बुंदेली भारत के एक विशेष क्षेत्र बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना बहुत कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सदियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंग्ला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। Show
प्राचीन काल में बुंदेली में शासकीय पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा में मिलते है। कहा तो यह भी जाता है कि औरंगजेब और शिवाजी भी क्षेत्र के हिंदू राजाओं से बुंदेली में ही पत्र व्यवहार करते थे। एक-एक क्षण के लिए अलग-अलग शब्द हैं। गीतो में प्रकृति के वर्णन के लिए, अकेली संध्या के लिए बुंदेली में इक्कीस शब्द हैं। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है। बुंदेलखंडी बोले जाने वाले जिले[संपादित करें]
बुंदेली का इतिहास[संपादित करें]वर्तमान बुंदेलखंड चेदि, दशार्ण एवं कारुष से जुड़ा था। यहां पर अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में इस बोली का उल्लेख प्राप्त है, शबर, भील, चांडाल, सजर, द्रविड़ोद्भवा, हीना वने वारणम् व विभाषा नाटकम् स्मृतम् से बनाफरी का अभिप्रेत है। संस्कृत भाषा के विद्रोहस्वरुप प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ। इनमें देशज शब्दों की बहुलता थी। हेमचंद्र सूरि ने पामरजनों में प्रचलित प्राकृत अपभ्रंश का व्याकरण दशवी शती में लिखा. मध्यदेशीय भाषा का विकास इस काल में हो रहा था। हेमचन्द्र के कोश में विंध्येली के अनेक शब्दों के निघण्टु प्राप्त हैं। बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' की रचना की। इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी ब्रज के अनेक शब्दों का उल्लेख मिलता है। इसी काल में अर्थात एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं। इसमें देशज शब्दों की बहुलता थी। पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली की माता प्राकृत शौरसेनी तथा पिता संस्कृत भाषा है। दोनों भाषाओं में जन्मने के उपरांत भी बुंदेली भाषा की अपनी चाल, अपनी प्रकृति तथा वाक्य विन्यास को अपनी मौलिक शैली है। हिंदी प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत के निकट है। मध्यदेशीय भाषा का प्रभुत्व अविच्छन्न रूप से ईसा की प्रथम सहस्त्राब्दी के सारे काल में और इसके पूर्व कायम रहा। नाथ तथा नाग पंथों के सिद्धों ने जिस भाषा का प्रयोग किया, उसके स्वरुप अलग-अलग जनपदों में भिन्न भिन्न थे। वह देशज प्रधान लोकभाषा थी। इसके पूर्व भी भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणजनों की भाषा विंध्येली प्राचीन बुंदेली ही थी। संभवतः चंदेल नरेश गंडदेव (सन् ९४० से ९९९ ई.) तथा उसके उत्तराधिकारी विद्याधर (९९९ ई. से १०२५ ई.) के काल में बुंदेली के प्रारंभिक रूप में महमूद गजनवी की प्रशंसा की कतिपय पंक्तियां लिखी गई। इसका विकास रासो काव्य धारा के माध्यम से हुआ। जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचनाएं हैं। बुंदेली के आदि कवि के रूप में प्राप्त सामग्री के आधार पर जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं, जो बुंदेली की समस्त विशेषताओं से मंडित हैं। बुंदेली के बारे में कहा गया है: बुंदेली वा या है जौन में बुंदेलखंड के कवियों ने अपनी कविता लिखी, बारता लिखवे वारों ने वारता (गद्य) लिखी. जा भाषा पूरे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय। बोली के कई रूप जगा के हिसाब से बदलत जात हैं। जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. बुंदेलखंड में जा हिसाब से बहुत सी बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी,विदीशयीया(विदिशा जिला में बोली जाने वाली) आदि। बुंदेली का स्वरूप[संपादित करें]बुंदेलखंड की पाटी पद्धति में सात स्वर तथा ४५ व्यंजन हैं। कातन्त्र व्याकरण ने संस्कृत के सरलीकरण प्रक्रिया में सहयोग दिया। बुंदेली पाटी की शुरुआत ओना मासी घ मौखिक पाठ से प्रारंभ हुई। विदुर नीति के श्लोक विन्नायके तथा चाणक्य नीति चन्नायके के रूप में याद कराए जाते थे। वणिक प्रिया के गणित के सूत्र रटाए जाते थे। नमः सिद्ध मने ने श्री गणेशाय नमः का स्थान ले लिया। कायस्थों तथा वैश्यों ने इस भाषा को व्यवहारिक स्वरुप प्रदान किया, उनकी लिपि मुड़िया निम्न मात्रा विहीन थी। स्वर बैया से अक्षर तथा मात्रा ज्ञान कराया गया। चली चली बिजन वखों आई, कां से आई का का ल्याई ... वाक्य विन्यास मौलिक थे। प्राचीन बुंदेली विंध्येली के कलापी सूत्र काल्पी में प्राप्त हुए हैं। कुछ प्रसिद्ध शब्द और कहावतें[संपादित करें]
बुन्देली लोकोक्तियाँ और कहावतें[संपादित करें]
क्षेत्रीय बुंदेलखंडी[संपादित करें]जो बोली पन्ना सागर झांसी आदि में बोली जाती है वो ठेठ तथा जो विदिशा रायसेन होशंगाबाद में बोली जाती है क्षेत्रीय बुंदेलखंडी कहलाती है। बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेश स्थित जिलों में भी बुंदेली भाषा में शब्द वैविध्य है, जनपद जालौन की बुंदेली हिंदी खड़ी बोली के अधिक करीब है, प्रायः बातचीत में अधिकांश शब्द खड़ी बोली के मिलेंगे,जबकि झांसी जनपद के ग्रामीण क्षेत्र की बोली पर मध्यप्रदेश की सीमा होने के कारण वहां का असर है, ऐसा ही ललितपुर की बोली में भी है। वहीं हमीरपुर बांदा और चित्रकूट की बुंदेली कुछ अलग है, पहले पहल सुनने पर आपको कुछ कठोर लग सकती है किंतु वह उनके बोलने का तरीका है, जैसे कि ग्वालियर मुरैना क्षेत्र की बोली में कुछ कर्कशता महसूस होती है, जो वास्तव में होती नहीं है। कुछ शब्द देखिए - नांय - यहांमायं - वहांवारे - बच्चेमुंस - आदमी, मनुष्यपरबायरे - पृथक, अलगपबर जाओ - चले जाओमौं - मुंहपनबेसरे - परमेश्वरऔर भी ऐसे ही हजारों शब्द हैं। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बुंदेली लेखक कौन कौन है?महाकवि केशव, उपन्यास सम्राट वृन्दावन लाल वर्मा, पद्माकर, लाल बिहारी, श्रीपति, मुंशी अजमेरी, गंगाधर व्यास जैसे कवि-साहित्यकारों एवं इन्दीवर, निदा ़फा़जली तथा ताबाँ झाँसवी जैसे बड़े शाइरों एवं ़िफल्मी गीतकारों ने बुन्देलखण्ड को अलग पहचान दी।
बुंदेली भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई?बुंदेली भाषा का समृद्ध इतिहास है। यह भाषा शौरसेनी अपभ्रंश के 'मध्यदेशीय' से विकसित पश्चिमी हिन्दी की एक प्रमुख बोली है। यह तथ्य सर्वविदित है कि हिन्दी की लोकभाषाओं का उदय मध्यदेशीय शौरसेनी अपभ्रंश से माना गया है। शौरसेनी अपभ्रंश से अनेक लोकभाषाओं का जन्म हुआ।
बुंदेली भाषा कहाँ बोली जाती है?बुंदेली भारत के एक विशेष क्षेत्र बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना बहुत कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सदियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंग्ला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं।
बुंदेली दिवस कब मनाया जाता है?1 नवंबर के दिन को हम बुंदेले इतिहास का सबसे काला दिन मानते हैं।
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