रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

इसके अतिरिक्त बिना किसी का नाम पुकारे अन्दर आने की सूचना हेतु पुकारना पड़ता था। चौखट के बगल में गेरू से रंगी हुई दीवार थी। ग्वाल दादा (दूध देनेवाले) प्रतिदिन आकर दूध को देते थे। दूध की मात्रा का विवरण दूध से सने अपने अंगुल को उस दीवार पर छाप द्वारा करते थे, जिनकी गिनती महीने के अंत में दूध का हिसाब करने के लिए की जाती थी।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

उपरोक्त वर्णित उन समस्त औपचारिकताओं के बीच “घर की चौखट” सदैव जाग्रत रहता था, जीवन्तता का अहसास दिलाता था।

प्रश्न 2.
“पंच परमेश्वर” के खो जाने को लेकर कवि चिन्तित क्यों है?
उत्तर-
“पंच परमेश्वर” का अर्थ है–’पंच’ परमेश्वर का रूप होता है। वस्तुतः पंच के पद पर विराजमान व्यक्ति अपने दायित्व–निर्वाह के प्रति पूर्ण सचेष्ट एवं सतर्क रहता है। वह निष्पक्ष न्याय करता है। उस पर सम्बन्धित व्यक्तियों की पूर्ण आस्था रहती है तथा उसका निर्णय “देव–वाक्य” होता है।

कवि यह देखकर खिन्न है कि आधुनिक पंचायती राज व्यवस्था की सार्थकता विलुप्त हो गई। एक प्रकार से अन्याय और अनैतिकता ने व्यवस्था को निष्क्रिय कर दिया है, पंगु बना दिया है। पंच परमेश्वर शब्द अपनी सार्थकता खो चुका है। कवि इसी कारण चिन्तित है।।

प्रश्न 3.
“कि आवाज भी नहीं आती यहाँ तक, न आवाज की रोशनी न रोशनी की आवाज” यह आवाज क्यों नहीं आती?
उत्तर-
कवि ज्ञानेन्द्रपति का इशारा रोशनी के तीव्र प्रकाश में आर्केस्ट्रा के बज रहे संगीत से है। रोशनी के चकाचौंध में बंद कमरे में आर्केस्ट्रा की स्वर–लहरी गूंज रही है, किन्तु कमरा बंद होने के कारण यह बाहर सुनी नहीं जा सकती। अतः कवि रोशनी तथा आर्केस्ट्रा के संगीत दोनों से वंचित है। आवाज की रोशनी का संभवतः अर्थ आवाज से मिलनेवाला आनन्द है उसी प्रकार रोशनी की आवाज का अर्थ प्रकाश से मिलने वाला सुख इसके अतिरिक्त एक विशेष अर्थ यह भी हो सकता है कि आधुनिक–समय की बिजली का आना तथा जाना अनिश्चित और अनियमित है।

कवि उसके बने रहने से अधिक “गई रहने वाली” मानते हैं। उसमें लालटे के समान स्निग्धता तथा सौम्यता की भी उन्हें अनुभूति नहीं होती। उसी प्रकार आर्केष्ट्रा में उन्हें उस नैसर्गिक आनन्द की प्रतीत नहीं होती जो लोकगीतों बिरहा–आल्हा, चैती तथा होली आदि गीतों से होती है। कवि संभवतः आर्केस्ट्रा को शोकगीत की संज्ञा देता है। इस प्रकार यह कवितांश द्विअर्थक प्रतीत होता है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

प्रश्न 4.
आवाज की रोशनी या रोशनी की आवाज का क्या अर्थ है?
उत्तर-
आवाज की रोशनी या रोशनी की आवाज कवि की काव्यगत जादूगरी का उदाहरण है, उनकी वर्णन शैली का उत्कृष्ट प्रणाम है। आवाज की रोशनी से संभवतः उनका अर्थ संगीत से है। संगीत में अभूतपूर्व शक्ति है। वह व्यक्ति के हृदय को अपने मधुर स्वर से आलोकित कर देता है। इस प्रकार वह प्रकाश के समान धवल है तथा उसे रोशन करती है।

रोशनी की आवाज से उनका तात्पर्य प्रकाश की शक्ति तथा स्थायित्व से है। प्रकाश में तीव्रता चाहे जितनी अधिक हो किन्तु उसमें स्थिरता नहीं हो, अनिश्चितता अधिक हो तो वह असुविधा एवं संकट का कारण बन जाती है। संभव है कवि का आशय यही रहा हो।

कविता की पूरी पंक्ति है, “कि आवाज भी नहीं आती यहाँ तक, न आवाज की रोशनी, न रोशनी की आवाज”। कवि के कथन की गहराइयों में जाने पर एक आनुमानित अर्थ यह भी है–दूर पर एक बंद कमरे में प्रकाश की चकाचौंध के बीच आर्केस्ट्रा का संगीत ऊँची आवाज में अपना रंग बिखेर रहा है किन्तु कमरा बंद होने के कारण अपने संकुचित परिवेश में सीमित श्रोताओं को ही आनंद बिखर रहा है। उसके बाहर रहकर कवि स्वयं को उसके रसास्वादन (अनुभूति) से वंचित पाता है।

प्रश्न 5.
कविता में किस शोकगीत की चर्चा है?
उत्तर-
कवि उन गीतों का याद कर रहा है जिसे सुनकर प्रत्येक श्रोता का हृदय एक अपूर्व आनंद प्राप्त था। ये लोकगीत–होली–चैती, विरहा–आल्हा आदि जो कभी जन–समुदाय के मनोरंजन तथा प्रेरणा के श्रोत थे, बीते दिनों की बात हो गए। अब उनकी छटा की बहार उजड़े दयार में तब्दील हो गई हो। उनका स्थान शोक गीतों ने ले लिया। ये शोकगीत कवि के अनुसार आधुनिक शैली के गीत, आर्केस्ट्रा की धुन आदि है जो कर्णकटु भी है तथा निरर्थक भी। उत्तेजना तथा अपसंस्कृति के वाहक मात्र हैं। उसमें नवस्फूर्ति एवं माधुर्य का सर्वथा अभाव है। अतः उसमें शोकगीत की अनुभूति होती है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

प्रश्न 6.
सर्कस का प्रकाश–बुलौआ किन कारणों से भरा होगा?.
उत्तर-
सर्कस में प्रकाश बुलौआ दूर–दराज के क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करता था। उसकी तीव्र–प्रकाश तरंगों से लोगों को सर्कस के आने की सूचना प्राप्त हो जाया करती थी। यह प्रकाश–बुलौआ एक प्रकार से दर्शकों को सर्कस में आने का निमंत्रण होता था। अब सर्कस का प्रकाश–बुलौआ लुप्त हो गया है कहीं गुमनामी में खो गया है। ग्रामीणों की जेब खाली कराने की उसकी रणनीति भी उसके साथ ही विदा हो गई है। प्रकाश–बुलौआ का गायब होना भी रहस्यमय है। संभवतः सरकार को उसकी यह नीति पसंद नहीं आई तथा इसी कारण अपने शासनादेश में प्रकाश–बुलौआ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। अब सर्कस प्रकाश–बुलौआ का सहारा नहीं ले सकता। कवि का कथन “सर्कस का प्रकाश–बुलौआ तो कब का मर चुका है।” इस परिपेक्ष्य में कहा गया लगता है।

प्रश्न 7.
गाँव के घर रीढ़ क्यों झुरझुराती है? इस झुरझुराहट के क्या कारण हैं?
उत्तर-
कवि ने गाँवों की वर्तमान स्थिति का वर्णन करने के क्रम में उपरोक्त बातें कही हैं। हमारे गाँवों की अतीत में गौरवशाली परंपरा रही है। सौहार्द्र, बन्धुत्व एवं करुणा की अमृतमयी धारा यहाँ प्रवाहित होती थी। दुर्भाग्य से आज वही गाँव जड़ता एवं निष्क्रियता के शिकार हो गए हैं। इनकी वर्तमान स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई है। अशिक्षा एवं अंधविश्वास के कारण परस्पर विवाद में उलझे हुए तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से त्रस्त हैं। शहर के अस्पताल तथा अदालतें इसकी साक्षी हैं। इसी संदर्भ में कवि विचलित होते हुए अपने विचार प्रकट करते हैं।

“लीलने वाले मुँह खोले शहर में बुलाते हैं बस
अदालतों और अस्पतालों के फैले–फैले भी रूंधते–गंधाते अमित्र परिवार”

कवि के कहने का आशय यह प्रतीत होता है कि शहर के अस्पतालों में गाँव के लोग रोगमुक्त होने के लिए इलाज कराने आते हैं। इसी प्रकार अदालतों में आपसी विवाद में उलझकर अपने मुकदमों के संबंध में आते हैं। ऐसा लगता है कि इन निरीह ग्रामीणों को निगल जाने के लिए नगरों के अस्पतालों तथा अदालतों का शत्रुवत परिसर मुँह खोल कर खड़ा है। इसका परिणाम ग्रामीण जनता की त्रासदी है। गाँव के लोगों की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति चरमरा गई है। अतः उनके घरों की दशा दयनीय हो गई है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

कवि ने संभवतः इसी संदर्भ में कहा है, “कि जिन बुलौओं से गाँव के घर की रीढ़ झुरझुराती है” अर्थात् शहर के अस्पतालों तथा अदालतों द्वारा वहाँ आने का न्योता देने से उन गाँवों की रीढ़ झुरझुराती है। कवि की अपने अनुभव के आधार पर ऐसी मान्यता है कि गाँववालों का अदालतों तथा अस्पतालों का अपनी समस्या के समाधान में चक्कर लगाना दुःखद है। इसके कारण गाँव के घर की रीढ़ झुरझुरा गई है। गाँव में रहने वालों की स्थिति जीर्ण–शीर्ण हो गई है।

प्रश्न 8.
मर्म स्पष्ट करें–”कि जैसे गिर गया हो गजदंतों को गंवाकर कोई हाथी”।
उत्तर-
ज्ञानेन्द्रपति लिखित कविता “गाँव का घर” में “गजदंतों को गँवाकर कोई हाथी” की तुलना सर्कस के प्रकाश–बुलौआ से की गई है। सर्कस में प्रकाश–बुलौआ (सर्चलाइट) का प्रयोग शहर में सर्कस कम्पनी के आने की सूचना के उद्देश्य से किया जाता है। इसके साथ ही इसके द्वारा दूर–दूर तक जन समुदाय को आकृष्ट करना भी एक लक्ष्य होता है ताकि दर्शकों की संख्या बढ़ सके। एक शासनादेश द्वारा प्रकाश–बुलौआ पर रोक लगा दी गई है तथा अनेक वर्षों से इसका प्रसारण. बंद है। यह लुप्त हो गया है। इसी संदर्भ में कवि दृष्टान्त के रूप में उपरोक्त पंक्ति के द्वारा उसकी तुलना अपने दोनों दाँत खोकर भूमि पर गिरे हुए हाथी से कर रहे हैं। जिस प्रकार दोनों दाँत खोकर हाथी पीड़ा से भूमि पर गिर पड़ा है उसी प्रकार प्रकाश बुलौआ भी निस्तेज हो गया है।

प्रश्न 9.
कविता में कवि की कई स्मृतियाँ दर्ज हैं। स्मृतियों का हमारे लिए क्या महत्त्व होता है, इस विषय पर अपने विचार विस्तार से लिखें।
उत्तर-
“गाँव का घर” शीर्षक कविता में कवि के जीवन की कई स्मृतियाँ दर्ज हैं। अपनी कविता के माध्यम से कवि उन स्मृतियों में खोजा है। बचपन में गाँव का वह घर, घर की परंपरा, ग्रामीण जीवन–शैली तथा उसके विविध रंग–इन सब तथ्यों को युक्तियुक्त ढंग से इस कविता में दर्शाया गया है।

वस्तुतः स्मृतियों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। स्मृतियों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। स्मृतियों के द्वारा हम आत्म–निरीक्षण करते हैं तथा वे अन्य व्यक्तियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत होती हैं। इसके द्वारा हमें अपने जीवन की कतिपय विसंगतियों से स्वयं को मुक्त करने का अवसर मिलता है। बाल्यावस्था की अनेक भूलें हमारे भविष्य को बुरी तरह प्रभावित करती है। अपने जीवन के ऊषाकाल में उपजी कुप्रवृत्तियाँ हमारी दिशा तथा दशा दोनों. ही बुरी तरह प्रभावित करती हैं।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

प्रश्न 10.
चौखट, भीत, सर्कस, घर, गाँव और साथ ही बचपन के लिए कवि की चिन्ता को आप कितना सही मानते हैं? अपने विचार लिखें।
उत्तर-
कवि ने अपनी कविता “गाँव का घर” शीर्षक कविता में चौखट, भीत, घर, गाँव आदि शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों द्वारा कवि ने ग्रामीण जीवन की विभिन्न समस्याओं को रेखांकित किया है। उन्होंने बचपन के अपने अनुभवों को भी सजीव ढंग से इस कविता में सजाया है।

कवि ने ग्रामीण जीवन का सहज एवं स्वाभाविक विवरण उपरोक्त शब्दों द्वारा अपनी कविता में सही ढंग से किया है। घर का चौखट गाँव की रूढ़िवादी परंपरा का प्रतीक है जहाँ से घर के अन्दर प्रवेश करने के लिए बुजुर्गों को खाँसकर, आवाज लगाकर जाना पड़ता था। गेरू लिपी भीत (दीवार) अभाव एवं विपन्नता की ओर संकेत करती है। सर्कस अपने इर्द–गिर्द बिखरे, आकर्षण को दर्शाता है। दस कोस की दूरी से ग्रामीणों को आमंत्रित करते हुए अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए, अर्थात् पैसे कमाने के लिए प्रकाश–बुलौआ का सहारा लेता है तथा ग्रामीणों की जेब खाली कराता है।

घर गाँव की जीवन–शैली का चित्र है जो सदगी और अभाव का प्रतिरूप है। गाँव हमारी बदहाली तथा रूढ़िवादी मानसिकता को रेखांकित करता है। बचपन जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जीवन की आधारशिला है। उसे निरर्थक खोकर अर्थात् इसका दुरुपयोग करके मनुष्य अपना सर्वस्व खो देता है। कवि का इशारा उसी ओर है, उसे निरूद्देश्य नष्ट करने के लिए नहीं सार्थक बनाने के लिए है।

अतः कवि की चिन्ता इन सबके लिए सर्वदा उपर्युक्त तथा सोद्देश्य है। मैं उनके विचारों तथा चिन्ता को पूर्णतः सही मानता हूँ।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

प्रश्न 11.
जिन चीजों का विलोप हो चुका है, जिनके लिए शोक है, उनकी एक सूची बनाएँ।
उत्तर-
वर्तमान समय में अनेकों प्राचीन परंपराओं तथा वस्तुओं का लोप हो गया है। कुछ चीजों के लिए हम शोक मनाते हैं। जिन चीजों का लोप हो गया है उनमें निम्नांकित वस्तुएँ मुख्य हैं–

  • गाँव का पुराना घर,
  • अंत:पुर की चौखट,
  • बुजुर्गों की खड़ाऊँ,
  • बचपन में कवि के. भाल पर दुग्ध तिलक,
  • गेरू से रंगी दीवार पर दूध से सने अंगूठे की छाप,
  • पंच परमेश्वर,
  • होली–चैती, विरहा–आल्हा आदि लोकगीत,
  • सरकस का प्रयोग–बुलौआ इत्यादि।

जिन वस्तु के लिए शोक है, उनमें निम्नांकित प्रमुख हैं–

  • कवि का बचपन,
  • पंच परमेश्वर के स्थान पर भ्रष्ट पंचायती राज व्यवस्था,
  • बिजली की अनियमित आपूर्ति,
  • होली–चैती बिरहा–आल्हा आदि लोकगीतों की मरणासन्न स्थिति,
  • अदालतों तथा अस्पतालों द्वारा निरीह ग्रामवासियों का शोषण तथा धोखाधड़ी।

गाँव का घर भाषा की बात

प्रश्न 1.
“गाँव के घर की रीढ़ झुरझुराती है” झुरझाराती के लिए आप कोई अन्य शब्द देना चाहेंगे यह सबसे सटीक किया है, यदि हाँ तो कैसे?
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ ज्ञानेन्द्रपति द्वारा लिखित ‘गाँव का घर’ शीर्षक काव्य पाठ से ली गयी है। इस कविता में गाँव के घर की रीढ़ झरझराती एक मुहावरेदार प्रयोग है। इस प्रयोग में गाँव के घर की जर्जरावस्था की ओर कवि ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। कवि का कहना है कि गाँवों में बसे घरों की स्थिति ठीक उसी तरह लगती है जैसे नूना खाई दीवारें केवल रीढ़ के रूप में दिखायी पड़ती है जो हमारे अतीत की याद दिलाती है। गाँव की झुरझुराती दीवारों का अस्तित्व अब कहाँ रहा? केवल बची–खुची ढहती दीवारें अपने अतीत की याद दिला रही हैं।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

कवि बदलते गाँव, उसकी संस्कृति और लोकजीवन में, अत्याधुनिकता की पैठ से आकुल–व्याकुल है। यह अपने बचपन, गाँव–घर गाँव के नाते–रिश्ते आदि की बड़ी ही सटीक व्याख्या की है। भारतीय गाँवों के परिदृश्य आज बिल्कुल बदल गए हैं। वे शहरीकरण की चपेट में दिनोंदिन आते जा रहे हैं। इस प्रकार गाँव के घर रीढ़ के लिए झुरझुराना शब्द का प्रयोग कर प्रस्तुतीकरण में प्रभावोत्पादकता ला दिया है। कवि गाँव के संस्कारों और रीति–रिवाजों की सुरक्षा के लिए विवश है किन्तु कर ही क्या सकते हैं।

‘झुरझुराना’ क्रिया गाँव के घर की सही चित्रण कर पाने में समर्थ रही है। घर के बाहर और भीतर की बदलती तस्वीर 21वीं सदी के दौर में बदलते जीवन मूल्यों से आवश्यक प्रभावित हो रही है। ‘झुरझुराना’ क्रिया की जगह दूसरी क्रिया का प्रयोग अब निरर्थक–सा लगता है। कवि का काव्य–कौशल प्रस्तुत कविता में स्पष्ट दृष्टिगत है। सटीक शब्दों के प्रयोग द्वारा ग्रामीण परिवेश की सच्चाइयों को उकेरने में कवि को सफलता मिली है। कवि ने जीवन के बदलते मूल्यों और रिश्तों की सच्चाइयों को बेबाकी से चित्रित किया है। गाँव हमारी संस्कृति की रीढ़ है।

अगर भारत में गाँवों का अस्तित्व नहीं रहेगा तो भारत का भी अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। गाँव हमारी सभ्यता और इतिहास का साक्षी है। आज सबको मिलकर गाँव के अस्तित्व के लिए चिन्तन करना होगा। गाँव का घर हमारा लोक जीवन, लोक संस्कृति का प्रतीक है। वहीं से यानि गाँव से ही हम संस्कृति संकट को अतुंग शिखर तक ले जा सकते हैं और ग्रामीण परिवेश, संस्कृति की रक्षा कर सकती है।।

गाँव रहेगा तो चौखट–संस्कृति बचेगी। गाँव रहेगा तो बूढ़–बुजुर्ग का अनुशासन खबरदारी हमें जगाए रखेगी। गोबर द्वारा घर की लिपाई और गेरू द्वारा रंगाई हमारी सभ्यता की पहचान है। लेकिन अब ये बातें स्वप्न की बातें रह गयी हैं इसलिए कवि चिन्तित है। उसे पंच–परमेश्वर की न्यायप्रियता अब नहीं दिखाई पड़ती। अब तो सब जगह नए जमाने की धमक ने गाँव को अपने आगोश में ले लिया है। बेटे की शादी में टी. वी., दहेज की मांग ने हमारी जीवन शैली में बदलाव ला दिया है। इस प्रकार लालटेन युग खत्म हो गया है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

बिजली गाँव–गाँव पहुंच चुकी है। एक तरफ हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं किन्तु मन हमारा दूषित हो रहा है आपसी दुश्मनी में मित्रता को समाप्त कर दिया है। इस प्रकार कवि ने ‘गाँव को घर की झुरझुराती रीढ़’ द्वारा ग्राम–संस्कृति का यथार्थ चित्रण करते हुए परिदृश्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया। अब गाँव का अस्तित्व संकट के चक्रव्यूह में घिरा है। कवि चिन्तित है। व्यथित है।

प्रश्न 2.
बिजली बत्ती आ गई कब की, बनी रहने से अधिक गई रहने वाली, कवि के भाषित कौशल का यह एक उपयुक्त उदाहरण है। बिजली नहीं रहती इसके लिए’ नहीं रहने वाली प्रयोग होता उतनी व्यंजकता नहीं आती जितनी गई रहने वाली से।

इस दृष्टि से विचार करते हुए कविता से ऐसी पंक्तियों को चुनें।
उत्तर-

  • जिसके भीतर आने से पहले खाँसकर आना पड़ता था।
  • खड़ाऊँ खटकनी पड़ती थी,
  • एक अदृश्य पर्दे के पार से पुकारना पड़ता था,
  • जेठ–लिपि भीत पर दूध–डूबे अंगूठे के छाप
  • महीने के अंत में गिने जाते एक–एक कर
  • चकाचौंध की रोशनी ने मदमस्त आर्केस्ट्रा
  • न आवाज की रोशनी न रोशनी की आवाज
  • लोकगीतों की जन्मभूमि में
  • एक शोकगीत अनगाया, अनसुना
  • आकाश और अंधेरे को काटते
  • गंजदतों को गंवाकर कोई हाथी
  • सर्कस का बुलौआ–प्रकाश
  • उन दाँतों की जरा–सी धवल–धूल पर
  • लीलने वाले मुँह खोले शहर में बुलाते हैं
  • अदालतों और अस्पतालों के फैले–फैले रुंधते–गधाते अमित्र परिसर
  • जिन बुलौओं से गाँव के घर की रीढ़ झुरझुराती है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

प्रश्न 3.
इन शब्दों के लिए कविता में प्रयुक्त विशेषणों से अलग विशेषण दें। रोशनी, आर्केस्ट्रा, आवाज, जन्मभूमि, शोकगीत, आकाश, सर्कस, हाथी, धूल, भीत।
उत्तर-

  • रोशनी – तीव्र रोशनी
  • आर्केस्ट्रा – अच्छा आर्केस्ट्रा
  • शोकगीत – अनसूना शोकगीत
  • आकाश – नीला आकाश
  • सर्कस – नया सर्कस
  • हाथी – बूढ़ा हाथी
  • धूल – उड़ती धूल
  • भीत – पुरानी भीत
  • आवाज – धीमी आवाज, मधुर आवाज
  • जन्मभूमि – मेरी जन्मभूमि, महान जन्मभूमि

प्रश्न 4.
कविता से देशज शब्दों को चुनकर लिखें।
उत्तर-
काव्य पाठ से देशज शब्द इस प्रकार हैं–चौखट, सहजन, लिपी–भीत, उठौना, बिटौआ, टिकुली, भिड़काए, बुलौआ, लीलनेवाला आदि।

प्रश्न 5.
धवल–धूल से क्या आशय है?
उत्तर-
धवल–धूल का आशय है–हाथी के धवल दाँत जो काटे गए हैं, उस दाँत से जो बुरादा धूल–कण की तरह गिरे हुए हैं उसी से तुलना करते हुए कवि कहता है कि ठीक उसी प्रकार नूना लगे हुए गाँव के घरों की दीवारें हाथी का महत्व नहीं है ठीक उसी प्रकार हमारे पुराने गाँव वहाँ की खूबियाँ और खुशियाँ अब नहीं रही। दस कोस दूर से जो सर्कस वाला अपनी उपस्थिति का आभास अपनी टॉर्च की रोशनी से करवाता है; वे दिन भी लद गए।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

यानि सब कुछ बदला–बदला सा है। गाँव–घर सबकुछ अब स्मृति की बातें रह गयौं। कवि अपनी कविता में अपने अतीत को याद कर रहा है और गाँव में बीते क्षण वहाँ की कहानियाँ, लोगों के आपसी संबंध, परिवार की गरिमा और अनुशासन अब कुछ नहीं रहा। गाँव का पुराना स्वरूप ही बदल गया है। गाँव को शहर ने अपने कौर में लील लिया है। गाँव के लोकगीत चौपालों की बैठकें, कथाएँ, अब केवल स्मृति–धरोहर रह गयी हैं।

विरहा, आल्हा, चैता होली आदि के समधुर और हृदयस्पर्शी गीत नहीं सुनायी पड़ते। इन ग्राम गीतों की जगह शोक गीत अपना साम्राज्य बढ़ा लिया है यानि हर जगह द्वेष, ईर्ष्या, मार–काट मुकदमेबाजी से जन–जीवन त्रस्त है। रात उजाले से अधिक अंधेरा उगलती द्वार गाँव के भयानक दृश्य को चित्रित किया है। जंगल भी अब नहीं रहे। हर जगह जंगल काटकर शहर बसाए जा रहे हैं।

गाँव की निशानी भी अब मिट गयी। खेत–खलिहान के अस्तित्व पर खतरा उपस्थित हो गया है। अदालतों और अस्पतालों में दुश्मनी और चीत्कारें सुनाई पड़ती हैं। क्या यही था आजादी पूर्व हमारा गाँव और हमारा घर। धवल–धूल के माध्यम से कवि धुंधली स्मृतियाँ ही अब शेष रह गयीं हैं कि चारों ओर ध्यान आकृष्ट किया है। सब जगह कोलाहल, वैमनस्य और बदलते आपसी रिश्तों की बड़ी साफगोई से कवि ने चित्रण किया है।

अब गाँव की सारी पुरानी विशेषताएँ अपनत्व, भाईचारा, आपसी मेल कथा के रूप में याद रहेंगी। वे दिन अब लौटने वाले नहीं हैं। कवि का मन अपने गाँव यानी भारत के गाँव की बदली तस्वीर को देखकर बेचैन है। विकल हैं। ढहती घर की दीवारें उसके मन में उद्वेलित कर देती है।

गाँव का घर कवि परिचय ज्ञानेन्द्रपति (1950)

जीवन–परिचय–बीसवीं शती के आठवें दशक में संभावनाशाली युवा कवि के रूप में उदित हुए कवि ज्ञानेन्द्रपति का जन्म 1 जनवरी, 1950 को पथरगामा, गोड्डा झारखण्ड में हुआ था। उनके पिता का नाम देवेन्द्र प्रसाद चौबे तथा माता का नाम सरला देवी था। ज्ञानेन्द्रपति की प्रारंभिक शिक्षा उनके गाँव में ही हुई। उन्होंने बी.ए. और एम.ए. (अंग्रेजी) की परीक्षाएँ पटना विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

उन्होंने बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से हिन्दी में एम.ए. किया। उनका चयन बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा कारा अधीक्षक पद पर हुआ, जहाँ काम करते हुए उन्होंने कैदियों के लिए अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए। बाद में वे नौकरी छोड़कर कविता लेखन करते हुए साहित्य साधना में जुट गए।

ज्ञानेन्द्रपति को उनके साहित्यिक अवदान के लिए पहल सम्मान (2006) तथा कविता संग्रह ‘संशयात्मा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (2006) से सम्मानित किया गया।

रचनाएँ–ज्ञानेन्द्रपति की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

कविता–संग्रह–आँख हाथ बनते हुए (1970), शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है (1980), गंगातट (2000), संशयात्मा (2004), भिनसार (2006), कवि ने कहा (2007)।

काव्यगत विशेषताएँ–साहित्याकाश में ज्ञानेन्द्रपति का उदय बीसवीं शती के आठवें दशक में हुआ। अपने शब्द चयन, भाषा, संवेदना की ताजगी और रचना विन्यास में आत्म–सजग संधान जैसी विशेषताओं के कारण उन्होंने हिन्दी कविता के सुधी पाठकों का ध्यान अपनी और आकृष्ट किया। वे एक ऐसे अध्ययनशील और मनीषधर्मी रचनाकार हैं जो निजी संबंधों, सामाजिक रिश्तों तथा रचनाधर्म को अपने ही ढंग से रचते–गढ़ते हुए निरंतर आगे बढ़ते रहे हैं। उन्हें लेखक संगठनों, साहित्यिक राजनीति और लेन–देन के सतही व्यवहारों–बर्तावों की चिन्ता नहीं रहीं। उनका रचना संसार इसका ज्वलन्त प्रमाण है।

कविता का सारांश कवि ग्रामीण संस्कृति का विवरण देते हुए गाँव के घर की विशिष्टता का चित्रण कर रहा है। गाँव के अन्तःपुर के बाहर की ड्योढ़ी पर एक चौखट रहा करता है। यह चौखट वह सीमा रेखा है जिसके भीतर आने से पहले परिवार के वरिष्ठ नागरिकों (बुजुर्गों) को रूकना पड़ता है, अपनी खड़ाऊँ की खटपट आवाज से घर के अंदर की महिलाओं को अपने आने का संकेत देना पड़ता है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

अन्य संकेत भी अपनाए जाते हैं। खाँसना अथवा किसी का नाम लिए वगैर पुकारना आदि। चौखट के बगल में गेरू से रंगी हुई दीवार पर बूढ़े ग्वाल दादा (दूध देने वाला) के दूध से भीगे अंगूठे के निशान अंकित रहते हैं जिसमें दूध का हिसाब उल्लखित रहता है पूरे महीना भर के महीना के अंत में उसकी गिनती करके दूध के बिल (राशि) का भुगतान किया जाता रहा है। यह है ग्रामीण परिवेश के परिवारों की जीवन–शैली की एक झलक।

किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं, गाँव का वह घर अपना वह स्वरूप खो चुका है। वह सादगी, वह नैसर्गिक स्वरूप अब स्वप्न की बातें हो गई हैं, अतीत की स्मृति बनकर रह गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गाँव की वह घर अपना गाँव खो चुका है, क्योंकि गाँव का वह प्राचीन परंपरा तिरोहित हो गई है। पंचाचती राज के आते ही “पंच परमेश्वर” लुप्त हो गए, कहीं खो गए। न्यायोचित निर्णय देनेवाले कर्णधार अराजकता तथा अन्याय की बलि चढ़ गए। दीपक तथा लालटेनों का स्थान बिजली के प्रकाश ने ले लिया।

लालटेन दीवार पर बने आलों के ऊपर टंगे कैलेंडरों से ढंक गई। बिजली है किन्तु वह स्वयं अधिकांशतः अंधकार में डूबी रहती है। वह बनी रहने की बजाय “गई रहने वाली ही हो गई। इसके कारण रात प्रकाश से अधिक अंधकार फैला रही हैं। यह अंधकार एक प्रकार से साथ छोड़ दिए जाने की अनुभूति कराता है अर्थात् कोई स्व–जन साथ छोड़कर चला गया हो। दूसरी ओर इससे बिल्कुल भिन्न वातावरण है। धवल प्रकाश (चकाचौंध रोशनी) में आर्केस्ट्रा की स्वर लहरी सप्तम–स्वर में बंद दरवाजों के अन्दर, वहाँ से काफी दूर पर गूंज रही है। दरवाजे भिड़े होने के कारण उसके स्वर नहीं सुनाई देते। आर्केस्ट्रा की ध्वनि तथा चकाचौंध प्रकाश दोनों की कवि को दृष्टिगोचन नहीं होते।

इस आधुनिकता के दौर में चैती, विरहा–आल्हा, होली गीत कवि को सुनाई नहीं देते। लोकगातों की इस पावन जन्मभूमि में एक अनगाया, अनसुना सा शोकगीत शेष है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

दस कोस दूर स्थित शहर से आनेवाला सर्कस का प्रकास–बुलौआ (सर्च लाइट) अब अपना दम तोड़ चुका है, लुप्त हो गया है। यह देखकर ऐसा अनुभव होता है, मानो अपने दाँतों को गँवाकर हाथी गिरा पड़ा हो।

शहर की अदालतों और अस्पतालों में फैले हुए भ्रष्टाचार के वीभत्समुख चबा जाने और लील (निगल) जाने को तत्पर है तथा बुला रहे हैं। इससे गाँव की जिन्दगी चरमरा रही है।

कविता का भावार्थ 1.
गाँव के घर के
अन्तःपुर की चौखट
टिकुली साटने के लिए सहजन के पेड़ से छुड़ाई गई गोंद का गेह वह
वह सीमा
जिसके भीतर आने से पहले खाँसकर आना पड़ता था बुजुर्गों को.
खड़ाऊ खटकानी पड़ती थी खबरदार की
और प्रायः तो उसके उधर ही रूकना पड़ता था
एक अदृश्य पर्दे के पार से पुकारना पड़ता था
किसी को बगैर नाम लिए।

व्याख्या–प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य–पुस्तक दिंगत भाग–2 के “गाँव का घर” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इस यथार्थवादी भावमूलक कविता के रचनाकार ज्ञानेन्द्रपतिजी हैं। कवि ने इस काव्यांश में गाँव के घर का अतीव सजीव एवं स्वाभाविक चित्रण प्रस्तुत किया है।

गाँव के घर के आन्तरिक भाग (अन्तःपुर) के बाहर की ड्योढ़ी पर एक चौखट रहा करता है। यह चौखट वह सीमा रेखा है जिसके अन्दर आने से पहले बुजुर्गों को रूकना पड़ता था। अपनी खड़ाऊँ खटकानी पड़ती थी, घर की महिलाओं को अपने आने की सूचना देने के लिए इसके अतिरिक्त खाँसना अथवा किसी का नाम लिए बिना आवाज देना आदि अन्य तरीके भी थे।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

इन पंक्तियों में कवि ग्रामीण जीवन का चित्र प्रस्तुत कर रहा है। गाँव में बुजुर्गों से घर की महिलाओं की परदा करने की परंपरा रही है। घर के आंतरिक भाग में जाने से पहले बुजुर्गों को चौखट के बाहर रूककर अपनी खड़ाऊ की आवाज से अन्दर आने का संकेत देना पड़ता था। इसके अतिरिक्त खाँसकर तथा बिना किसी का नाम लिए आवाज देना पड़ती थी। यह सारी औपचारिकताएँ गाँव के जीवन का अभिन्न अंग थीं। कवि ने अत्यन्त कुशलता के साथ ग्रामीण जीवन का चित्रण किया है।

2. जिसकी तर्जनी की नोक धारणा किए रहती थी सारे काम सहज
शंख के चिन्ह की तरह
गाँव के घर की
उस चौखट के बगल में
गेरू–लिपी भीत पर
दूध–डूबे अँगूठे के छापे
उठौना दूध लाने वाले बूढ़े ग्वाल दादा के
हमारे बचपन के भाल पर दुग्ध तिलक
महीने के अन्त में गिने जाते एक–एक कर

व्याख्या–प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य–पुस्तक दिंगत भाग–2 के “गाँव का घर” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता यशस्वी कवि ज्ञानेन्द्रपति हैं। कवि ने इन पंक्तियों में बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से ग्रामीण जीवन–शैली का विवरण प्रस्तुत किया है।

गाँव के घर की उस चौखट के बगल में गेरू से लिपी–पुती तथा रंगी हुई दीवार पर दूध से भीगे हुए अंगूठे के निशान हैं, कवि जो एक बालक था, उसके मस्तक पर भी दूध का तिलक लगा हुआ है। ग्वाल दादा जो घर पर दूध देते हैं, उन्होंने ही दीवार पर वे निशान लगाए हैं जो महीना समाप्त होने पर गिने जाते हैं। कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि गांव में शिक्षा के अभाव में हिसाब–किताब करने का सीधा–सादा ढंग है।

घर पर दूध देने वाले ग्वाल दादा अपने दूध का हिसाब गेरू से रंगी दीवार पर दूध से सने अंगूठे द्वारा दी हुई लकीरों से करते हैं। यह सिलसिला महीने भर चलता है तथा महीनों की समाप्ति पर उसका हिसाब किया जाता है। उपरोक्त काव्यांश गाँव की सादगी की झाँकी प्रस्तुत करता है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

3. गाँव का वह घर
अपना गाँव खो चुका है
पंचायती राज में जैसे खो गए पंच परमेश्वर
बिजली–बत्ती आ गई कब की, बनी रहने से अधिक गई रहनेवाली
अबके बिटौआ, के दहेज में टी. वी. भी।
लालटेनें हैं अब भी, दिन–भर आलों में कैलेंडरों से ढंकी

व्याख्या–प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत भाग–2 के “गाँव का घर” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता, सामाजिक सरोकारों के सजग कवि ज्ञानेन्द्रपति हैं। इन पंक्तियों में कवि गाँवों की वर्तमान अवस्था का वर्णन कर रहे हैं। गाँवों की पुरानी व्यवस्था तथा नैतिक मूल्यों का वर्तमान व्यवस्था द्वारा हास उनकी चिन्ता का विषय है।।

गाँव का यह पुराना घर अपना गाँवों खो चुका है। नई व्यवस्था में पंचायती राज में मानो पंच परमेश्वर खो गए हैं। गाँवों में बिजली का प्रकाश आ गया है। किन्तु बनी रहने से अधिक बिजली “गई रहने वाली” है। बेटा के दहेज में टी. वी. लेने की लालसा है (यद्यपि अधिकांश समय तक बिजली नहीं रहती है।)

इन पंक्तियों में कवि ने एक ओर पुरानी ग्रामीण व्यवस्था में गाँवों के विवाद को निपटाने में पंच–परमेश्वर तथा पंचायत की भूमिका का वर्णन किया है वहीं वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता तथा अराजकता की ओर संकेत किया है। कवि की ऐसी प्रतीति है कि पंच–परमेश्वर का सौम्य रूप पंचायती राज की अव्यवस्था तथा अन्याय के अंधकार में लुप्त हो गया है। लालटेनों की जगह बिजली ने ले लिया है। अब गाँव में बिजली आ गई है। परन्तु विडंबना यह है कि बनी रहने की बजाय यह अधिकतर “गई रहने वाली” ही हो गई है। तातपर्य यह है कि बिजली थोड़ी देर के लिए आती है तथा अधिकांश समय गायब रहती है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

इसके बावजूद बेटा के दहेज में टी. वी. लेने की लालसा गाँव के लोगों में है। ऐसी मानसिकता प्रायः हरेक व्यक्ति में पाई जाती है। अधिकांश समय तक बिजली के गायब रहने से टी. वी. का समुचित उपयोग संभव नहीं है, किन्तु उसके प्रति लोगों का आकर्षण यथावत है। इस दृष्टान्त द्वारा कवि ने जर्जर शासन–व्यवस्था को पोल खोली है। टी. वी. के बहाने दहेज की प्रवृति पर भी एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है। इस दिशा में कवि का प्रयास सर्वथा उचित है।

4. लालटेनें हैं अब भी, दिन–भर आलों में कैलेंडरों से ढंकी
रात उजाले से अधिक अंधेरा उगलती।
अँधेरे में छोड़ दिए जाने के भाव से भरती
जबकि चकाचौंध रोशनी में मदमस्त आर्केस्ट्रा बज रहा है कहीं, बहुत दूर, पट भिड़काए
कि आवाज भी नहीं आती यहाँ तक न आवाज की रोशनी,
न रोशनी की आवाज।

व्याख्या–ये भावपूर्ण पंक्तियाँ हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत भाग–2 के “गाँव के घर” शीर्षक कविता से उद्धत हैं। इसके रचयिता ज्ञानेन्द्रपति हैं। भावों के चतुर चितेरे कवि ने व्यंग्यात्मक शैली में गाँवों की स्थिति का दृश्य प्रस्तुत किया है।।

लालटेनें अब भी हैं तथा दिन भर आलों पर टंगे कैलेंडरों से ढंकी रहती हैं। रात उजाले की अपेक्षा अंधेरा अधिक फैलाती है। उसमें अंधेरा में छोड़ दिए जाने का भाव मालूम देता है। दूसरी तरफ बहुत दूर पर तीव्र प्रकाश से मुक्त बन्द कमरे में आरकेस्ट्रा की धुन सुनाई दे रही है। उसकी आवाज यहाँ पर सुनाई देती है उसकी आवाज का प्रकाश भी नहीं दृष्टिगोचर होता है। रोशनी की आवाज भी सुनाई नहीं देती है।

इन पंक्तियों में कवि का आशय गाँव की दशा की ओर ध्यान आकृष्ट करना है। कवि का कथन है कि गाँव के घरों में पूरे दिनभर लालटेने आलों पर टंगे कैलेंडरों की ओट में रखी रहती हैं। इस पंक्ति का गूढार्थ है कि दिन पर लालटेनों आलों में सजाकर रख दी जाती हैं तथा रात में बिजली की अनुपलब्धता अथवा अनिश्चितता के कारण उन्हें बाहर लाकर जला दिया जाता है क्योंकि बिजली के नहीं रहने के कारण रात में प्रकाश से अधिक अंधेरा छा जाता है। उससे ऐसा प्रतीत होता है कि अँधेरे में छोड़ दिए जाने के लिए ही यह हो रहा है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

इसके विपरीत इस गाँव से बहुत दूर शहर के किसी कोने में प्रकाश की चकाचौंध में बन्द कमरे के अन्दर आर्केष्ट्रा की धुन बज रही है। वह स्थान गाँव से दूर है ताकि आर्केस्ट्रा की धुन बंद कमरे में गूंज रही है। उसकी आवाज उस गाँव तक नहीं आ रही है। यहाँ कवि की कल्पना मुखरित हो जाती है।

उसे ना तो आवाज की रोशनी की अनुभूति होती है ना ही रोशनी की आवाज की। प्रकारान्तर में कवि के कहने का आशय यह है कि आर्केस्ट्रा की आवाज (धुन) तथा वहाँ की चकाचौंध करने वाला प्रकाश दोनों ही अनुपलब्ध हैं। इस प्रकार कवि ने गाँव तथा शहर की तुलनात्मक विवेचना भी इस काव्यांश में की है तथा दोनों में व्याप्त विरोधाभास को युक्तियुक्तपूर्ण ढंग से रेखांकित किया है।

5. होरी–चैती बिरहा–आल्हा गूंगे
लोकगीतों की जन्मभूमि में भटकता है एक शोकगीत अनगाया अनसुना
आकाश और अँधेरे को काटते
दस कोस दूर शहर से आने वाले सर्कस का प्रकाश–बुलौआ
तो कब का मर चुका है।
कि जैसे गिर गया हो गजदंतों को गंवाकर कोई हाथी
रेते गए उन दाँतों को जरा–सी धवल धूल पर
छीज रहे जंगल में,

व्याख्या–प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत, भाग–2 ‘गाँव का घर’ शीर्षक कविता से उद्धत हैं। इसके रचनाकार ज्ञानेन्द्रपति हैं। उपरोक्त पद्यांश में नई संस्कृति की चकाचौंध हमारे प्राचीन लोकगीतों के अस्तित्व पर आसन्न खतरे के प्रति कवि द्वारा क्षोभयुक्त चिन्ता व्यक्त की गई है। कवि को इस स्थिति में शोकगीत का अहसास होता है।

होली–चैता, बिरहा–आल्हा आदि लोकगीत गूंगे (समाप्त) हो गए हैं। लोकगीतों की जन्मस्थली में एक अनगाया, अनसुना शोकगीत भटक रहा है, शोक की अनुभूति करा रहा है। दस कोस दूर शहर में आकाश तथा अँधेरे को काटते हुए सरकस का प्रकाश–बुलौआ (सर्चलाइट) जो दृष्टिगोचर होता था, उसकी मृत्यु हुए भी काफी दिन बीत गए। मानो कोई हाथी अपने दाँतों को गँवाकर गिर पड़ा हो।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

कवि इन पंक्तियों में होली–चैता बिरहा–आल्हा आदि लोकगीतों की दुर्गति देखकर दु:खी है। उसे यह देखकर गहरा खेद हो रहा है कि आधुनिक संस्कृति ने लोकगीतों की जन्मभूमि में ही उसे मरणासन्न स्थिति में पहुंचा दिया है। उसकी इस दुर्गति पर शोकगीत द्वारा संवेदना प्रकट की जा रही है। कवि के कहने का आशय यह भी हो सकता है कि इस समय के नए गीत शोकगीत जैसे लगते हैं जो भटकाव की स्थिति में हैं।

कवि यह भी देख रहा है कि गाँव से दस कोस की लम्बी दूरी से आकाश में अँधेरे को चीरता हुआ सरकस का प्रकाश–बुलौआ भी काफी दिनों पहले मर चुका है अर्थात् अब उसका प्रकाश नहीं दीखता। वह उसी प्रकार लुप्त हो गया है जैसे अपने दोनों दाँतों को गँवाकर हाथी गिर पड़ा हो। वस्तुतः प्रकाश–बुलौआ शहर में सरकस के आने की सूचना तथा भीड़ को आकृष्ट करने के उद्देश्य से प्रयुक्त किया जाता था जिसका प्रसारण सरकार द्वारा किसी कारणवश रूकवा दिया गया।

6. लीलने वाले मुँह खोले, शहर में बुलाते हैं बस
अदालतों ओर अस्पतालों के फैले–फैले भी रूंधते–गधाते अमित्र परिसर कि जिन बुलौओं से
गाँव के घर की रीढ़ झरझराती है।

व्याख्या–प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत, भाग–2 के “गाँव का घर” शीर्षक कविता से ली गई है। इसके रचयिता ज्ञानेन्द्रपति हैं। उपरोक्त काव्यांश में कवि ने ग्रामीणों की अज्ञानता, कष्टों तथा अभावों का वर्णन किया है। इसके साथ शहर की विकृति एवं अमानवीय प्रवृति का उल्लेख भी किया है।

शहर की अदालतों तथा अस्पतालों के निगल जाने वाले विस्तृत परिसर अपना भयानक मुँह खोलकर खड़े हैं, वे ग्रामीणों को भुलावा देकर बुला रहे हैं। इस कारण गाँव के घर की रीढ़ झुर–झुरा रही है, उसमें दर्द तथा ऐंठन हो रही है।

रात में गांव के कवि कौन है? - raat mein gaanv ke kavi kaun hai?

कवि के कहने का गूढार्थ यह है कि भोले–भाले तथा मूर्ख ग्रामवासी शहर के अस्पतालों तथा अदालतों में डॉक्टरों एवं वकीलों के भुलावे तथा छल के शिकार हो रहे हैं। वहाँ अपना मुकदमा तथा इलाज कराने के चक्कर में उनका शोषण हो रहा है। उन परिसरों में रहनेवाले अपने खूखार मंसूबों से उनसे काफी पैसे ठग रहे हैं।

उनका बुलौटा अर्थात् ग्रामीणों को बुलाकर ठगना सरकस के प्रकाश–बुलौआ के समान ही है। इससे गाँव के लोग निस्तेज तथा दुर्बल हो गए हैं, उनकी रीढ़ झूर–झुरा गई है अर्थात् वे आर्थिक दुरवस्था के शिकार हो गए हैं। सरकार का प्रकाश बुलौआ उन्हें सरकस देखने के लिए बुलाकर उनके जेब के पैसे खर्च करता है, तो वकील तथा डॉक्टर मीठी–मीठी बातें तथा झूठे आश्वासन द्वारा उन्हें आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त कर रहे हैं तभी तो कवि कहता है