मुगल काल की परिभाषा क्या है? - mugal kaal kee paribhaasha kya hai?

मुगलकाल में शासकों के साथ साम्राज्य की आय एक समान न होकर सदा घटती-बढ़ती रहती थी। अकबर और उसके उŸाराधिकारी के दरबारी इतिहास उनके काल की घटनाओं का विस्तृत वर्णन देते है, किन्तु उन्होंने न तो विभिन्न करों से होने वाली आय को अलग-अलग बताया है और न विभिन्न वर्षों की अपेक्षित तथा वास्तविक आय के ही आँकड़े दिए हैं। फिर भी उन्होंने जो सूचना दी है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अकबर की वार्षिक आय साढे़ तेरह करोड़, शाहजहाँ की साढे़  22 करोड़ तथा औरंगजेब की 48 करोड़ थी।

मुगल साम्राज्य की आय के साधन

यह आय अनेक साधनों से होती थी किन्तु भूमिकर उनमें मुख्य था और संभवतः उससे उनकी प्रायः दो तिहाई आय होती थी। आय के साधन निम्नलिखित थे:-

1. जकात- जो केवल मुसलमानों से लिया जाता था और जो उनकी आय का 1/40 होता था। निर्धन लोगों से ज़कात नहीं माँगा जाता था। इस आय से प्राप्त धन केवल धार्मिक कार्यों तथा सार्वजनिक हित के कार्यों में व्यय किया जा सकता था। इसका उपयोग केवल मुसलमानों के हित में ही किया जाता था।

2. आयात तथा निर्यात-कर -यह विदेशों से आने वाली तथा विदेशों को जाने वाली वस्तुओं पर लगाया जाता था। मुसलमानों से वस्तु की मूल्य का 2.5 प्रतिशत तथा हिन्दुओं से 5 प्रतिशत लिया जाता था। सन् 1667 में औरंगजेब ने मुसलमानों को इस कर से मुक्त कर दिया था। जब यह शिकायत की गयी कि मुसलमान लोग हिन्दुओं से रिश्वत लेकर उनका सामान अपना कह कर बिना चुंगी दिए निकलवा देते है, तब सम्राट ने मुसलमानों से फिर आयात-निर्यात कर लेना आरंभ कर दिया किन्तु यद्यपि हिन्दुओं से 5 प्रतिशत लिया जाता था मुसलमान केवल 2.5 प्रतिशत ही देते थे। 

3. नमक-कर-पंजाब के पहाड़ों और राजपूताना की साँभर झील पर सम्राट का एकाधिकार था। वहाँ के नमक से जो आय होती थी उस पर केवल केन्द्रीय सरकार का अधिकार रहता था और उनकी बिक्री से भी राज्य को आय होती थी।

4. खनिज पदार्थों पर कर-कुछ खानों पर राज्य का सीधा अधिकार था। अन्य खानों पर आय का 1/5 कर लगाया जाता था। इसे खम्स कहते थे। गड़े हुए धन तथा लूट के सामान में भी जो भाग सरकार को मिलता था उसे भी खम्स कहते थे।

5. निजी व्यापार-राज्य के अपने अधिकार में 100 से अधिक कारखाने थे। इन कारखानों में इत्र, सुंदर वस्त्र, शृंगार का सामान, युद्ध-सामग्री, उपहार के योग्य वस्तुएँ, सुंदर फर्नीचर आदि तैयार होते थे। प्रधानतः उनके सामान की खपत राजमहल तथा राजदरबार में ही होती थी। परन्तु यदि कोई अतिरिक्त सामान बचता तो वह खरीददारों को बेच दिया जाता था। इससे भी आय होती थी।

6. सिक्कों का निर्माण-टकसाल से भी राज्य को कुछ आय होती थी, क्योंकि सिक्कों में कुछ मिलावट रहती थी। परन्तु बहुधा सिक्के ढालने का कार्य सुनारों को ठेके पर दे दिया जाता था। इसलिए इस मद से भी अधिक आय न होती रही होगी।

7. जजिया-सुलतानों के समय में हिन्दुओं से बराबर जजि़या लिया जाता था, केवल अलाउद्दीन के विषय में एक विद्वान ने कहा है कि संभव है उसने इसे माफ कर दिया हो। बाबर और हुमायूँ के समय में यह बराबर लिया जाता था। अकबर के समय मे भी सन् 1564 तक यह कर लिया जाता था। परन्तु उस वर्ष से सम्राट ने इसे बंद कर दिया। इसके बाद 115 वर्ष तक बंद रहने के बाद सन् 1679 में औरंगजेब ने इसे फिर लगा दिया और उसने इसकी वसूली के लिए पृथक कर्मचारी नियुक्त किए, किन्तु संभवतः इससे अधिक आय कभी नहीं हुई और देहाती क्षेत्रों से शायद जजि़या वसूल करने का साहस नहीं किया गया।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद जजि़या फिर बंद कर दिया गया और यद्यपि दो एक बार फिर इसको चलाने का उद्योग किया गया, किन्तु राजपूतों, मराठों तथा अन्य हिन्दुओं के विरोध के कारण इसे बंद कर दिया गया।

8. संपत्ति की जब्ती-जहाँगीर के समय से यह नियम बना था कि अमीरों के मरने पर उनकी सम्पत्ति पर राज्य का अधिकार हुआ करें परन्तु इस साधन से भी विशेष आय होने की संभावना नहीं थी क्योंकि अधिकांश अमीर ऋणी होकर मरते थे न कि राजा के लिए सम्पत्ति छोड़कर। 9. उपहार-वर्ष में अनेक अवसर ऐसे आते थे जब सम्राट को अमीरों द्वारा बहुमूल्य वस्तुएँ भेंट में मिलती थीं। इनके बदले में वह अपेक्षाकृत कम दाम की भेंटे लौटा देता था। इस विनिमय में भी सम्राट को कुछ आय हो जाती थी।

10. आंतरिक चुंगियाँ-राज्य के भीतर सड़कों तथा नदियों के उपयोग के लिए भी चुंगी देना पड़ती थी। माल की बिक्री पर बिक्री कर लगता था। नगरों में भी बाजार में चुंगी ली जाती थी। इन सभी साधनों से प्राप्त होने वाली आय नगण्य नहीं थी।

11. भूमिकर-राज्य के अंदर की समस्त भूमि का वैधानिक अधिकारी सम्राट को माना जाता था किन्तु व्यवहार में किसी भी किसान को उसके खेतों से अलग नहीं किया जाता था। किन्तु यह कहना अनुचित न होगा कि भूमि का वास्तविक अथवा व्यावहारिक अधिकारी किसान होता था। जो किसान जागीरदारों के अधीन होते थे, वे राजनियमों के अनुसार अपना कर जागीरदार को देते थे। जो भूमि सम्राट के सीधे नियंत्रण में होती थी उसे खालसा कहते थे और जहाँ से कर वसूलने का काम राज्य के सैनिक कर्मचारियों को दिया जाता था। जागीरदारी तथा खालसा क्षेत्र के किसानों के करों में पहले अंतर रहता था किन्तु सम्राट अकबर के समय से यह अंतर समाप्त हो गया। इन दो प्रकार की भूमियों से प्रायः उपज का 1/3 से लेकर 1/2 तक कर लिया जाता रहा था।

इनके अतिरिक्त कुछ भूमि धार्मिक नेताओं, संतों, विद्वानों के गुजारे अथवा धार्मिक संस्थाओं की रक्षा के लिए बिना लगान के दे दी जाती थी। इसे सयूरग़ाल कहते थे। कुछ भूमि ऐसी भी थी जिससे प्राचीन परम्परा के अनुसार उपज का केवल 1/10 या 1/20 कर लिया जाता था।

1526 ई. में बाबर ने मुगल साम्राज्य की नींव डाली लगभग 200 वर्षो तक भारतवर्ष में मुगलों का आधिपत्य रहा । हुमायूं के समय साम्राज्य में भयंकर संकट आया, जिससे उसे राजगद्दी छोडकर ईरान की ओर भागना पड़ा । शासन पर शेरशाह का अधिकार हो गया, शेरशाह की मृत्यु के तुरन्त बाद हुमायूं ने अधिकार कर लिया । अकबर के समय मुगल साम्राज्य का चरम विकास हुआ, उसने हिन्दू और मुसलमानों के मध्य सहयोग की भावना पैदा की । जहांगीर और शाहजहां के काल में धार्मिक तथा राजपूत नीति में परिवर्तन हुआ, जिससे राजपूत और सिक्ख रूष्ट हो गये। औरंगजेब की नीति ने मुगल साम्राज्य को पतन के कगार पर ला खड़ा कर दिया । 

मुगल साम्राज्य के पतन के कारण

औरंगजेब के बाद योग्य सम्राट न होने के कारण साम्राज्य का पतन हो गया जिसके मुख्य कारण निम्न हैं-

मुगल साम्राज्य के पतन के प्रशासनिक तथा राजनीतिक कारण

1. उत्तराधिकार संबंधी सुनिश्चित नियमों का अभाव- उत्तराधिकार संबंधी सुनिश्चित नियमों के अभाव से सम्राट की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी सिंहासन के लिए संघर्ष करने लगते थे। औरंगजेब ने अपने पिता को कैद कर तथा भाइयों की हत्या करके सिंहासन प्राप्त किया था । यह परम्परा आगे भी जारी रही औरंगजेब के समय में राजकुमार मुअज्जम तथा अकबर न े बहादुरशाह के समय में आजम और कामबक्श ने विद्रोह किया । इस प्रकार के उत्तराधिकार के लिए संघर्ष तब तक चलते रहे जब तक मुगल साम्राज्य का नामोनिशान न मिट गया ।

2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी- औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी अयोग्य थे, वे नाम मात्र के सम्राट थे । औरंगजेब के बाद उसका बेटा मुअज्जम बहादुरशाह के नाम से आगरा की गद्दी पर बैठा उसमें शासनात्मक क्षमता की कमी थी यद्यपि वह हिन्दू तथा राजपूतों के प्रति उदार था परन्तु उपर से दुर्बल तथा वुद्ध था, उसका पुत्र जहोंदारशाह भी कमजोर शासक सिद्ध हुआ । परिणामस्वरूप उसका भाई फर्रूखसियार उसकी हत्या कर स्वयं ही गद्दी पर बैठ गया ।

3. मुगल सरदारों में पारस्परिक द्वेष भाव- सम्राट की दुबर्ल ताओं का लाभ उठाकर मुगल सरदार अनेक गुटों में विभक्त हो गये थे । नूरानी, ईरानी, अफगानी तथा हिन्दुस्तानी सरदारों के अलग-अलग गुट थे, वे पारस्परिक द्वेष भाव से ग्रसित थे । प्रत्येक गुट अपना वर्चस्व कायम करना चाहता था, उनकी गृहबन्दी तथा खीचातानी से मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया था ।

4. मनसबदारी प्रथा मे बार-बार परिवर्तन- अकबर ने मनसबदारी प्रथा लागू की तथा औरंगजेब ने मनसबदारों की संख्या दुगुनी कर दी, पर आय में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई । इसके अलावा मनसबदारों के उपर पाबंदिया थी, वे भी समाप्त कर दी गई । उनका निरीक्षण करना बन्द हो गया । औरंगजेब के मरते ही वे जागीरों की मांग करने लगे ताकि उसकी आय बढ़ सके। मनसबदारों की ताकत बढ़ गई तथा व े सम्राट पर अपन े रिश्तदे ारों का े वजीर बनान े हेत ु दबाव डालने लगे, क्योंकि वजीर ही जागीरें बांटता था । मनसबदारी प्रथा में भ्रष्टाचार आ गया था, जिससे मुगल सेना दुर्बल हो गई थी । सेना की शक्ति मुगल साम्राज्य की धुरी थी । उसकी कमजोरी से मुगल साम्राज्य हिल उठा । अयोग्य सम्राट अपने साम्राज्य की रक्षा न कर सके ।

5. निरंकुश शक्ति पर आधारित साम्राज्य- मुगल साम्राज्य के अधिकांश शासक निरंकुश थे । उन्होंने न तो मंत्रिमण्डल के परामर्श से काम किया, न जनता की इच्छा पूरी की। वह एकमात्र सैनिक शक्ति पर आधारित थी । सम्राट, साम्राज्य की आय का एक बड़ा भाग सेना में ही खर्च कर देते थे, इससे जन कल्याणकारी कार्यो की उपेक्षा हुई । सत्ता तथा शक्ति पर आधारित राज्य कब तक चलता सैनिक शक्ति के कमजोर पड़ते ही मुगल साम्राज्य का पतन हो गया ।

6. मुगल सेेना का अघ: पतन- मुगल सेना दिन ब दिन अनुशासनहीन होती गई बड़े-बड़े सरदार भ्रष्ट हो गये । उनमें लड़ने का उत्साह जाता रहा । सेना के प्रशिक्षण के लिए कोई वैज्ञानिक व्यवस्था नहीं की गई । नौ सेना के विस्तार की भी उपेक्षा की गई । सैनिक साज-सामान पर जोर नहीं दिया गया । यूरोपिय देशों में जहाज बन गए थे, परन्तु भारत में उसकी नकल भी नहीं की जा सकी । सीमा सुरक्षा पर भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया ।

7. मुहम्मदशाह की अकुुशलता- मुहम्मदशाह 30 वर्षो तक मुगल सामा्र ज्य का शासक बना रहा, परन्तु राजकीय अकुशलता के कारण वह साम्राज्य में नवीन प्राण नहीं फूंक सका वह स्वयं विलासी था तथा अच्छे वजीरों की सलाह न मानकर स्वाथ्र्ाी तथा भ्रष्ट लोगों के हाथों का खिलौना बना रहा । निजात-उल-मुल्क जो उसका वजीर था, सम्राट की गलत नीतियों से तंग आकर अपना पद छोड़ दिया तथा 1724 ई. में हैदराबाद चला गया । वैसे मुगल साम्राज्य ढहने वाला था परन्तु इस घटना ने उसे सदा के लिए ढहा दिया ।

8. शक्तिशाली सूूबेदारोें की महत्वाकांक्षा- बंगाल, हैदराबाद, अवध तथा पजं ाब प्रान्तों के सूबेदार अपने प्रदेशों को सम्राट की अधीरता से मुक्त करने का प्रयत्न करने लगे थे । अवसर पाकर ये सूबेदार स्वतंत्र शासक बन बैठे, जिससे मुगल साम्राज्य एकदम शक्तिहीन हो गया ।

9. साम्राज्य की विशालता- आरैगंजेब घोर साम्राज्यवादी था उसने बीजापुर तथा गोलकुण्डा तक अपने साम्राज्य को विस्तृत कर लिया था । औरंगजेब के पश्चात् उसके उत्तरा- धिकारियों के लिए इतने बड़े साम्राज्य की सुरक्षा करना असम्भव ही सिद्ध हुआ ।

10. मुगल सम्राटो का व्यक्तित्व व चरित्र- परिवर्ती मुगल सम्राटों से विलासप्रियता, हरम में स्त्रियों से संपर्क के प्रति उदार थे । सुन्दरी का सानिध्य पाकर प्रशासनिक कामकाज के प्रति उनका मोहभंग होने लगा जिससे स्वाभाविक रूप से अव्यवस्था प्रभावी हो गयी और प्रशासन में उदासीनता आ गई तथा कमजोर हो गये ।

11. लोकहित का अभाव- निरंकुश अनियन्त्रित राजतंत्र के दोष मुगल साम्राज्य में आ गये शासकों ने प्रजा के बौद्धिक, भौतिक, नैतिक, सांस्कृतिक प्रगति के लिए कार्य नहीं किया । प्रशासन भ्रष्ट, चापलूस, बेईमान लोगों के हाथों में चला गया, व्यापार व्यवसाय, कला, संगीत, स्थापत्य को सहारा मिलना बंद हो गया जो मुगल साम्राज्यके पतन का कारण बना ।

12. मराठों का उत्कर्ष- दक्षिण में मराठों और मुगलों का संघर्ष बराबर चलता रहा, इसमें मराठा विजयी हुऐ और मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हुआ ।

13. औरंगजेब की धार्मिक नीति- औरंगज़ेब की धार्मिक नीति अनुदार थी । गैर मुस्लिम जनता उससे असन्तुष्ट थी । उसने मन्दिरों को तोडकर तथा मूर्तियों को अपवित्र कर हिन्दुओं की धार्मिक भावना को चोट पहुचाई तथा जजिया और तीर्थयात्रा जैसे अपमानजनक कर लगाये । हिन्दुओं को उसने उच्च पदों से भी वंचित कर अपमानित किया, राजपूतों से शत्रुता की । वह योग्य हिन्दू तथा राजपूतों की कार्यकुशलता का उपयोग नहीं कर सका । मुसलमानों में भी शिया और सुफी मतावलम्बी उससे नाराज थे । उनके साथ भी वह द्वेषपूर्ण नीति का पालन करता था ।

14. मराठों, राजपूतोंं एवं सिक्खों के साथ दुर्व्यवहार- औरगंजेब ने मराठों को समझने में गलती की मुगल शासकों ने शिवाजी को अपमानित कर तथा शम्भाजी की हत्या कर राजनीतिक भूल की । इस गलती के कारण औरंगजेब लम्बे समय तक दक्षिण में पड़ा रहा तथा युद्ध में व्यस्त रहा । इसी तरह गुरू तेगबहादुर तथा गुरू गोविन्द सिंह के पुत्र की हत्या कर उसने वीर जाति को सदा के लिए अपना दुश्मन बना लिया । मारवाड़ तथा मेवाड़ के पीछे भी उसने अपनी शक्ति का अपव्यय किया । राजपूत की विश्वनीय शक्ति का साम्राज्य के हित में उपयोग नहीं किया जा सका ।

15. औरंगजेब का शंकालु स्वभाव- औरगंजेब स्वभाव से शंकाल ु था उसने विद्राहे के डर से अपने बेटों को भरपूर सैनिक प्रशिक्षण नहीं दिया । अशक्त तथा अनुभवहीन शहजादे विशाल मुगल साम्राज्य का सही हिफाजत नहीं कर सके ।

16.औरंगजेब की दक्षिण नीति- औरंगजेब ने बीजापरु तथा गोलकुण्डा के मुसलमान राज्यों को मुगल साम्राज्य में मिलाकर भयंकर गलती की । इससे मराठे सीधे मुगल साम्राज्य में घुलकर लूटपाट करने लगे, बीच में कोई रूकावट ही नही रहीं । औरंगजेब की नीति के कारण उसे दक्षिण में एक लम्बे और पीड़ादायक युद्ध में फंस जाना पड़ा । इससे मुगल साम्राज्य को सैनिक प्रशासनिक और आर्थिक रूप से खोखला बना दिया। दक्षिण में औरंगजेब के पडे़ रहने से उत्तरी भारत के शासकों में गुटबन्दी आ गई । तथा वे एक दूसरे के खिलाफ कार्य कर साम्राज्य की शक्ति को क्षीण करने लगे ।

मुगल साम्राज्य के पतन के आर्थिक कारण

1. जनता की उपेक्षा- मुगल सम्राट निरन्तर साम्राज्य विस्तार में लगे रहे । लोगों के आवश्यकताओं पर उन्होंने कभी विचार नहीं किया, जन कल्याणकारी कार्यो की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया । औरंगजेब ने अपने 50 वर्षो के कार्यकाल में न तो यातायात की व्यवस्था की और न शिक्षा व स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया । औरंगजेब ने कृषि के विकास हेतु कोई भी उल्लेखनीय प्रयास नहीं किया । केवल युद्धों के नाम पर किसानों से भू-राजस्व वसूल किया । जागीरदारों की जागीरदारी भी बदली जाने लगी इससे जागीरदार कम से कम समय में अधिक से अधिक पाने का प्रयत्न करने लगे, परिणामस्वरूप वे किसानों पर जोर जुल्म करने लगे । किसानों के असन्तोष से उत्पादन कम होने लगा था । इससे राजस्व की हानि होने लगी थी ।

2. कृषि की अवनति- कृषि की उन्नति की आरे मुगल साम्राज्य का बिल्कुल ध्यान नहीं गया । कृषि आय का मुख्य स्त्रोत था, फिर भी उपेक्षित रहा । कृषि की अवनति से किसान भी गरीब बने रहे । तथा बढती गरीबी से निराश होकर किसानों ने भी समय-समय पर विद्रोह किये। सतनामी, जाट, सिक्खों के विद्रोहों ने भी किसानों को नुकसान पहुंचाया । वे डाकू लुटेरों के चपेट में भी आए । कहीं-कहीं तो किसानों तथा जमीदारों ने भी डाकू तथा लुटेरों के जत्थे बना लिए थे । इस प्रकार मुगल साम्राज्य में कानून तथा व्यवस्था समाप्त हो गयी थी ।

3. राजकोष का रिक्त होना- मुगल काल के सभी शासकों ने अपनी महत्वाकांक्षा की तृप्ति के लिए दीर्घकालीन खर्चीले युद्ध किये । इसके परिणामस्वरूप राजकोष रिक्त हो गया । औरंगजेब के शासन के अन्तिम वर्षो में सैनिकों को वेतन देने के लिए भी पैसा नहीं था ।

मुगलों का मतलब क्या होता है?

मुगलों (फ़ारसी: مغول‎; साँचा:Lang-hin/مغل‎,मोगुल या मोगुल को भी वर्तनी में कहा जाता है कि भारत, पाकिस्तान से संबंधित सांस्कृतिक कबीले के एक नंबर हैं. वे दावा करते हैं कि वे विभिन्न मध्य एशियाई तुर्क और मंगोल मंगोलों के वंशज हैं। क्षेत्र में बसने वाली जनजातियाँ. मुगल (या फारसी में 'मुगुल') का शाब्दिक अर्थ मंगोलियन है।

मुगल का इतिहास क्या है?

मध्य-16 वीं शताब्दी और 17-वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति थी। 1526 में स्थापित, यह नाममात्र 1857 तक बचा रहा, जब वह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया। यह राजवंश कभी कभी तिमुरिड राजवंश के नाम से जाना जाता है क्योंकि बाबर तैमूर का वंशज था।

मुगल काल से पहले किसका शासन था?

वर्ष 1451 में बहलोल लोदी के नेतृत्व में लोदी राजवंश ने दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा किया जिस पर तब सैयद वंश शासन कर रहा था। सैयद वंश के बाद दिल्ली सल्तनत पर लोदी वंश ने शासन किया जिसे 1526 में मुगलों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।

मुगल शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?

"मुगल" शब्द की उत्पत्ति मंगोल से हुई। इस वंश के शासकों ने स्वतः इस नाम का चुनाव नही किया था। पितृ पक्ष से तुर्की शासक तैमूर के वंशज स्वयम को तैमूरी कहते थे। पहला मुगल सम्राट बाबर तैमूर की पांचवी पीढ़ी से था।