धांत :-सैद्धांतिक रूप से स्वतंत्रता के दो रूप स्पष्ट होते हैं 1- मानवीय अस्तित्व के एक गुण के रूप में स्वतंत्रता :-इस सिद्धांत के अनुसार स्वतंत्रता मानवीय अस्तित्व का एक गुण है जिसमें मानव प्रकृति के नियमों का ज्ञान प्राप्त कर उन्हें अपने उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना सकता है। इसका अभिप्राय है कि जहां अन्य तत्व वस्तुएं अथवा जीव जंतु प्रकृति के निर्विकार नियमों से नियमित होते हैं वही मानव उन्हें अपने उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना लेता है। मानव के संपूर्ण सभ्यता तथा उसकी संस्कृति मानव के स्वतंत्र गुण का परिणति है इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मानव प्रकृति के नियमो के बंधन से स्वतंत्र व्यवहार करता है। 2- मनुष्य की दशा के रूप में स्वतंत्रता :-इस सिद्धांत के अनुसार स्वतंत्रता मानव की एक दशा है जिसमें मनुष्य स्वयं निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति में समर्थ होता है और उस पर इस प्रकार के बंधन आरोपित नहीं होते जो उसे अपने अनुसार जीवन व्यतीत करने से रोकें। स्वतंत्रता की दशा का विचार तभी हमारे सामने आता है जब हम मनुष्य में स्वतंत्रता के गुण क्षमता को स्वीकार करके चलते हैं। राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता का अर्थ "स्वतंत्रता मनुष्य की एक दशा के रूप में मानी जाती है । " यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि फ्रीडम का उपयोग मात्र स्वतंत्रता के पहले अर्थ अर्थात "मानवीय अस्तित्व के एक गुण के रूप में स्वतंत्रता" के लिए किया जाता है जबकि लिबर्टी का उपयोग "मनुष्य की दशा के रूप में स्वतंत्रता" तथा "मानवीय अस्तित्व के एक गुण के रूप में स्वतंत्रता" दोनों के लिए किया जाता है “। स्वतंत्रता तथा न्याय में सम्बन्ध :-
स्वतंत्रता को स्थापित करने में भारतीय न्यायपालिका की भूमिका :-
क्या भारत में व्यक्तिगत स्वतंन्त्रता पूर्णतया स्थापित है?निस्संदेह भारत की न्यायपालिका व्यक्तिगत स्वतंत्रता की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है परन्तु कुछ कारणों से मानवीय स्वतंत्रता पूर्णतया स्थापित नहीं हो सकी है।
निष्कर्षभारत की स्वतंत्र न्यायपालिका ने भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि कुछ समस्याओं के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता सीमित भी हुई है। परन्तु यह स्पष्ट है की समाज में न्याय , स्वतंत्रता तथा समानता जैसे राजनैतिक सिद्धांतो की स्थापना तथा अधिकारों की रक्षा के लिए सक्षम तथा प्रभावी न्यापालिका की आवश्यकता है अतः न्यायपालिका में सुधार के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए। सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र 2
मुख्य परीक्षा प्रश्न :
व्यक्तिगत स्वतंत्र से आप क्या समझते हैं?व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं अथवा मैं जो चाहूं करूं अथवा वैसा ही वर्तन करूं, यह भी नहीं। दरअस्ल हिन्दू धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देता है सामाजिक बंधन या नियमों को नहीं। जैसे आप मंदिर जाएं या न जाए, आप ईश्वर को माने या न माने यह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है।
जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से आप क्या समझते हैं?भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 संविधान के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, जिसमे यह कहा गया है कि भारत में कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया के आलावा कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकता है।
स्वतंत्रता कितने प्रकार के होते हैं?Independence Day 2022: जानिए स्वतंत्रता कितने प्रकार की होती है?. राजनीतिक स्वतंत्रता ... . प्राकृतिक स्वतंत्रता ... . आर्थिक स्वतंत्रता ... . नैतिक स्वतंत्रता ... . नागरिक स्वतंत्रता ... . राष्ट्रीय स्वतंत्रता ... . धार्मिक स्वतंत्रता. स्वतंत्रता से क्या आशय है क्या व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता में कोई संबंध है?व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतन्त्रता है। बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना जिसमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, स्वतन्त्रता के ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। एक स्वतन्त्र समाज वह होगा, जो अपने सदस्यों को न्यूनतम सामाजिक अवरोधों के साथ अपनी सम्भावनाओं के विकास में समर्थ बनाएगा।
|