नही पराग नहिं मधुर मधु में कौन सा अलंकार है?May 28, 2020 , updated on May 29, 2020 Show (A) रूपक अलंकार Answer : अन्योक्ति अलंकारExplanation : नहिं पराग नहिं मधुर, मधु, नहिं विकास इहि काल। अली कली ही सौं बिध्यौं, आगे कौन हवाल।। पंक्ति में अन्योक्ति अलंकार है। इस पंक्ति में भौंरे को प्रताड़ित करने के बहाने कवि ने राजा जयसिंह की काम-लोलुपता पर व्यंग्य किया है। अतएव यहां अन्योक्ति है। अन्योक्ति अलंकार की परिभाषा – जहां अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत का व्यंग्यात्मक कथन किया जाए, वहां 'अन्योक्ति' अलंकार होता है। सामान्य हिंदी प्रश्न पत्र में अन्योक्ति अलंकार संबंधी प्रश्न पूछे जाते है। इसलिए यह प्रश्न आपके लिए कर्मचारी चयन आयोग, बीएड, आईएएस, सब इंस्पेक्टर, पीसीएस, बैंक भर्ती परीक्षा, समूह 'ग' आदि प्रतियोगी परीक्षाओं के अलावा विभिन्न विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाओं के लिए भी उपयोगी साबित होगें।....अगला सवाल पढ़े Tags : अन्योक्ति अलंकार अलंकार अलंकारिक शब्द Useful for : UPSC, State PSC, IBPS, SSC, Railway, NDA, Police Exams Latest QuestionsI’m a freelance professional with over 10 years' experience writing and editing, as well as graphic design for print and web. अलंकार,रस एवं छन्दसामान्य हिन्दी - 1Direction: निम्नलिखित प्रत्येक पद्यांश में सही छंद का चयन कीजिए :
सही विकल्प: A"नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल। अली कली ही सौं बंध्यों, आगे कौन हवाल। " उपर्युक्त पंक्तियों में 'दोहा' छंद है। दोहे में चार चरण हैं। इसके प्रथम तथा तृतीय चरण में क्रमशः 13-13 मात्राएँ एवं द्वितीय एवं चतुर्थ में कर्मशः 11-11 मात्राएँ होती हैं।
रीति काल के कवियों में बिहारी प्रायः सर्वोपरि माने जाते हैं। बिहारी सतसई उनकी प्रमुख रचना हैं। इसमें ७१३ दोहे हैं। किसी ने इन दोहों के बारे में कहा हैः सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।। (नावक = एक प्रकार के पुराने समय का तीर निर्माता जिसके तीर देखने में बहुत छोटे परन्तु बहुत तीखे होते थे} , दोहरा = दोहा) बिहारी शाहजहाँ के समकालीन थे और राजा जयसिंह के राजकवि थे। राजा जयसिंह अपने विवाह के बाद अपनी नव-वधू के प्रेम में राज्य की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे थे तब बिहारी ने उन्हें यह दोहा सुनाया थाः नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल। अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।। (श्लेष अलंकारः अली = राजा, भौंरा; कली = रानी, पुष्प की कली) कहते हैं कि बात राजा की समझ में आ गई और उन्होंने फिर से राज्य पर ध्यान देना शुरू कर दिया। जयसिंह शाहजहाँ के अधीन राजा थे। एक बार शाहजहाँ ने बलख पर हमला किया जो सफल नही रहा और शाही सेना को वहाँ से निकालना मुश्किल हो गया। कहते हैं कि जयसिंह ने अपनी चतुराई से सेना को वहाँ से कुशलपूर्वक निकाला। बिहारी ने लिखा हैः घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि। पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।। ( चुरी = चूड़ी, राति = रक्षा करके, जयसाहि = राजा जयसिंह) बिहारी और अन्य रीतिकालीन कवियों ने भक्ति की कवितायें लिखी हैं किन्तु वे भक्ति से कम काव्य की चातुरी से अधिक प्रेरित हैं। किसी रीतिकालीन कवि ने लिखा हैः आगे के सुकवि रीझिहैं चतुराई देखि, राधिका कन्हाई सुमिरन को तो इक बहानो है। बिहारी का एक दोहा हैः मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल। यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।। (काछनी = धोती की काँछ, यहि बानिक = इसी तरह)
मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय। जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।। (झाँई = छाया, स्याम = श्याम, दुति = द्युति = प्रकाश) राधा जी के पीले शरीर की छाया नीले कृष्ण पर पड़ने से वे हरे लगने लगते है। दूसरा अर्थ है कि राधा की छाया पड़ने से कृष्ण हरित (प्रसन्न) हो उठते हैं। श्लेष अलंकार का सुन्दर उदाहरण है।
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर। को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥ अर्थात: यह जोड़ी चिरजीवी हो। इनमें क्यों न गहरा प्रेम हो, एक वृषभानु की पुत्री हैं, दूसरे बलराम के भाई हैं। दूसरा अर्थ है: एक वृषभ (बैल) की अनुजा (बहन) हैं और दूसरे हलधर (बैल) के भाई हैं। यहाँ श्लेष अलंकार है। बिहारी शहर के कवि हैं। ग्रामीणों की अरसिकता की हँसी उड़ाते हैं। जब गंधी (इत्र बेचने वाला) गाँव में इत्र बेचने जाता है तो सुनिये क्या होता हैः करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि। रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।। (फुलेल = इत्र, सराहि = सराहना करके, इतर = इत्र, काँहि = किसको) कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन। गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।। (गँवई = छोटा गाँव, गाहक = ग्राहक) इसी तरह जब गाँव में गुलाब खिलता है तो क्या होता हैः वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब। फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।। (नागर = नागरिक, आब = इज्जत) नायिका के वर्णन में बिहारी कभी कभी अतिशयोक्ति का उपयोग करते हैं: काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन, आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा यानी कि: ये सुहागन काजल न लगा, कहीं तेरी उँगली तेरी गँड़ासे जैसी आँख की कोर से कट न जाये। गँड़ासे से जानवरों का चारा काटा जाता है। और सुनियेः सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम। बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।। यानी कि विरहिणी नायिका की श्वास से माघ के महीने में भी उस गाँव में लू चलती है। विरहिणी क्या हुई, लोहार की धौंकनी हो गई! विरहिणी अपनी सखी से कहती हैः मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव। कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।। यानी कि मैं ही पागल हूँ या सारा गाँव पागल है। ये कैसे कहते हैं कि चन्द्रमा का नाम शीतकर (शीतल करने वाला) है? तुलना करिये तुलसीदास जी की चौपाई से। अशोकवन में सीता जी कहती हैं: पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानुँहि मोहि जानि बिरहागी। अर्थात्: मुझको विरहिणी जानकर अग्निमय चन्द्रमा भी अग्नि की वर्षा नहीं करता। कुछ दोहे नीति पर भी हैं, जैसेः कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच। नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।। अर्थात् कोई कितना भी प्रयत्न करे किन्तु मनुष्य के स्वभाव में अन्तर नहीं पड़ता। नल के बल से पानी ऊपर तो चढ़ जाता है किन्तु फिर भी अपने स्वभाव के अनुसार नीचे ही बहता है। इस लेख को बिहारी के दो दोहों के साथ समाप्त करता हूँ जिनमें वे भगवान को उलाहना दे रहे हैं: नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि, तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि। अर्थात् : हे भगवान लगता है आब आपको आनाकानी अच्छी लगने लगी है और हमारी पुकार फीकी हो गई है। लगता है कि एक बार हाथी को तार कर तारने का यश छोड़ ही दिया है। कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय। तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।। अर्थात्: हे श्याम, मैं कब से दीन होकर तुम्हें पुकार रहा हूँ किन्तु आप मेरी सहायता नहीं कर रहे हैं। हे जग-गुरु, जगनायक क्या आपको भी इस संसार की हवा लग गई है? मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय। अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति। या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ। पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास। कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि
जात। नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास। इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं। सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति। बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस। गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं
परनाम। मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ।।
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।
नित प्रति पून्यौ ही रहै, आनन-ओप उजास॥
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥
चूमति चाहति लाय उर, पहिरति धरति उतारि।
तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति॥
सौंह करै, भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाय॥
पीठि दिये निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ॥
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥
आजु मिले सु भली करी, भले बने हौ लाल॥
दियो बढाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह॥
प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैन॥
पिय पाती बिन ही लिखी, बाँची बिरह-बलाइ॥
लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥
तिय लिलार बेंदी दिये, अगनित होत उदोत॥
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥
सूधे पाय न परत हैं, सोभा ही के भार॥
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥ नहीं पराग नहीं मधुर मधु के लेखक कौन है?पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 190) रचनाकार : डॉ. हरिचरण शर्मा
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल अलि कलि ही ते बन्धो आगे कौन हवाल?अर्थात – न हीं इस काल में फूल में पराग है, न तो मीठी मधु ही है। अगर अभी से भौंरा फूल की कली में ही खोया रहेगा तो आगे न जाने क्या होगा। दूसरे शब्दों में, 'हे राजन अभी तो रानी नई-नई हैं, अभी तो उनकी युवावस्था आनी बाकी है। अगर आप अभी से ही रानी में खोए रहेंगे, तो आगे क्या हाल होगा।
नहीं पराग नहीं मधुर मधु में कौन सा छंद है?" उपर्युक्त पंक्तियों में 'दोहा' छंद है।
पतरा ही तिथि पायो किसकी रचना है?स्रोत : पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 213) रचनाकार : डॉ. हरिचरण शर्मा
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