‘‘अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ’’, यहाँ दैव का अर्थ ईश्वर नहीं है भाग्य है। ‘दैव दैव आलाती पुकारा’ में भी दैव का अर्थ भाग्य है ईश्वर नहीं। भारत भाग्यवाद से हुयी क्षति की पहचान करने लगा है तभी तो वह विपत्ति में अपने बचाव के लिए उसे न पुकार कर ईश्वर को पुकारता हैः सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाई उबारौ नाथ। भारत की यह विडम्बना हीं है कि उसने भाग्यवाद को तब पहचाना जब धन, बल, विद्या, बुद्धि सब से वह छिन्न हो गया। भाग्यवाद ने इस भारत को संतोषी बना दिया। संतोष तो प्रकृति से ही प्रगति विरोधी है। भारत के लोग इस भाग्यवाद के कारण हाथ पर हाथ धर प्रतीक्षा के लिए मजबूर हो गए। वे रोटी और रोजगार के लिए भाग्य पर निर्भर करने ही लगे, असाध्य बीमारियों का भी उपचार न कराकर इस भाग्य से उपचार की प्रार्थना करते रहे। इस भाग्यवाद का ही परिणाम है कि ‘‘अब हिन्दुओं को खाने मात्र से कम देष से कुछ काम नहीं’’ अब हिंदुओं को खाने मात्रा से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनसन ही सही। रोजगार न रहा, सूद ही सही। वह भी नहीं, तो घर ही का सही, ‘संतोषं परमं सुखं’ रोटी को ही सराह सराह के खाते हैं। उद्यम की ओ देखते ही नहीं।'' तब स्पष्ट है कि भाग्यवाद और उससे जनित संतोषवृत्ति, आलस्य, अकर्मण्यता भारत के प्रचछन्न शत्रु हैं। भारत सावधान भी हुआ तो सब कुछ नष्ट होने के बाद। यह भाग्यवाद भारत का छद्म चित्र है। वह भारत के बल पर ही फलता-फूलता रहा है। भारत की मुर्च्छा से उसकी उद्विग्नता अपने अस्तित्व की चिंता के कारण है- यदि भारत न रहा तो फिर वह कहाँ जीवन पाएगा। भारत को जब वह एक शव की माफिक मान लेता है और उसे पक्का यकीन हो जाता है कि भारत अब नहीं जगेगा तब वह नदियों, सागरों से भारत को डुबाने की प्रार्थना करता है। जिसे भारत के डुबने पर ही हार्दिक शांति मिलेगी, वह भारत का हितैषी नहीं हो सकता। यह भारत भाग्य अंग्रेजों का प्रशंसक है। फिर यह अंग्रेजों द्वारा गुलाम बनाये गए भारत का मित्र कैसे हो सकता है। वह मुर्च्छित भारत से कहता हैः ‘‘अंग्रेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे। हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा । अरे अब क्या चिता पर संभलेगा।’’ यह भारत भाग्य भारत से कहता है कि मुझसे वीरों की कर्म नहीं हो सकता, तो फिर किस अर्थ में वह भारत का मित्र है। पराधीन भारत की मुक्ति शौर्य कर्म से ही हो सकती थी। भारत भाग्य का अंत दुखान्त नहीं सुखान्त है। भारत भाग्य Show मुख्यतः नाटक का आरंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। भारतेंदु से पूर्व खड़ी बोली की प्रधानता थी। गद्य के विकास में कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही। भारतेंदु का काल नवजागरण के नाम से भी जाना जाता है। नवजागरण की विशेषता आत्मअवलोकन तथा स्वयंमूल्यांकन की थी। नवजागरण का कारण था सामूहिक चेतना , सांस्कृतिक चेतना। नाटक सामाजिक कला है। अतः नवजागरण काल में नाटक की अहम भूमिका थी। नाटक को लेकर अभी भी विवाद है कि प्रथम नाटक कौन सा है? आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आनंद रघुनंदन, डॉक्टर दशरथ ओझा के अनुसार संदेशरासक और भारतेंदु के अनुसार नहुष हिंदी का प्रथम नाटक है। अतः भारतेंदु ने अपने नाटक में प्राचीन परंपरा और नवीनता का समावेश किया है। भारतेंदु ने 30 वर्ष की अल्प आयु में हिंदी साहित्य को नवीन दिशा प्रदान की , उनका काल 1850 से 1900 तक माना जाता है। उनके महत्वपूर्ण नाटक निम्नलिखित है-
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भारत दुर्दशा की संवेदनाभारत दुर्दशा भारतेंदु जी की सफल कृति है इसका अंदाजा इसके मंचीयता से लगाया जा सकता है। इस नाटक का सफल मंचन किया जा चुका है। यह नाटक आज भी दर्शकों को प्रभावित करने में सक्षम है। भारत दुर्दशा के सभी पात्र प्रतिकात्मक हैं उनके पात्र भारत दुर्देव , मदिरा लोभ , अहंकार , सत्यानाशी फौज आदि है। भारतेंदु का यह नाटक अपनी यूगिन समस्याओं को उजागर करता है ,उसका समाधान करता है। भारत दुर्दशा में कवि ने अपने सामने प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली वर्तमान लक्ष्यहीन पतन की ओर उन्मुख भारत का वर्णन किया है। नाटककार के लिए भारत की परतंत्रता से ज्यादा भारतीय समाज की पतनोन्मुख ता सोचनीय है। भारतेंदु ऐसे समय में आए जब अंग्रेजी शासन और नवाबी राज्यों में हिंदुओं का सम्मान सुरक्षित नहीं था। उनका धर्म अपनी रक्षा के लिए तरस रहा तथा हिंदुओं ने अपने धर्म की रक्षा का कई प्रयत्न किया किंतु वह असफल रहा पूर्व का समय मुगलों का था जो मुस्लिम थे उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रसार किया हिंदुओं का धर्म बलात परिवर्तन कराया गया । हिंदू स्त्रियों का गौरव भी संकटग्रस्त था अंग्रेजी राज ने इस संकट को दूर किया इसलिए कई स्थानों पर अंग्रेजी राज्य को भारत दुर्दशा में कई स्थानों पर एक सकारात्मक दृष्टि से भी देखा गया है – “हे भगवती राजराजेश्वरी इसका हाथ पकड़ो”
भारत दुर्दशा का कारणभारतेंदु ने भारत दुर्दशा का कारण सामाजिक विकृतियों को माना। लोगों में व्याप्त हालत व रूढ़िवादी सोच को माना है। लोगों के निराशावादी ,लक्ष्यहीन ,व पत्तनों उन्मुखी सोच ,को भारतेंदु ने भारत दुर्दशा का कारण माना व समाज में जो आर्थिक संरचना धार्मिक संरचना है वह समाज की नींव को खोखली कर रही है। आपस में भेदभाव व जाति का वर्गीकरण आपसी मनमुटाव स्वार्थ परखता ,लोग भारत की दुर्दशा का कारण है। भारत सदैव धार्मिक व अंधविश्वास की रूढ़ियों व परंपरा मान्यताओं से ग्रसित रहा है ,जिसके कारण एक धर्म दूसरे धर्म को नीचा दिखाने के लिए आपस में लड़ता रहा। जिसके कारण विदेशियों का भारत में आगमन हुआ और सारे विनाश का कारण बना।
समाज का एक बड़ा तबका आलसी ,अशिक्षित वह कमजोर का है जो अपनी पुरानी सड़ी-गली मान्यता को ढो रहा है। वह अपने तक ही केंद्रित है दूसरा वर्ग इस समाज का निरंतर शोषण करता रहा है। किंतु यह उस परंपरा का विरोध नहीं करते वह निराशावादी वह भाग्यवादी होते जा रहे हैं। यही कारण है कि कुमति व आलस का वर्चस्व समाज में बढ़ते जा रहा है
यह भी जरूर पढ़ेंहिंदी नाटक का विकास। प्रमुख नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी रंगमंच और उसका विकास | भारतेंदु युग | पारसी थियेटर ध्रुवस्वामिनी पात्र योजना जयशंकर प्रसाद ( ध्रुवस्वामिनी ) पुरस्कार जयशंकर प्रसाद नाटक के तत्व कहानी के तत्व समाज के प्रति दृष्टिकोणभारतेंदु जी को निराशा होती है समाज के भाग्यवादी व लक्ष्यहीन पतनशीलता की ओर अग्रसर प्रगति पर। वह समाज को अपने भविष्य के गौरव की ओर इशारा करते हैं कि अपने यहां अर्जुन ,कृष्ण ,भीम , आदि जैसे पराक्रमी शूरवीर योद्धा हुए और आज उस समाज की यह दुर्दशा! समाज में भारतेंदु ने तब अपनी आवाज बुलंद की जब समाज ने सती प्रथा , बाल विवाह ,गौ हत्या , आदि जैसी बड़ी आपदाओं ने अपने जड़ पसार लिए थे। भारतेंदु ने इस परंपरा मान्यता का खंडन किया भारत दुर्दशा का कारण जहां धर्म , कर्म – काण्डीय रहा वही सबसे बड़ा कारण आलस्य ,असंतोष भी रहा। मदिरा ,अंधकार ने भी भारत को पर्याप्त मात्रा में दुर्दशा की ओर किया। सभी लोग मदिरा के प्रेमी हो गए देश के सभी लोग चाहे अफसर हो वकील हो सभी मदिरा का सेवन करते उसके प्रभाव से कोई भी नहीं बच सका भारतेंदु व्यंग करते हैं- “मदवा पीले पागल जीवन बित्यो जाए । अंग्रेजी राज की समीक्षाभारतेंदु ने जगह-जगह पर अंग्रेजी राज की विवेचना की है क्योकि अंग्रेजी राज के आने से सती प्रथा , बाल विवाह आदि जैसी कुरीतियों का सफाया हो सका। शिक्षा का प्रकाश भी पश्चिम से ही आया। अतः भारतेंदु ने कई स्थानों पर अंग्रेजी राज को भारत का हितकर भी माना- ” हाय भारत भैया उठो देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है अब सोने का समय नहीं है। किंतु भारतेन्दु ने उनकी निंदा भी की ,उनके विचारों व मान्यताओं का खंडन भी किया। अंग्रेज अपने हितकर नहीं है वह एक लूट के उद्देश्य से भारत में आए ,यहां का कच्चा माल अपने देश ले जाकर वहां से उनका महंगे दामों में सौदा किया। भारतीय किसानों पर रीड तोड़ने वाला लगान लादा। गया यहां की जनता पर निरंतर अत्याचार किया गया
अतः भारतेंदु ने अपने आलोचकों का प्रतिरोध किया जो उन पर अंग्रेज का प्रशंसक होने का आरोप लगा रहे थे। इतिहास व पौराणिक मान्यताओं का बोधभारतेंदु ने समाज को जागरुक करने के लिए इतिहास , पुराण का सहारा लिया। उनके आलोक से समाज को परिचित कराया। भारतेंदु ने अपने कुछ नाटकों की रचना तो पुराणों के आधार पर किया तो कुछ नाटकों की रचना इतिहास के आधार पर। भारत – दुर्दशा भारतेंदु का मौलिक नाटक है, किंतु इसमें भी पौराणिक व ऐतिहासिक तथ्य समाहित है। भारतेंदु अतीत के गौरव से समाज के पराजित मनोवृति को सहला रहे थे।
भारत – दुर्दशा में पुराण को भी आधार बनाकर समाज को जागरुक किया। उन्होंने राम ,युधिष्ठिर ,भीष्म ,भीम ,कर्ण , अर्जुन , कृष्ण आदि की भी मिसाल पेश की कि वह हमारे अतीत में अपने पराक्रम की पताका फैला रहे थे ,जो भारत कभी ईश्वर का प्रिय था सोने की चिड़िया थी आज वहां की यह दुर्दशा। अतः भारतेंदु ने इतिहास पुराण आदि का सहारा लेकर समाज को जागरुक करने के का सार्थक प्रयत्न किया यही से स्वतंत्रता की नींव पड़ी जो एक चिंगारी का रूप धारण कर लोगों के बीच आग जलाने का कार्य कर रही थी। समाधान संकेत भारतेंदु ने भारत – दुर्दशा में प्रतिकात्मक पात्रों की सहायता से दुर्दशा के कारणों की खोज की ,पहचान किया। जिसमें सबसे बड़ा कारण मदिरा , लोभ , अशिक्षा को माना उसकी पहचान कर भारतेंदु ने उसका साथ छोड़ने का आग्रह किया। यह सभी वास्तव में आज समाज की जड़ें खोखली करने में अहम भूमिका निभा रही है। भारतेंदु ने जगह-जगह मदिरा व निर्लज्जता के माध्यम से समाज में एक निश्चित ही सार्थक संदेश दिया जो सर्वनाश का कारण है। उसके साथ न जाने का आग्रह किया। समाज में असंतोष ,लज्जा ,मदिरा दुर्देव आदि ने अपनी जड़ें इतनी जमा रखी है कि भारत भाग्य अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी सफल नहीं हो पाता और अंत में कटार मारकर आत्महत्या कर लेता है। यह भी जरूर पढ़ेंआत्मकथ्य कविता का संक्षिप्त परिचय | हंस पत्रिका | छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद। समाजशास्त्र | समाज की परिभाषा | समाज और एक समाज में अंतर | Hindi full notes जयशंकर प्रसाद | ध्रुवस्वामिनी | भारतेंदु के उत्तराधिकारी | jayshankar prsad in hindi | dhruvswamini | जयशंकर प्रसाद की प्रमुख रचनाएं | पारिवारिक विपत्तियां | प्रसाद जी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय उपन्यास की संपूर्ण जानकारी | उपन्यास full details in hindi कवि नागार्जुन के गांव में | मैथिली कवि | विद्यापति के उत्तराधिकारी | नागार्जुन | kavi nagarjuna तुलसीदास की समन्वय भावना | TULSIDAS | निर्गुण और सगुण | विद्या और अविद्या माया | अगर आपको ये पोस्ट अच्छा लगा हो तो इसको ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुचाएं | व्हाट्सप्प और फेसबुक के माध्यम से शेयर करें | कृपया अपने सुझावों को लिखिए हम आपके मार्गदर्शन के अभिलाषी है | facebook page hindi vibhag YouTUBE निष्कर्षतो हम कह सकते हैं कि भारत दुर्दशा भारतेंदु युग का दस्तावेज है इसमें वर्तमान सामाजिक ,राजनीतिक व आर्थिक स्थिति स्पष्ट रूप से वर्णित है। यह नाटक भारतीय संवेदना को व्यक्त करने में सफल रही है नवजागरण के दौर में भारत दुर्दशा ने एक मशाल की भूमिका निभाई जिसमें भारतीयों की लक्ष्यहीन पतन मुखी सोच को नई दिशा प्रदान की। भारत दुर्दशा नाटक का समय क्या है?भारत दुर्दशा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1880 ई में रचित एक हिन्दी नाटक है। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अन्त करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं।
भारत दुर्दशा नाटक में कुल कितने अंग है?नाटक में कुछ छ: अंग हैं जो काफी छोटे आकार के हैं।
भारत दुर्दशा शीर्षक कविता का केंद्रीय विषय क्या है?यह कविता भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक 'भारत-दुर्दशा' से ली गयी है। इस कविता का मुख्य विषय देश प्रेम है और इसमें भारतेन्दु समस्त भारतवासियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि इस समय, अंग्रेज़ों के राज में, भारत की वह दुर्दशा हो चुकी है जो मुझसे देखी नहीं जाती और जिस पर हम सभी भारतीयों को चिंता और चिंतन करना चाहिए।
भारत दुर्दशा नाटक का उद्देश्य क्या है?यह नाटक भारत की तत्कालीन यथार्थ दशा से परिचित करता है। नाटक का प्रमुख उद्देश्य :- तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाना एवं दुर्दशा के कारणों को कम कर दुर्दशा करनेवालों का यथार्थ चित्र उपस्थित करना ।
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