कवि के अनुसार सब से भयानक स्थिति क्या है *? - kavi ke anusaar sab se bhayaanak sthiti kya hai *?

दोस्तों आज की पोस्ट में आपको सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (Suryakant tripathi nirala) के बारें में महत्वपूर्ण जानकारी मिलेगी ,जो आपके किसी भी एग्जाम में उपयोगी हो सकती है ,अगर आपको ये जानकारी अच्छी लगे तो इसे शेयर जरुर करें  

  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला'(suryakant tripathi nirala)
    • प्रमुख रचनाएँ –
      • रचनाओं के संबंध में विशेष तथ्य -(Suryakant Tripathi Nirala in Hindi)
    • प्रथम संस्मरण प्रकाशन वर्ष   
    • द्वितीय संस्मरण प्रकाशन वर्ष
    • Suryakant Tripathi Nirala in Hindi
    • 7. तुलसीदास (1938 ई.) –
    • 10. कुकुरमुत्ता (1942 ई.) –
      • कवि के संबंध में अन्य तथ्य –
    • डॉ. नगेन्द्र  जीवन परिचय देखें 
      • रामनरेश त्रिपाठी जीवन परिचय  देखें 
        •  सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता –
        • सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के उपन्यास –
        • सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि
        • प्रगति चेतना
        • मुक्त छंद
        • सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की पंक्तियाँ(Suryakant tripathi nirala poems in hindi)
      • चतुरी चमार कहानी (Chaturi Chamar)
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      • सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 
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      • सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

कवि के अनुसार सब से भयानक स्थिति क्या है *? - kavi ke anusaar sab se bhayaanak sthiti kya hai *?

कवि के अनुसार सब से भयानक स्थिति क्या है *? - kavi ke anusaar sab se bhayaanak sthiti kya hai *?

जन्मकाल – 1899 ई.
जन्मस्थान – महिषादल राज्य (बंगाल)
निवास – गढ़ाकोला (बंगाल)
मृत्युकाल – 1961 ई.
पिता – रामसहाय त्रिपाठी
पत्नी – मनोरमा देवी
पुत्री – सरोज
बचपन का नाम – सूर्य कुमार
दर्शन – अद्वैतवाद

अब हम इनकी रचनाओं के बारें में पढेंगे ,रचनाओं को कालक्रम से बताया गया है

प्रमुख रचनाएँ –

अनामिका – 1923 ई. नये पत्ते – 1946 ई. सरोज स्मृति – 1935 ई.
परिमल – 1930 ई. बेला – 1946 ई. चतुरी चमार
गीतिका – 1936 ई. अर्चना – 1950 ई. राग-विराग
तुलसीदास – 1938 ई. आराधना – 1953 ई. गर्म पकौङी
अणिमा – 1943 ई. गीत गुंज – 1954 ई. रानी और कानी
कुकुरमुत्ता – 1948 ई. राम की शक्ति पूजा – 1936 ई. स्फटिक शिला

नोट:- रामविलास शर्मा के मतानुसार इनकी सर्वप्रथम कविता ’भारत माता की वंदना’ (1920 ई.) मानी जाती है।

रचनाओं के संबंध में विशेष तथ्य -(Suryakant Tripathi Nirala in Hindi)

1. इनकी ’अनामिका’ एवं ’गीत-गुंज’ रचनाओं के दो-दो संस्मरण प्रकाशित हुए हैं।

प्रथम संस्मरण प्रकाशन वर्ष   

अनामिका           1923 ई.
गीत-गुंज             1954 ई.

द्वितीय संस्मरण प्रकाशन वर्ष

अनामिका                     1938 ई.

गीत-गुंज                       1959 ई.

2. निराला का प्रथम काव्य-संग्रह ’अनामिका’ (1923 ई.) एवं अंतिम काव्य-संग्रह ’सांध्यकाकली’ (1969 ई.) है, जो इनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ।

3. ’अनामिका’ एवं ’परिमल’ कविता संग्रहों में इनकी प्रकृति-प्रेम, सौन्दर्य चित्रण एवं रहस्यवाद संबंधी कविताओं को संकलित किया गया है।

4. ’परिमल’काव्य संग्रह में इनकी निम्न प्रसिद्ध कविताओं को संगृहीत किया गया है –

1. जुही की कली 2. संध्या-सुंदरी 3. बादल-राग
4. विधवा 5. भिक्षुक 6. दीन
7. बहू 8. अधिवास 9. पंचवटी प्रसंग

Suryakant Tripathi Nirala in Hindi

नोट:-’परिमल’ में छायावाद के साथ-साथ प्रगतिवाद के तत्व भी विद्यमान हैं।

5. ’जूही की कली’ कविता में प्रकृति के माध्यम से मानवीय वासनाओं की अभिव्यक्ति अत्यंत प्रभावोत्पादक रूप में हुई है।

6. ’गीतिका’ रचना में कवि ने अपनी भावनाओं को संगीत के स्वरों में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है।

विषयवस्तु की दृष्टि से इसके गीतों को निम्न चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है –

  • स्तुतिपरक या प्रार्थनापरक गीत
  • नारी सौन्दर्य संबंधी गीत
  • प्रकृति संबंधी गीत
  •  विचार प्रधान गीत

7. तुलसीदास (1938 ई.) –

यह निराला जी का श्रेष्ठ प्रबंधात्मक काव्य है। इसमें कवि ने गोस्वामी तुलसीदास के माध्यम से भारतीय परम्परा के गौरवशाली मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रयास किया है। इसमें तुलसीदास द्वारा अपनी पत्नी ’रत्नावली’ से मिलने के लिए उसके पीहर (नैहर) चले जाने एवं पत्नी द्वारा फटकार लगाये जाने पर गृहस्थ-जीवन को त्याग कर रामोपासना में लीन होने की घटना का वर्णन किया गया है। इसी रचना के लेखन के कारण यह माना जाता है कि ये ’तुलसीदास’ को अपना सर्वप्रिय कवि मानते थे।

8. सरोज स्मृति (1935 ई.)- यह एक शोक गीत है जिसे कवि ने अपनी 18 वर्षीय पुत्री सरोज की करुण-स्मृति में लिखा था। इसे हिन्दी साहित्य संसार का सर्वाधिक प्रसिद्ध शोकगीत कहा जाता है। इसमें वात्सल्य एवं करुण दोनों रसों का अद्भुत सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है।

9. राम की शक्ति पूजा (1936 ई.) – यह एक लघु प्रबंधात्मक काव्य है, जिसमें निराला का ओज अपनी पूर्ण शक्ति के साथ प्रस्फुटित हुआ है। इस रचना पर ’कृतिवास रामायण’ का प्रभाव दृष्टिगोचर होती है। यह शक्तिकाव्य जिजीविषा एवं राष्ट्रीय चेतना की कविता है।

10. कुकुरमुत्ता (1942 ई.) –

इसमें कवि ने पूँजीवादियों पर तीखा व्यंग्य किया है। इसमें कवि ने संस्कृत शब्दावली का प्रयोग नहीं करके ’उर्दू’ व ’अंग्रेजी’ के शब्दों का प्रचुर प्रयोग किया है। इसमें कवि ने सर्वहारा वर्ग की प्रशंसा और धनवानों की घोर निंदा की है।

11. अणिमा – इसमें तीन प्रकार के गीत संगृहीत हैं –

1. भक्ति प्रधान

2. विषादमूलक

3. विचारपरक
इसमें कवि का दृष्टिकोण अधिक यथार्थवादी और शैली अधिक सरल है।

12. नये पत्ते – इसमें कवि की सात व्यंग्य प्रधान कविताओं का संग्रह किया गया है।

कवि के संबंध में अन्य तथ्य –

⇒ हिन्दी साहित्य जगत् में निराला के लिए ’महाप्राण’ शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। गंगाप्रसाद पाण्डेय ’महाप्राण निराला’ आलोचना पुस्तक लिखकर यह नाम प्रदान किया था।

⇒ ये हिन्दी कविता को छंदों की परिधि से मुक्त करने वाले कवि माने जाते हैं, अर्थात् इनको ’मुक्तक छंद का प्रवर्तक’ भी कहा जाता है।
नोट – मुक्तक छंद को ’केंचुआ’ या ’रबर’ छंद भी कहते हैं।

⇒ इनको छायावाद, प्रगतिवाद इन तीनों आंदोलनों का पथ-प्रदर्शक भी कहा जाता है।

⇒ ये छायावाद के ’रुद्र (महेश)’ माने जाते हैं।

डॉ. नगेन्द्र  जीवन परिचय देखें 

⇒ डाॅ. रामविलास शर्मा ने इनको ’ओज एवं औदात्य का कवि’ कहा है।

⇔ ये विवेकानंद जी को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे।

⇒ इन्होंने ’मतवाला’ एवं ’समन्वय’ नामक दो पत्रों का संपादन कार्य भी किया था।

⇔ द्विवेदीकालीन कवियों में इनको सर्वाधिक विरोध का सामना करना पङा था।

प्रसिद्ध ऐतिहासिक लेख

’भावों की भिङन्त’ यह लेख बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ द्वारा संपादित ’प्रभा’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें यह सिद्ध किया गया था कि निराला की बहुत-सी कविताएँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं की नकल हैं। इस लेख ने तत्कालीन साहित्य जगत् में हलचल मचा दी थी।

⇔ ’रविवार’ को जन्म लेने के कारण सर्वप्रथम इनका मूल नाम ’सूर्यकुमार’ रखा गया था, जिसे सन् 1917-18 ई. में बदलकर इन्होने ’सूर्यकान्त’ कर दिया।

रामनरेश त्रिपाठी जीवन परिचय  देखें 

⇒ निराला ’परिमल’ की भूमिका में लिखते हैं –

’मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंद के शासन से अलग हो जाना।’

⇔ निराला ने ’कवित्त’ को ’हिन्दी का जातीय छंद’ कहा है।

⇒ निराला को ’ओज एवं औदात्य’ का कवि माना जाता है। इनकी तुलना अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैन से की जाती है।

⇔ निराला को छायावाद का ’श्लाका पुरुष’ भी कहा जाता है।

⇒ आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने निराला को ’शताब्दी का कवि’ कहा है।

⇔ डाॅ. नामवर सिंह ने निराला की कविता को ’शताब्दी का काव्य’ कहा है।

 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता –

1. ’बादल राग’ 5. ’वर दे’
2. ’संध्या सुंदरी’ 6. ’सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’
3. ’यमुना के प्रति’ 7. तोङती पत्थर’।
4. ’वर दे वीणा वादिनी’  

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के उपन्यास –

अप्सरा (1931 ई.) प्रभावती (1936 ई.)
अलका (1933 ई.) चोटी की पकङ
निरूपमा (1936 ई.) काले कारनामे (1950 ई.)

सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि

छायावादी चतुष्टयी में निराला अपना विशिष्ट स्थान रखते है। इस तरह की कविता, हर तरह के भाव, विषयानुसार भाषा में रचित किये गये है। निराला को विविधताओं का कवि कहा जाता है। रामस्वरूप चतुर्वेदी की सम्मति में, ’’ आधुनिक युग के सर्वाधिक मौलिक क्षमता से संपन्न कवि है।

इसका प्रमाण कवि का रचनात्मक वैविध्य स्वयं प्रस्तुत करता है। भाषा और संवदेना के जितने रंग और स्तर निराला में है, उतने किसी अन्य में नहीं।’’ ’जुही की कली’ से लेकर मृत्यु विषयक उनकी अंतिम कविताओं तक निराला का कवि बराबर बोला है।

निराला कृत रचनाओं में आक्रोश एवं विद्रोह की प्रवृति है। जिसे निराला के श्रेष्ठ आलोचक डाॅ. रामविलास शर्मा ने ’ओज’ और ’औदात्य’ कहा है। जीवन परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से निराला उद्बुध, सचेत, जागरूक कवि के रूप में स्थापित हुये। समाज की विषमताओं, शोषण, अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध वे जीवन पर्यन्त संघर्षरत रहे। मानवीय पीङा ने उन्हें उद्वेलित किया।

पूंजीवादी समाज की विषमता के कारण उनके हृदय में गहन वेदना, टीस एवं छटपटाहट अनुभूत होती थी। सामाजिक आर्थिक विषमता के विरुद्ध वे प्रभावी आवाज उठाते है। उनके काव्य का मूल स्वर विद्रोह भावना एवं क्रांति से युक्त है। सामाजिक विषमता के कारण मानव कितनी दयनीय स्थिति में है इसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार की है-

’’चाट रहे झूठी पत्तल वे कभी सङक पर खङे हुए।
और झपट लेने को उनसे कुत्त भी है अङे हुए।’’

’बादल राग’ कविता में निराला बादल से विनति करता है कि वह विश्व के धनिक वर्ग पर अपने प्रचंउ वज्र घोष से आतंक स्थापित करे और विप्लवकारी गर्जना करें।

’फिर-फिर गर्जन
वर्षण है मूसलाधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र हुंकार।’ – बादल राग

निराला उक्त कविता के प्रति भी संवदेना व्यक्त करता है। बादलों का आह्वान कर कवि कहता है कि हे वीरो! तुम इन दीन हीन किसानों की पुकार को सुनकर यहाँ विप्लव मचाने के लिए अवश्य पधारों यथा-

जीर्ण-बाहु, है शीर्ण-शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!

’’चूस लिया है उसका सार/हाङ मात्र ही है आधार/ऐ जीवन के पारावार!’’

कवि की इन क्रांतिकारी भावनाओं से यह प्रतीत होता है कि संवेदनशील निराला समाज में से सामाजिक विषमता की दूर कर समाज में समानता का भाव व्याप्त करना चाहते है। ’कुकुरमुत्ता’ कविता में निराला पूंजीपतियों को उनकी असली हैसियत बताते है। निराला प्रतीकात्मक शैली में अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से इस प्रकार व्यक्त करते है-

’’अबे सुन वे गुलाब।
भूल मत, जो पाई खूश्बू रंगो आब।
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपेलिस्ट।’’     -कुकुरमुत्ता

निराला की काव्यसृजना में सामाजिक विषमता के प्रति तीव्र आक्रोश व्यक्त है। ’भिक्षुक’, ’वह तोङती पत्थर’ सदृश कविताएं असहाय अशक्त जनों के प्रति, श्रमशीला युवती के प्रति रचते है।

’देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिननतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं ;
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
’मै तोङी पत्थर।’         – तोङती पत्थर

निराला एक ऐसे समाज की सृजना में रत है जहां शोषण का नाम न हो, अन्याय एवं अत्याचार का बोलबाला न हो। समता, स्वतंत्रता, न्याय, भ्रातृभाव हो। विषमता समाप्त हो। निराला अपनी सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि के कारण एक ’विधवा’ को ’इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी’ कहते है और भारत की दलितता के साथ विधवा को देखते है।

निराला ओज एवएं औदात्य के कवि है। भारत की परतंत्रता के प्रति वे जनता को जागरूक करना अपना परम कर्तव्य मानते है उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। निरालाकृत ’जागो फिर एक बार’, ’शिवाजी का पत्र’ आदि कविताओं में ऐसे भाव व्यंजित है। यथा-

उगे अरूणा चल में रवि
आई भारती रति कवि-कंठ में
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रकृति-पर,

गया दिन, आई रात/ गई रात, खुला दिन,। ऐसे ही संसार बीते दिन पक्ष, मास

वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!

डाॅ. भागीरथ मिश्र के शब्दों में ’’निराला की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीयता का रंग विद्यमान मिलेगा।’’ अपेन ऐतिहासिक सांस्कृतिक गौरव का गान करते हुए उन्होनें राष्ट्रीय भावों को पल्लवित किया। ’मातृ वंदना’, नामक कविता में व्यक्त किया है कि-

’’जीवन के रथ पर चढ कर,
सदा मृत्यु-पथ पर बढ कर,
महाकाल के खरतर शह सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर;
जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रु-जल धौत विमल,
दृग-जल से पा बल, बलि कर दूँ।’’

इस प्रकार निराला की सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि उनकी कविताओं में फलित है। उनकी कविता में राष्ट्रीय चेतना, राजनैतिक चेतना सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के रूप में व्यक्त हुई है। दलित, शोषित सभी के प्रति अपनी संवेदन दृष्टि व्यक्त करते है।

प्रगति चेतना

निराला के सम्पूर्ण काव्य में उपेक्षित दलित के उन्नयन और जन साधारण की प्रतिष्ठा के प्रति गहरी आस्था के दर्शन होते है। निराला किसी विचारधारा से प्रेरित होकर किसी समय विशेष में उपेक्षित के प्रति अपनी सहानुभूति को अभिव्यक्ति नहीं किया, इसका प्रमाण उनका काव्य स्वयं है। उनकी रचना यात्रा को जिस स्वच्छंदतावादी और यथार्थवादी खांचों में बांटा जाता है, उनकी चेतना के बीच अतः संबंधों का एक सिलसिला है। जिस तरह पश्चिम के स्वच्छंतावादी कवि वायरन, कीट्स, वडर््सवर्थ और शैली यातनाग्रस्त मानव के पक्षधर रहे है, उसी तरह निराला भी अपने पूर्ववर्ती काव्य में इसी पक्षधरता का स्थान-सस्थान पर परिचय देते है-

वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता
वह क्रूर काल तांडव की स्मृति-रेखा सी
वह टूटे तरू की घुटी लता-सी दीन
दलित भारत की विधवा है
देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार कोई नहीं।

निराला की ’बादलराग’ कविता और ’तोङती पत्थर’ कविता में हम देखते है कि निराला यातनाग्रस्त मानवता के पक्षधर होकर अन्यायी और आततायी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाते हैं-

जीर्णबाहु है क्षीण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर।।

निराला के स्वच्छंदवादिता चेतनापरक काव्य की यह प्रगतिशील परिणति है। दरअसल अपने दुख दर्दों के अहसास की उपेक्षा नहीं की। स्वयं के मनोभावों की कविता प्रत्यक्षतः व्यक्ति के होने से जन विरोधी नहीं हो जाती, बशर्ते कि वे मनोभाव जनता के बीच में रह कर स्वाभाविक हुए है। निराला की परवर्ती कविता में महान ’मनुष्य सत्य’ से हमारा साक्षात्कार होता है।

इस दौर की कविता में छायावाद ऊँचाई से उतरकर यथार्थवादी जमीन पर आयी है। ’कुकुरमुत्ता’ की रचना से निराला के भावबोध में गुणात्मक परिवर्तन आता है। रचना प्रक्रिया के उस दौर में जो खिचङी ’कुकुरमुत्ता’ के रूप में तैयार हुई वह अभी अधकचरी और कसरी है। लेकिन समकालीन यथार्थ की जो खिचङी ’अणिमा’, ’बेला’, ’नये पत्ते’ की रचनाओं के रूप में रही, वही उस युग की सबसे ताजी कविता थी।

खुला भेद विजय भी कहा हुए जो
लहू दूसरों का पिये जा रहे है
आज अमीरों की हवेली होगी किसानों की पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली खोलेंगे अंधेरे का ताला
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर सभ्यता के नाम पर।।

इन परवर्ती कविताओं में सवाल एक नयी काव्य भाषा की तलाश और उपलब्धि का नही था। एक नया कंटेंट अभिव्यक्ति के लिए कस-मसा रहा था। यह नया मनुष्य सत्य कोई अनायास उपलब्धि नहीं थी जीवन से जुङे हुए यातनाग्रस्त मनुष्यों के पक्षधर रचनाकार की सक्रिय साहित्य साधना और जीवन पद्धति की यह एक तार्किक परिणति थी। ’कुकुरमुत्ता’ से लेकर ’नये पत्ते’ की रचनाओं में ’देवी सरस्वती’ निराला की ’प्रगतिशील संरचना धार्मिकता’ की सर्वोत्तम उपलब्धि है।

’नये पत्ते’ की कई कविताएं निराला के सम्पूर्ण काव्य और चरित्र में विद्यमान है। इस चरित्र निष्ठा का आधार एक ओर तो ’सत्य’ है। यथार्थ सामान्य का कोई भावुक-सा सन्दर्भ नहीं, जिसकी चर्चा काव्य और काव्य लोचन में प्रगतिशील आन्दोलन के दौरान बहुत अधिक मिलती है। दूसरी और उस यथार्थ की काव्यात्मक परिणति है। निश्चय ही काव्यात्मकक परिणति की यह शर्त छायावादी काव्य की अभिजात संस्थाओं से भिन्न और सर्वथा नहीं है। इस तरह सामान्य की प्रतिष्ठा की इस उत्कृष्ट लालसा और प्रतिज्ञाबद्धता से निराला सर्वथा नयी काव्य-शैली नये काव्य मान और एक अभूतपूर्व कविता का उद्घाटन हिन्दी में करते हुए दिखाई देते है।

’बन्दी गृह वरण किया
जना हृदय जिया।’

यह पंक्ति सम्पूर्ण रूप में उनके व्यक्तित्व की उस निष्ठा और आत्मशीलता तथा अहं से रहित पवित्रता और विवशता व्यक्त करती है, जिसके फलस्वरूप निराला अपनी कविता में बार-बार ’उपेक्षित’ के प्रश्न से टकराते है। निराला सचमुच में जनता के कवित है, जनता का हृदय रखने वाले व्यक्ति की काव्य चेतना जनता की स्थिति से निर्मित हुई है। व्यवहारिक और रचनात्मक दोनों स्तरों पर वे जनता के साथ रहे। अपने दुःख दर्द को व्यापक रूप से जनता से जोङकर देखना, निराला की अद्वितीय विशेषता है।

मुक्त छंद

मनुष्यों के मुक्ति की तरह निराला की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है। कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है। इसने कविता को तुक, मात्रा आदि बंधनों से मुक्त किया। मगर लय का पूर्ण निर्वाह किया गया है। निराला ने कविता को छन्द के बंधन से मुक्त किया। मुक्त छंद की कविताएँ- जागो फिर एक बार, बादल राग, कुकुरमुत्ता आदि है।

छायावादी कवि निराला ने अपनी पहचान अलग से बनाने के लिए चली आ रही रूढ़िबद्ध छंद परम्परा का निषेध कर, नूतन छंद का आविष्कार किया। छायावाद काल में कवियों के पास नये-नये विचार थे तो उन नवीन विचारों के अभिव्यंजन हेतु नये छंदों की आवश्यकता हुई। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सम्मति में इस प्रकार कहा कि, ’’नये छंद नये मनोभावों को जन्म देता है।’’

निराला के छंद निर्माण के संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा कि, ’’छंद के संदर्भ में निराला का विद्रोह अधिक स्पष्ट और मुखर दिखता है। छंद-विधान के अनेक पक्षों में निराला की रूचि आरंभ से रही। एक ओर उनकी चिंता थी कि उनके लिखे हुए खङी बोली के गीत सामान्यजन और कलावंतों के होंठों पर वैसे ही बस जाएं जैसे अब तक ब्रजभाषा में रचे गए ख्याल के बोल और पदों की स्थिति रही है। दूसरी और पारंपरित छंद को तोङकर उसे नये ढंग से बनाने में उनका विशेष ध्यान रहा। मुक्त दंद को यहाँ उन्होंने जातीय मुक्ति के व्यापक संदर्भ से जोङा। तीसरी ओर छंद-विधान के आंतरिक स्वरूप को नये-नये ढंग से व्यवस्थित करने की मन में तीव्र उत्सुकता थी।’’

नेमिचंद्र जैन ने कहा कि, ’’इस प्रकार नई अनुभूतियों, भावनाओं, कल्पना-चित्रों तथा नवीन परिस्थितियों की अभिव्यक्ति करने के लिए नये-नये माध्यमों की भाषा, छंद और शेली के नये रूपों की खोज होने लगी।’’ मुक्तछंद के प्रवर्तक माना जाता है, यद्यपि उसके पीछे कोई मनोवैज्ञानिक आधार ढूढना अत्यंत कठिन है।’’

निरालाकृत मुक्त छंद को आज जो इतना महत्व दिया जाता है, वही प्रारंभ में ’केंचुआ’ अथवा ’रबङ’ छंद के उपहासास्पद नामों से अभिहित हुआ था। मुक्त छंद वह है, जिसके चरणों की संख्या और विस्तार पूर्व अनिश्चित एवं स्वतंत्र रहते है, केवल लयाधार आद्योपांत एक सा रहता है अर्थात् मुक्त छंद का आधार मात्रा, वर्ण, तुक कुछ भी नहीं केवल ’लय’ है। निराला मुक्त छंद को भी छंद की भूमि में मानते है, चाहे उसमें वर्ण, मात्रा, गण सभी का ध्यान रखा गया हो।

’परिमल’ की भूमिका में उन्होंने लिखा भी है, ऊपर जितने प्रकार के अतुकांत काव्य के उदाहरण दिये गये है, सब एक-एक सीमा में बँधे है, एक-एक प्रधान नियम सब में पाया जाता है। गण वृत्तों में गणों की शृंखला, मात्रिक वृत्तों में मात्राओं का साम्य, वर्णवृत्तों में अक्षरों की समानता रहती है। कहीं भी इस नियम का उल्लंघन नहीं किया गया। इस प्रकर के दृढ़ नियमों से बँधी हुई कविता कदापि मुक्त नहीं हो सकती।

मुक्त छंद तो वह है जो छंद की भूमि में रहकर भी मुक्त है, इस पुस्तक के तीसरे खंड में जितनी कविताएं है सब इसी प्रकार की है।’’ ’लय’ काव्य का प्राण है। ’’छंद एक धारणा है और लय एक संवेदना है।’’ पंत ने कहा कि, ’कविता का स्वभाव ही छंद में लयमान होता है।’’

निराला जी ने घनाक्षरी अथवा कवित्त को ही मुक्त छंद का आधार माना है। निराला ने कहा कि, ’’हिन्दी में मुक्त काव्य कवित छंद की बुनियाद पर सफल हो सकता है। कारण, यह छंद चिरकाल से इसी जाति का कंठहार हो रहा है। दूसरे, इस छंद में विशेष गुण यह भी है कि इसे लोग चैताल आदि खङी तालों में तथा ठुमरी की तीन तालों में सफलतापूर्वक गा सकते है और नाटक आदि के समय इसे काफी प्रवाह के साथ पढ़ सकते है।’’ इस प्रकार निराला ने मुक्त छंद का आरंभ ’विजन-वल-वल्लरी’ से मुङ कर अंत तक किया। बहुत कठिन छंद से तुलसीदास नामक शतक काव्य की रचना की यथा-

दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह सन्धया-सुंदरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे,
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास
मधुर-मधुर है दोनों उसके अधर,

किन्तु गभीर, नहीं है उनमें हास-विलास। संध्या सुंदरी के अलावा सबसे कठिन छंद तुलसीदास में-

’’जागा, जागा संस्कार, प्रबल,
रे गया काम तत्क्षण वह जल,
देखा, वामा, वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;
इस ओर ज्ञान, न उस ओर ज्ञान,
हो गया भस्म वह प्रथम मान,
छूटा जग का जो रहा ध्यान, जाङिया वह।’’

वहीं राम की शक्ति पूजा में-

’’शत-शेल-सम्वरण-शील नील-नभ गर्जित-स्वर,
प्रतिफल-परिवर्तित व्यूह, भेद-कौशल, समूह-’’

अंततः कह सकते है कि निराला ने मुक्तछंद प्रणीत करते समय अनेकशः प्रयोग किए है। ’जुही की कली’ में प्रयुक्त मुक्त छंद, जागो फिर एक बार, बादल राग, शेफालिका, बेला, कुकुरमुत्ता में प्रयुक्त छंद पूववर्ती छंद से इतर है। निराला के यहाँ छंद के बंध खुल गये।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की पंक्तियाँ(Suryakant tripathi nirala poems in hindi)

’दुख ही जीवन की कथा रही। ’

’जीर्ण बाहु है, शीर्ण शरीर, तुझे बुलाता कृषक,
अधीर ए विप्लव के वीर।’

’देश काल के शर से बिंध कर
यह जागा कवि अशेष छवि धर।’

’’अमिय गरल शशि सीकर रविकर, राग-विराग भरा प्याला।
पीते हैं जो साधक, उनका प्यारा है मतवाला।।’’

’लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर।’

’ये कान्यकुब्ज कुल कुलांगार, खाकर पत्तल में करें छेद,
उनके कर कन्या अर्थ खेद।’

’ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’।

’धिक जीवन जो पाता ही आया विरोध’।

इनकी एक कहानी पढने का भी आनंद लेवें 

चतुरी चमार कहानी (Chaturi Chamar)

चतुरी चमार डाकखाना चमियानी मौजा गढ़कला, उन्नाव का एक कदीमी बाशिंदा है। मेरे नहीं, मेरे पिताजी के बल्कि उनके पूर्वजों के भी मकान के पिछवाडे़ कुछ फासले पर, जहाँ से होकर कई और मकानों के नीचे और ऊपरवाले पनालों का, बरसात और दिन-रात का शुद्धाशुद्ध जल बहता है। ढाल से कुछ ऊँचे एक बगल चतुरी चमार का पुश्तैनी मकान है। मेरी इच्छा होती है, चतुरी के लिए गौरवे बहुवचनम् लिखूँ, क्योंकि साधारण लोगों के जीवनचरित या ऐसे ही कुछ लिखने के लिए सुप्रसिद्ध संपादक पं. बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा दिया हुआ आचार्य द्विवेदीजी का प्रोत्साहन पढ़कर मेरी श्रद्धा बहुत बढ़ गई है, पर एक अड़चन है, गाँव के रिश्ते में चतुरी मेरा भतीजा लगता है।

दूसरों के लिए वह श्रद्धेय अवश्य है, क्योंकि अपने उपानह-साहित्य में आजकल के अधिकांश साहित्यिकों की तरह अपरिवर्तनवादी है। वैसे ही देहात में दूर-दूर तक उसके मजबूत जूतों की तारीफ है। पासी हफ्ते में तीन दिन हिरन, चौगड़े और बनैले सुअर खदेड़कर फाँसते हैं। किसान अरहर की ठूँठियों पर ढोर भगाते हुए दौड़ाते हैं-कँटीली झाड़ियों को दबाकर चले जाते हैं।

छोकड़े बेल, बबूल, करील और बेर के काँटों से भरे रुँधवाए बागों से सरपट भागते हैं, लोग जेंगरे पर मड़नी करते हैं, द्वारिका नाई न्योता बाँटता हुआ दो साल में दो हजार कोस से ज्यादा चलता है। चतुरी के जूते अपरिवर्तनवाद के चुस्त रूपक जैसे टस-से-मस नहीं होते। यह जरूर है कि चतुरी के जूते जिला बाँदा के जूतों से वजन में हल्के बैठते हैं; संभव है, चित्रकूट के इर्द-गिर्द होने के कारण वहाँ के चर्मकार भाइयों पर रामजी की तपस्या का प्रभाव पड़ा हो, इसलिए उनका साहित्य ज्यादा ठास हुआ; चतुरी वगैरह लखनऊ के नजदीक होने के कारण नवाबों के साये में आए हों।

Suryakant Tripathi Nirala in Hindi

उन दिनों मैं गाँव में रहता था। घर बगल में होने के कारण बैठे हुए ही मालूम कर लिया कि चतुरी चतुर्वेदी आदिकों से संत-साहित्य का अधिक मर्मज्ञ है। केवल चिट्ठी लिखने का ज्ञान न होने के कारण एक क्रिय होकर भी भिन्न फल है-वे पत्र और पुस्तकों के संपादक हैं, यह जूतों का। एक रोज मैंने चतुरी आदि के लिए चरस मँगवाकर अपने ही दरवाजे बैठक लगवाई। चतुरी उम्र में मेरे चाचाजी से कुछ छोटा होगा, कई घरों के लड़के-बच्चे समेत ‘चरस-रसिक रघुपति-पद-नेहू’ लोध आदि के सहयोग से मजीरेदार डफलियाँ लेकर वह रात आठ बजे आकर डट गया।

कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, पल्टूदास आदि ज्ञात-अज्ञात अनेकानेक संतों के भजन होने लगे। पहले मैं निर्गुण शब्द का केवल अर्थ लिया करता था; लोगों को ‘निर्गुण पद है’ कहकर संगीत की प्रशंसा करते हुए सुनकर हँसता था; अब गंभीर हो जाया करता हूँ-जैसे उम्र की बाढ़ के साथ अक्ल बढ़ती है! मैं मचिया पर बैठकर भजन सुनने लगा।

चतुरी आचार्य-कंठ से लोगों को भूले पदों की याद दिला दिया करता। मुझे मालूम हुआ, चतुरी कबीर-पदावली का विशेषज्ञ है। मुझसे उसने कहा, ‘काका, ये निर्गुण-पद बडे़-बडे़ विद्वान् नहीं समझते।’ फिर शायद मुझे भी उन्हीं विद्वानों की कोटि में शुमार कर बोला, ‘इस पद का मतलब?’ मैंने उतरे गले से बात काटकर उभड़ते हुए कहा, ‘चतुरी, आज गा लो, कल सुबह आकर मतलब समझाना।

मतलब से गाने की तलब चली जाएगी।’ चतुरी खखारकर गंभीर हो गया। फिर उसी तरह डिक्टेट करता रहा। बीच-बीच में ओजस्विता लाने के लिए चरस की पुट चलती रही। गाने में मुझे बड़ा आनंद आया। ताल पर तालियाँ देकर मैंने भी सहयोग किया।

वे लोग ऊँचे दरजे के उन गीतों का मतलब समझते थे, उनकी नीचता पर यह एक आश्चर्य मेरे साथ रहा। बहुत से गाने आलंकारिक थे। वे उनका भी मतलब समझते थे।
रात तक मैं बैठा रहा। मुझे मालूम न था कि ‘भगत’ कराने के अर्थ रातभर गँवाने के हैं। तब तक आधी चरस भी खत्म न हुई थी। नींद ने जोर मारा। मैंने चतुरी से चलने की आज्ञा माँगी। चरस की ओर देखते हुए उसने कहा, ‘काका, फिर कैसे काम बनेगा?’ मैंने कहा, ‘चतुरी, तुम्हारी काकी तो भगवान् के यहाँ चली गई, जानते ही हो, भोजन अपने हाथ पकाना पड़ता है, कोई दूसरा मदद के लिए है नहीं, जरा आराम न करेंगे तो कल उठ न पाएँगे।’

चतुरी नाराज होकर बोला, ‘तुम ब्याह करते ही नहीं, नहीं तो तेरह काकी आ जाएँ, हाँ वैसी तो।’ मैंने कहा, ‘चतुरी, भगवान् की इच्छा।’ दुःखी हृदय से सहानुभूति दिखलाते हुए चतुरी ने कहा, ‘काकी बहुत पढ़ी-लिखी थीं। मैंने हसार को कई चिट्ठियाँ उनसे लिखवाई हैं।’ फिर चलती हुई चिलम में दम लगाकर धुआँ पीकर, सिर नीचे की ओर जोर से दबाकर नाक से धुवाँ निकालकर बैठे गले से बोला, ‘काकी रोटी भी करती थीं, बरतन भी मलती थीं और रामायण भी पढ़ती थीं।

बड़ा अच्छा गाती थीं काका, तुम वैसा नहीं गाते। बुढ़ऊ बाबा, (मेरे चाचा) दरवाजे बैठते थे-भीतर काकी रामायण पढ़ती थीं। गजलें और न जाने क्या-क्या टिल्लाना गाती थीं-क्यों काका?’ मैंने कहा, ‘हूँ! तुम लोग चतुरी गाओ, मैं दरवाजा बंद करके सुनता हूँ।’

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

जगने तक भगत होती रही। फिर कब बंद हुई, मालूम नहीं। जब आँख खुली तब काफी दिन चढ़ आया था। मुँह धोकर दरवाजा खोला, चतुरी बैठा एकटक दरवाजे की ओर देख रहा था। कबीर पदावली का अर्थ उससे किसी ने नहीं सुना। मैंने सुबह सुनने के लिए कहा था, वह आया हुआ है। मैंने कहा, ‘क्यों चतुरी, रात सोए नहीं?’ चतुरी सहज-गंभीर मुद्रा से बोला, ‘सोकर जगे तो बड़ी देर हुई, बुलाने की वजह से आया हुआ हूँ।’ जिनमें शक्ति होती है, अवैतनिक शिक्षक वही हो सकते हैं। मैंने कहा, ‘मैं तैयार हूँ, पहले तुम कबीर साहब की कोई उल्टबासी को सीधी करो।’ ‘कौन सुनाऊँ?’ चतुरी ने कहा, ‘एक-से-एक बढ़कर हैं।

मैं कबीरपंथी हूँ न काका, जहाँ गिरह लगती है, साहब आप खोल देते हैं।’ मैंने कहा, ‘तुम पहुँचे हुए हो, यह मुझे कल ही मालूम हो गया था।’ चतुरी आँख मूँदकर शायद साहब का ध्यान करने लगा, फिर सस्वर एक पद गुनगुनाकर गाने लगा, फिर एक-एक कड़ी गाकर अर्थ समझाने लगा। उसके अर्थ में अनर्थ पैदा करना आनंद खोना था। जब वह भाष्य पूरा कर चुका, जिस तरह के भाष्य से हिंदीवालों पर ‘कल्याण’ के निरामिष लेखों का प्रभाव पड़ सकता है, मैंने कहा, ‘चतुरी, तुम पढे़-लिखे होते तो पाँच सौ की जगह पाते।’

खुश होकर चतुरी बोला, ‘काका, कहो तो अर्जुनवा (चतुरी का एक सत्रह साल का लड़का) को पढ़ाने के लिए भेज दिया करूँ तुम्हारे पास, पढ़ जाएगा, तुम्हारी विद्या ले लेगा, मैं भी अपनी दे दूँगा; तो कहो, भगवान् की इच्छा हो जाए तो कुछ हो जाए।’ मैंने कहा, ‘भेज दिया करो। दीया घर से लेकर आया करे। हमारे पास एक ही लालटेन है।

बहुत नजदीक घिचेगा तो गाँववाले चौंकेंगे। आगे देखा जाएगा। लेकिन गुरु-दक्षिणा हम रोज लेंगे। घबराओ मत। सिर्फ बाजार से हमारे लिए गोश्त ले आना होगा और महीने में दो दिन चक्की से आटा पिसवा लाना होगा। इसकी मेहनत हम देंगे। बाजार तुम जाते ही हो।’ चतुरी को इस सहयोग से बड़ी खुशी हुई।

Suryakant Tripathi Nirala in Hindi

एक प्रसंग पर आने के विचार से मैंने कहा, ‘चतुरी, तुम्हारे जूते की बड़ी तारीफ है।’ खुश होकर चतुरी बोला, ‘हाँ काका, दो साल चलता है।’ उसमें एक दर्द भी दबा था। दुखी होकर कहा, ‘काका, जिमीदार के सिपाही को एक जोड़ा हर साल देना पड़ता है। एक जोड़ा भगवता देता है। एक जोड़ा पंचमा। जब मेरा ही जोड़ा मजे में दो साल चलता है तब ज्यादा लेकर कोई चमड़े की बरबादी क्यों करे?’ कहकर डबडबाई आँखों से देखता हुआ जुड़े हाथों सेवई सी बटने लगा।

मुझे सहानुभूति के साथ हँसी आ गई। मगर हँसी को होंठों से बाहर न आने दिया। सँभलकर स्नेह से कहा, ‘चतुरी, इसका वाजिबउल-अर्ज में पता लगाना होगा। अगर तुम्हारा जूता देना अर्ज होगा तो इसी तरह पुश्त-दर-पुश्त तुम्हें जूते देते रहने पड़ेंगे।’

चतुरी सोचकर मुसकराया। बोला, ‘अब्दुल अर्ज में दर्ज होगा, क्यों काका?’ मैंने कहा, ‘देख लो, सिर्फ एक रुपया हक लगेगा।’
वक्त बहुत हो गया था। मुझे काम था। चतुरी को मैंने विदा किया। वह गंभीर होकर सिर हिलाता हुआ चला गया। मैं उसके मनोविकार पढ़ने लगा, ‘वह एक ऐसे जाल में फँसा है, जिसे वह काटना चाहता है। भीतर से उसका पूरा जोर उभर रहा है। जिसमें बार-बार उलझकर रह जाता है।’
अर्जुन का आना जारी हो गया। उन दिनों बाहर मुझे कोई काम न था, देहात में रहना पड़ा। गोश्त आने लगा। समय-समय पर लोध, पासी, धोबी और चमारों का ब्रह्मभोज भी चलता रहा। घृतपक्व मसालेदार मांस की खुशबू से जिसकी भी लार टपकी, आप ही निमंत्रित होने को पूछा। इस तरह मेरा मकान साधारण जनों का अड्डा, बल्कि हाउस ऑफ कॉमन्स हो गया।

अर्जुन की पढ़ाई उत्तरोत्तर बढ़ चली। पहले-पहले जब दादा, मामा, काका, दीदी, नानी उसने सीखा तो हर्ष में उसके माँ-बाप सम्राट् पद पाए हुए को छापकर छलके। सब लोग आपस में कहने लगे, अब अर्जुनवा ‘दादा-दादी’ पढ़ गया। अर्जुन अपने बाप चतुरी को दादा और माँ को दीदी कहता था। दूसरे दिन उसके बडे़ भाई ने मुझसे शिकायत की, कहा, ‘बाबा, अर्जुनवा और तो सब लिख-पढ़ लेता है, पर भैया नहीं लिखता।’ मैंने समझाया कि किताब में दादी-दादा से भैया की इज्जत बहुत ज्यादा है; भैया तक पहुँचने में उसे दो महीने की देर होगी।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

धीरे-धीरे आम पकने के दिन आए। अर्जुन अब दूसरी किताब समाप्त कर अपने खानदान में विशेष प्रतिष्ठित हो चला। कुछ नाजुक मिजाज भी हो गया। मोटा काम न होता था। आम खिलाने के विचार से मैं अपने चिरंजीव को लिवा लाने के लिए ससुराल चला गया। तब उसकी उम्र ९-१० साल की होगी। सोयम या चहर्रुम में पढ़ता था। मेरे यहाँ उसके मनोरंजन की चीज न थी। कोई स्त्री भी न थी, जिसके प्यार से वह बहला रहता। पर दो-चार दिन के बाद मैंने देखा कि वह ऊबा नहीं, अर्जुन से उसकी गहरी दोस्ती हो गई है। मैं अर्जुन के बाप के जैसा, वह भी अर्जुन का काका लगता था।

यद्यपि उम्र में उससे पौने दो पट था, फिर भी पद और पढ़ाई में मेरे चिरंजीव बडे़ थे, फिर यह ब्राह्मण के लड़के भी थे। अर्जुन को नई और इतनी बड़ी उम्र में उतने छोटे से काका को श्रद्धा देते हुए प्रकृति के विरुद्ध दबना पड़ता था। इसका असर अर्जुन के स्वास्थ्य पर तीन-चार दिन में ही प्रत्यक्ष हो चला। तब मुझे कुछ मालूम न था। अर्जुन शिकायत न करता था। मैं देखता था।

जब मैं डाकखाना या बाहर गाँव से लौटता हूँ, मेरे चिरंजीव अर्जुन के यहाँ होते हैं या घर ही पर उसे घेरकर पढ़ाते रहते हैं। चमारों के टोले में गोस्वामीजी के इस कथन को-‘मनहु मत्त गजगन निरखि-सिंह किसोरहिं चोप’, वह कई बार सार्थक करते देख पडे़। मैं ब्राह्मण-संस्कारों की सब बातों को समझ गया। पर उसे उपदेश क्या देता? चमार दबेंगे, ब्राह्मण दबाएँगे। दवा है, दोनों की जड़ें मार दी जाएँ, पर सहज-साध्य नहीं। सोचकर चुप हो गया।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

मैं अर्जुन को पढ़ाता था तो स्नेह देकर उसे अपनी ही तरह का एक आदमी समझकर, उसके उच्चारण की त्रुटियों को पार करता हुआ। उसकी कमजोरियों की दरारें भविष्य में भर जाएँगी, ऐसा विचार रखता था। इसलिए उसमें कहाँ-कहाँ प्रमाद है, यह मुझे याद भी न था। पर मेरे चिरंजीव ने चार ही दिन में अर्जुन की सारी कमजोरियों का पता लगा लिया, और समय-असमय उसे घर बुलाकर (मेरी गैर-हाजिरी में) उन्हीं कमजोरियों के रास्ते उसकी जीभ को दौड़ाते हुए अपना मनोरंजन करने लगे, मुझे बाद में मालूम हुआ।

सोमवार मियाँगंज के बाजार का दिन था। गोश्त के पैसे मैंने चतुरी को दे दिए थे। डाकखाना तब मगरायर था। वहाँ से बाजार नजदीक है। मैं डाकखाने से निबंध भेजने के लिए टिकट लेकर टहलता हुआ बाजार गया। चतुरी जूते की दुकान लिये बैठा था। मैंने कहा, ‘कालिका (धोबी) भैया आए हुए हैं। चतुरी हमारा गोश्त उनके हाथ भेज देना। तुम बाजार उठने पर जाओगे, देर होगी।’ चतुरी ने कहा, ‘काका, एक बात है, अर्जुनवा तुमसे कहता डरता है, मैं घर आकर कहूँगा।

बुरा न मानना लड़कों की बात का।’ ‘अच्छा’, कहकर मैंने बहुत कुछ सोच लिया। बकर-कसाई के सलाम का उत्तर देकर बादाम और ठंडई लेने के लिए बनियों की तरफ गया। बाजार में मुझे पहचाननेवाले न पहचाननेवालों को मेरी विशेषता से परिचित करा रहे थे-चारों ओर से आँखें उठी हुई थीं, ताज्जुब यह था कि अगर ऐसा आदमी है तो मांस खाना जैसा घृणित पाप क्यों करता है। मुझे क्षणमात्र में यह सब समझ लेने का काफी अभ्यास हो गया था।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

गुरुमुख ब्राह्मण आदि मेरे घडे़ का पानी छोड़ चुके थे। गाँव तथा पड़ोस के लड़के अपने-अपने भक्तिमान पिता-पितामहों को समझा चुके थे कि बाबा मैं कहते हैं, मैं पानी-पाँड़े थोडे़ ही हूँ, जो ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे सबको पानी पिलाता फिरूँ। इससे लोग नाराज हो गए थे।

साहित्य की तरह समाज में भी दूर-दूर तक मेरी तारीफ फैल चुकी थी-विशेष रूप से जब एक दिन वलायत की रोटी-पार्टी की तारीफ करनेवाले एक देहाती स्वामीजी को मैंने कबाब खाकर काबुल में प्रचार करनेवाले रामचंद्रजी के वक्त के एक ऋषि की कथा सुनाई, और मुझसे सुनकर वहीं गाँव के बाह्मणों के सामने बीड़ी पीने के लिए प्रचार करके भी मुझे नीचा नहीं दिखा सके-उन दिनों भाग्यवश मिले हुए अपने आवारागर्द नौकर से बीड़ी लेकर, सबके सामने दीयासलाई लगाकर मैंने समझा दिया कि तुम्हारा इस जूठे धुएँ से बढ़कर मेरे पास दूसरा महत्त्व नहीं।

Suryakant Tripathi Nirala in Hindi

मैं इन आश्चर्य की आँखों के भीतर बादाम और ठंडई लेकर जरा रीढ़ सीधी करने को हुआ कि एक बुड्ढे पंडितजी एक देहाती भाई के साथ मेरी ओर बढ़ते नजर आए। मैंने सोचा, शायद कुछ उपदेश होगा। पंडितजी सारी शिकायत पीकर मधु-मुख हो, अपने प्रदर्शक से बोले, ‘आप ही हैं?’ उसने कहा, ‘हाँ, यही हैं।’ पंडितजी देखकर गद्गद हो गए। बोढ़ी उठाकर बोले, ‘ओहो हो! आप धन्य हैं।’ मैंने मन में कहा, ‘नहीं, मैं धन्य हूँ, मजाक करता है खूसट।’ पर गौर से उनका पग्गड़ और खौर देखकर कहा, ‘प्रणाम करता हूँ पंडितजी।’ पंडितजी मारे प्रेम के संज्ञा खो बैठे। मेरा प्रणाम मामूली प्रणाम नहीं, बडे़ भाग्य से मिलता है।

मैं खड़ा पंडितजी को देखता रहा। पंडितजी ने अपने देहाती साथी से पूछा, ‘आप बे-में सब पास हैं?’ उनका साथी अत्यंत गंभीर होकर बोला, ‘हाँ, जिला में दूसरा नहीं है।’ होंठ काटकर मैंने कहा, ‘पंडितजी, रास्ते में दो नाले और एक नदी पड़ती है। भेड़िए लागन हैं। डंडा नहीं लाया। आज्ञा हो तो चलूँ-शाम हो रही है।’ पंडितजी स्नेह से देखने लगे। जो शिकायत उन्होंने सुनी थी। आँखों में उस पर संदेह था; दृष्टि कह रही थी, ‘यह वैसा नहीं, जरूर गोश्त न खाता होगा। बीड़ी न पी होगी। लोग पाजी हैं।’ प्रणाम करके, आशीर्वाद लेकर मैंने घर का रास्ता पकड़ा।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

दरवाजे पर आकर रुक गया। भीतर बातचीत चल रही थी। प्रकाश कुछ-कुछ था। सूर्य डूब रहा था। मेरे पुत्र की आवाज आई, ‘बोल रे बोल!’ इस वीर रस का अर्थ मैं समझ गया। अर्जुन बोलता हुआ हार चुका था। पर चिरंजीव को रस मिलने के कारण बुलाते हुए हार न हुई थी। चूँकि बार-बार बोलना पड़ता था, इसलिए अर्जुन बोलने से ऊबकर चुप था। डाँटकर पूछा गया तो सिर्फ कहा, ‘क्या?’
‘वही गुण बोल।’
अर्जुन ने कहा, ‘गुड़।’
बच्चे के अट्टहास से घर गूँज उठा। भरपेट हँसकर, स्थिर होकर फिर उसने आज्ञा की, ‘बोल गणेश।’
रोनी आवाज में अर्जुन ने कहा, ‘गडे़श।’ खिलखिलाकर, हँसकर, चिरंजीव ने डाँटकर कहा, ‘गड़ास-गड़ास करता है, साफ नहीं कहना आता-क्यों रे, रोज दातौन करता है?’

अर्जुन अप्रतिभ होकर दबी आवाज में एक छोटी सी ‘हूँ’ करके, सिर झुकाकर रह गया। मैं दरवाजा धीरे से ढकेलकर भीतर खंभे की आड़ से देख रहा था। मेरे चिरंजीव उसे उसी तरह देख रहे थे जैसे गोरे कालों को देखते हैं। जरा देर चुप रहकर फिर आज्ञा की, ‘बोल वर्ण।’
अर्जुन की जान आ पड़ी। मुझे हँसी भी आई, गुस्सा भी लगा। निश्चय हुआ, अब अर्जुन से विद्या का धनुष नहीं उठने का। अर्जुन वर्ण के उच्चारण में विवर्ण हो रहा था।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

तरह-तरह से मुँह बनाने का आनंद लेकर चिरंजीव ने फिर डाँटा, ‘बोलता है या लगाऊँ झापड़। नहा लूँगा, गरमी तो है।’
मैंने सोचा, अब प्रकट होना चाहिए। मुझे देखकर अर्जुन खड़ा हो गया और आँखें मल-मलकर रोने लगा। मैंने पुत्र-रत्न से कहा, ‘कान पकड़कर उठो-बैठो दस दफे।’ उसने नजर बदलकर कहा, ‘मेरा कुसूर कुछ नहीं और मैं यों ही कान पकड़कर उठूँ-बैठूँ?’ मैंने कहा, ‘तुम इससे गुस्ताखी कर रहे थे।

’ उसने कहा, ‘तो आपने भी की होगी। इससे ‘गुण’ कहला दीजिए। आपने पढ़ाया तो है, इसकी किताब में लिखा है।’ मैंने कहा, ‘तुम हँसते क्यों थे?’ उसने कहा, ‘क्या मैं जान-बूझकर हँसता था?’ मैंने कहा, ‘अब आज से तुम इससे बोल न सकोगे।’ लड़के ने जबाव दिया, ‘मुझे मामा के यहाँ छोड़ आइए।

यहाँ डाल के आम खट्टे होते हैं, थोपी होती है, मुँह फदक जाता है, वहाँ पाल के आम आते हैं।’
चिरंजीव को नाई के साथ भेजकर मैंने अर्जुन और चतुरी को सांत्वना दी।
कुछ महीने और मुझे गाँव में रहना पड़ा। अर्जुन कुछ पढ़ गया। शहरों की हवा मैंने बहुत दिनों से न खाई थी-कलकत्ता, बनारस, प्रयाग आदि का सफर करते हुए लखनऊ में डेरा डाला-स्वीकृत किताबें छपवाने के विचार से। कुछ काम लखनऊ में और मिल गया। अमीनाबाद होटल में एक कमरा लेकर निश्चिंत चित्त से साहित्य साधना करने लगा।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

इन्हीं दिनों देश में आंदोलन जोरों का चला-यही, जो चतुरी आदिकों के कारण फिस्स हो गया है। होटल में रहकर, देहात से आनेवाले शहरी युवक मित्रों से सुना करता था, गढ़ाकोला में भी आंदोलन जोरों पर है, छह-सात सौ तक का जो किसान लोग इस्तीफा देकर छोड़ चुके हैं, वह जमीन अभी तक नहीं उठी। किसान रोज इकट्ठा होकर झंडा गीत गाया करते हैं। सालभर बाद जब आंदोलन में प्रतिक्रिया हुई; जमींदारों ने दावा करना और रियाया को बिना किसी रियायत के दबाना शुरू किया, तब गाँव के नेता मेरे पास मदद के लिए आए, बोले, ‘गाँव में चलकर लिखो। तुम रहोगे तो मार न पडे़गी, लोगों को हिम्मत रहेगी।

अब सख्ती हो रही है।’ मैंने कहा, ‘मैं कुछ पुलिस तो हूँ नहीं, जो तुम्हारी रक्षा करूँगा, फिर मार खाकर चुपचाप रहनेवाला धैर्य मुझमें बहुत थोड़ा है। कहीं ऐसा न हो कि शक्ति का दुरुपयोग हो।’ गाँव के नेता ने कहा, ‘तुम्हें कुछ करना तो है नहीं, बस बैठे रहना है।’ मैं गया।
मेरे गाँव की कांग्रेस ऐसी थी कि जिले के साथ उसका कोई तअल्लुक न था-किसी खाते में वहाँ के लोगों के नाम दर्ज न थे। पर काम में पुरवा डिवीजन में उससे आगे दूसरा गाँव न था। मेरे जाने के बाद पता नहीं कितनी दरख्वास्तें तो जमींदार साहब ने इधर-उधर लिखीं।

कच्चे रंगों से रँगा तिरंगा झंडा महावीर स्वामी के सामने एक बड़े बाँस में गड़ा, बारिश से घुलकर धवल हो रहा था। इन दिनों मुकदमेबाजी और तहकीकात जोरों से चल रही थी। कुछ किसानों पर एक साल के हरी-भूसे को तीन साल का बाकी बनाकर, जमींदार साहब ने दावे दायर किए थे, जो अपनी क्षुद्रता के कारण जमींदार ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट के पास आकर किसानों की दृष्टि में और भयानक हो रहे थे। एक दिन दरख्वास्तों के फलस्वरूप शायद दरोगाजी तहकीकात करने आए।

मैं मगरायर डाक देखने जा रहा था। बाहर निकला तो लोगों ने कहा, ‘दारोगाजी आए हैं, अभी रहो।’ आगे दरोगाजी भी मिल गए। जमींदार साहब ने मेरी तरफ दिखाकर अंग्रेजी में धीरे से कुछ कहा। तब मैं कुछ दूर था, सुना नहीं। गाँववाले समझे नहीं, दरोगाजी झंडे की तरफ जा रहे थे।

Suryakant Tripathi Nirala in Hindi

जमींदार शायद उखड़वा देने के इरादे से लिये जा रहे थे। महावीरजी के अहाते में झंडा देखकर दरोगाजी कुछ सोचने लगे, बोले, ‘यह तो मंदिर का झंडा है।’ देखा, उसमें कोई रंग न दीख पड़ा। जमींदार साहब को गौर से देखते हुए लौटकर डेरे की तरफ चले। जमींदार साहब ने बहुत समझाया कि यह बारिश से धुलकर सफेद हो गया है।

लेकिन है यह कांग्रेस का झंडा। पर दरोगाजी बुद्धिमान थे। महावीरजी के अहाते में सफेद झंडे को उखड़वाकर वीरता प्रदर्शित करने की आज्ञा न दी। गाँव में कांग्रेस है, इसका पता न सब-डिवीजन में लगा, न जिले में; थानेदार साहब करें क्या?

उन दिनों मुझे उन्निद्र रोग था। इसलिए सिर के बाल साफ थे। मैंने सोचा कि वेश का अभाव है तो भाषा को प्रभावशाली करना चाहिए; नहीं तो थानेदार साहब पर अच्छी छाप न पड़ेगी। वहाँ तो महावीर स्वामी की कृपा रही, यहाँ अपनी ही सरस्वती का सहारा है।

मैं ठेठ देहाती हो रहा था। थानेदार साहब ने मुझसे पूछा, ‘आप कांग्रेस में हैं?’ मैंने सोचा, ‘इस समय राष्ट्रभाषा से राजभाषा का बढ़कर महत्त्व होगा।’ कहा, ‘मैं तो विश्व सभा का सदस्य हूँ।’ इस सभा का नाम भी थानेदार साहब ने न सुना था। पूछा, ‘यह कौन सी सभा है?’ उनके जिज्ञासा भाव पर गंभीर होकर, नोबुल पुरस्कार पाए हुए कुछ लोगों के नाम गिनाकर मैंने कहा, ‘ये सब उसी सभा के सदस्य हैं।’

थानेदार साहब क्या समझे; वह जानें। मुझसे पूछा, ‘इस गाँव में कांग्रेस है?’ मैंने सोचा, ‘युधिष्ठिर की तरह सत्य की रक्षा करूँ तो असत्य-भाषण का पाप न लगेगा।’ कहा, ‘कहाँ इस गाँव के लोग तो कांग्रेस का मतलब भी नहीं जानते।’ इतना कहके मैंने सोचा, ‘अब ज्यादा बातचीत ठीक न होगी।’ उठकर खड़ा हो गया और थानेदार साहब ने कहा, ‘अच्छा, मैं चलता हूँ, जरा डाकखाने में काम है।

चिट्ठीरसा हफ्ते में दो ही दिन गश्त पर आता है। मेरी जरूरी चिट्ठियाँ होती हैं और रजिस्ट्री, अखबार, मासिक पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं, फिर उस गाँव में हम लोगों की लाइब्रेरी भी है, जाना पड़ता है।’ थानेदार साहब ने पूछा, ‘कांग्रेस की चिट्ठियाँ आती हैं।’ मैंने कहा, ‘नहीं मेरी अपनी।’ मैं चला आया। थानेदार साहब जमींदार साहब से शायद नाराज होकर गए।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

इससे तो बचाव हुआ, पर मुकदमा चलता रहा। जमींदार ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट ने, जिनके एक रिश्तेदार जमींदार की तरफ से वकील थे, किसानों पर जमींदार को डिग्री दे दी। बाद में चतुरी वगैरह की बारी आई। दबे दायर हो गए, अब तक जो सम्मिलित धन मुकदमों में लग रहा था, सब खर्च हो गया। पहले की डिग्री में कुछ लोगों के बैल वगैरह नीलाम कर लिये गए। लोग घबरा गए। चतुरी को मदद की आशा न रही। गाँववालों ने चतुरी आदि के लिए दोबारा चंदा न लगाया।
चतुरी सूखकर मेरे सामने आकर खड़ा हुआ। मैंने कहा, ‘चतुरी, मैं शक्ति भर तुम्हारी मदद करूँगा।’
‘तुम कहाँ तक मदद करोगे, काका?’ चतुरी जैसे कुएँ में डूबता हुआ उभरा।
‘तो तुम्हारा क्या इरादा है?’ उसे देखते हुए मैंने पूछा।

‘मुकदमा लड़ूँगा। पर गाँववाले डर गए हैं, गवाही न देंगे।’ दिल से बैठा हुआ चतुरी बोला। उस परिस्थिति पर मुझे भी निराशा हुई। उसी स्वर से मैंने पूछा, ‘फिर चतुरी?’
चतुरी बोला, ‘फिर छिदनी-पिरकिया आदि मालिक ही ले लें।’
मैंने गाँव में कुछ पक्के गवाह ठीक कर दिए। सत्तू बाँधकर, रेल छोड़कर पैदल दस कोस उन्नाव चलकर, दूसरी पेशी के बाद पैदल ही लौटकर हँसता हुआ चतुरी बोला, ‘काका, जूता और पुर वाली बात अब्दुल-अर्ज मे दर्ज नहीं है।’

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कवि के अनुसार भयानक स्थिति क्या है?

प्रश्न (ग) कवि के अनुसार सबसे भयानक स्थिति क्या है ? उत्तरः सबसे भयानक स्थिति यह है कि सब कुछ होते हुए भी अर्थात् मैदान, घर के आँगन, पुस्तकें आदि होते हुए भी बच्चे उनका प्रयोग नहीं कर पा रहे क्योंकि उन्हें काम पर जाना है।

कवि ने हमारे समय की भयानक पंक्ति किसे कहा है और क्यों?

खेलने कूदने और शिक्षा हासिल करने की उम्र में बच्चे यदि काम पर जाएंगे तो उनका बचपन नष्ट हो जाएगा और वह उनका विकास सही रूप से नहीं हो पाएगा। बच्चे देश का भविष्य होते हैं, यदि देश का भविष्य ही कमजोर होगा तो देश के विकास की नींव भी कमजोर हो जाएगी। इसलिए कवि ने समय की भयानक पंक्ति बच्चों के काम पर जाने को कहा है।

भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना चाहिए कवि ने ऐसा क्यों कहा है?

Answer: प्रश्न (ख) इसे विवरण की तरह लिखा जाना क्यों भयानक है ? उत्तरः इसे विवरण की तरह लिखा जाना भयानक है, क्योंकि इससे यह महसूस होता है कि इस ज्वलंत समस्या पर समाज उदासीन है। अतः समाज को जागृत करने के लिए इसे सवाल की तरह लिखा जाना चाहिए था।

बच्चों के काम पर जाने की स्थिति देश और समाज के लिए भयानक कैसे हैं?

मेरे विचार से बच्चों को काम पर इसलिए नहीं भेजा जाना चाहिए क्योंकि इससे बच्चों का बचपन नष्ट होता है। वे जीवन भर के लिए मजदूर बनकर रह जाते हैंबच्चों का काम पर जाना समाज के माथे पर कलंक है। इस कलंक से बचने के लिए बच्चों से बाल मजदूरी नहीं करवानी चाहिए।