चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये। Show
आपका परिचय मिथिला के राजा की कौन सी प्रतिज्ञा थे उत्तर महिला के राजा की है प्रतिज्ञा की कि जो शिव धनुष को तोड़ेगा वह सीता जी से विवाह करेगा धन्यवाद Romanized Version जंगल और जनकपुर (Page 11) Image from NCERT book प्रश्न / उत्तर प्रश्न-1 मिथिला के लिए उन्होनें कौन सी नदी पार की? उत्तर- मिथिला के लिए उन्होनें सोन नदी पार की । प्रश्न-2 शिव धनुष को कहाँ लाया गया? उत्तर- शिव धनुष को यज्ञशाला में लाया गया । प्रश्न-3 कौन-कौन लोग यज्ञशाला में उपस्थित हुए? उत्तर - आमंत्रित लोग, मुनिऋषि और राजकुमार यज्ञशाला में उपस्थित हुए । प्रश्न-4 शिव धनुष का वर्णन कीजिए । उत्तर - शिव धनुष विशाल था । वह लोहे की पेटी में रखा हुआ था जिसमें आठ पहिये लगे हुए थे । शिव धनुष को उठाना लगभग असंभव था । पहियों के सहारे उसे खींचकर एक से दूसरी जगह ले जाया जाता था । प्रश्न-5 राजा जनक ने सीता के विवाह के संबंध में क्या प्रतिज्ञा की थी? उत्तर - राजा जनक ने सीता के विवाह के संबंध में प्रतिज्ञा की थी कि जो शिव धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ सीता का विवाह होगा । प्रश्न-6 शिव धनुष देखते ही विदेहराज एक पल के लिए क्यों उदास हो गए? उत्तर - राजा जनक ने सीता के विवाह के संबंध में प्रतिज्ञा की थी जो शिव धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ सीता का विवाह होगा । परंतु अभी तक अनेक राजकुमारों ने प्रयास किया और लज्जित हुए । उठाना तो दूर वे इसे हिला तक नहीं सके । प्रश्न-7 प्रश्न: किसनेकिससेकहा ? “ अबहमारेलिएक्याआज्ञाहै, मुनिवर ” रामनेमहर्षिविश्वामित्र सेकहा। “ हमलोगयहाँसेमिथिलाजाएंगे ” महर्षिविश्वामित्रनेरामसेकहा। “ येसुंदरराजकुमारकौनहैं ” राजाविदेहराजनेमहर्षिविश्वामित्रसेकहा। “ येरामऔर लक्ष्मणहैं।महाराजदशरथकेपुत्र।” महर्षिविश्वामित्रनेराजाविदेहराजसेकहा। “ शिवधनुषकोयज्ञशालामेंलायाजाए ” राजाजनकनेअपनेअनुचरोंसेकहा। भारतीय साहित्यिक स्रोतों में अत्यन्त प्राचीन काल तक के मिथिला के शासकों के नाम प्राप्त होते हैं। इनमें से विदेह (जनक) वंशीय राजाओं के लिए तो वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों पर निर्भर रहना पड़ता है, परन्तु इनके बाद के शासकों के विवरण के लिए बहुत-कुछ प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं। प्राचीन विदेह (जनक) वंशीय शासक (ल. 1300 – 700 ई.पू)[संपादित करें]प्राचीन विदेह पर जनक वंशीय चौवन (54) राजाओं ने शासन किया था। वैदिक काल में विदेह (पूर्वी दिशा में) शासकों की सूची इस प्रकार है-रामायण काल तक के शासक[संपादित करें]वाल्मीकि रामायण में जनक की वंश परम्परा दी गयी है।[1] रामायण में सीरध्वज जनक स्वयं ही अपने पूर्वज राजाओं के नाम दशरथ को बताते हैं। वाल्मीकीय रामायण के अनुसार मिथिला पर रामायण काल तक निम्नलिखित राजाओं ने शासन किया-
रामायण के पश्चात् के जनकवंशीय शासक[संपादित करें]रामायण काल तक के विदेह (जनक) वंशीय राजाओं के नाम वाल्मीकीय रामायण में स्पष्टतया उल्लिखित रहने के कारण पुराणों की अपेक्षा वे नाम ही स्वीकार्य हैं, परन्तु सीरध्वज जनक के बाद के राजाओं के नाम स्वाभाविक रूप से वाल्मीकीय रामायण में न होने के कारण पुराणों का सहारा लेना पड़ता है। इनमें सर्वाधिक प्राचीन पुराणों में से एक तथा अपेक्षाकृत सुसंगत श्रीविष्णुपुराण का आधार अधिक उपयुक्त है। सीरध्वज के पुत्र भानुमान् से लेकर कृति (अन्तिम) तक कुल 32 राजाओं के नाम श्रीविष्णुपुराण[4] में दिये गये हैं और उन्हें स्पष्ट रूप से 'मैथिल' (इत्येते मैथिला:) कहा गया है।
इस अन्तिम राजा कृति के साथ ही जनकवंश की समाप्ति मानी गयी है। इसे ही अन्यत्र 'कराल जनक' भी कहा गया है।[5] यहाँ परिगणित तेरहवें राजा क्षेमावी का अपर नाम कुछ लोगों ने 'क्षेमारि' भी माना है तथा महाभारतकालीन राजा क्षेमधूर्ति से उसकी समानता की बात कही है।[6] वज्जि (वृजि) महासंघ द्वारा शासन (ल. 700 – 345 ई.पू)[संपादित करें]विदेह राजाओं के पतन के पश्चात् मिथिला में केन्द्रवर्ती शासन का अभाव रहा, यद्यपि अवशिष्ट विदेह राजाओं के नाम भी यत्र-तत्र मिलते हैं। 700 ई.पू. के लगभग वैशाली गणतंत्र की स्थापना के बाद मिथिला भी वज्जिमहासंघ के सम्मिलित शासन में आ गयी। यह आठ गणतांत्रिक (गणतंत्र) कुलों का संघ था जो उत्तर बिहार में गंगा के उत्तर में अवस्थित था।[7] महाजनपद काल में वज्जि (उत्तर पूर्व दिशा में) लगभग 468 ई.पू. के आसपास मगध-सम्राट् अजातशत्रु द्वारा वज्जिमहासंघ के विनाश के बाद पुनः मिथिला में किसी तरह सम्भवतः गणतंत्रीय शासन चलते रहा। 345 ई.पू. के आसपास महाक्षत्रांतक कहलाने वाले नंद राजवंश के महापद्मनंद ने अजातशत्रु के आक्रमण से बचे हुए मिथिला के गणतंत्र को भी समाप्त कर दिया।[8] हालाँकि इस समय में शासन-प्रणाली गणतंत्रात्मक ही थी या पुनः राजतन्त्र का उदय हो गया था, इसका स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। मिथिला के अन्य शासक (ल. 345 ई.पू – 1097 ईस्वी)[संपादित करें]राजा अलर्क तथा राजा बलि (ल. 345 ई.पू – 320 ईस्वी)[संपादित करें]यह भी उल्लेख मिलता है कि आधुनिक नानपुर परगन्ना के दरभंगा नाम से ज्ञात भूभाग में अलर्क नामक एक राजा हुए थे और उनके बाद बलि नामधारी एक अन्य राजा ने राज्य किया था।[9] ये राजा बलि विदेह राजाओं के केन्द्रीय शासन के अन्त से लेकर मौर्यकाल तक में या फिर और बाद में वस्तुतः कब हुए थे, इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक प्रमाण का अभाव है। पौराणिक तथा जातक साहित्य में उल्लेख नहीं होने तथा उसके बाद गणतंत्रीय शासन स्थापित हो जाने से तो यही लगता है कि पुनः महापद्मनन्द द्वारा पूर्णतः गणतंत्र के अन्त के बाद ही, अर्थात् मौर्यकाल में या कुछ और बाद में ये राजा बलि हुए होंगे। वर्तमान दरभंगा प्रमण्डल के मधुबनी जिले में प्रसिद्ध बलिराजगढ़ इसी राजा बलि का राजधानी-स्थल रहा होगा, इस बात की अत्यधिक सम्भावना है। यहाँ की खुदाई में मौर्यकालीन पुरावशेष का भी मिलना भी इस बात का संकेतक है। अन्य राजवंशों का शासन (ल. 320 – 1097 ईस्वी)[संपादित करें]वस्तुतः मगध-साम्राज्य की प्रबलता से लेकर गुप्त राजवंश, हर्षवर्धन, गुर्जर-प्रतिहार राजवंश, चन्देल, पाल राजवंश और सेन राजवंश आदि तक भारत की विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के अधीन मिथिला भी रही और यहाँ केन्द्रीय शासन तथा स्वतंत्रता का प्रायः अभाव ही रहा। कर्नाट (सिमराँव) राजवंश (ल. 1097 – 1324 ईस्वी)[संपादित करें]विदेह राजतंत्र तथा बज्जी महासंघ के विघटन के समय से लेकर कर्नाट वंश के प्रतिष्ठाकाल से पहले तक मिथिला का इतिहास निरन्तर पराजय तथा दासता का इतिहास रहा। कर्नाट वंश, जिसे सिमराँव राजवंश के नाम से भी जाना जाता है, की स्थापना के रूप में उस नवयुग का सूत्रपात हुआ जो राज्य-निर्माण, महान् उपलब्धि तथा गौरव-गाथा का युग साबित हुआ।[10][11] 1.नान्यदेव (पूर्व राजधानी - नान्यपुर। बाद में 'सिमराँवगढ़' में राजधानी। 'सिमराँव' में निर्मित किला पर अंकित तिथि 18 जुलाई 1097 ई. सिद्ध होती है।[12] स्पष्ट है कि शासन इससे पहले भी रहा होगा।) 2.मल्लदेव (अल्पकालिक शासन। राजधानी - 'भीठ भगवानपुर'।) 3.गंगदेव - 1147 ई. से 1187 ई. तक। इन्होंने वर्तमान मधुबनी जिले के अंधराठाढ़ी में विशाल गढ़ बनवाया था। 4.नरसिंह देव - 1187 ई. से 1225 ई. तक। 5.रामसिंह देव - 1225 ई. से 1276 ई. तक। 6.शक्ति (शक्र) सिंह देव - 1276 ई. से 1296 ई. तक। इनके बाद युवराज के अवयस्क होने से उनके नाम पर 1303 ई. तक मंत्रिपरिषद का शासन रहा। 7.हरिसिंह देव - 1303 ई. से 1324 ई. तक। मुसलमानी आक्रमण से नेपाल पलायन। कर्णाटकालीन मूर्ति कलाइन कर्णाट राजाओं के काल में साहित्य, कला और संस्कृति का विकास बड़े पैमाने पर हुआ था। दरभंगा, मधुबनी आदि पूर्व मध्यकालीन तीरभुक्ति (तिरहुत) के विभिन्न स्थलों से बहुत अधिक मात्रा में सूर्य,विष्णु, गणेश,उमा-महेश्वर आदि पाषाण प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई है।इन मूर्तियों की प्राप्ति में कर्णाटकालीन शासकों का महत्वपूर्ण योगदान है। पूर्वमध्यकालीन पाल कला से इतर आंशिक परिवर्तन और स्थानीय स्तर पर होनेवाले शैलीगत परिवर्तन को अंधराठाढ़ी, भीठभगवानपुर आदि विभिन्न स्थानों पर प्राप्त कर्णाटकालीन प्रतिमाओं में देखा जा सकता है जिसके मूर्तिअभिलेख स्पष्ट करते हैं कि इनकी भाषा पाल कालीन भाषाओं से अलग है। हाल के वर्षों में इन क्षेत्रों की प्रतिमाओं का अध्ययन होने लगा है।[13] ओइनवार (सुगौना) राजवंश (ल. 1353 – 1526 ईस्वी)[संपादित करें]कर्णाटवंशी अंतिम मिथिलेश हरिसिंह देव के नेपाल पलायन के बाद करीब 30 वर्ष तक मिथिला के राजनीतिक मंच पर अराजकता तथा नृशंसता का ताण्डव होते रहा। सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के प्रथम बंगाल आक्रमण के समय मैथिल ब्राह्मण ओइनवार वंश (ठाकुर) के कामेश्वर ठाकुर को मिथिला (तिरहुत) का शासनाधिकार दे दिया गया। शासकों की सूची-1.कामेश्वर ठाकुर - 1354 ई., अल्पकाल। आरंभिक समय में राजधानी 'ओइनी' (अब 'बैनी') गाँव। 2.भोगीश्वर (भोगेश्वर) ठाकुर - 1354 ई. से 1360 ई. तक। 3.ज्ञानेश्वर (गणेश्वर) ठाकुर - 1360-1371. इनका उल्लेख कविवर विद्यापति ने किया है।[14] विद्यापति ने जिस लक्ष्मण संवत् का प्रयोग किया है उसपर शकाब्द के साथ विचार करते हुए विद्वद्वर शशिनाथ झा जी अन्य इतिहासकारों की अपेक्षा ईस्वी सन् को 10 वर्ष पहले मानते हैं। अर्थात् उनके अनुसार गणेश्वर ठाकुर की मृत्यु 1371 में नहीं बल्कि 1361ई. में ही हो गयी थी।[15] इस मान्यता से आगे के ईस्वी सन् में से भी 10-10 वर्ष घटते जाएँगे। (इनके बाद 1401 ई. तक बिना अभिषेक के इनके बड़े पुत्र वीर सिंह का शासन किसी प्रकार चला।) 4.कीर्तिसिंह देव - 1402 ई. से 1410 ई. तक। इनके समय तक मिथिला राज्य विभाजित था। दूसरे भाग पर भवसिंह का शासन था। 5.भवसिंह देव (भवेश) - 1410 ई., अल्पकाल। ये अविभाजित मिथिला के प्रथम ओइनवार शासक हुए। इस रूप में इनका शासन अल्पकाल के लिए ही रहा। इन्होंने अपने नामपर भवग्राम (वर्तमान मधुबनी जिले में) बसाया था। (इनके समय में मिथिला के किंवदंती पुरुष बन चुके गोनू झा विद्यमान थे।[16] महान् दार्शनिक गंगेश उपाध्याय भी इसी समय के रत्न थे।) 6.देव सिंह - 1410-1413 [इन्होंने ओइनी तथा भवग्राम को छोड़कर अपने नाम पर दरभंगा के निकट वाग्मती किनारे 'देवकुली' (देकुली) गाँव बसाकर वहाँ राजधानी स्थापित किया।] 7.राजा शिवसिंह देव (विरुद 'रूपनारायण)- 1413 से 1416 तक। (मात्र 3 वर्ष 9 महीने) इन्होंने अपनी राजधानी 'देकुली' से हटाकर 'गजरथपुर'/गजाधरपुर/शिवसिंहपुर[17] में स्थापित किया, जो दरभंगा से 4-5 मील दूर दक्षिण-पूर्व में है। दरभंगा में भी वाग्मती किनारे इन्होंने किला बनवाया था। उस स्थान को आज भी लोग किलाघाट कहते हैं। 1416 ई.(पूर्वोक्त मत से 1406 ई.) में जौनपुर के सुलतान इब्राहिम शाह की सेना गयास बेग के नेतृत्व में मिथिला पर टूट पड़ी थी। दूरदर्शी महाराज शिवसिंह ने अपने मित्रवत् कविवर विद्यापति के संरक्षण में अपने परिवार को नेपाल-तराई में स्थित राजबनौली के राजा पुरादित्य 'गिरिनारायण' के पास भेज दिया। स्वयं भीषण संग्राम में कूद पड़े। मिथिला की धरती खून से लाल हो गयी। शिवसिंह का कुछ पता नहीं चल पाया।[18] उनकी प्रतीक्षा में 12 वर्ष तक लखिमा देवी येन-केन प्रकारेण शासन सँभालती रही। 8.लखिमा रानी - 1416-17 से 1428-29 तक। (अत्यन्त दुःखद समय के बावजूद कविवर विद्यापति के सहयोग से शासन-प्राप्ति एवं संचालन।) 9.पद्म सिंह - 1429-1430 . 10.रानी विश्वास देवी - 1430-1442. (राजधानी- विसौली) 11.हरसिंह देव( शिवसिंह तथा पद्म सिंह के चाचा) - 1443 से 1444 तक। 12.नरसिंह देव - 1444 से 1460/62 तक। 13.धीर सिंह - 1460/62 से। इनके बाद इनके भाई भैरव सिंह राजा हुए। 14.भैरव सिंह - उपशासन धीर सिंह के समय से ही। मुख्य शासन संभवतः 1480 के लगभग से। (उपनाम - रूपनारायण। बाद में 'हरिनारायण' विरुद धारण किया।) इन्होंने अपनी राजधानी वर्तमान मधुबनी जिले के बछौर परगने के 'बरुआर' गाँव में स्थापित किया था।[19] वहाँ अभी भी मिथिला में अति प्रसिद्ध 'रजोखर' तालाब है, जिसके बारे में मिथिला में लोकोक्ति प्रसिद्ध है :- "पोखरि रजोखरि और सब पोखरा। राजा शिवसिंह और सब छोकरा।।" इसके साथ ही कुछ-कुछ दूरी पर दो और तालाब है। साथ ही संभवतः उसी युग का विष्णु-मन्दिर है, जो लक्ष्मीनारायण-मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भारतीय मध्यकालीन शैली की विष्णु-मूर्ति है।[20] इन्हीं महाराज (भैरव सिंह) के दरबार में सुप्रसिद्ध महामनीषी अभिनव वाचस्पति मिश्र तथा अनेक अन्य विद्वान् भी रहते थे। 15.रामभद्रसिंह देव - 1488/90 से 1510 तक। इन्होंने अपनी राजधानी पुनः अपने पूर्वज शिवसिंह देव की राजधानी से करीब 2 मील पूरब में अपने नाम पर बसाये गये 'रामभद्र पुर' में स्थानान्तरित किया। अब इसके पास रेलवे स्टेशन है। 16.लक्ष्मीनाथसिंह देव - 1510 से 1525 तक। इनका उपनाम कंसनारायण था। ये अपने पूर्वजों के विपरीत दुर्गुणी थे। इनके साथ ही इस राजवंश के शासन का भी अंत हो गया। अन्य क्षेत्रीय शासक[संपादित करें]शिवसिंह देव के बाद से ही मिथिला का शासन-तंत्र शिथिल होने लगा था और अराजकता का आगमन होने लगा था। आपसी कलह के कारण भी राजधानी एक छोर से दूसरे छोर तक जाती रहती थी। दूसरी जगह भी साथ-साथ उपशासन रहता था (इसलिए भी कई राजाओं का समय भिन्न-भिन्न जगहों पर भिन्न-भिन्न मिलता है)। इस वंश के शासन के बाद पुनः करीब 30 वर्षों तक मिथिला में कोई केन्द्रीय शासन नहीं रहा। कोई महत्त्वपूर्ण शासक भी नहीं हुआ। छोटे-छोटे राज्य विभिन्न सरदारों के द्वारा स्थापित होते रहे। कुछ उल्लेखनीय राजाओं के नाम इस प्रकार हैं :- राजा पृथ्वीनारायण सिंह देव (1436-37 ई., चम्पारण में) राजा शक्तिसिंह देव राजा मदनसिंह देव नृप नारायण-सुत नृप अमर सिंह (1500 ई. के आसपास) सोलहवीं शताब्दी में चंपारण में पूर्ववत् एक और अर्द्ध स्वतंत्र राजकुल का अस्तित्व मिलता है -- 'बेतिया' अथवा 'सुगाँव' राजकुल। इसके शासकों के नाम इस प्रकार हैं :- उग्रसेन सिंह गज सिंह (इन्हें शाहजहाँ ने 'राजा' की उपाधि दी थी। इनके पूर्ववर्ती सात पीढ़ियों के नाम मालूम हैं, परन्तु शासन की स्थापना इनके पिता ने ही की थी।) दिलीप सिंह ध्रुव सिंह युगलकिशोर सिंह - 1773 ई. में। वीरकेश्वर सिंह आनन्दकेश्वर सिंह - 1816 में। (विलियम बेंटिक ने इन्हें 'महाराजा बहादुर' का विरुद दिया था।) नवलकेश्वर सिंह राजेन्द्रकेश्वर सिंह - 1855 में। सन् 1857 के विद्रोह में इन्होंने शाहाबाद के वीर कुअँर सिंह के विपरीत अंग्रेजों का साथ दिया। इसके पुरस्कारस्वरूप अंग्रेजों ने इन्हें और इनके पुत्र को भी 'महाराजा बहादुर' का विरुद दिया। हरेन्द्रकेश्वर सिंह (मृत्यु 1893 ई. में) इनकी बड़ी रानी की 1896 में मृत्यु के बाद राज 'कोर्ट ऑफ वार्ड्स' के अधीन चला गया। ओइनवार वंश के करीब 30 वर्ष बाद अकबर की कृपा से 'खण्डवाल कुल' को शासन-भार मिला और मिथिला में सर्वाधिक महत्त्व 'दरभंगा राज' को प्राप्त हुआ। छोटे-छोटे राजा (सरदार,जमींदार) अन्यत्र भी शासन चलाते रहे। दरभंगा राज (खण्डवला राजवंश) (ल. 1556 – 1947 ईस्वी)[संपादित करें]दरभंगा-महाराज 'खण्डवाल कुल' के थे जिसके शासन-संस्थापक महेश ठाकुर थे। उनकी अपनी विद्वता, उनके शिष्य रघुनन्दन की विद्वता तथा महाराजा मानसिंह के सहयोग से अकबर द्वारा उन्हें राज्य की प्राप्ति हुई थी। शासकों की सूची-1.महेश ठाकुर - 1556-1569 ई. तक। इनकी राजधानी वर्तमान मधुबनी जिले के भउर (भौर) ग्राम में थी, जो मधुबनी से करीब 10 मील पूरब लोहट चीनी मिल के पास है। 2.गोपाल ठाकुर - 1569-1581 तक। इनके काशी-वास ले लेने के कारण इनके अनुज परमानन्द ठाकुर गद्दी पर बैठे। 3.परमानन्द ठाकुर - (इनके पश्चात इनके सौतेले भाई शुभंकर ठाकुर सिंहासन पर बैठे।) 4.शुभंकर ठाकुर - (इन्होंने अपने नाम पर दरभंगा के निकट शुभंकरपुर नामक ग्राम बसाया।) इन्होंने अपनी राजधानी को मधुबनी के निकट भउआरा (भौआरा) में स्थानान्तरित किया। 5.पुरुषोत्तम ठाकुर - (शुभंकर ठाकुर के पुत्र) - 1617-1641 तक। 6.सुन्दर ठाकुर (शुभंकर ठाकुर के सातवें पुत्र) - 1641-1668 तक। 7.महिनाथ ठाकुर - 1668-1690 तक। ये पराक्रमी योद्धा थे। इन्होंने मिथिला की प्राचीन राजधानी सिमराओं परगने के अधीश्वर सुगाओं-नरेश गजसिंह पर आक्रमण कर हराया था। 8.नरपति ठाकुर (महिनाथ ठाकुर के भाई) - 1690-1700 तक। 9.राजा राघव सिंह - 1700-1739 तक। (इन्होंने 'सिंह' की उपाधि धारण की।) इन्होंने अपने प्रिय खवास वीरू कुर्मी को कोशी अंचल की व्यवस्था सौंप दी थी। शासन-मद में उसने अपने इस महाराज के प्रति ही विद्रोह कर दिया। महाराज ने वीरतापूर्वक विद्रोह का शमन किया तथा नेपाल तराई के पँचमहाल परगने के उपद्रवी राजा भूपसिंह को भी रण में मार डाला। इनके ही कुल के एक कुमार एकनाथ ठाकुर के द्वेषवश उभाड़ने से बंगाल-बिहार के नवाब अलीवर्दी खान इन्हें सपरिवार बन्दी बनाकर पटना ले गया तथा बाद में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को कर निर्धारित कर मुक्त कर दिया। माना गया है कि इसी कारण मिथिला में यह तिथि पर्व-तिथि बन गयी और इस तिथि को कलंकित होने के बावजूद चन्द्रमा की पूजा होने लगी। मिथिला के अतिरिक्त भारत में अन्यत्र कहीं चौठ-चन्द्र नहीं मनाया जाता है।[21] यदि कहीं है तो मिथिलावासी ही वहाँ रहने के कारण मनाते हैं। 10.राजा विसुन(विष्णु) सिंह - 1739-1743 तक। 11.राजा नरेन्द्र सिंह (राघव सिंह के द्वितीय पुत्र) - 1743-1770 तक। इनके द्वारा निश्चित समय पर राजस्व नहीं चुकाने के कारण अलीवर्दी खान ने पहले पटना के सूबेदार रामनारायण से आक्रमण करवाया। यह युद्ध रामपट्टी से चलकर गंगदुआर घाट होते हुए झंझारपुर के पास कंदर्पी घाट के पास हुआ था। बाद में नवाब की सेना ने भी आक्रमण किया। तब नरहण राज्य के द्रोणवार ब्राह्मण-वंशज राजा अजित नारायण ने महाराजा का साथ दिया था तथा लोमहर्षक युद्ध किया था। इन युद्धों में महाराज विजयी हुए पर आक्रमण फिर हुए। 12.रानी पद्मावती - 1770-1778 तक। 13.राजा प्रताप सिंह (नरेन्द्र सिंह का दत्तक पुत्र) - 1778-1785 तक। इन्होंने अपनी राजधानी को भौआरा से झंझारपुर में स्थानान्तरित किया। 14.राजा माधव सिंह (प्रताप सिंह का विमाता-पुत्र) - 1785-1807 तक। इन्होंने अपनी राजधानी झंझारपुर से हटाकर दरभंगा में स्थापित की। लार्ड कार्नवालिस ने इनके शासनकाल में जमीन की दमामी बन्दोबस्ती करवायी थी। 15.महाराजा छत्र सिंह - 1807-1839 तक। इन्होंने 1814-15 के नेपाल-युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की थी। हेस्टिंग्स ने इन्हें 'महाराजा' की उपाधि दी थी। 16.महाराजा रुद्र सिंह - 1839-1850 तक। 17.महाराजा महेश्वर सिंह - 1850-1860 तक। इनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। 18.महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह - 1880-1898 तक। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय दाता थे। रामेश्वर सिंह इनके अनुज थे। 19.महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह - 1898-1929 तक। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से 'महाराजाधिराज' का विरुद दिया गया तथा और भी अनेक उपाधियाँ मिलीं। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर में इन्होंने विशाल एवं भव्य राजप्रासाद[22] तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। यहाँ का सबसे भव्य भवन (नौलखा) 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था, जिसके आर्चिटेक डाॅ. एम.ए.कोर्नी (Dr. M.A. KORNI) थे। ये अपनी राजधानी दरभंगा से राजनगर लाना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों से ऐसा न हो सका, जिसमें कमला नदी में भीषण बाढ़ से कटाई भी एक मुख्य कारण था। जून 1929 में इनकी मृत्यु हो गयी। ये भगवती के परम भक्त एवं तंत्र-विद्या के ज्ञाता थे। 20.महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह - पिता के निधन के बाद ये गद्दी पर बैठे। इन्होंने अपने भाई राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह को अपने पूज्य पिता द्वारा निर्मित राजनगर का विशाल एवं दर्शनीय राजप्रासाद देकर उस अंचल का राज्य-भार सौंपा था।[23] 1934 के भीषण भूकम्प में अपने निर्माण का एक दशक भी पूरा होते न होते राजनगर के वे अद्भुत नक्काशीदार वैभवशाली भवन क्षतिग्रस्त हो गये। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के समय में ही भारत स्वतंत्र हुआ और जमींदारी प्रथा समाप्त हुई। देशी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह को संतान न होने से उनके भतीजे (राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र) कुमार जीवेश्वर सिंह संपत्ति के अधिकारी हुए।[24] इन्हें भी देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
आधार-ग्रन्थ[संपादित करें]
मिथिला के राजा कौन थे उनकी क्या प्रतिज्ञा?उत्तर - राजा जनक ने सीता के विवाह के संबंध में प्रतिज्ञा की थी कि जो शिव धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ सीता का विवाह होगा ।
मिथिला के राजा कौन थे?बात त्रेतायुग की है, जब मिथिला के राजा जनक हुआ करते थे। वह सीता के पिता थे। उन्होंने सीता का पालन- पोषण कर उनका राम के साथ विवाह किया था। दरअसल राजा जनक, निमि के पुत्र थे।
मिथिला के राजा कौन थे class 6?उत्तर: राजा जनक मिथिला के राजा थे ।
राजा जनक का असली नाम क्या है?राजा जनक मिथिला (जनकपुरी) के राजा थे। और राजा को पिता अर्थात जनक कहा जाता है, इसलिए उनका नाम भी जनक हो गया। किन्तु राजा जनक का असली नाम सिरध्वज था, जबकि उनके अनुज का नाम 'कुशध्वज' था।
|