Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi रचना कविता / नाटक / कहानी की रचना प्रक्रिया Questions and Answers, Notes Pdf. 1. कैसे बनती है कविता कविता क्या है? कविता हमें अपनी ओर खींचती तो है ही. पर कभी-कभी जटिल और अबझ-सी भी लगती है जिसे समझ पाना भी कठिन हो जाता है। अतः उसे बार-बार सुनने पर उसकी अनुगूंज हमारे अन्तर्मन को सुंदर बनाकर जीने की कला सिखाती है। कविता मुक्त छंद में भी हो सकती है। उसे लय, ताल, स्वर की भी आवश्यकता नहीं होती। फिर भी वह कविता होती है। कविता के महत्वपर्ण घटक - कविता लेखन के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इनको कविता का घटक कहते हैं। इनके बिना कविता की रचना करना संभव नहीं है। कविता के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं - (अ) भाषा-कविता लेखन के लिए भाषा का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। भाषा ही वह माध्यम है जिसमें कवि अपनी संवेदनाओं और भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है। अतः कवि के लिए भाषा के वैज्ञानिक तत्त्वों का ज्ञाता होना आवश्यक है। कविता में बिंब विधान - किसी शब्द को पढ़कर या सुनकर जब हमारे मन में कोई चित्र उभर आता है, तो उसे काव्य की भाषा में बिंब कहा जाता है। अतः कविता में बिंबों का बड़ा महत्त्व है। कविता में चित्रमय शब्दों का प्रयोग करने से उसकी ग्राह्यता बढ़ जाती है। बिंब के माध्यम से किसी अनुभूति को सहज ही कविता में ढाला जा सकता है जो सहज ही समझ में आ सकती है। हमारी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ इसलिए ही हैं कि हम संसार को भलीभाँति समझ सकें। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से पाँच बिंब बनते हैं, जैसे- नेत्रों से दृश्य बिंब, कानों से श्रव्य बिंब, त्वचा से स्पृश्य बिंब, नासिका से घ्राण बिंब और जीभ से स्वाद्य बिंब। इन बिंबों से ही हम संसार को समझ सकते हैं। इन बिंबों के प्रयोग से ही कविता आसानी से समझ में आने योग्य बनती है। उदाहरणस्वरूप पंतजी की कविता 'संध्या के बाद' की ये पंक्तियाँ ली जा सकती हैं - तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ विधवाएँ जप-ध्यान में मगन, कविता की इन पंक्तियों को पढ़ते ही बगुलों-सी वृद्धाओं और विधवाओं का बगुलों जैसा सफेद रंग, उनका घुटे हुए सिर के कारण गर्दन का आकार और सफेद वस्त्रों का एक चित्र उभर आता है। इस प्रकार बिंबों के माध्यम से कविता को समझना आसान हो जाता है। कविता में परिवेश/चित्रण - कविता का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व देशकाल और वातावरण अर्थात् परिवेश होता है। उसी के अनुरूप कविता के सारे घटक परिचालित होते हैं और भाषा, संरचना, बिंब, छंद आदि का चुनाव किया जाता है। प्राकृतिक परिवेश को चित्रित करने के लिए उसी के अनुरूप भाषा, बिंब आदि का चुनाव करना आवश्यक होता है। उदाहरणस्वरूप प्रसाद जी की कविता 'बीती विभावरी' को लिया जा सकता है।। 'बीती विभावरी जाग री। इसी प्रकार कविवर नागार्जुन ने 'अकाल और उसके बाद' कविता में ग्रामीण परिवेश की शब्दावली और बिंबों का प्रयोग करके अकाल के गहरे प्रभाव का वर्णन किया है, जैसे - कई दिनों तक चूल्हा : रोया, चक्की रही उदास। इस कविता में चूल्हा, चक्की, कुतिया, भीत, छिपकलियाँ, चूहे आदि इस तथ्य को उजागर कर देते हैं कि भीषण अकाल का प्रभाव सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों पर पड़ता है, जो जीवन की कम-से-कम आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम नहीं हैं। कवि नागार्जुन शब्दों के खिलाड़ी हैं, अतः यहाँ शब्दों के इस खेल को स्पष्ट देखा जा सकता है। इससे यह सिद्ध होता है कि परिवेश की जीवंतता के लिए सही शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। उसी के अनुरूप भाषा, छंद, लय आदि होने चाहिए। 2. नाटक लिखने का व्याकरण नाटक किसे कहते हैं - नाटक की सफलता तो उसकी पाठ्य-सामग्री है पर उसकी संपूर्णता मंच पर सफल मंचन के साथ ही होती है। इसलिए कहा जाता है कि नाटक साहित्य की वह विधा है जिसे पढ़ा, सुना और देखा जा सकता है। नाटक को अभिनेताओं द्वारा अपने सहरंगकर्मियों के साथ निदेशक की देखरेख में रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सकता है। नाटक और साहित्य की अन्य विधाओं में अन्तर : साहित्य की अन्य विधाएँ हैं- कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि। स्वयं नाटक भी इनमें से ही. एक विधा है किन्तु नाटक की अपनी कुछ अन्य विशेषताएँ भी हैं, जैसे नाटक दृश्य-काव्य होता है। नाटक का यह.सबसे बड़ा गुण है। अन्य विधाओं का रसास्वादन उनके लिखित रूप को पढ़ने और सुनने से प्राप्त होता है किन्तु नाटक को सरसता उसको रंगमंच पर घटित होता हुआ देखने में है। नाटक की भाषा-शैली - रंगमंच पर प्रस्तुति हेतु नाटक की रचना की जाती है। इसलिए इसकी भाषा सहज, सरल तथा प्रसंगानुकूल होनी चाहिए। जैसे- पौराणिक प्रसंगों से युक्त नाटक की भाषा तत्सम प्रधान होती है। मुगलकालीन नाटक की भाषा उर्दू शब्दों से युक्त होगी। आधुनिक काल के नाटकों की भाषा खड़ी-बोली के साथ प्रचलित अंग्रेजी, उर्दू, अरबी-फारसी शब्दों से युक्त होगी। नाटक के तत्त्व-नाटक में निम्नलिखित तत्त्व होते हैं : (i) समय का बंधन नाटककार को समय का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। उसे एक निश्चित समय-सीमा में ही नाटक पूरा करना पड़ता है। दर्शकों के धैर्य को देखकर ही नाटक की समयावधि निर्धारित की जाती है। नाटक में स्वीकार और अस्वीकार की अवधारणा - नाटक में स्वीकार के स्थान पर अस्वीकार का अधिक महत्त्व होता है। नाटक में अस्वीकार तत्त्व के आ जाने से नाटक सशक्त हो पाता है। कोई भी दो चरित्र जब आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट होती है। रंगमंच में कभी भी यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जाता। वर्तमान में स्थिति के प्रति असंतोष का भाव, छटपटाहट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्त्वों के समावेश से ही नाटक सशक्त बनता है। अतः हम देखते हैं कि हमारे देश के नाटकों में राम की अपेक्षा रावण, प्रह्लाद के स्थान पर हिरण्यकश्यप का चरित्र अधिक आकर्षित करता है। यद्यपि विचार, व्यवस्था अथवा तात्कालिक समस्या को भी नाटक में सहज स्वीकार किया गया है तथापि इस प्रकार के लिखे गए नाटक लम्बे समय तक लोकप्रिय नहीं हो पाए। 3. कैसे लिखें कहानी कहानी क्या है - हमारे जीवन से संबंध : सदैव से कहानी मानव जीवन का प्रमुख हिस्सा रही है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में कहानी सुनना-सुनाना पसंद करता है। प्रत्येक मनुष्य में अपने अनुभव बाँटने और दूसरों के अनुभवों को जानने की प्राकृतिक इच्छा होती है। कहानी का इतिहास - कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव का इतिहास क्योंकि कहानी मानव स्वभाव या प्रकृति का हिस्सा है। (i) कथानक-कहानी का केन्द्रबिन्दु कथानक होता है। इस प्रकार कथानक कहानी का वह संक्षिप्त रूप है जिसमें प्रारम्भ से अन्त तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का उल्लेख किया गया हो। कथामक में तीन स्थितियाँ होती हैं. प्रारंभ, मध्य और अन्त। कथानक आगे बढ़ता है तो उसमें द्वन्द्व तत्त्व भी होता है। द्वन्द्व का अर्थ है बाधा। द्वन्द्व कहानी को रोचकता प्रदान करता है। (ii) देशकाल कथानक का स्वरूप बन जाने के बाद कहानीकार कथानक के देशकाल को पूरी तरह समझ लेता है क्योंकि कहानी की प्रामाणिकता और रोचकता के लिए यह बहुत आवश्यक तत्त्व है। देश का अर्थ है स्थान तथा काल का अर्थ है समय। कथानक के घटित होने का स्थान और समय ही देशकाल है। (iii) पात्र कहानीकार के मन में अपने पात्रों के स्वरूप की स्पष्ट छवि होनी चाहिए तभी वह अपने पात्रों का चरित्र-चित्रण करने में तथा संवाद लिखने में सफल हो सकता है। कहानीकार को चाहिए कि वह पात्रों के गुणों का स्वयं बखान न करके पात्र के क्रियाकलापों अथवा अन्य लोगों के कथन द्वारा उसके गुणों को प्रकट करे। (iv) संवाद-संवाद के बिना पात्रों की कल्पना मुश्किल है। संवाद ही कहानी को, पात्र को स्थापित करते हैं, विकसित करते हैं और कहानी को गति प्रदान करते हैं। अतः कहानी में पात्रों द्वारा बोले गए संवादों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। संवाद विश्वासों, आदर्शों और स्थितियों के अनुकूल हों। संवाद संक्षिप्त हों, लम्बे-लम्बे संवाद उबाऊ हो जाते हैं। (v) चरमोत्कर्ष (क्लाइमेक्स) कहानी को धीरे-धीरे चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ाना चाहिए। इसे कहानी का .. क्लाइमेक्स भी कहते हैं। चरमोत्कर्ष पाठक को स्वयं सोचने और लेखक के उद्देश्य को समझने की प्रक्रिया के द्वाराः। प्राप्त होना चाहिए। लेखक को ऐसे प्रयत्न करने चाहिए जिससे पाठक को लगे कि वह चरमोत्कर्ष पर पहुँचने के लिए स्वतन्त्र है। उसे लगे कि उसने जो भी निर्णय निकाला है वह स्वयं उसी का है। महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. प्रश्न 21. प्रश्न 22. प्रश्न 23. शब्द-नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व 'शब्द' है। 'शब्द' नाटक का शरीर होता है। अतः नाटककार को सांकेतिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए। व्यंजनापरक शब्दों का प्रयोग नाटक की रोचकता में वृद्धि करता है। कथ्य-नाटककार को यह ध्यान रखना चाहिए कि नाटक मंच पर अभिनीत होगा। इसलिए सभी घटनाओं को क्रम से रखना चाहिए जिससे नाटक शून्य से शिखर की ओर विकास करे। इस प्रकार कथ्य को सही ढंग से प्रस्तुत प्रश्न 24. प्रश्न 25. प्रश्न 26. प्रश्न 27. प्रश्न 28. प्रश्न 29. प्रश्न 30. प्रश्न 31. प्रश्न 32. प्रश्न 33. प्रश्न 34. प्रश्न 35. प्रश्न 36. पात्र - कहानीकार के मन में अपने पात्रों के स्वरूप की स्पष्ट छवि होनी चाहिए तभी वह अपने पात्रों का चरि-चित्रण करने में तथा संवाद लिखने में सफल हो सकता है। |