सब्सक्राइब करे youtube चैनल Show Jyotirao Phule in hindi ज्योतिबा फुले जीवनी | महात्मा ज्योतिबा फुले के राजनीतिक विचार सामाजिक जयंती ज्योतिराव गोविंदराव फुले पुस्तकें निबंध | ज्योतिबा फुले उद्देश्य प्रस्तावना
संगठन, जिससे फुले का नाम जुड़ा है और जिसके लिए वे आज भी याद किये जाते हैं, वह था सत्य शोधक समाज। इसकी स्थापना उन्होंने अपने सहकर्मियों के साथ 1873 में की थी, वर्ण एवं जाति-व्यवस्था पर आधारित हिंदू समाज व्यवस्था के विरुद्ध निचली जातियों को संगठित करने के लिए। उनके एक सहकर्मी ने 1877 में उपरोक्त आंदोलन के पहले समाचार-पत्र ‘दीनबंधु‘ की शुरुआत की। सरकार ने 1876 में फुले को पूना नगरपालिका का सदस्य नियक्त किया। 1882 तक वे इस पद पर रहे और दलित-हितों के लिए उन्होंने संघर्ष किया। लेखन-कार्य निचली जातियों के हित में उनके व्यापक कार्यों को मान्यता देते हए 1888 में बंबई वासियों ने उनका अभिनंदन किया और उन्हें ‘महात्मा‘ की उपाधि दी। इस इकाई के अंतर्गत हमारी मचि मुख्यतः उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों का सार संक्षेप तथा विश्लेषण देने में होगी। राष्ट्रीय आंदोलन एवं चिंताधारा पर शोध कार्य करने वाले विद्वानों ने फले जैसे चिंतकों के विचारों की उपेक्षा की है। जहा तक फले की बात है, उनके संबंध में शोधकर्ताओं के सामने प्रमुख कठिनाई भाषा की होती है। उन्होंने मुख्यतः मराठी भाषा में और वह भी जन समुदाय में प्रचलित भाषा में लेखन कार्य किया। बोध प्रश्न 1 उपनिवेशवादी सरकार के प्रति दृष्टिकोण अंग्रेजी राज ने प्रशासनिक क्षेत्र में नियक्ति के नये अवसर प्रदान किये। स्थानीय स्तरों पर भी भारतीयों को राजनीतिक अधिकार दिए जा रहे थे। फुले स्वयं नगरपालिका के सदस्य के रूप में काम कर चुके थे। इसलिए वे यह बोध कर सकते थे कि अंग्रेजी शासन के अंतर्गत निचली जातियां किस प्रकार स्थानीय स्तरों पर सत्ता अर्जित कर सकती थीं और औपनिवेशिक नौकरशाही में पैठ कर सकती थीं। निचली जातियों के प्रति अंग्रेज शासकों के सद्भाव में उनका विश्वास था और इसीलिए उनसे कई प्रकार की अपेक्षाएं उन्होंने की। अंग्रेजी शासन कब तक चलेगा, इस बारे में वे आश्वस्त नहीं थे। इसलिए वे चाहते थे कि निचली जातियां उपलब्ध अवसर का लाभ उठाकर ब्राह्मणों के आतंक से मुक्त हो जाएं। ब्राह्मण शासक निर्धन निचली जातियों पर लगाए गये करों से बेतहाशा धन एकत्र करते थे लेकिन इनके कल्याण के लिए एक पैसा भी नहीं खर्च करते थे। इसके विपरीत, नया शासन प्रवंचित जन समुदाय के लिए अनेक अच्छी चीजें करने को तत्पर दिख रहा था। फुले ने औपनिवेशिक शासकों को आश्वस्त किया कि वे यदि शुद्रों को सुखी और संतुष्ट कर सकें तो शुद्रों की राज भक्ति के बारे में उनको चिंता नहीं करनी पड़ेगी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से मांग की कि ब्राह्मण कुलकर्णी पद खत्म करके योग्यता के आधार पर ग्राम प्रधान (पाटील) पद दिया जाय। दरअसल, फुले ब्रिटिश सरकार से यह चाहते थे कि गांवों में जाति-आधारित उद्यमों से जुड़ी बैल्यूटड्री व्यवस्था को खत्म कर दिया जाए। उन्होंने सरकार से महिलाओं और अछूतों को निम्न स्तर देने वाली प्रथाओं-व्यवहारों पर पाबंदी लगाने वाले कानून बनाने की मांग की। फुले चाहते थे कि ब्राह्मण नौकरशाही के स्थान पर एक गैर-ब्राह्मण नौकरशाही को प्रतिष्ठित किया जाय। लेकिन इन पदों के लिए गैर-ब्राह्मण न मिलने पर, उनके विचार से, सरकार को अंग्रेज नागरिकों की ही नियुक्ति करनी चाहिए। उनका विश्वास था कि ब्रिटिश अधिकारी तटस्थ दृष्टिकोण अपनाएंगे और निचली जातियों का ही पक्ष लेंगे। फुले को यह समुचित बोध था कि शिक्षा की प्रक्रिया अभी निचली जातियों तक नहीं पहुंची थी। जन समुदाय अभी राजनीतिक रूप से सचेत नहीं बना था। उच्च जातियों के अभिजन जनता के सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा कर रहे थे और इस प्रकार अपने लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहे थे। फुले के विचार से, यह प्रक्रिया उच्च जातियों के राजनीतिक वर्चस्व की ही पुनप्रतिष्ठा करने वाली थी। फुले ने अपने निम्न जातीय अनुगामियों को राजनीतिक अधिकारों के लिए आंदोलन में भाग लेने की सलाह दी। उनके तर्क के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अथवा अन्य राजनीतिक संगठन सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय नहीं थे क्योंकि उनमें उच्च जातियों के ही प्रतिनिधि प्रभावी थे। इन संगठनों की रचना में ब्राह्मणों के स्वार्थपूर्ण एवं क्षुद्र इरादों के प्रति फुले ने अपने अनुगामियों को सचेत किया और उपरोक्त संगठनों से अलग रहने की सलाह दी। उनके सत्य शोधक समाज में नियमतः राजनीतिक चर्चा पर पाबंदी थी। दरअसल, हम पाते हैं कि उन्होंने अनेक अवसरों पर नई सरकार के प्रति अपनी पर्ण निष्ठा का परिचय दिया। उनका दृढ़ विश्वास था कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने। आतंककारी शासकों को अपदस्थ करके उनके स्थान पर एक न्यायसंगत, प्रबुद्ध एवं शांतिप्रिय ब्रिटिश शासन की स्थापना जन कल्याण के लिए की है। इसका आशय यह नहीं कि फुले को राजनीति के महत्व का बोध नहीं था। दअरसल, एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि निचली जातियों की दशा में गिरावट राजनीतिक अधिकारों से उनके वंचित होने के कारण आई है। सत्य शोधक समाज के झंडे तले निचली जातियों को संगठित करने में उनके प्रयासों को राजनीतिक गतिविधि के रूप में ही देखा जाना चाहिए। यह सच जरूर है कि 19वीं सदी के संदर्भ में उन्होंने राजनीतिक सुधारों की अपेक्षा सामाजिक सुधारों की वरीयता दी, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि वे बदली हुई परिस्थितियों में भी वही विचार रखते। वे अच्छी तरह जानते थे कि शिक्षा के साथ निचली जातियां अपने राजनीतिक अधिकारों की चेतना भी प्राप्त करेंगी और न केवल राजनीतिक सत्ता में अपने हिस्से की मांग, बल्कि ब्राह्मणों को अपदस्थ करके अपने वर्चस्व की स्थापना भी करेंगी। उनका समूचा लेखन-कार्य इसी दिशा में संचालित था। अंग्रेजी राज की आलोचना अंग्रेजी सरकार की शिक्षा नीति पर फुले ने घनघोर प्रहार किया। उन्होंने इस बात की आलोचना की कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए अधिकाधिक धन एवं सुविधाएं प्रदान कर रही थी लेकिन जन शिक्षा की उपेक्षा। उन्होंने सरकार को ध्यान दिलाया कि राजस्व का अधिकांश भाग जन समुदाय के श्रम में आता है। उच्च एवं धनिकं वर्गों का राजकोष में योगदान नगण्य ही होता है। इसलिए सरकार को अपनी आय का बड़ा हिस्सा उच्च वर्गों के बजाय जन समुदाय की शिक्षा पर खर्च करना चाहिए। शिक्षा नीति उच्च वर्गों के अनकूल होने के कारण ऊंचे पदों पर उनका एकाधिकार सा बना हआ था। यदि सरकार सचमुच निचली जातियों का हित चाहती थी, तो प्रशासन में उच्च जातियों की संख्या कम करके निचली जातियों की संख्या बढ़ाना उसका कर्त्तव्य बनता था। दास प्रथा पर एक पुस्तक लिखने का उनका उद्देश्य यही था, सरकार की उच्च शिक्षा की दुव्र्यवस्था के प्रति सचेत करना। फुले के अनुसार यह व्यवस्था जन समुदायों को अज्ञान एवं निर्धनता की स्थिति में रखे हुए थी। शिक्षा कार्यों के लिए सरकार विशेष कोष जुटाती थी, लेकिन उसे जन समुदाय की शिक्षा के लिए खर्च नहीं किया जाता था। उन्होंने सरकार द्वारा चलाये जा रहे प्राथमिक विद्यालयों की आलोचना यह बताते हए की कि उनमें दी जा रही शिक्षा संतोषजनक नहीं थी। वह छात्रों के भावी लक्ष्यों की दृष्टि से व्यवहारिक एवं उपयोगी नहीं सिद्ध होती थी। इसी प्रकार उन्होंने उच्च माध्यमिक विद्यालयों, कालेजों तथा छात्रवृत्ति योजनाओं की भी आलोचना की। उनके विचार से, छात्रवृत्ति योजनाएं अनचित रूप से साहित्यिक श्रेणियों के पक्ष में होती थीं, जबकि आवश्यकता थी निचली जातियों के बच्चों को प्रोत्साहन देने की। राष्ट्रवादियों ने उन उदारवादी सिद्धांतों को हमेशा सम्मान दिया था जिन पर अंग्रेजी शासन आधारित था। उन सिद्धांतों से विचलन के लिए फुले ने औपनिवेशिक नौकरशाही की आलोचना की। इस बिंदु पर फुले भी उनसे सहमत थे। बहरहाल, उन्होंने अंग्रेज तथा ब्राह्मण अधिकारियों के बीच अंतर करते हुए पहले को वरीयता दी। लेकिन उन्होंने यह बात भी सामने रखी कि अंग्रेज अधिकारी अपनी सुविधाओं के लिए ही अधिक चिंतित थे। किसानों की वास्तविक स्थिति जानने के लिए उनके पास समय ही नहीं होता था और न तो उनको किसानों की भाषा की जानकारी थी। इस प्रकार ब्राहमण अधिकारी अंग्रेज अधिकारियों को भरमाने तथा निर्धन-निरक्षर किसानों के शोषण का अवसर प्राप्त कर लेते थे। फुले शायद इस तथ्य को परिलक्षित नहीं कर पाये कि अपना प्रभूत्व बनाये रखने के लिए औपनिवेशिक शासन हमेशा उपनिवेशों के अभिजनों पर निर्भर करता था, और इसलिए उन्हें । नौकरशाहियों में समुचित स्थान देता था। फुले के जीवनी लेखक इस बात का उल्लेख करते हैं कि पना नगरपालिका के सदस्य के रूप में उन्होंने वायसराय के भारत आगमन के समय होने वाले अनावश्यक खर्चों का विरोध । करके अपूर्व साहस का परिचय दिया था। 1888 में ड्युक ऑफ कनॉट के सम्मान में पूना में एक प्रीतिभोज का आयोजन किया गया था। फले एक निर्धन किसान की वेशभूषा में वहां गये और भोज के बाद एक प्रभावशाली भाषण दिया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि देश की वास्तविक जनता गांवों में बसती है। वे जानबूझकर इस वेशभूषा में आये थे ताकि अंग्रेज अतिथि साधारण किसानों की जीवन विधि से परिचित हो सकें। उन्होंने यह भी कहा कि इन किसानों के हित में नीतियों का निर्धारण सरकार का कर्तव्य है। उनके लेखों में भी हम सरकार की उन नीतियों की आलोचना पाते हैं जो किसानों के हितों के विरुद्ध होती थीं। आर्थिक समस्याओं पर उनके विचारों की चर्चा करते समय हम इनका उल्लेख करेंगे। बोध प्रश्न 2 भारतीय समाज व्यवस्था की समीक्षा वर्ण एवं जाति-व्यवस्था पर प्रहार इन ग्रंथों की व्याख्याओं के लिए फुले समकालीन सिद्धांतों और अपनी रचनात्मकता पर निर्भर करते थे। इस प्रकार ही उनका यह विश्वास बना था कि आर्य रूप में जाने वाले ब्राह्मण कुछ हजार वर्षों पहले संभवतः ईरान से उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में आये थे। युद्ध विजेताओं, आक्रमणकारियों के रूप में आकर उन्होंने इस क्षेत्र के मूल निवासियों को पराजित किया। ब्रह्मा और परशुरामजस नेताओ के संचालन में ब्राह्मणों ने मल निवासियों के विरुद्ध दीर्घकालिक संघर्ष चलाये थे। आरंभ में वे गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में बसे और बाद में देश के अन्य भागों में फैले गये। जन समुदाय पर पूर्ण नियंत्रण रखने के लिए उन्होंने वर्ण जाति संबंधी मिथक गढ़े तथा अमानवीय-निर्मम नियमों की रचना की। पुरोहित-व्यवस्था की प्रतिष्ठा करके उन्होंने सभी कर्मकांडों में ब्राह्मणों को प्रमख स्थान दे दिया। ब्राह्मणों को ही सर्वोच्च अधिकार एवं सुविधाएं दी गई थीं। शुद्रों व अतिशुद्रों (अछूतों) को घृणा का पात्र माना गया था, न्यूनतम मानवीय अधिकार भी उनको प्राप्त नहीं थे। उनके स्पर्श अथवा उनकी काया को भी दूषित माना गया था। फुले ने हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों की पुनव्याख्या करके दिखाया कि मूल निवासियों को आयों ने पराधीन कैसे बनाया। विष्णु के नौ अवतारों को उन्होंने आर्यों के विजय अभियान की विभिन्न मंजिलों के रूप में देखा था। उस काल से ही ब्राह्मण शूद्रों व अति शूद्रों को दास बनाए हुए हैं जो पीढ़ियों से गलामी की जंजीरें ढोते आ रहे हैं। मन सरीखे अनेक ब्राह्मण रचनाकारों ने समय-समय पर जनमानस को बंदी बनाए रखने वालों श्रुति कथाओं में योगदान किया है। फुले ने ब्राह्मणों द्वारा स्थापित दासता की तुलना अमेरिका की दास प्रथा से की है और दिखाया है कि शूद्रों को अमेरिकी हस्तियों की तुलना में बहुत अधिक यातनाएं झेलनी पड़ी हैं। उनके विचार सें, स्वार्थगत अंधविश्वास एवं कट्टरता पर आधारित यह व्यवस्था ही भारतीय समाज में बाह्य जड़ता और युगों पुराने दुराचार के लिए जिम्मेदार है। अतीत में ब्राह्मण वर्चस्व का विवरण देने के बाद फुले यह बताते हैं कि उनके काल में भी चीजें बदली नहीं हैं, सिवाय इसके कि अंग्रेजों का एक अधिक प्रबुद्ध शासन स्थापित हुआ है। ब्राह्मण शूद्रों का शोषण उनके जन्म काल से मृत्यु तक करते रहे थे। धर्म की आड़ लेकर ब्राह्मणों ने शूद्रों के प्रत्येक क्रियाकलाप में हस्तक्षेप किया। ब्राह्मण एक पुरोहित के रूप में ही शदों का शोषण नहीं करते थे, बल्कि अन्य रूपों में भी। अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त स्तर के कारण प्रशासन, न्यायपालिका, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक संगठनों के पदों पर उनका एकाधिकार सा था। शहर हो या गांव, ब्राह्मण ही सर्वेसर्वा होता था। यही स्वामी और शासक होता था। गांव के पटेल की कोई हस्ती नहीं रह गई थी। बल्कि कुलकर्णी कहे जाने वाले गांव के ब्राह्मण लेखाकार ने ही समूची सत्ता हथिया ली थी। वही लोगों का इहलौकिक-आध्यात्मिक सलाहकार, महाजन और सभी मामलों में न्यायकर्ता माना जाता था। तहसील स्तर भी यही स्थितियां थीं। तहसीलवार अशिक्षित जन समुदाय को प्रताड़ित करता रहता था। फुले के अनुसार, यह विवरण प्रशासन के सब स्तरों, न्याय समितियों और सरकार के विभिन्न विभागों के लिए सच था। अंग्रेज उच्चाधिकारियों को गुमराह करते हए ब्राह्मण नौकरशाह निर्धन-निरक्षर जन समुदाय का प्रत्येक स्थिति में शोषण करते थे। यहां पर यह ध्यान देना जरूरी है कि माली-शूद्र-जाति से संबंधित फुले शूद्रों के लिए ही नहीं, बल्कि अतिशूद्रों, अछुतो के लिए भी चिंतित थे। इसीलिए उन्होंने ब्राह्मण वर्चस्व के विरुद्ध निचली जातियों और अछूतों के संगठन और समता मूलक समाज के लिए उनके प्रयास का पक्ष पोषण किया। यह आश्चर्य की बात नहीं कि डॉ. अंबेडकर, जिनके विचारों का अध्ययन आप भागे करेंगे, फुले को अपना गुरु मानते थे। महिला-पुरुष समानता बोध प्रश्न 3 भारतीय अर्थतंत्र की समस्याएं कृषि कर्म पर आश्रित आबादी की संख्या बढ़ गई थी। पूर्ववर्ती समय में किसी किसान-परिवार से कम से कम एक व्यक्ति भारत सरकार के सेना अथवा प्रशासन में नियुक्ति पाता था। छोटे भूमिखंडों के मालिक किसान अपनी आजीविका साधन निकटवर्ती वनों से फल-फूल, चारा, घास और लकड़ी इत्यादि के रूप में प्राप्त करते थे। नई सरकार ने सभी पहाड़ी क्षेत्र, घाटियां, बंजर भूमि और चारगाह अपने वन विभाग के अंतर्गत ले लिए और इस प्रकार उपरोक्त साधनों पर निर्भर किसानों का जीवन कठिन बना दिया। किसानों की आय कम हो जाने के बावजूद, अंग्रेज अधिकारियों ने जमीन की लगान दर बढ़ा दी। गांव के महाजन तथा राजस्व एवं सिंचाई विभागों और अदालतों के ब्राह्मण अधिकारी किसानों के शोषण के लिए सदा ततार थे। अत्यंत निर्धनता एवं भूमिखंडों की बिगड़ती दशा के कारण किसान ऋणग्रस्तता की स्थिति से निकल नहीं सकते थे। इन स्थितियों में महाजनों को भूमि का हस्तांतरण कर दिया जाता था। ग्रामीण अर्थतंत्र के सामने एक अन्य समस्या आई ब्रिटिश माल से अनुचित होड़ के रूप में। बड़ी मात्रा में इन सस्ते और बेहतर मालों के देश में आने से गांवों और कस्बों के स्थानीय दस्तकारों को भारी क्षति उठानी पड़ी और अनेक स्थितियों में उन्हें अपना खानदानी कारोबार बंद करना पड़ा। कुटीर उद्योगों में लगे लोगों को अपने काम से हाथ धोना पड़ा और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारों का अनुपात और बढ़ गया। कृषि-समस्या का समाधान फुले ने भारतीय समाज की अधिक समस्याओं के अनूठे बोध का परिचय दिया था। अंग्रेजी श्शासन के प्रति उनका प्रशंसात्मक दृष्टिकोण हम पहले देख चके हैं। लेकिन वे यह भी समझ चुके थे कि भारतीय अर्थतंत्र, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र, औपनिवेशिक संबंधों के अधीन किस प्रकार तहस-नहस हो रहा था। उच्च जातियों के अभिजन राष्ट्रवादियों ने दिखाया था कि भारत से इंग्लैंड की ओर किस प्रकार संपदा की निकासी हो रही थी। किसानों और निचली जातियों के दृष्टिकोण से सोचने वाले फूले संपदा-निकासी का एक अन्य रूप भी देख सके: ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों की ओर, किसान अर्थव्यवस्था से ब्राह्मण-अधीन क्षेत्रों की ओर। यह लक्षित किया जाना चाहिए कि फुले ने किसानों के अंतर्गत कोई वर्ग-विभेद नहीं किया। बोध प्रल 4 सार्वभौम धर्म फुले एकेश्वरवाद थे। ईश्वर को उन्होंने इस विश्व का रचयिता माना और सभी नर-नारियों को उसकी संतान। फुले ने मूर्ति पूजा, कर्मकांड, तपश्चर्या, भाग्यवाद तथा अवतारवाद का तिरस्कार किया। उन्होंने ईश्वर तथा उपासक के बीच कोई मध्यस्थता आवश्यक नहीं मानी। ईश्वर-निर्धारित किसी पुस्तक के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं था। ऐसा लग सकता है कि फुले का दृष्टिकोण एम.जी. रानाडे और उनके प्रार्थना समाज के विचारों जैसा ही था। लेकिन ऐसा नही है। रानाडे और उनके बीच व्यापक भिन्नता थी, अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर। रानाडे हिंदु धर्म के ढांचे के अंतर्गत ही काम करना चाहते थे। वे हिंदू परंपराओं में गर्व करते थे और उनसे अलग होने की बात उन्होंने कभी नहीं सोची। सुधारवादी कार्यकर्ताओं को वे संत-विद्रोहों तथा इतिहास में हुए उन जैसे प्रयासों की ही निरंतरता में देखते थे। इसके विपरीत, फुलै सत्य शोधक समाज को हिंदू धर्म के विकल्प के रूप में देखते थे। उनकी धारणाओं का सच्चा धर्म हिंदू परंपराओं से बिल्कुल अलग था। रानाडे जैसे सुधारकों से फुले की भिन्नता इस बात में भी सामने आई कि उन्होंने हिंदू धर्म के मिथकों तथा पवित्र ग्रंथों स्मृतियों और वेदों की आलोचनों की। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हिंदु धर्म का इतिहास वास्तव में ब्राह्मण वर्चस्व एवं शुद्र दामता का इतिहास है। तथाकथित पवित्र पोथियों में वे सच्ची धर्म चर्चा के बजाय कटिलता, क्षुद्रता और छद्म ही देखते थे। अभिजात सुधारकों ने हिंदू धर्म के समकालीन पतित स्वरूप की ही आलोचना की, जबकि फुले ने उसके मूल पर ही प्रहार किया और स्पष्ट किया कि ब्राह्मणों ने समूचे इतिहास क्रम में निचली जातियों को छला है। फुले की व्याख्या के अनुसार हिंदू धर्म कुटिल ब्राह्मणों द्वारा निचली जातियों को छलने के लिए रची गई वर्ण एवं जाति-व्यवस्था पर आधारित धर्म था। दरअसल, फुले ने प्रार्थना समाज और ब्राह्मण समाज पर कुटिल इरादों का आरोप लगाया। उनके अनुसार, ये समाज निचली जातियों से जमा किए गए राजस्व से शिक्षित बने ब्राह्मणों द्वारा स्थापित थे। इन संगठनों के क्रिया-कलापों का उद्देश्य था अपने राजनीति-प्रेरित पूर्वजों द्वारा धर्म के नाम पर बनाई गयी सामाजिक अधिरचना को छुपाना। इन संगठनों को ब्राह्मणों ने आत्म रक्षा के लिए और शूद्रों को छलने के लिए बनाया था। लेकिन हिंदुत्व/हिंदू धर्म को पूरी तरह खारिज करते हुए भी फुले ने धर्म के विचार को ही नहीं । ठुकरा दिया। इसके स्थान पर स्वतंत्रता एवं समानता के सिद्धांतों पर आधारित सार्वभौम धर्म की प्रतिष्ठा का प्रयास उन्होंने किया। उनका सत्य शोधक समाज किसी गुरु अथवा ग्रंथ की सहायता के बिना सत्य के संधान पर बल देता था। उनके धार्मिक विचार निश्चय ही ईसाई धर्म से प्रभावित थे लेकिन उन्होंने धर्मांतारण का समर्थन कभी नहीं किया क्योंकि उन पर पेन के उग्र धार्मिकतावादी तथ्यों का भी प्रभाव था, जिसने ईसाई धर्म की अनेकानेक त्रुटियों को लक्षित किया था। उनका सार्वभौम धर्म उदारतावादी और अनेक दृष्टियों से पारंपरिक धर्मों से भिन्न था। उनके धार्मिक सरोकार मुख्यतः प्राथमिक रूप से, सेक्यूलर विषयों से जुड़ते थे। फुले की परिकल्पना में एक ऐसा परिवार था, जिसके प्रत्येक सदस्य अपने-अपने धर्म का अनुसरण कर सकेंगे। इस आदर्श परिवार के अंतर्गत पत्नी बौद्ध धर्म अपना सकती है, जबकि पति ईसाई हो सकता है और बच्चे अन्य धर्मों का अनुसरण कर सकेंगे। फुले का विश्वास था कि सभी धार्मिक रचनाओं और ग्रंथों में सत्य का अंश संभव है, इसलिए उनमें से कोई एक परम सत्य का दावा नहीं कर सकता। उनका विचार था कि सरकार को हिंदू धर्म की अमानुषिक प्रथाओं और अन्यायपूर्ण परंपराओं की ओर आंख नहीं मूंद लेनी चाहिए। एक स्थान पर उन्होंने सरकार द्वारा मंदिरों को अनुदान जारी रखने की नीति की आलोचना की, क्योंकि यह धनराशि करों के रूप में निचली जातियों से ही उगाही जाती थी। इस प्रकार, जहां तक फुले की धार्मिक आस्थाओं की बात है, धर्म संबंधी मसलों पर उसमें किसी प्रकार की सांप्रदायिकता अथवा अनपेक्षित तटस्थता नहीं मिलती। बोध प्रश्न 5 सारांश शोषणमूलक समाज-व्यवस्था के स्थान पर फुले व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों पर आधारित समाज की स्थापना करना चाहते थे। हिंदू धर्म के स्थान पर एक सार्वभौम धर्म की प्रतिष्ठा ही उनका अभीष्ट था। कुछ उपयोगी
पुस्तकें ज्योतिबा फुले द्वारा स्थापित आदर्श परिवार की क्या परिभाषा?महात्मा ज्योतिबा फुले ने वर्ण, जाति और वर्ग-व्यवस्था में निहित शोषण-प्रक्रिया को एक-दूसरे का पूरक बताया। उनका कहना था कि राजसत्ता और ब्राह्मण आधिपत्य के तहत धर्मवादी सत्ता आपस में साँठ-गाँठ कर इस सामाजिक व्यवस्था और मशीनरी का उपयोग करती है।
आदर्श परिवार क्या होता है?आदर्श परिवार माने जो परिवार दैहिक, दैविक और भौतिक दु:खों से दुर है और दुसरे परिवारों को दैहिक,दैविक और भौतिक दु:खों से दुर करने के काम मे लगा हुआ है, वही परिवार आदर्श परिवार है। ऋग्वेद मे सबसे पहले यह परिभाषा आयी। ऋग्वेद के बाद उपनिषदों मे आयी, वेदों के बाद वेदांतों मे आयी।
1 ज्योतिराव फूले के मुख्य विचार क्या थे?स्वयं ज्योतिबा फुले ने देशभक्ति पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि उच्च वर्ग का देशाभिमान उनकी दृष्टि में 'अपवित्र देशाभिमान' था, क्योंकि अगर वे इस देश के सच्चे अभिमानी होते तो उनके पूर्वज अपने ग्रन्थों में अपने ही देश बांधवों को, शूद्रों को, पशु से भी नीच सिद्ध करने वाला लेखन नहीं करते।
ज्योतिबा फुले का नाम समाज सुधारकों की सूची में शुमार क्यों नहीं किया गया तर्क सहित उत्तर?ज्योतिबा फुले का नाम समाज सुधारकों की सूची में शुमार नहीं किया गया क्योंकि इसके निर्माता उस उच्चवर्गीय समाज का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसका ज्योतिबा फुले विरोध करते थे। वे हमेशा ब्राह्मण समाज में व्याप्त आडंबरों और रूढ़ियों का विरोध करते थे। वे समाज में ब्राह्मण समाज के वर्चस्व के विरोधी थे।
|