कृष्ण ने शाल्व को क्यों मारा - krshn ne shaalv ko kyon maara

प्रस्तुति : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'  मित्रों, आज हम आपको बताएंगे भगवान कृष्ण की वह कहानी, जो शायद ही आपने सुनी होगी। आप ये तो जानते होंगे कि श्रीकृष्ण को मथुरा छोड़ना पड़ी थी लेकिन कैसे, कब और यात्रा में उन्होंने किन-किन कठिनाइयों का सामना किया, यह नहीं जानते होंगे। इस दौरान वे कहां-कहां रुके और किस-किस से मिले, यह भी आप नहीं जानते होंगे। अब आप जानेंगे एक अद्भुत और रहस्यमय कहानी।>  

कंस वध के बाद मथुरा पर शक्तिशाली मगध के राजा जरासंध के आक्रमण बढ़ गए थे। मथुरा पर उस वक्त यादव राजा उग्रसेन का आधिपत्य था। श्रीकृष्ण ने सोचा, मेरे अकेले के कारण यादवों पर चारों ओर से घोर संकट पैदा हो गया है। मेरे कारण यादवों पर किसी प्रकार का संकट न हो, यह सोचकर भगवान कृष्ण ने बहुत कम उम्र में ही मथुरा को छोड़कर कहीं अन्य जगह सुरक्षित शरण लेने की सोची।

दक्षिण में यादवों के 4 राज्य थे। पहला राज्य आदिपुरुष महाराजा यदु की 4 नागकन्याओं से प्राप्त 4 पुत्रों ने स्थापित किया था। यह राज्य मुचकुन्द ने दक्षिण ऋक्षवान पर्वत के समीप बसाया था। दूसरा राज्य पद्मावत महाबलीश्वरम के पास था। यदु पुत्र पद्मवर्ण ने उसे सह्माद्रि के पठार पर वेण्या नामक नदी के तट पर बसाया था। पंचगंगा नदी के तट पर बसी करवीर नामक वेदकालीन विख्यात नगरी भी इसी राज्य के अंतर्गत आती थी। उस पर श्रंगाल नामक नागवंशीय माण्डलिक राजा का आधिपत्य था। करवीर नगरी को दक्षिण काशी कहा जाता था।

उसके दक्षिण में यदु पुत्र सारस का स्थापित किया हुआ तीसरा राज्य क्रौंचपुर था। यहां क्रौंच नामक पक्षियों की अधिकता थी इसीलिए इसे क्रौंचपुर कहा जाता था। वहां की भूमि लाल मिट्टी की और उर्वरा थी। इस राज्य को 'वनस्थली' राज्य भी कहा जाता था। चौथा राज्य यदु पुत्र हरित ने पश्‍चिमी सागर तट पर बसाया था। इन चारों राज्यों में अमात्य विपृथु ने पहले ही दूतों द्वारा संदेश भिजवाए थे कि श्रीकृष्ण पधार रहे हैं।

जरासंध को श्रीकृष्ण के पुन: मथुरा आगमन का समाचार मिल चुका था। इस बार उसने मथुरा को घेरने और कृष्ण का वध करने की बड़ी योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। जरासंध ने सौभपति शाल्व को अपना मित्र बना लिया था। शाल्व के पास अत्यंत ही तेज गति से उड़ने वाला एक विमान था जिसका नाम 'सौभ' था इसी कारण उसे सौभ्यपति कहते थे।

शाल्व की नगरी मार्तिकावती आनर्त और मरुस्थली की सीमा अर्बुद गिरि पर बसी हुई थी। पश्चिमी सीमा पार कर उसने मित्रता कायम ‍कर रखी थी। वह अपने वायुयान में बैठकर गांधार देश गया था और मथुरा पर आक्रमण करने के लिए उसने कालयवन को मना लिया था। कालयवन कुछ माह आर्यावर्त के दक्षिण देश के अजितंजय नगर में अपने पालक पिता यवनराज के साथ रहता था। यह कालयवन मथुरा के राजपुरोहित गर्ग मुनि का पुत्र था। यह बात कोई नहीं जानता था। दरअसल, अजितंजय के संतानहीन यवन राजा को पुत्र प्राप्ति का वर दिया था। कई पत्नियां होने के बावजूद उसको कोई संतान नहीं होने की बात पता चली तो गर्ग मुनि को वर देने का पछतावा हुआ। तब उन्होंने कहा कि तुम अपने पुत्र के न सही, लेकिन मेरे पुत्र के पालक पिता बनोगे। तब गर्ग मुनि ने मथुरा में ही गोपाली नामक गोप स्त्री से जन्मे अपने पुत्र को यवन राजा को सौंप दिया था।

गर्ग मुनि ने यह बात बाद में श्रीकृष्ण को बता दी। उन्होंने कहा, जब मैंने उसे सौंप दिया तो वह उन्हीं का हो गया। मेरा उससे संबंध समाप्त हो गया है। उसके विषय में कोई भी कठोर निर्णय करने का तुम्हें अधिकार है। मेरी निष्‍ठा सदैव यादवों के प्रति रही है और रहेगी। गर्ग मुनि ने अपने जीवन का सभी ज्ञान यादवों को दिया था। वे उनके आदर्श थे। 

इधर, कालयवन की सेना के साथ पूर्व से शिशुपाल और जरासंध, पश्‍चिम से शाल्व और ‍दक्षिण से भीष्मक ने मथुरा को घेरने की योजना बनाई। धीरे-धीरे मगध में दुश्मन सेनाएं एकत्रित होने लगीं। अब केवल कालयवन की सेना सहित 14 राजाओं और उनकी सेना का इंतजार था।

उधर, इस दौरान श्रीकृष्ण अमात्य विपृथु, उद्धव और दाऊ को लेकर ककुद्मिन महाराजा के पास रैवतक चले गए। उनकी सहायता से कुछ निष्णात पनडुब्बों (पानी के भीतर जहाज चलाने वाले) को साथ लिया और प्रभाष क्षेत्र में पहुंच गए। प्रभाष क्षेत्र से लेकर कुशस्थली तक के समुद्र का सूक्ष्म निरीक्षण किया। नौकाओं से समुद्र के संपूर्ण निर्जन क्षेत्र को छान मारा। परीक्षण करने के बाद रैवतक पर्वत के पास कुशस्थली के समीप एक शांत, विशाल द्वीप पर नजर गई, जहां उन्होंने शंखासुर का वध किया था। यह स्थान सभी दृष्टि से उत्तम था।

शंखोद्वार द्वीप भी समुद्र में समुद्र तट से एक योजन की दूरी पर स्थित था। आनर्त, सौराष्ट, भृगुकच्छ, मरुस्थल अवंती आदि दिशा में दूर तक सैकड़ों योजन तक मरुभूमि फैली थी। यह प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार था। इस स्थल पर श्रीकृष्ण ने एक पुरोहित के माध्यम से भूमिपूजन कराया और एक नए नगर के निर्माण की नींव रखी। बाद में मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण ने एक राजसभा को आमंत्रित किया। सभी प्रमुख यादवों की जीवनयात्रा में मथुरा में आयोजित यह अंतिम सभा थी। उस सभा में निर्णय लिया गया कि यादव एक नए नगर में वास करेंगे। उस सभा में गर्ग मुनि भी मौजूद थे। सभा के बाद सभी श्रेष्ठ इंजीनियरों को नए नगर निर्माण कार्य में जुटा दिया गया। योजनाबद्ध निर्माण कार्य की बागडोर मुनिवर गर्ग की देख-रेख में सौंपने का निर्णय लिया गया। यह भी निर्णय लिया गया कि महाराजा उग्रसेन अपनी इच्छा से इस मथुरा में ही कुछ योद्धा और सैनिकों के साथ रहेंगे लेकिन यादवों के सभी 18 कुल के परिवार सहित नए नगर में प्रस्थान करेंगे। सभी ने श्रीकृष्‍ण के इस प्रस्ताव को भाव-विभोर होकर स्वीकार कर लिया।

शाल्व शिशुपाल का परम सखा और मित्र था। रूक्मिणी के विवाह के समय जरासंध आदि राजाओं के साथ वह भी बारात आया था और यदुवंशियों के हाथों पराजित हुआ था। तभी उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह यादवों का सर्वनाश कर देगा। इस तरह प्रतिज्ञा करके वह अपनी शक्ति वृद्धि के लिए भगवान आशुतोष शिव जी की तपस्या करने लगा।


भगवान आशुतोष शिव जी उसकी मंशा भली भांति जानते थे इसलिए उन्होंने एक वर्ष तक शाल्व की घोर तपस्या पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन अंततः उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वर मांगने को कहा। उस समय शाल्व ने वरदान में एक ऐसा विमान मांगा जो देवता, नर, असुर, गंधर्व,नाग, मनुष्य आदि किसी से तोड़ा न जा सके। जहां इच्छा हो जा सके तथा यदुवंशियों के लिए अत्यंत ही भयानक हो। भगवान ने उसे ऐसा ही वरदान दे दिया। तब मय दानव ने भगवान शिव की आज्ञा से लोहे का सौभ नामक विमान बनाकर शाल्व को दे दिया। वह विमान क्या , एक नगर ही था। उसे पकड़ना तो दूर , उसे देख पाना असंभव था।  शाल्व उसे पाकर बहुत खुश हुआ। उसने द्वारका पर चढ़ाई कर दिया। 


शाल्व द्वारका के महलों और उपवन को नष्ट करने लगा। उस समय श्रीकृष्ण अपने पूज्य भाई बलराम जी के साथ इंद्रप्रस्थ में थे। इस समय उनके पुत्र प्रद्युम्न जी द्वारका की सुरक्षा में तैनात थे। उन्होंने बड़ी वीरता से शाल्व का सामना किया।  बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। मय दानव का बनाया रथ ऐसा मायावी था कि कहना ही क्या ? कभी अनेक रूप में दीखता तो कभी गायब हो जाता। यादवों की सेना त्राहि त्राहि कर रही थी। कभी प्रद्युम्न की बाणों से शाल्व मूर्छित हो जाता तो कभी शाल्व की बाणों से प्रद्युम्न। 


युद्धिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हो चुका था और शिशुपाल भी मारा गया था। श्रीकृष्ण को लगा कि बड़े बड़े अपशकुन हो रहे हैं। उन्होंने द्वारका आने का निश्चय किया। द्वारका पहुंचकर उन्होंने देखा कि यहां भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ है। उन्होंने महाबली बलराम जी को नगर की सुरक्षा का जिम्मा देकर अपने सारथी दारूक से कहा -- " दारूक ! शाल्व बड़ा मायावी है , फिर भी तुम घबराना नहीं। मेरा रथ उसके सामने ले चलो। "


श्रीकृष्ण को देखते ही यादव सेना में उत्साह की लहर दौड़ गई। यह देखकर शाल्व ने एक जबरदस्त शक्ति श्रीकृष्ण के सारथी पर छोड़ा। उसके प्रभाव से सारी दिशाएं चमक उठी। शक्ति को अपने सारथी की ओर बढ़ते देखकर श्री कृष्ण उसे अपने बाण से बीच में ही नष्ट कर दिया।

अब शाल्व श्री कृष्ण की ओर लपका। भगवान श्री कृष्ण के गदा के प्रहार से वह खून की उल्टियां करने लगा।  लेकिन पलक झपकते ही वह अंतर्धान हो गया। उसने अपनी माया से मायापति श्री कृष्ण को दिग्भ्रमित करने का प्रयास किया लेकिन उस मूढ़ को यह पता नहीं था कि मायापति श्री कृष्ण को कौन भ्रमित कर सकता है ?  अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अपने चक्र सुदर्शन से उसका गर्दन काट दिया। और उसे परमधाम भेज दिया।

शाल्व की मृत्यु कैसे हुई?

उसका क्रोध देखकर ही धृष्टद्युम्न रथ से नीचे कूद गया तथा अपनी गदा उठाकर मारी, जिससे हाथी का मस्तक विदीर्ण हो गया, तभी सात्यकि ने एक तीखे मल्ल से शाल्व का सिर काट दिया।

शाल्व ने भीष्म से युद्ध क्यों किया?

सौभदेश का राजा शाल्व बड़ा वीर था । काशिराज की सबसे बड़ी कन्या अंबा उस पर अनुरुक्त थी और उसको मन-ही-मन अपना पति मान चुकी थी । शाल्व ने भीष्म के रथ का पीछा किया और उसको रोकने का प्रयत्न किया। इस पर भीष्म और शाल्व के बीच घोर युद्ध छिड़ गया ।

राजा शाल्व कौन था?

शाल्व, वृषपर्वा के छोटे भाई अजक के अंश से उत्पन्न मार्तिकावत का क्षत्रिय नरेश था। काशिराज की पुत्री अंबा ने इसे मन ही मन अपना पति चुन लिया था। स्वयंवर के समय यह भीष्म से पराजित हुआ। भीष्म से आज्ञा लेकर आई हुई अंबा का इसने परित्याग किया।

महाभारत में शल्य कौन था?

दरअसल, महाभारत के शल्य माद्री के भाई और नकुल और सहदेव के मामा थे. वह मद्र राज्य के राजा थे. महारथी शल्य को एक बेहतरीन गदाधारी के रूप में जाना जाता था. दरअसल, महाभारत के शल्य माद्री के भाई और नकुल और सहदेव के मामा थे.