परिभाषा और महत्त्व : संचार जीवन की निशानी है। मनुष्य जब तक जीवित है, वह संचार करता रहता है। यहाँ तक कि एक बच्चा भी संचार के बिना नहीं रह सकता। वह रोकर या चिल्लाकर अपनी माँ का ध्यान अपनी ओर खींचता है। एक तरह से संचार खत्म होने का अर्थ है-मृत्यु। वैसे तो प्रकृति में सभी जीव संचार करते हैं लेकिन मनुष्य की संचार करने की क्षमता और कौशल सबसे बेहतर है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित
करने में उसकी संचार क्षमता की सबसे बड़ी भूमिका रही है।। परिवार और समाज में एक व्यक्ति के रूप में हम अन्य लोगों में संचार के ज़रिये ही संबंध स्थापित करते हैं और रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करते हैं। संचार ही हमें एक-दूसरे से जोड़ता है। सभ्यता के विकास की कहानी संचार और उसके साधनों के विकास की कहानी है। मनुष्य ने चाहे भाषा का विकास किया हो या लिपि का या फिर छपाई का, इसके पीछे मूल इच्छा संदेशों के आदान-प्रदान की ही थी। दरअसल, संदेशों के आदान-प्रदान में लगने वाले समय और दूरी को पाटने के
लिए ही मनुष्य ने संचार के माध्यमों की खोज की। संचार और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों-टेलीफ़ोन, इंटरनेट, फ़ैक्स, समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविज़न और सिनेमा आदि के ज़रिये मनुष्य संदेशों के आदान-प्रदान में एक-दूसरे के बीच की दूरी और समय को लगातार कम से कम करने की कोशिश कर रहा है। यही कारण है कि आज संचार माध्यमों के विकास के साथ न सिर्फ भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही हैं बल्कि सांस्कृतिक और मानसिक रूप से भी हम एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं। यही कारण है कि आज दुनिया एक गाँव में बदल गई है। दुनिया के किसी भी
कोने में कोई घटना हो, जनसंचार माध्यमों के ज़रिये कुछ ही मिनटों में हमें खबर मिल जाती है। अगर वहाँ किसी टेलीविज़न समाचार चैनल का संवाददाता मौजूद हो तो हमें वहाँ की तसवीरें भी तुरंत देखने को मिल जाती हैं। याद कीजिए 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले को पूरी दुनिया ने अपनी आँखों के सामने घटते देखा। इसी तरह आज टेलीविज़न के परदे पर हम दुनियाभर के अलग-अलग क्षेत्रों में घट रही घटनाओं को सीधे प्रसारण के ज़रिये ठीक उसी समय देख सकते हैं। आप क्रिकेट मैच देखने स्टेडियम भले न
जाएँ लेकिन आप घर बैठे उस मैच का सीधा प्रसारण (लाइव) देख सकते हैं। संचार और जनसंचार के माध्यम हमारी अनिवार्य आवश्यकता बन गए हैं। हमारे रोज़मर्रा के जीवन में उनकी बहुत अहम भूमिका हो गई है। उनके बिना हम आज आधुनिक जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। वे हमारे लिए न सिर्फ सूचना के माध्यम हैं बल्कि वे हमें जागरूक बनाने और हमारा मनोरंजन करने में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। संचार क्या है? ‘संचार’ शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-चलना या एक स्थान से दूसरे स्थान तक
पहुँचना। आपने विज्ञान में ताप संचार के बारे में पढ़ा होगा कि कैसे गरमी एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक पहुँचती है। इसी तरह टेलीफ़ोन के तार या बेतार के ज़रिये मौखिक या लिखित संदेश को एक जगह से दूसरी जगह भेजने को भी संचार ही कहा जाता है। लेकिन हम यहाँ जिस संचार की बात कर रहे हैं, उससे हमारा तात्पर्य दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान है। मशहूर संचारशास्त्री विल्बर त्रैम के अनुसार संचार अनुभवों की साझेदारी है। दरअसल, एक-दूसरे से संचार करते हुए हम अपने
अनुभवों को ही एक-दूसरे से बाँटते हैं। लेकिन संचार सिर्फ दो व्यक्तियों तक सीमित परिघटना नहीं है। संचार के तहत सिर्फ दो या उससे अधिक व्यक्तियों में ही नहीं, हज़ारों-लाखों लोगों के बीच होने वाले जनसंचार तक को शामिल किया जाता है। इस प्रकार सूचनाओं, विचारों और भावनाओं को लिखित, मौखिक या दृश्य-श्रव्य माध्यमों के ज़रिये सफलतापूर्वक एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना ही संचार है और इस प्रक्रिया को अंजाम देने में मदद करनेवाले तरीके संचार माध्यम कहलाते हैं। संचार के तत्व 1. संचार प्रक्रिया की शुरुआत स्रोत या संचारक से होती है। जब स्रोत या संचारक एक उद्देश्य के साथ अपने किसी विचार, संदेश 2. भाषा असल में, एक तरह का कूट चिह्न या कोड है। आप अपने संदेश को उस भाषा में कूटीकृत या एनकोडिंग करते हैं। यह संचार की प्रक्रिया का दूसरा चरण है। सफल संचार के लिए यह ज़रूरी है कि दूसरा व्यक्ति भी उस भाषा यानी कोड से परिचित हो जिसमें आप अपना संदेश भेज रहे हैं। इसके साथ ही संचारक का
एनकोडिंग की प्रक्रिया पर भी पूरा अधिकार होना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि सफल संचार के लिए संचारक का भाषा पर पूरा अधिकार होना चाहिए। साथ ही उसे अपने संदेश के मुताबिक बोलना या लिखना भी आना चाहिए। 3. संचार-प्रक्रिया में अगला चरण स्वयं संदेश का आता है। किसी भी संचारक का सबसे प्रमुख उददेश्य अपने संदेश को उसी अर्थ के साथ प्राप्तकर्ता तक पहुँचाना है। इसलिए सफल संचार के लिए ज़रूरी है कि संचारक अपने संदेश को लेकर खुद पूरी तरह 4. संदेश को किसी माध्यम (चैनल) के ज़रिये प्राप्तकर्ता तक पहुँचाना होता है। जैसे हमारे बोले हुए शब्द ध्वनि तरंगों के ज़रिये 5. प्राप्तकर्ता यानी रिसीवर प्राप्त संदेश का कटवाचन यानी
उसकी डीकोडिंग करता है। डीकोडिंग का अर्थ है प्राप्त संदेश में निहित अर्थ को समझने की कोशिश। यह एक तरह से एनकोडिंग की उलटी प्रक्रिया है। इसमें संदेश का प्राप्तकर्ता उन चिहनों और संकेतों के अर्थ निकालता है। जाहिर है कि संचारक और प्राप्तकर्ता दोनों का उस कोड से परिचित होना ज़रूरी है। संचार-प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की भी अहम भूमिका होती है, क्योंकि वही संदेश का आखिरी लक्ष्य होता है। प्राप्तकर्ता कोई भी हो सकता है। वह कोई एक व्यक्ति हो सकता है, एक समूह हो सकता है, या कोई संस्था अथवा एक विशाल
जनसमूह भी हो सकता है। प्राप्तकर्ता को जब संदेश मिलता है तो वह उसके मुताबिक अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। वह प्रतिक्रिया सकारात्मक या नकारात्मक हो सकती है। संचार-प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की इस प्रतिक्रिया को फ़ीडबैक कहते हैं। संचार-प्रक्रिया की सफलता में फ़ीडबैक की अहम भूमिका होती है। फ़ीडबैक से ही पता चलता है कि संचार-प्रक्रिया में कहीं कोई बाधा तो नहीं आ रही है। इसके अलावा फ़ीडबैक से यह भी पता चलता है कि संचारक ने जिस अर्थ के साथ संदेश भेजा था वह उसी अर्थ में प्राप्तकर्ता को मिला है
या नहीं? इसी फ़ीडबैक के अनुसार ही संचारक अपने संदेश में सुधार करता है और इस तरह संचार की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। लेकिन वास्तविक जीवन में संचार प्रक्रिया इतनी सुचारू रूप से नहीं चलती। उसमें कई बाधाएँ भी आती हैं। इन बाधाओं को शोर (नॉयज) कहते हैं। संचार की प्रक्रिया को शोर से बाधा पहुँचती है। यह शोर किसी भी किस्म का हो सकता है। यह मानसिक से लेकर तकनीकी और भौतिक शोर तक हो सकता है। शोर के कारण संदेश अपने मूल रूप में प्राप्तकर्ता तक नहीं पहुँच पाता। सफल संचार के लिए संचार प्रक्रिया से शोर को
हटाना या कम करना बहुत ज़रूरी है। संचार के प्रकार : संचार एक जटिल प्रक्रिया है। उसके कई रूप या प्रकार हैं। 1. जैसे कभी आप अपने मित्र को इशारे से बुलाते हैं। ज़ाहिर है कि यह इशारा भी संचार है। इसे सांकेतिक संचार कहते हैं। जब हम अपने से बड़ों को सम्मान से प्रणाम करते हैं तो उसमें मौखिक संचार के साथ-साथ दोनों हथेलियाँ जोड़कर प्रणाम का इशारा भी करते हैं। इस तरह एक ही साथ मौखिक और अमौखिक संचार होता है। मौखिक संचार की सफलता में अमौखिक संचार की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे जीवन की कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण भावनाएँ मौखिक से कहीं ज्यादा अमौखिक संचार के ज़रिये व्यक्त होती हैं जैसे-खुशी, दुख, प्रेम, डर, आदि। 2. संचार के विभिन्न रूपों को हम एक और तरह से देख सकते हैं। याद कीजिए, जब आप अकेले में होते हैं तो क्या कर रहे होते हैं ? आप कुछ सोच रहे होते हैं, कुछ योजना बना रहे होता हैं या किसी को याद कर रहे होते हैं। यह भी एक संचार है। इस संचार-प्रक्रिया में संचारक और प्राप्तकर्ता एक ही व्यक्ति होता है। यह संचार का सबसे बुनियादी रूप है। इसे अंतःवैयक्तिक (इंट्रापर्सनल) संचार कहते हैं। हम जब पूजा, इबादत या प्रार्थना करते वक्त ध्यान में होते हैं तो वह भी अंत:वैयक्तिक संचार का उदाहरण है। किसी भी संचार की शुरुआत यहीं से होती है। हम पहले सोचते हैं, फिर किसी और से संवाद करते हैं। स्पष्ट है कि किसी विषय या मुद्दे पर सोच-विचार करना या विचार-मंथन भी संचार का ही एक रूप है। 3. जब दो व्यक्ति आपस में और आमने – सामने संचार करते हैं तो इसे अंतरवैयक्तिक (इंटरपर्सनल) संचार कहते हैं। इस संचार में फ़ीडबैक तत्काल प्राप्त होता है। अंतरवैयक्तिक संचार की मदद से ही हम आपसी संबंध विकसित करते हैं और अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करते हैं। संचार का यह रूप पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की बुनियाद है। अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलता के लिए हमारा अंतरवैयक्तिक संचार का कौशल उन्नत और प्रभावी होना चाहिए। इस कौशल की ज़रूरत हमें कदम-कदम पर पड़ती है। नौकरी और दाखिले के लिए होने वाले इंटरव्यू में आपके इसी कौशल की परख होती है। 4. संचार का तीसरा प्रकार है – समूह संचार। इसमें एक समूह आपस में विचार-विमर्श या चर्चे करता है। जैसे आपकी कक्षा समूह संचार का एक अच्छा उदाहरण है। इस संचार में हम जो कुछ भी कहते हैं, वह किसी एक या दो व्यक्ति के लिए न होकर पूरे समूह के लिए होता है। समूह संचार का उपयोग समाज और देश के सामने उपस्थित समस्याओं को बातचीत और बहुतमुबाहिसे के ज़रिये हल करने के लिए होता है। संचार का सबसे महत्त्वपूर्ण और आखिरी प्रकार है-जनसंचार (मास कम्युनिकेशन)। जब हम व्यक्तियों के समूह के साथ प्रत्यक्ष संवाद की बजाय किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम के जरिये समाज के एक विशाल वर्ग से संवाद कायम करने की कोशिश करते हैं तो इसे जनसंचार कहते हैं। इसमें एक संदेश को यांत्रिक माध्यम के ज़रिये बहुगुणित किया जाता है ताकि उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसके लिए हमें किसी उपकरण या माध्यम की मदद लेनी पड़ती है-मसलन अखबार, रेडियो, टी.वी., सिनेमा या इंटरनेट । जनसंचार की विशेषताएँ 1. जनसंचार में फ़ीडबैक तुरंत नहीं प्राप्त होता है। जनसंचार के श्रोताओं, पाठकों और दर्शकों का दायरा बहुत व्यापक होता है। साथ ही उनका गठन भी बहुत पंचमेल होता है। जैसे किसी टेलीविज़न चैनल के दर्शकों में अमीर वर्ग भी हो सकता है और गरीब वर्ग भी, शहरी भी और ग्रामीण भी, पुरुष भी और महिला भी, युवा तथा वृद्ध भी। लेकिन सभी एक ही समय टी.वी. पर अपनी पसंद का कार्यक्रम देख रहे हो सकते हैं। 2. इसी से जुड़ी जनसंचार की एक प्रमुख विशेषता यह है कि जनसंचार माध्यमों के ज़रिये प्रकाशित या प्रसारित संदेशों की प्रकृति सार्वजनिक होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतरवैयक्तिक या समूह संचार की तुलना में जनसंचार के संदेश सबके लिए होते हैं। 3. जनसंचार संचारक और प्राप्तकर्ता के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता है। प्राप्तकर्ता यानी पाठक, श्रोता और दर्शक संचारक को उसकी सार्वजनिक भूमिका के कारण पहचानता है। 4. संचार के अन्य रूपों की तुलना में जनसंचार के लिए एक औपचारिक संगठन की भी ज़रूरत पड़ती है। औपचारिक संगठन के बिना जनसंचार माध्यमों को चलाना मुश्किल है। जैसे समाचारपत्र किसी न किसी संगठन से प्रकाशित होता है या रेडियो का प्रसारण किसी रेडियो संगठन की ओर से किया जाता है। 5. जनसंचार माध्यमों में ढेर सारे द्वारपाल (गेटकीपर) काम करते हैं। द्वारपाल वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह है जो जनसंचार माध्यमों से प्रकाशित या प्रसारित होने वाली सामग्री को नियंत्रित और निर्धारित करता है। किसी जनसंचार माध्यम में काम करने वाले द्वारपाल ही तय करते हैं कि वहाँ किस तरह की सामग्री प्रकाशित या प्रसारित की जाएगी। जनसंचार माध्यमों में द्वारपाल की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह उनकी ही ज़िम्मेदारी है कि वे सार्वजनिक हित, पत्रकारिता के सिद्धांतों, मूल्यों और आचार संहिता के अनुसार सामग्री को संपादित करें और उसके बाद ही उनके प्रसारण या प्रकाशन की इजाज़त दें। संचार के कार्य : आप अपने रोज़मर्रा के जीवन में संचार का खूब इस्तेमाल करते हैं। निश्चय ही आप उसके उपयोग और कार्यों से बहुत हद तक परिचित हैं। संचार विशेषज्ञों के अनुसार संचार के कई कार्य हैं। इनमें से कुछ कार्यों को हम यहाँ रेखांकित कर सकते हैं
जनसंचार के कार्य : जिस प्रकार संचार के कई कार्य हैं, उसी तरह जनसंचार माध्यमों के भी कई कार्य हैं। उनमें से कुछ प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं 1. सूचना देना-जनसंचार माध्यमों का प्रमुख कार्य सूचना देना है। हमें उनके ज़रिये ही दुनियाभर से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। हमारी ज़रूरतों का बड़ा हिस्सा जनसंचार माध्यमों के ज़रिये ही पूरा होता है। 2. शिक्षित करना-जनसंचार माध्यम सूचनाओं के ज़रिये हमें जागरूक बनाते हैं। लोकतंत्र में जनसंचार माध्यमों की एक महत्त्वूपर्ण भूमिका जनता को शिक्षित करने की है। यहाँ शिक्षित करने से आशय उन्हें देश-दुनिया के हाल से परिचित कराने और उसके प्रति सजग बनाने से है। 3. मनोरंजन करना-जनसंचार माध्यम मनोरंजन के भी प्रमुख साधन हैं। सिनेमा, टी.वी., रेडियो, संगीत के टेप, वीडियो और किताबें आदि मनोरंजन के प्रमुख माध्यम हैं। 4. एजेंडा तय करना-जनसंचार माध्यम सूचनाओं और विचारों के ज़रिये किसी देश और समाज का एजेंडा भी तय करते हैं। जब समाचारपत्र और समाचार चैनल किसी खास घटना या मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हैं या उन्हें व्यापक कवरेज देते हैं तो वे घटनाएँ या मुद्दे आम लोगों में चर्चा के विषय बन जाते हैं। किसी घटना या मुद्दे को चर्चा का विषय बनाकर जनसंचार माध्यम.सरकार और समाज को उस पर अनुकूल प्रतिक्रिया करने के लिए बाध्य कर देते हैं। 5. निगरानी करना-जनसंचार माध्यम किसी सरकार और संस्थाओं के कामकाज पर निगरानी रखते हैं। अगर सरकार कोई गलत कदम उठाती है या किसी संगठन/संस्था में कोई अनियमितता बरती जा रही है तो उसे लोगों के सामने लाने की ज़िम्मेदारी जनसंचार माध्यमों पर है। 6. विचार-विमर्श के मंच-जनसंचार माध्यम लोकतंत्र में विभिन्न विचारों को अभिव्यक्ति का मंच उपलब्ध कराते हैं। इसके जरिये विभिन्न विचार लोगों के सामने पहुंचते हैं। जैसे किसी समाचारपत्र के संपादकीय पृष्ठ पर किसी घटना या मुद्दे पर विभिन्न विचार रखने वाले लेखक अपनी राय व्यक्त करते हैं। इसी तरह संपादक के नाम चिट्ठी स्तंभ में आम लोगों को अपनी राय व्यक्त करने का मौका मिलता है। इस तरह जनसंचार माध्यम विचार-विमर्श के मंच के रूप में भी काम करते हैं। भारत में जनसंचार माध्यमों का विकास : भारत में आज जनसंचार के आधुनिक माध्यम जिस रूप में मौजूद हैं, उसकी प्रेरणा भले ही पश्चिमी जनसंचार माध्यम रहे हों, लेकिन हमारे देश में भी जनसंचार माध्यमों का इतिहास कम पुराना नहीं हैं। बड़ी सहजता के साथ इसके बीज पौराणिक काल के मिथकीय पात्रों में खोजे जा सकते हैं। देवर्षि नारद को भारत का पहला समाचार वाचक माना जाता है जो वीणा की मधुर झंकार के साथ धरती और देवलोक के बीच संवाद-सेतु थे। उन्हीं की तरह महाभारत काल में महाराज धृतराष्ट्र और रानी गांधारी को युद्ध की झलक दिखाने और उसका विवरण सुनाने के लिए जिस तरह संजय की परिकल्पना की गई है, वह एक अत्यंत समृद्ध संचार व्यवस्था की ओर इशारा करती है। जनभावनाओं को राजदरबार तक पहुँचाने और राजा का संदेश जनता के बीच प्रसारित करने की समृद्ध व्यवस्थाओं के उदाहरण बाद में भी दिखाई पड़ते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक जैसे सम्राटों के शासन-काल में स्थायी महत्त्व के संदेशों के लिए शिलालेखों और सामयिक या तात्कालिक संदेशों के लिए कच्ची स्याही या रंगों से संदेश लिखकर प्रदर्शित करने की व्यवस्था और मजबूत हुई। तब बाकायदा रोज़नामचा लिखने के लिए कर्मचारी नियुक्त किए जाने लगे और जनता के बीच संदेश भेजने के लिए भी सही व्यवस्था की गई। लेकिन भारतीय संचार परंपरा की खासियत यह भी रही है कि राजदरबारों के समानांतर हमारे यहाँ लोक माध्यमों की भी सुलझी व्यवस्था मौजूद रही है। इसके संकेत प्रागैतिहासिक काल से ही मिलते हैं। भीमबेटका के गुफाचित्र इसके प्रमाण हैं। यह समानांतर व्यवस्था बाद में कठपुतली और लोकनाटकों की विविध शैलियों के रूप में दिखाई पड़ती है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विविध नाट्यरूपों-कथावाचन, बाउल, सांग, रागनी, तमाशा, लावनी, नौटंकी, जात्रा, गंगा-गौरी, यक्षगान आदि का विशेष महत्त्व है। इन विधाओं के कलाकार मनोरंजन तो करते ही थे, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक संदेश पहुँचाने और जनमत निर्माण करने का काम भी करते थे। जनसंचार के आधुनिक माध्यमों के रूप निश्चय ही अंग्रेजों से मिले हैं। चाहे समाचारपत्र हों या रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, सभी माध्यम पश्चिम से ही आए। हमने शुरुआत में उन्हें उसी रूप में अपनाया लेकिन धीरे-धीरे वे हमारी सांस्कृतिक विरासत के अंग बनते चले गए। चाहे फ़िल्में हों या टी.वी. सीरियल, एक समय के बाद वे भारतीय नाट्य परंपरा से परिचालित होने लगते हैं। इसलिए आज के जनसंचार माध्यमों का खाका भले पश्चिमी हो, लेकिन उनकी विषयवस्तु और रंगरूप भारतीय ही हैं। चूँकि उसकी भूमिका भी कहीं अधिक बढ़ चली है, इसलिए जहाँ वह शासक वर्ग के लिए राष्ट्र निर्माण की दिशा तय करता है, वहीं जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित करता है। जनसंचार माध्यमों के वर्तमान प्रचलित रूपों में प्रमुख हैं- समाचारपत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा और इंटरनेट। इन माध्यमों के ज़रिये जो भी सामग्री आज जनता तक पहुँच रही है, राष्ट्र के मानस का निर्माण करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। समाचारपत्र-पत्रिकाएँ : जनसंचार की सबसे मज़बूत कड़ी पत्र-पत्रिकाएँ या प्रिंट मीडिया ही है। हालाँकि अपने विशाल दर्शक वर्ग और तीव्रता के कारण रेडियो और टेलीविज़न की ताकत ज़्यादा मानी जा सकती है लेकिन वाणी को शब्दों के रूप में रिकार्ड करने वाला आरंभिक माध्यम होने की वजह से प्रिंट मीडिया का महत्त्व हमेशा बना रहेगा। आज भले ही प्रिंट, रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, किसी भी माध्यम से खबरों के संचार को पत्रकारिता कहा जाता हो, लेकिन आरंभ में केवल प्रिंट माध्यमों के ज़रिये खबरों के आदान-प्रदान को ही पत्रकारिता कहा जाता है। इसके तीन पहलू हैं-पहला समाचारों को संकलित करना, दूसरा उन्हें संपादित कर छपने लायक बनाना और तीसरा पत्र या पत्रिका के रूप में छापकर पाठक तक पहुँचाना। हालाँकि तीनों ही काम आपस में गहरे जुड़े हैं लेकिन पत्रकारिता के तहत हम पहले दो कामों को ही लेते हैं क्योंकि प्रकाशन और वितरण का कार्य तकनीकी और प्रबंधकीय विभागों के अधीन होते हैं जबकि रिपोर्टिंग और संपादन के काम के लिए एक विशेष बौद्धिक और पत्रकारीय कौशल की अपेक्षा होती है। जहाँ बाहर से खबरे लाने का काम संवाददाताओं का होता है, वहीं तमाम खबरों, लेखों, फ़ीचरों को व्यवस्थित तरीके से संपादित करने और सुरुचिपूर्ण ढंग से छापने का काम संपादकीय विभाग में काम करनेवाले संपादकों का होता है। हालाँकि दुनिया में अखबारी पत्रकारिता को अस्तित्व में आए 400 साल हो गए हैं, लेकिन भारत में इसकी शुरुआत सन् 1780 में जेम्स ऑगस्ट हिकी के ‘बंगाल गज़ट’ से हुई जो कलकत्ता (कोलकाता) से निकला था जबकि हिंदी का पहला साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तंड’ भी कलकत्ता से ही सन् 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकला था। आजादी के बाद अधिकतर पुरानी पत्रिकाएँ बंद हो गईं और कई नए समाचारपत्रों और पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ। आज़ादी के बाद के प्रमुख हिंदी अखबारों में ‘नवभारत टाइम्स’, ‘जनसत्ता’, ‘नई दुनिया’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘दैनिक जागरण’ और पत्रिकाओं में ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘दिनमान’, रविवार’, ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ का नाम लिया जा सकता है। इनमें से कई पत्रिकाएँ बंद हो चुकी हैं। आज़ादी के बाद के हिंदी के प्रमुख पत्रकारों में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम लिया जा सकता है। रेडियो : पत्र-पत्रिकाओं के बाद जिस माध्यम ने दुनिया को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, वह रेडियो है। सन् 1895 में जब इटली के इलैक्ट्रिकल इंजीनियर जी. मार्कोनी ने वायरलेस के ज़रिये ध्वनियों और संकेतों को एक जगह से दूसरी जगह भेजने में कामयाबी हासिल की, तब रेडियो जैसा माध्यम अस्तित्व में आया। पहले विश्वयुद्ध तक यह सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक महत्त्वपूर्ण औज़ार बन चुका था। शुरुआती रेडियो स्टेशन 1892 में अमेरिकी शहर पिट्सबर्ग, न्यूयॉर्क और शिकागो में खुले। भारत में भी लगभग इसी समय रेडियो की शुरुआत हुई। 1921 में मुंबई में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने डाक-तार विभाग के सहयोग से संगीत कार्यक्रम प्रसारित किया। 1936 में विधिवत ऑल इंडिया रेडियो की स्थापना हुई और आज़ादी के समय तक देश में कुल नौ रेडियो स्टेशन खुल चुके थे-लखनऊ, दिल्ली, बंबई (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता), मद्रास (चेन्नई), तिरुचिरापल्ली, ढाका, लाहौर और पेशावर। ज़ाहिर है इनमें से तीन रेडियो स्टेशन विभाजन के साथ पाकिस्तान के हिस्से में चले गए। आज आकाशवाणी देश की 24 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रस्तुत करती है। देश की 96 प्रतिशत आबादी तक इसकी पहुँच है। 1993 में एफएम (फ्रिक्वेंसी मॉड्यूलेशन) की शुरुआत के बाद रेडियो के क्षेत्र में कई निजी कंपनियाँ भी आगे आई हैं लेकिन अभी उन्हें समाचार और सम-सामयिक कार्यक्रमों के प्रसारण की अनुमति नहीं है। 1997 में आकाशवाणी और दूरदर्शन को केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण से निकालकर प्रसार भारती नाम से स्वायत्तशासी निकाय को सौंप दिया गया। असल में, लंबे अर्से तक सरकारी नियंत्रण में रहने के कारण रेडियो में आ गई जड़ता को तोड़ने की पहल 1995 में उच्चतम न्यायालय के एक फ़ैसले ने की। इस फ़ैसले में कहा गया कि ध्वनि तरंगों पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और उन्हें मुक्त किया जाना चाहिए। एफ.एम. के दूसरे चरण के साथ देश के 90 शहरों में 350 से अधिक निजी एफएम चैनल शुरू हो रहे हैं। इसके साथ ही सामुदायिक या कम्युनिटी रेडियो केंद्रों के आने से देश में रेडियो की नई संस्कृति अस्तित्व में आ रही है। रेडियो एक ध्वनि माध्यम है। इसकी तात्कालिकता, घनिष्ठता और प्रभाव के कारण गांधी जी ने रेडियो को एक अद्भुत शक्ति कहा था। ध्वनि तरंगों के ज़रिये यह देश के कोने-कोने तक पहुँचता है। दूर-दराज़ के गाँवों में, जहाँ संचार और मनोरंजन के अन्य साधन नहीं होते, वहाँ रेडियो ही एकमात्र साधन है, बाहरी दुनिया से जुड़ने का। फिर अखबार और टेलीविज़न की तुलना में यह बहुत सस्ता भी है। इसलिए भारत के दूरदराज के इलाकों में लोगों ने रेडियो क्लब बना लिए हैं। आकाशवाणी के अलावा सैकड़ों निजी एफएम स्टेशनों और बीबीसी, वॉयस ऑफ अमेरिका, डोयचे वेले (रेडियो जर्मनी), मास्को रेडियो, रेडियो पेइचिंग, रेडियो आस्ट्रेलिया जैसे कई विदेशी प्रसारण और हैम अमेच्योर रेडियो क्लबों (स्वतंत्र समूह द्वारा संचालित पंजीकृत रेडियो स्टेशन) का जाल बिछा हुआ है। टेलीविज़न : आज टेलीविज़न जनसंचार का सबसे लोकप्रिय और ताकतवर माध्यम बन गया है। प्रिंट मीडिया के शब्द और रेडियो की ध्वनियों के साथ जब टेलीविज़न के दृश्य मिल जाते हैं तो सूचना की विश्वसनीयता कई गुना बढ़ जाती है। पश्चिमी देशों में रेडियो के विकास के साथ ही टेलीविज़न पर भी प्रयोग शुरू हो गए थे। 1927 में बेल टेलीफ़ोन लेबोरेट्रीज़ ने न्यूयॉर्क और वाशिंगटन के बीच प्रायोगिक टेलीविज़न कार्यक्रम का प्रसारण किया। 1936 तक बीबीसी ने भी अपनी टेलीविज़न सेवा शुरू कर दी थी। भारत में टेलीविज़न की शुरुआत यूनेस्को की एक शैक्षिक परियोजना के तहत 15 सितंबर, 1959 को हुई थी। इसका मकसद टेलीविज़न के ज़रिये शिक्षा और सामुदायिक विकास को प्रोत्साहित करना था। 1965 में स्वतंत्रता दिवस से भारत में विधिवता टी.वी. सेवा का आरंभ हुआ। तब रोज़ एक घंटे के लिए टी.वी. कार्यक्रम दिखाया जाने लगा। 1975 तक दिल्ली, मुंबई, श्रीनगर, अमृतसर, कोलकाता, मद्रास और लखनऊ में टी.वी. सेंटर खुल गए। लेकिन 1976 तक टी.वी. सेवा आकाशवाणी का हिस्सा थी। 1 अप्रैल 1976 से इसे अलग कर दिया गया। इसे दूरदर्शन नाम दिया गया। 1984 में इसकी रजत जयंती मनाई गई। स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को दूरदर्शन की ताकत की एहसास था। वह देशभर में टेलीविज़न केंद्रों का जाल बिछाना चाहती थीं। 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रोफ़ेसर पी.सी. जोशी की अध्यक्षता में दूरदर्शन के कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार के लिए एक समिति गठित की। जोशी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, हमारे जैसे समाज में जहाँ पुराने मूल्य टूट रहे हों और नए न बन रहे हों, वहाँ दूरदर्शन बड़ी भूमिका निभाते हुए जनतंत्र को मजबूत बना सकता है। समिति के मुताबिक जनसंचार के माध्यम के बतौर भारत में दूरदर्शन के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिए –
दूरदर्शन ने देश की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में उल्लेखनीय सेवा की है, लेकिन लंबे समय तक सरकारी नियंत्रण में रहने के कारण इसमें ताज़गी का अभाव खटकने लगा और पत्रकारिता के निष्पक्ष माध्यम के तौर पर यह अपनी जगह नहीं बना पाया। अलबत्ता मनोरंजन के एक लोकप्रिय माध्यम के तौर पर इसने अपनी एक खास जगह बना ली है। 1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान दुनियाभर के लोगों ने केबल टी.वी. के ज़रिये युद्ध का सीधा प्रसारण देखा। यह एक अलग ही तरह का अनुभव था। इसके बाद भारत में भी टी.वी. की दुनिया में निजी चैनलों की शुरुआत हुई, विदेशी चैनलों को प्रसारण की अनुमति दी गई और इसके साथ ही भारत में सीएनएन, बीबीसी जैसे चैनल दिखाए जाने लगे। जल्दी ही स्टार टी.वी. जैसे चैनलों ने अपने भारत केंद्रित समाचार चैनल भी आरंभ कर दिए। इसके अलावा डिस्कवरी, नेशनल ज्यॉग्राफ़िक जैसे शैक्षिक और मनोरंजन चैनलों के साथ ही एफ.टी.वी., एमटी.वी. व वीटी.वी. जैसे विशुद्ध पश्चिमी किस्म के चैनल भी दिखने लगे। कुछ लोगों ने इसे देश पर सांस्कृतिक हमला भी कहा और इन चैनलों का विरोध किया। लेकिन टेलीविज़न का असली विस्तार तब हुआ, जब भारत में देशी निजी चैनलों की बाढ़ आने लगी। अक्टूबर, 1993 में ज़ी टी. वी. और स्टार टी.वी. के बीच अनुबंध हुआ। उसके बाद समाचार के क्षेत्र में भी ज़ी न्यूज़ और स्टार न्यूज़ नामक चैनल आए और सन् 2002 में आजतक के स्वतंत्र चैनल के रूप में आने के बाद तो जैसे समाचार चैनलों की बाढ़ ही आ गई। जहाँ पहले हमारे सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शन का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण और सामाजिक उन्नयन था, वहीं इन निजी चैनलों का मकसद व्यावसायिक लाभ कमाना रह गया। इससे जहाँ टेलीविज़न समाचार को निष्पक्षता की पहचान मिली, उसमें ताज़गी आई और वह पेशेवर हुआ, वहीं एक अंधी होड़ के कारण अनेक बार पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी नैतिकता का भी हनन हुआ। सिनेमा : जनसंचार का सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली माध्यम है-सिनेमा। हालाँकि यह जनसंचार के अन्य माध्यमों की तरह सीधे तौर पर सूचना देने का काम नहीं करता लेकिन परोक्ष रूप में सूचना, ज्ञान और संदेश देने का काम करता है। सिनेमा को मनोरंजन के एक सशक्त माध्यम के तौर पर देखा जाता रहा है। सिनेमा के आविष्कार का श्रेय थॉमस अल्वा एडिसन को जाता है और यह 1883 में मिनेटिस्कोप की खोज के साथ जुड़ा हुआ है। 1894 में फ्रांस में पहली फ़िल्म बनी ‘द अराइवल ऑफ़ ट्रेन’। सिनेमा की तकनीक में तेजी से विकास हुआ और जल्दी ही यूरोप और अमेरिका में कई अच्छी फ़िल्में बनने लगीं। भारत में पहली मूक फ़िल्म बनाने का श्रेय दादा साहेब फाल्के को जाता है। यह फ़िल्म थी 1913 में बनी-‘राजा हरिश्चंद्र’। इसके बाद के दो दशकों में कई और मूक फ़िल्में बनीं। इनके कथानक धर्म, इतिहास और लोक गाथाओं के इर्द-गिर्द बुने जाते रहे। 1931 में पहली बोलती फ़िल्म बनी-‘आलम आरा’। इसके बाद बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ। आजादी के बाद जहाँ एक तरफ़ भारतीय सिनेमा ने देश के सामाजिक यथार्थ को गहराई से पकड़कर आवाज़ देने की कोशिश की, वहीं लोकप्रिय सिनेमा ने व्यावसायिकता का रास्ता अपनाया। एक तरफ़ पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान, सोहराब मोदी, गुरुदत्त जैसे फ़िल्मकार थे तो दूसरी तरफ़ सत्यजित राय जैसे फ़िल्मकार। सत्तर के दशक तक सिनेमा के मूल में प्रेम, फंतासी और एक कभी न हारने वाले सुपर नैचुरल हीरो की परिकल्पना रही। कहानियों में कुछ न कुछ संदेश देने की भी कोशिश हुई लेकिन बहुत ही अव्यावहारिक तरीके से। सत्तर और अस्सी के दशक में कुछ फ़िल्मकारों ने महसूस किया कि सिनेमा जैसे सशक्त संचार माध्यम का इस्तेमाल आम लोगों में चेतना फैलाने, उसे व्यावहारिक जीवन की समस्याओं से जोड़ने और अन्याय के खिलाफ़ एक कलात्मक अभिव्यक्ति के तौर पर किया जाए। यही समानांतर सिनेमा का दौर था और इस दौरान ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘अर्धसत्य’ जैसी फ़िल्में बनी। हालाँकि सत्यजित राय ने पचास के दशक में ही ‘पथेर पांचाली’ बनाकर इसकी शुरुआत कर दी थी लेकिन समानांतर सिनेमा ने एक आंदोलन की शक्ल ली-साठ के दशक के आखिरी वर्षों और सत्तर के दशक में। यह आंदोलन अस्सी के दशक में भी जारी रहा। इस धारा में सत्यजित राय के अलावा श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, अदूर गोपालकृष्णन, एम.एस. सथ्यू, गोविंद निहलानी जैसे फ़िल्मकार शामिल हुए। लेकिन बाज़ारवाद और व्यावसायिकता के दबाव में समानांतर या कला फ़िल्मों का दौर अस्सी के दशक में ही खत्म होने लगा। एक बार फिर लोकप्रिय मुंबइयाँ फ़िल्में छाने लगीं। दरअसल, हिंदी सिनेमा पर शुरू से ही पॉपुलर या लोकप्रिय फ़िल्मों का दबदबा रहा है। कला फ़िल्मों को समानांतर सिनेमा इसलिए भी कहा गया क्योंकि वे अपनी अंतरवस्तु में लोकप्रिय फ़िल्मों के समानांतर चलती थीं। कला फ़िल्मों के कमज़ोर पड़ने के साथ एक बार फिर पॉपुलर या लोकप्रिय सिनेमा हावी हो गया और तकनीक कथानक पर भारी पड़ने लगी। भारतीय सिनेमा में पारिवारिक फ़िल्मों की भी एक धारा लगातार चलती रही है। हलके-फुलके सदस्य और एक आम आदमी के परिवार की खट्टी-मीठी कहानी पर बनी इन साफ़-सुथरी फ़िल्मों को खूब पसंद किया गया। लोकप्रिय और पारिवारिक फ़िल्मों की पहुँच गाँव और शहर के साधारण दर्शकों तक रहती आई है। इस तरह की फ़िल्मों में दर्शकों को बाँधने वाला कथानक, रोज़मर्रा की . समस्याएँ, मधुर संगीत, पारंपरिक नृत्य और संस्कृति के कई आयाम दिखाई देते हैं। इस धारा के फ़िल्मकारों में राज कपूर, गुरुदत्त, बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी जैसे कई नाम हैं। लेकिन अस्सी और नब्बे के दशक में मुंबइया सिनेमा पर व्यावसायिकता का नशा इस कदर छाता गया कि फ़ॉर्मला फ़िल्में फ़िल्मकारों के लिए मुनाफ़ा कमाने का सबसे बड़ा हथियार बन गईं। ऐसी फ़िल्मों के केंद्र में रोमांस, हिंसा, सेक्स और एक्शन को रखा जाता रहा है। कहने के लिए हर फ़िल्म में कोई न कोई सामाजिक संदेश देने की औपचारिकता निभाई जाती है लेकिन इनका मकसद महज पैसा कमाना है। ऐसी फ़िल्मों ने खासकर युवाओं के मन में बहुत गलत प्रभाव छोड़ा है। इस तरह सिनेमा जनसंचार के एक बेहतरीन और सबसे ताकतवर माध्यमों में से एक है। इसके कई और आयाम भी हैं। यह मनोरंजन के साथ-साथ समाज को बदलने का, लोगों में नयी सोच विकसित करने का और अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से लोगों को सपनों की दुनिया में ले जाने का माध्यम भी है। मौजूदा समय में भारत हर साल लगभग 800 फ़िल्मों का निर्माण करता है और दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म निर्माता देश बन गया है। यहाँ हिंदी के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषा और बोली में फ़िल्में बनती हैं और खूब चलती हैं। इंटरनेट : इंटरनेट जनसंचार का सबसे नया लेकिन तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा माध्यम है। एक ऐसा माध्यम जिसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न, किताब, सिनेमा यहाँ तक कि पुस्तकालय के सारे गुण मौजूद हैं। उसकी पहुँच दुनिया के कोने-कोने तक है और उसकी रफ़्तार का कोई जवाब नहीं है। उसमें सारे माध्यमों का समागम है। इंटरनेट पर आप दुनिया के किसी भी कोने से छपनेवाले अखबार या पत्रिका में छपी सामग्री पढ़ सकते हैं। रेडियो सुन सकते हैं। सिनेमा देख सकते हैं। किताब पढ़ सकते हैं और विश्वव्यापी जाल के भीतर जमा करोड़ों पन्नों में से पलभर में अपने मतलब की सामग्री खोज सकते हैं। यह एक अंतक्रियात्मक माध्यम है यानी आप इसमें मूक दर्शक नहीं हैं। आप सवाल-जवाब, बहस-मुबाहिसों में भाग लेते हैं, आप चैट कर सकते हैं और मन हो तो अपना ब्लाग बनाकर पत्रकारिता की किसी बहस के सूत्रधार बन सकते हैं। इंटरनेट ने हमें मीडिया समागम यानी कंवर्जेस के युग में पहुँचा दिया है और संचार की नई संभावनाएँ जगा दी हैं। हर माध्यम में कुछ गुण और कुछ अवगुण होते हैं। इंटरनेट ने जहाँ पढ़ने-लिखने वालों के लिए, शोधकर्ताओं के लिए संभावनाओं के नए कपाट खोले हैं, हमें विश्वग्राम का सदस्य बना दिया है, वहीं इसमें कुछ खामियाँ भी हैं। पहली खामी तो यही है कि उसमें लाखों अश्लील पन्ने भर दिए गए हैं जिसका बच्चों के कोमल मन पर बुरा असर पड़ सकता है। दूसरी खामी यह है कि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। हाल के वर्षों में इंटरनेट के दुरुपयोग की कई घटनाएँ सामने आई हैं। जनसंचार माध्यमों का प्रभाव : आज के संचार प्रधान समाज में जनसंचार माध्यमों के बिना हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। हमारी जीवनशैली पर संचार माध्यमों का ज़बरदस्त असर है। अखबार पढ़े बिना हमारी सुबह नहीं होती। जो अखबार नहीं पढ़ते, वे रोज़मर्रा की खबरों के लिए रेडियो या टी.वी. पर निर्भर रहते हैं। हमारी महानगरीय युवा पीढ़ी समाचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट का उपयोग करने लगी है। खरीद-फरोख्त के हमारे फ़ैसलों तक पर विज्ञापनों का असर साफ़ देखा जा सकता है। यहाँ तक कि शादी-ब्याह के लिए भी लोगों की अखबार या इंटरनेट के मैट्रिमोनियल पर निर्भरता बढ़ने लगी है। टिकट बुक कराने और टेलीफ़ोन का बिल जमा कराने से लेकर सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ा है। इसी तरह फुरसत के क्षणों में टी.वी-सिनेमा पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों और फ़िल्मों के ज़रिये हम अपना मनोरंजन करते हैं। अपनी सेहत से लेकर धर्म-आध्यात्म तक के बारे में जानकारी जनसंचार माध्यमों से मिल रही है। आप माने या न माने, जनसंचार माध्यम आज एक उत्पाद की तरह हमारे घरों में घुस आए हैं। वे हमारी जीवनशैली को प्रभावित कर रहे हैं और हम उन्हें चाहते हुए भी रोक नहीं सकते। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जनसंचार माध्यमों ने हमारे जीवन को और ज़्यादा सरल हमारी क्षमताओं को और ज्यादा समर्थ, हमारे सामाजिक जीवन को और अधिक सक्रिय बनाया है। साथ ही उन्होंने हमारे राष्ट्रीय जीवन को गतिशील और पारदर्शी बनाने के साथ भ्रष्टाचार, मानवाधिकार हनन और सांप्रदायिकता जैसे मामलों को जनसंचार माध्यमों ने उठाया है और लोगों को जागरूक बनाने की कोशिश की है। हाल के वर्षों में स्टिंग आपरेशन के ज़रिये सामने आया ‘तहलका कांड’ हो या ‘ऑपरेशन दुर्योधन’ या ‘चक्रव्यूह’, सबने यही साबित किया है कि यदि चाहे तो जनसंचार माध्यम सत्ता के शिखर को भी हिला सकते हैं। जनसंचार माध्यमों के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। अगर सावधानी से इस्तेमाल न किया जाए तो लोगों पर उनका बुरा प्रभाव भी पड़ता है। सबसे पहली बात तो यह है कि सिनेमा और टी.वी. जैसे जनसंचार माध्यम काल्पनिक और लुभावनी कथाओं के ज़रिये लोगों को एक नकली दुनिया में पहुँचा देते हैं जिसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता है। इस कारण लोग उसके वैसे ही व्यसनी बन जाते हैं, जैसे किसी मादक पदार्थ के। नतीजा यह होता है कि वे अपनी वास्तविक समस्याओं का समाधान काल्पनिक दुनिया में ढूँढ़ने लगते हैं। इससे लोगों में पलायनवादी प्रवृत्ति पैदा होती है। जनसंचार माध्यमों खासकर सिनेमा पर यह आरोप भी लगता रहा है कि उन्होंने समाज में हिंसा, अश्लीलता और असामाजिक व्यवहार को प्रोत्साहित करने में अगुआ की भूमिका निभाई है। हालाँकि विशेषज्ञों का यह मानना है कि जनसंचार माध्यमों का लोगों पर उतना वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ा जितना कि उसके बारे में समझा जाता है। लेकिन जनसंचार माध्यमों के प्रभाव को लेकर कुछ धारणाएँ इस प्रकार हैं-जनसंचार माध्यम लोगों के व्यवहार और आदतों में परिवर्तन के बजाए उनमें थोड़ा-बहुत फेरबदल और उन्हें और ज़्यादा मज़बूत करने का काम करते हैं। इसी तरह यह माना जाता है कि जनसंचार माध्यमों का उन लोगों पर अधिक प्रभाव पड़ता है, जो किसी चीज़ के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं या अनिश्चय में हैं। जनसंचार माध्यमों का प्रभाव तब और अधिक बढ़ जाता है जब लगभग सारे माध्यम एक ही समय में एक ही बात कहने लगते हैं। साथ ही जब वे कई मुद्दों के बजाय किसी एक मुद्दे को बहुत अधिक उछालने लगते हैं और बार-बार उन्हीं संदेशों, छवियों, विचारों को दोहराने लगते हैं, तब भी उनका गहरा प्रभाव पड़ता है। अखबारों और
टेलीविज़न चैनलों में किसी खास खबर या मुद्दे को ज़रूरत से ज़्यादा उछाला जाता है। जबकि कुछ अन्य मुद्दों जनसंचार माध्यमों के प्रभाव के संदर्भ में यह सवाल भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि उन पर किसका नियंत्रण है? जनसंचार माध्यमों का संबंध सार्वजनिक हित से जुड़ा हुआ है। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे सार्वजनिक हित को आगे बढ़ाएँगे लेकिन यह एक तथ्य है कि अधिकांश जनसंचार माध्यमों पर कंपनियों या व्यक्तियों का स्वामित्व है। वे उन्हें सार्वजनिक हित से ज़्यादा अपने व्यावसायिक मुनाफ़े को ध्यान में रखकर संचालित करते हैं। इसका सीधा असर जनसंचार माध्यम की अंतरवस्तु पर पड़ता है। कई मौकों पर विज्ञापनदाताओं के हितों को प्राथमिकता दी जाती है। इसके लिए तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ और सच्चाई को छुपाने की कोशिश की जाती है। मीडिया के ज़रिये लोगों को एक खास तरह की जीवनशैली में भी ढालने की कोशिश की जाती है। बहुतेरे विश्लेषकों का मानना है कि उपभोक्तावाद के विकास और फैलाव में जनसंचार माध्यमों की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है। फ़ैशन से लेकर खानपान तक में लोगों की रुचियों और आदतों को बदलने में जनसंचार माध्यमों की भूमिका देखी जा सकती है। खासकर बच्चों और युवाओं पर जनसंचार माध्यमों के ज़रिये पेश की जा रही आधुनिक उपभोक्तावादी जीवनशैली का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। जनसंचार माध्यमों ने जहाँ एक ओर लोगों को सचेत और जागरूँक बनाने में अहम भूमिका निभाई है, वहीं उसके नकारात्मक प्रभावों से भी इनकार नहीं किया जा सकता। जनसंचार माध्यमों के बिना आज सामाजिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे में यह ज़रूरी है कि हम जनसंचार माध्यमों से प्रसारित और प्रकाशित सामग्री को निष्क्रिय तरीके से ग्रहण करने के बजाए उसे सक्रिय तरीके से सोच-विचार करके और आलोचनात्मक विश्लेषण के बाद ही स्वीकार करें। लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. प्रश्नः 8. प्रश्नः 9. प्रश्नः 10. प्रश्नः 11. प्रश्नः 12. प्रश्नः 13. प्रश्नः
14. प्रश्नः 15. प्रश्नः 16. प्रश्नः 17. प्रश्नः 18. प्रश्नः 19. प्रश्नः 20. प्रश्नः 21. प्रश्नः 22. प्रश्नः 23. प्रश्नः 24. प्रश्नः 25. प्रश्नः 26. प्रश्नः 27. प्रश्नः 28. प्रश्नः 29. प्रश्नः 30. प्रश्नः 31. प्रश्नः 32. प्रश्नः 33. प्रश्नः 34. प्रश्नः 35. प्रश्नः 36. प्रश्नः
37. प्रश्नः 38. प्रश्नः 39. प्रश्नः 40.
पाठ से संवाद प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3.
आज चैनल धन व लोकप्रियता कमाने के लिए लोभ, सनसनी आदि का इस्तेमाल करते हैं। ‘बिग बॉस’ में स्तरहीन लोगों का प्रवेश ‘कपिल शर्मा शो’ की फूहड़ कामेडी आदि इसी तरह के कार्यक्रम हैं। प्रश्नः 4. प्रश्नः 5.
उत्तरः
प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. NCERT Solutions for Class 11 Hindi Coreआधुनिक युग में जनसंचार का सबसे पुराना माध्यम कौनसा है?(i) डाक-तार प्रणाली- डाक-तार प्रणाली आधुनिक युग का सबसे पुराना संचार माध्यम है।
जनसंचार के माध्यमों में सबसे आधुनिक माध्यम कौन सा है?इंटरनेट जनसंचार का सबसे आधुनिक तथा तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा माध्यम है। 3. इंटरनेट एक ऐसा माध्यम है जिसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न, किताब, सिनेमा इन सारे माध्यमों का समागम है ।
आधुनिक माध्यमों में से सबसे पुराना माध्यम क्या है?आधुनिक माध्यमों में सबसे पुराना माध्यम अखबार है। अखबार का इतिहास बेहद पुराना है। विश्व में अखबार का इतिहास लगभग 200 साल से अधिक पुराना है। जबकि सिनेमा, टेलीविजन और रेडियो का इतिहास 100 साल के आसपासही है।
आधुनिक युग में जनसंचार के माध्यम कौन कौन से हैं?जनसंचार माध्यमों के वर्तमान प्रचलित रूपों में प्रमुख हैं- समाचारपत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा और इंटरनेट।
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