स्वाति दहिया*1, स्वाति सिंधु1, नीलम2, विजय1, अखिल कुमार गुप्ता1 और नरेश कुमार कक्कड़11 Show पशु सूक्ष्मजीवी विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा विज्ञान महाविद्यालय लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा 2पशुपालन एवं डेयरी विभाग, जिला फतेहाबाद, हरियाणा परिचय ‘मुँह एवं खुर रोग’ अथवा ‘खुरपका मुँहपका रोग’ (Foot-and-mouth disease, FMD) फटे खुरों वाले पशुओं यानि गाय, भैंस, बकरी, भेड़ एवं सूअरों में होने वाला अत्याधिक संक्रामक रोग है। यह रोग एक अत्यंत सूक्ष्म विषाणु (FMD virus) से होता है जिसके पूरे विश्व में सात मुख्य प्रकार (serotype O, A, Asia-1, C, SAT-1, 2 and 3) व कई उप-प्रकार होते हैं। भारत में इस रोग के केवल तीन प्रकार (serotype O, A and Asia-1) के विषाणु पाए जाते हैं। ‘गलघोटू’ अथवा ‘रक्तस्त्रावी पूयरक्तता’ (Haemorrhagic Septicemia, HS) मुख्यतः गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊँट, शूकर व अन्य प्रजातियों के पशुओं में होने वाला अति संक्रामक जीवाणु (Pasteurella multocida) जनित रोग है। भैंसों में यह रोग सबसे अधिक संक्रामक एवं नुकसानदायक होता है। यह रोग प्रायः निचली भूमि के आर्द्रता वाले क्षेत्रों में होता है। बारिश के मौसम में यह रोग अधिक होता है। रोग से क्षति मुँह एवं खुर रोग से दुधारु पशुओं में दूध की उत्पादकता में कमी आती है। बैलों में रोग आने पर काम करने की शक्ति कम हो जाती है और सांडों की प्रजनन क्षमता में गिरावट आ जाती है, जिससे पशुधन व्यापार पर असर पड़ता है। छोटे पशुओं में मृत्यु भी हो जाती है। रोग ग्रसित भेड़, बकरी व सूअर के शरीर में दुर्बलता एवं ऊन व मीट उत्पादन में कमी आ जाती है। पिछले कुछ सालों से हरियाणा सहित कई अन्य राज्यों में मुँह एवं खुर रोग के साथ-साथ पशुओं में गलघोटू बीमारी का प्रकोप भी देखा गया है । दोनो रोगों से एक साथ ग्रसित होने पर पशुओं में और अधिक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष नुकसान होता है। लक्षण मुँह एवं खुर रोग से पशु सुस्त हो जाता है व तेज़ बुखार (102-105°F) आ जाता है। मुँह से अत्याधिक लार टपकती है और झाग बनती है। जीभ, होंठ व मसूड़ों पर छाले बन जाते हैं जो बाद में फट कर घाव में बदल जाते हैं। मुँह खोलते और बंद करते समय एक विशेष प्रकार की चप-चप की आवाज़ आती है। खुरों के बीच घाव होने पर पशु लंगड़ा कर चलता है। मुँह में घाव होने की वजह से पशु चारा लेना और जुगाली करना बंद कर देता है। रोग के लम्बे समय तक चलने पर रोगी पशु के थनों पर भी कभी-कभी छाले उभर आते हैं। छोटे पशुओं में तेज़ बुखार आने के बाद बिना किसी लक्षण के मृत्यु हो जाती है। परन्तु व्यस्क पशुओं में मृत्यु दर बहुत कम है। सूअरों में लार टपकने की बजाय थूथ पर फफोले बन जाते हैं। मुँह एवं खुर रोग के लक्षण गलघोटू रोग तीव्र, उप-तीव्र और बहुकालीन रूपों में होता है । इस बीमारी के प्रारंभिक चरण में पशु को अचानक अत्यंत तेज़ बुखार (106-107°F) हो जाता है। इसके बाद साँस लेने में दिक्कत और अन्तिम चरण में सेप्टेसीमिया (खून में जीवाणु की अधिकता) हो जाती है, जिससे पशु की मौत हो जाती है। तीव्र रूप में यह बीमारी अचानक प्रकट होती है जिससे पशु की मृत्यु 24 घंटों के भीतर ही हो जाती है। पशु को साँस लेने में कठिनाई होना, गले में घुड़-घुड़ की आवाज़ आना, मुँह से लार गिरना, नाक से बलगम आना और आँखों से पानी आना भी इस रोग के मुख्य लक्षण हैं। इसके साथ-साथ इस रोग से गले, गर्दन, डयूलेप (हीक) और जीभ में भी सूजन आ जाती है। पशु खाना-पीना बंद कर देता है। भेड़-बकरियों में उपरोक्त लक्षणों के अतिरिक्त लंगड़ा कर चलना भी प्रायः देखा जाता है। रोग का निदान मुँह एवं खुर रोग से ग्रसित रोगी पशुओं के मुँह में फफोले की परत, लार, आदि में विषाणु के प्रकार की जाँच क्षेत्रीय मुँह एवं खुर रोग केन्द्र, पशु सूक्ष्मजीवी विज्ञान विभाग, लुवास में अत्याधुनिक तकनीक (Sandwich ELISA and RT-PCR) द्वारा की जाती है। यह तकनीक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् – खुरपका मुँहपका रोग निदेशालय (ICAR-DFMD) द्वारा विकसित की गयी है। यह एक अत्यंत विश्वसनीय, संवेदनशील एवं प्रभावी तकनीक है जिसके द्वारा जांच के परिणाम एक ही दिन में प्राप्त किये जा सकते हैं। गलघोटू रोग के निदान हेतु जीवित पशु से खून व नासिका स्त्राव के नमूने तथा मृत पशु से दिल, जिगर, तिल्ली, फेफड़े तथा अस्थि-मज्जा के नमूने लिये जाते हैं। प्रयोगशाला में जीवाणु की पहचान, सूक्ष्म-परीक्षण तथा विभिन्न आधुनिक तकनीकों द्वारा की जाती है। पशुओं में पाशचुरैला मलटोसिडा जीवाणु के विरुद्ध एंटीबॉडी स्तर (लेवल) को जानना गलघोटू रोकथाम कार्यक्रम को सुचारू रूप से लागू करने के लिए अति महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में पशु सूक्ष्मजीवी विज्ञान विभाग, लुवास ने एक ऐलिसा परीक्षण तैयार किया है जिससे पशु के खून में गलघोटू के विरुद्ध एंटीबॉडी का स्तर जाँच सकते हैं। यह तकनीक अन्य उपलब्ध तकनीकों से किफायती तथा अधिक कारगर है। सहायक उपचार बुखार की अवस्था में पशु चिकित्सक से संपर्क करें। इसके अलावा मुँह एवं खुर रोग के लिए निम्नलिखित उपचार घर पर किये जा सकते हैं: (क) मुँह के घावों को धोने के लिए:
ऊपर लिखित किसी एक घोल से पशु के घावों को दिन में तीन-चार बार धोना चाहिए। (ख) खुरों के घावों को फिनाइल (40 मि.ली. प्रति लीटर पानी में) के घोल से अच्छी तरह साफ करके कोई भी एंटीसेप्टिक क्रीम लगानी चाहिए। (ग) इसके साथ-साथ नज़दीकी पशु चिकित्सक के परामर्श पर ज्वरनाशी एवं दर्दनाशक दवाइयों का प्रयोग करें। टीकाकरण उपरोक्त सभी सावधानियों के अतिरिक्त पशुपालकों के लिए आवश्यक है कि सभी पशुओं (चार महीने से ऊपर) को मुँह एवं खुर रोग तथा गलघोटू रोग निरोधक टीका लगवाएं। पहले यह टीका पूरे भारतवर्ष में दो-दो बार/ अलग-अलग (मुँह एवं खुर रोग तथा गलघोटू रोग, प्रत्येक) से बचाव लिए 6 माह के अंतराल में लगाया जाता था। पशु सूक्ष्मजीवी विज्ञान विभाग, लुवास द्वारा किए गए परीक्षणों के आधार पर पूरे भारत में सिर्फ हरियाणा में पशुओं को मुँह एवं खुर रोग तथा गलघोटू रोग का मिश्रित टीका लगाने की प्रायोगिक तौर पर इज़ाजत मिली है। इस तरह से यह मिश्रित टीका साल में चार की बजाय दो बार ही लगाने की सलाह दी जाती है। यह मिश्रित टीका पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणा सरकार द्वारा केंद्र सरकार की वित्तीय सहायता से साल में दो बार लगाया जाता है। प्राथमिक टीकाकरण के चार सप्ताह के बाद छोटे पशुओं को दूसरी (बूस्टर) खुराक देनी चाहिए। दूसरी/ बूस्टर खुराक (टीकाकरण) के 2-3 सप्ताह पश्चात पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह बन जाती है जो कि 6 माह तक बनी रहती है। अतः वर्ष में दो बार टीकाकरण करवाने की सलाह दी जाती है। टीकाकरण के दौरान प्रत्येक पशु के लिए अलग-अलग सुई का प्रयोग करें। मुँह एवं खुर रोग अथवा गलघोटू रोग फैलने की स्थिति में क्या करें?
उपरोक्त सावधानियों का ठीक ढंग से एवं समय पर पालन करने से काफी हद तक मुँह एवं खुर रोग तथा गलघोटू रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है। *Corresponding author: Please follow and like us: गलघोटू का देसी इलाज क्या है?यदि इस बीमारी का पता लगने पर उपचार शीघ्र शुरू किया जाए तो इस जानलेवा रोग से पशुओं को बचाया जा सकता है। एंटी बायोटिक जैसे सल्फाडीमीडीन ऑक्सीटेट्रासाइक्लीन और क्लोरोम फॉनीकोल एंटी बायोटिक का इस्तेमाल इस रोग से बचाव के साधन हैं। टीकाकरण : वर्ष में दो बार गलघोंटू रोकथाम का टीका अवश्य लगाना चाहिए।
गलघोटू किसकी कमी से होता है?यह Pasteurella multocida नामक जीवाणु (बैक्टीरिया) के कारण होता है। गलाघोंटू बहुत खतरनाक रोग है। लक्षण के साथ ही इलाज न शुरू होने पर एक-दो दिन में पशु मर जाता है। इसमें मौत की दर 80 फीसदी से अधिक है।
गला घोट बीमारी क्या है?रोग के शुरुआती दौर में 39.5 सी. बुखार, पसीना, कंपकंपी, गले में खराश और दर्द, गले की पीठ पर ग्रे कोटिंग, गर्दन में सूजन, कुकर खांसी, कठिनता से सांस लेना, कमजोरी त्वचा संक्रमण होता है। बाद में गले की टांसिल लाल होकर सांस लेना अवरुद्ध हो जाता है, जिससे मौत हो जाती है।
पशु को बुखार होने पर क्या करें?गलघोंटू रोग (एच.एस. ): ... . लंगड़ा बुखार (ब्लैक क्कार्टर): ... . ब्रुसिल्लोसिस (पशुओं का छूतदार गर्भपात):. |