बारहमासा का वर्णन किस कवि ने अपनी कृति में किया है - baarahamaasa ka varnan kis kavi ne apanee krti mein kiya hai

(1)

चालियउ उलगाणउ कातिग मास।
छोडीया मंदिर घर कविलास।
छोडीया चउबारा चउषंडी।
तठइ पंथि सिरि नयण गमाइया रोइ।
भूष गई त्रिस ऊचटी।
कहि न सषीय नींद किसी परि होइ॥

(2)

मगसिरियइ दिन छोटा जी होइ।
सषीय संदेसउ न पाठवइ कोइ।
संदेसइ ही बज पड्यउ।
ऊँचा हो परबत नीचा घाट।
परदेसे पर गयउ।
तठइ चीरीय न आवइ न चालए बाट॥

(3)

देषि सषी हिव लागउं छइ पोस।
धण मरतीय को मत दीयउ दोस।
दुषि दाधी पंजर हुई।
धान न भावए तज्या सिरि न्हाण।
छांहडी धूप नू आलगइ।
देषतां मंदिर हुयउ मसांण॥

(4)

माह मासइ सीय पडइ ठंठार।
दाध छइ बनषंड कीधा छइ छार।
आप दहंती जग दह्मउ।
म्हाकी चोलीय माहि थी दाधउ गात्र।
धणीय विहूणी धण ताकिजइ।
तूंतउ उवइगउरे आविज्यो करइ पलाणि।
जोबन छत्र उमाहियउ।
म्हाकी कनक काया माहे फेरली आंण॥

(5)

फागुण फरहर्या कंपिया रूख।
चितइ चकमियउ निसि नीद न भूख।
दिन रायां रितु पालटी।
म्हाकउ मूरष राउ न देषइ आइ।
जीवउं तउ जोबन सही।
फरहरइ चिहुं दिसि बाजइ छइ बाइ॥

(6)

चेत्र मासइ चतुरंगी हे नारि।
प्रीय विण जीविजइ किसइ अधारि।
कंचूयउ भीजइ जण हसइ।
सात सहेलीय बइठी छइ आइ।
दंत कबाड्या नइ नह रंग्या।
चालउ सषी आपे षेलण जाइ।
आज दिसइ स काल्हे नहीं।
म्हे किउं होली हे षेलण जांह।
उलगाणइ की गोरडी।
म्हाकी आंगुली काढतां निगलीजइ बांह॥

(7)

वइसाषइ धुर लूणिजइ धान।
सीला पाणी अरु पाका जी पान।
कनक काया घट सींचिजइ।
म्हाकउ मूरष राउ न जाणइ सार।
हाथ लगामी ताजणउ।
ऊभउ सेवइ राज दुआरि॥

(8)

देषि जेठाणी हिव लागउ छइ जेठ।
मुह कुमलाणा नइ सूक गया होठ।
मास दिहाडउ दारुण तवइ।
धण कउ हे धरणि न लागए पाउ।
अनल जलइ धण परजलइ।
हंस सरोवर मेल्हिउ ठांह॥

(9)

आसाढइ धुरि बाहुडया मेंह।
षलहल्या षाल नइ बहि गइ षेह।
जइ रि आसाढ न आवई।
माता रे मइगल जेउं पग देइ।
सद मतवाला जिम दुलइ।
तिहि धरि ऊलग काइं करेइ॥

(10)

स्रावण बरसइ छइ छोटीय धार।
प्रीय विण जीविजइ किसइ अधारि।
सही समाणी षेलइ काजली।
तठइ चिडय कमेडीय मंडिया आस।
बाबंहियउ प्रीय-प्रीय करइ।
मोनइ अणष लावइ हो स्त्रावण मास॥

(11)

भाद्रवइ बरसइ छइ गुहरि गंभीर।
जल थल महीयल सहु भर्या नीर।
जांणि कि सायर ऊलट्यउ।
निसि अंधारीय बीज षिवाइ।
बादल धरती स्यउं मिल्या।
मूरष राउ न देषइ जी आइ।
हूं ती गोसामी नइ एकली।
दुइ दुष नाह किउं सहणा जाइ॥

(12)

आसोजइ धण मंडिया आस।
मांडिया मंदिर घर कविलास।
धउलिया चउवारा चउषंडी।
साधण धउलिया पउलि पगार।
गउष चडी हरषी फिरइ।
जउ घर आविस्यइ मुंध भरतार॥

राजमती ने कहा “चाकर बीसलदेव कार्तिक मास में गया। वह मंदिर घर तथा शयन गृह को छोड़ गया। वह अपनी चौपाल और चोखंडी (चार खंडों का राजभवन) छोड़ गया। तबसे उसके मार्ग में सिर दे रो-रोकर मैंने अपने नेत्र गँवा दिए; मेरी भूख जाती रही, और तृषा भी उचट गई। कहो सखी! फिर नींद कैसे आवे?

मार्गशीर्ष में दिन छोटा होने लगा है। हे सखी! मेरा पति कोई संदेश भी नहीं भेजता है। संदेशों पर मानो वज्रपात हो गया है। मार्ग में ऊँचे पर्वत और गहरी घाटियाँ पड़ती हैं। मेरा पति परदेश गया है। वहाँ से चिट्ठी आती है, और कोई उस मार्ग से जाता है।

हे सखी! देखो, अब पौष लग गया है। इस मरणासन्न स्त्री को कोई दोष मत देना। मैं दुख में दग्ध होकर पंजर मात्र हो गई हूँ। धान भाता नहीं है; शिर का स्नान छोड़ दिया है; छाँह-धूप नहीं भी शरीर अनुभव नहीं करता है, देखते-देखते राजभवन श्मशान हो गया है।

माघ मास में शरीर सुखाकर ठठरी कर देनेवाला शीत पड़ रहा है कि उससे वनखंड दग्ध होकर क्षार हो गया है। विरह में अपने दग्ध होने के साथ-साथ संसार दग्ध हुआ दिखाई पड़ रहा है। मेरी चोली के भीतर से भी शरीर दग्ध हो गया है; स्वामी के बिना स्त्री इस प्रकार दिखाई पड़ रही है। हे स्वामी! तुम ऊँट पलान करके अविलंब आओ। यौवन का छत्र उमड़ा हुआ है। मेरी कनक-काया में तुम अपनी आन फेर जाओ।

फाल्गुन फर-फर कर रहा है जिससे वृक्ष काँपने लगे है। चित में मैं चौंक गई हूँ, रात में नींद आती है और भूख लगती है। दिन सुंदर होने लगा है, और ऋतु बदल गई है, किंतु मुझे नादान राजा कर नहीं देखता है। हे सखी! जीवित रहूँगी तभी तो यौवन का सुख भी होगा। चारों दिशाओं में वायु फरहरा रही है, और वह लता-वृक्षादि में से होकर वेग से बहने के कारण बज रही है।

चैत्र मास में नारियाँ रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित हो चौरंगी हो गई हैं, किंतु मैं प्रियतम के बिना किसके सहारे जीवित रहूँ? मेरी कंचुकी भीग जाती है और लोग हँसते हैं। सात सहेलियाँ आकर बैठी हुई हैं। उनके दाँत कौड़ियों जैसे चमकाए हुए और नाखून रंगे हुए हैं। वे कहती हैं कि सखी! चलो। होली खेलने के लिए हम लोग चलें। जो यौवन आज है, वह कल नहीं रहेगा। मैं कहती हूँ, मैं होली खेलने किस प्रकार जाऊँ? मैं तो चाकर की स्त्री हूँ; तुम मेरी उँगली पकड़कर बाँह पकड़ती हो।

धुर वैशाख में धान काटा जाता है; पानी शीतल और पान पका होता है। कनक-काया रूपी वृक्ष को जल के घड़ों से तृप्त किया जाता है। मूर्ख राजा मेरा सार नहीं जानता है। वह हाथ में घोड़े की लगाम और चाबुक लेकर खड़ा हुआ राज-द्वार पर सेवा करता है।

हे जिठानी! देख, यह जेठ लग गया है। मुँह कुम्हला गया है और ओष्ठ सूख गए हैं। इस माह के दिन बहुत गर्म होते हैं। मुझ स्त्री के पैर धरती पर नहीं पड़ पाते हैं; आग जल रही है और स्त्री राजमती उसमें जलती है। हंस सरोवर छोड़कर चले गए हैं।

धुर आषाढ़ में मेघ लौट आया है। नाले खल-भल करके बहने लग गए हैं, और धूल बह गई है। यद्यपि यह आषाढ़ है, किंतु मेरा स्वामी नहीं रहा है। मेघ प्रमत्त होकर मंदगलित हाथी की भाँति आकाश में पैर रख रहा है, वह सद्य: मदोन्मत की भाँति ढुलक रहा है। चाकरी में मेरा पति पराए घर में  क्या कर रहा है।

श्रावण छोटी धारो में बरसता है। ऐसे किनमिन के दिनों में प्रियतम के बिना किसके सहारे जीवित रहा जाए? सखियाँ और समवयस्काएँ कजली खेलती हैं। कमेड़ी पक्षी ने आशा लगा रक्खी है। पपीहा ‘पिउ-पिउ’ करता है। मुझे श्रावण मास अणखावना (बुरा) लगता है।

भाद्रपद भारी वर्षा कर रहा है। जल-थल-मही-तल में सब जगह जल भर गया है, मानों सागर ही उलट पड़ा हो। रात्रि अंधकारमय होती है, बिजली चमक उठती है। बादल जल-भार के कारण धरती से मिला हुआ है। (ऐसे समय में भी) नादान राजा आकर मेरी दशा नहीं देखता है। हे स्वामी! एक तो मैं स्त्री हूँ और दूसरे अकेली हूँ। यह दोनों दुःख, नाल्ह कहता है, कैसे सहन किए जाएँ?

आश्विन में राजमती ने आशा लगाई। उसने राजभवन और शयन गृह को सजाया, उसने चौपाल और चौखंडी की सफ़ेदी कराई; उस स्त्री ने ड्योढ़ी तथा परकोटे की भी सफ़ेदी कराई। गवाक्षों पर चढ़कर वह हर्षित फिर रही थी कि शायद उसका मूढ़ पति घर जाएगा।

बारहमासा काव्य रचना में जायसी ने किसका वर्णन किया है?

'बारहमासा' मालिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य "पद्मावत" के "नागमती वियोग खंड" का एक अंश है ! इस खंड में राजा रत्नसेन के वियोग में संतृप्त रानी नागमती की विरह व्यथा का वर्णन किया गया है !

बारहमासा गीतों में किसका वर्णन मिलता है?

वर्ष भर के बारहमास में नायक - नायिका की श्रृंगारिक विरह और मिलन की क्रियाओं के चित्रण को बारहमासा कहते हैं। इसके पद्य या गीत में बारहों महीने की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुख से कराया जाता है।

बारहमासा के लेखक कौन है?

मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत में वर्णित बारहमासा हिन्दी का सम्भवतः प्रथम बारहमासा है। वर्ष भर के बारह मास में नायक-नायिका की शृंगारिक विरह एवं मिलन की क्रियाओं के चित्रण को बारहमासा नाम से सम्बोधित किया जाता है।

नागमती पवन से क्या संदेश भेजती है?

(घ) नागमती अपने मन के दुख को व्यक्त करते हुए कहती है कि मैं स्वयं के तन को विरहग्नि में जलाकर भस्म कर देना चाहती हूँ। इस तरह मेरा शरीर राख का रूप धारण कर लेगा और पवन मेरे शरीर को उड़ाकर मेरे प्रियतम के रास्ते में बिखेर देगी। इस प्रकार मार्ग में चलते हुए अपने पति का में राख रूप में स्पर्श पा जाऊँगी।