मध्यप्रदेश अपनी विविधता के लिये जाना-पहचाना जाता है। विकास और सामाजिक परिवर्तन के प्रयासों के संदर्भ में भी जितने प्रयोग और परीक्षण इस प्रदेश में हुए हैं; संभवत: इसी कारण इसे विकास की प्रयोगशाला कहा जाने लगा है। मध्यप्रदेश में राजस्व और वनभूमि के संदर्भ में भी विवाद ने नित नये रूप लिये हैं और अफसोस की बात यह है कि यह विवाद सुलझने के बजाय उलझता जा रहा है। इस विषय को विवादित होने के कारण नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जंगलों का मामला सत्ता, पूंजी और सामुदायिक सशक्तिकरण के बीच एक त्रिकोण बनाता है। इतिहास बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों (खासतौर पर जल और जंगल) के किनारों पर ही सभ्यताएं बसती और विकास करती हैं। जंगलों और नदियों के संरक्षण से ही प्रकृति का संतुलन बनता है किन्तु विकास की जिस परिभाषा का आज के दौर में राज्य (स्टेट) पालन कर रहा है उससे सामाजिक असंतुलन के नये प्रतिमान खड़े हो रहे हैं। अत: यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि जंगल के सवाल का जवाब खोजने के लिये व्यापक प्रयास किये जायें। Show
मध्यप्रदेश के बारे में -
वास्तव में अकूत प्राकृतिक संसाधनों का नियमन (Regulatisation) करने में कोई बुराई नहीं है किन्तु जंगलों के सम्बन्ध में जो कानून बने उनका मकसद समाज के एक खास तबके को लाभ पहुंचाना रहा है और इसी भेद-भावपूर्ण नजरिये के कारण आंतरिक संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार मध्यप्रदेश की जनसंख्या 6.03 करोड़ है। जिसमें से 73¬33 फीसदी लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। प्रदेश की कुल जनसंख्या में से 19 फीसदी हिस्सा आदिवासी समुदायों का है जो पारम्परिक रूप से जंगलों के साथ जीवन सम्बन्ध रखते हैं। इतना ही नहीं ग्रामीण जनसंख्या का 18 फीसदी हिस्सा भी अपनी आजीविका और जीवन के लिए जंगल के संसाधनों पर निर्भर है। इसका मतलब यह है कि जब हम यह कहते हैं कि जंगल के संसाधनों पर किसी विवाद का साया है तब इसका मतलब यह होता है कि हम दो करोड़ लोगों की आजीविका के संसाधनों पर विवाद की बात कर रहे होते हैं। मध्यप्रदेश में कुल पशुधन 3.49 करोड़ की संख्या में है जिसमें गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और बैल सबसे ज्यादा हैं। जब हम गांवों का आनुपातिक विश्लेषण करते हैं। तो पता चलता है कि प्रदेश के कुल 52739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगलों में बसे हुये हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुये। मध्यप्रदेश सरकार का वन विभाग सैद्धांतिक रूप से यह विश्वास करता है कि मुख्यधारा के विकास की प्रक्रिया से दूर रहने के कारण ये समुदाय (यानी जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा) अपनी आजीविका के लिये जंगलों पर निर्भर है। प्रदेश में जंगल की संपदा - यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है कि हम वनों को सरकार की सम्पत्ति मानते हैं या फिर समुदाय की? समाज पारम्परिक रूप से जंगलों का संरक्षण और उपभोग एक साथ करता रहा है और ब्रिटिश हुकूमत के दौर में सन् 1862 यानी देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के ठीक पांच वर्ष बाद वन विभाग की स्थापना की। वे वन विभाग के जरिये उपनिवेशवाद को सशक्त करने के लिये जंगलों पर अपना मालिकाना हक चाहते थे। मध्यप्रदेश में 10 जुलाई 1958 को राजपत्र में एक पृष्ठ की अधिसूचना प्रकाशित करके 94 लाख हेक्टेयर सामुदायिक भूमि (जंगल) को वन विभाग की सम्पत्ति के रूप में परिभाषित कर दिया गया। यूं कि इस 94 लाख हेक्टेयर भूमि में से कितने हिस्से पर आदिवासी या अन्य ग्रामीण रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं या पशु चरा रहे हैं। यह विश्लेषण नहीं किया गया। चूंकि आदिवासियों के पास निजी मालिकाना हक के कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं रहें हैं। इसलिये उनके हक को अवैध और गैर-कानूनी माना जाने लगा। पहले (स्वतंत्रता से पूर्व) की व्यवस्था में हर गांव का एक दस्तावेज होता था, उसमें यह स्पष्ट उल्लेख रहता था कि गांव में कितनी भूमि है, उसका उपयोग कौन-कौन किस तरह से कर रहा है। वही गांव के मालिकाना हक का वैधानिक दस्तावेज था; इसे बाजिबुल-अर्ज कहा जाता था। आज भी यह दस्तावेज जिला अभिलेखागार में देखा जा सकता है। जंगल के इसी हस्तांतरण के कारण आदिवासियों के वैधानिक शोषण की शुरूआत हुई। मध्यप्रदेश में जंगल
वास्तविक जंगल की वर्षवार स्थिति वर्ष 1997 1999 2001 2003 मध्यप्रदेश 74760 वर्ग किमी 75130 वर्ग किमी 77265 वर्ग किमी 76429 वर्गकिमी भारत 633397 वर्ग किमी 637293 वर्ग किमी 675538 वर्ग किमी 678333 वर्ग किमी
आश्रय के अधिकार का मुद्दा
वनों से प्राप्त राजस्व वर्ष प्राप्त राजस्व रूपये (करोड़) 2001-02 306.45 2002-03 497.30 2003-04 496.75 2004-05 559.11 2005-06 422.00
भारत सरकार ने 18 अगस्त 2004 को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में यह बताया कि देश में 24 अक्टूबर 1980 तक जंगल में रहने वाले परिवारों को कुल 3.66 लाख हैक्टेयर जमीन दी गई है जिसमें से 2.75 लाख हेक्टेयर भूमि केवल मध्यप्रदेश में ही बांटी गई है। परन्तु मध्यप्रदेश सरकार कहती है कि राज्य में 111671 परिवार पात्र माने गये हैं। जिन्हें 1.439 लाख हैक्टेयर भूमि वितरित की गई है। यहां स्पष्ट अर्थ यह है कि वास्तव में आदिवासी समुदाय आंकड़ों के विरोधाभासी खेल में पिस रहा है। वनग्रामों का मसला
किन्तु पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जंगलों का औद्योगिक उपयोग करने वाले समूहों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 23 फरवरी 2004 को भारत सरकार की स्वीकृति पर रोक लगा दी। अब भी 1000 हजार गांव वन विभाग और राजस्व विभाग के बीच फंसे हुये हैं। इन गांवों में आदिवासी समुदाय का विकास प्रभावित हो रहा है। मध्यप्रदेश में सामाजिक वानिकी
संयुक्त वन प्रबंधन का उपयोग
वर्ष 2005 में मध्यप्रदेश में 14173 संयुक्त वन प्रबंधन समितियां 59.46 लाख हेक्टेयर जंगल पर काम कर रही थी। परन्तु इसके पहले 1999 की स्थिति में मध्यप्रदेश में भारत की आधी समितियां थी और एक करोड़ हेक्टेयर जंगल पर काम कर रही थीं। मकसद पर सैद्धांतिक रूप से तो बहस हो सकती है परन्तु व्यावहारिक रूप से संयुक्त वन प्रबंधन की अवधारणा ने समुदाय के भीतर ही टकराव का वातावरण तैयार किया। इस व्यवस्था में ग्रामवन समिति या सुरक्षा समिति का गठन किया गया। इन समितियों को जंगल बचाने के लिये ''अपराधियों'' को दण्डित करने (आर्थिक दण्ड या दण्ड की सिफारिश करने) के अधिकार दिये गये; पर ये अपराधी उन्हीं के गांव और समुदाय के लोग होते हैं आज की स्थिति में प्रदेश के सघन आदिवासी जिलों में जंगल में प्रवेश करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। आमतौर पर लोग अपने उपयोग के लिये लकड़ी लाने, निस्तार के लिए और शौच के लिये जंगल में आते रहे हैं पर अब जंगल की सीमा (यह सीमा स्पष्ट भी नहीं होती है) में प्रवेश करते ही वन रक्षक या वन सुरक्षा समिति उस पर दण्ड लगा देती है। संकट यह है कि गांव की सीमा खत्म होते ही जंगल की सीमा शुरू हो जाती है और जानवरों की चराई, खेती जैसे काम तो गांव के बाहर ही हो सकते हैं। इतना ही नहीं अब सरकार ने जंगलों को इंसानों से बचाने के लिये सेवानिवृत्त फौजियों को नियुक्त करना शुरू कर दिया। इन फौजियों को सरकार की ओर से हथियार और वाहनों के साथ-साथ ग्रामीण आदिवासियों को दण्डित करने का भी अधिकार दिया गया है। नई नीतियों के व्यावहारिक पक्ष
इस परिस्थिति में भारत सरकार ने अंतत: यह स्वीकार करना शुरू किया है कि आदिवासी समुदाय के वास्तविक अधिकारों की उपेक्षा की गई है। 21 जुलाई 2004 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सुविख्यात गोदावरमन बनाम भारत सरकार के मुकदमें के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने एक हलफनामा दाखिल करके स्वीकार किया कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है क्योंकि उस समय जमीन पर मालिकाना हक के दस्तावेज नहीं थे इसलिये ब्रिटिश शासन के दौरान वन क्षेत्रों के सीमांकन के बाद भी आदिवासियों के अधिकारों का निर्धारण नहीं हो पाया। अब यह स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है कि आदिवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2005 के पारित हो जाने के बाद आदिवासियों को जंगल की जमीन पर आजीविका और आवास का वैधानिक अधिकार मिल पायेगा। यह कानून दिसम्बर 2005 तक जंगल क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के अधिकारों को स्वीकार करता है। बेंदा समाज में वनों को क्या कहते हैं?इसलिए वनों को हरे फेफड़े कहा जाता है।
वन किसे कहते हैं यह कितने प्रकार के होते हैं?मुख्यत: छ: प्रकार के वन समूह हैं जैसे आर्द्र उष्णकटिबंधीय वन, शुष्क उष्णकटिबंधीय, पर्वतीय उप-उष्णकटिबंधीय, उप-अल्पाइन, उप शीतोष्ण तथा शीतोष्ण जिन्हें 16 मुख्य वन प्रकारों में उपविभाजित किया गया है।
वन से आप क्या समझते हैं?भू क्षेत्र जहाँ वृक्षों का घनत्व सामान्य से अधिक है उसे वन (जंगल) कहते हैं। विभिन्न मापदंडों पर आधारित जंगल की कई परिभाषाएँ हैं । वनों ने पृथ्वी के लगभग 9.5% भाग को घेर रखा है जो कुल भूमिक्षेत्र का लगभग 30% भाग है।
वनों का हमारे जीवन में क्या महत्व है?इनके महत्व निम्नलिखित हैं- (1) ये वातावरण को सन्तुलित रखते हैं। (2) ये वर्षा को नियन्त्रित करते हैं। (3) ये भूमि कटाव तथा बाढ़ पर नियन्त्रण रखते हैं। (4) ये प्रदूषण को नियन्त्रित करते हैं।
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