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नाथ सम्प्रदाय में योगिनियों का भी समावेश था। १७वीं शताब्दी की इस चित्रकला में एक नाथ योगिनी का चित्रण है। नेपाल में स्थित एक महर्षि मत्स्येन्द्रनाथ मन्दिर जहाँ हिन्दू और बौद्ध दोनों ही पूजा-अराधना करते हैं। नाथ सम्प्रदाय भारत का एक हिंदू धार्मिक पन्थ है। मध्ययुग में उत्पन्न इस सम्प्रदाय में बौद्ध, शैव तथा योग की परम्पराओं का समन्वय दिखायी देता है। यह हठयोग की साधना पद्धति पर आधारित पंथ है। शिव इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं। इसके अलावा इस सम्प्रदाय में अनेक गुरु हुए जिनमें गुरु मच्छिन्द्रनाथ /मत्स्येन्द्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। नाथ सम्प्रदाय समस्त देश में बिखरा हुआ था। गुरु गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया, अतः इसके संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं। नाथसम्प्रदाय में योगी और जोगी एकही सिक्के के दो पहलू हैं, एक जो सन्यासी जीवन और दुसरा गृहस्थ जीवन हैं। सन्यासी, योगी, जोगी, नाथ ,अवधूत ,कौल, गोस्वामी (बिहार),उपाध्याय (पश्चिम उत्तर प्रदेश में), नामों से जाना जाता है। इनके कुछ गुरुओं के शिष्य मुसलमान, जैन, सिख और बौद्ध धर्म के भी थे। नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख गुरु
यह ज्यादातर राजस्थान , हरियाणा , में निवास करते है । जीवन शैली[संपादित करें]नाथ साधु-सन्त परिव्राजक होते हैं। वे भगवा रंग के बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं। उनके एक हाथ में चिमटा, दूसरे हाथ में कमण्डल, दोनों कानों में कुण्डल, कमर में कमरबन्ध होता है। ये जटाधारी होते हैं। नाथपन्थी भजन गाते हुए घूमते हैं और भिक्षाटन कर जीवन यापन करते हैं। उम्र के अंतिम चरण में वे किसी एक स्थान पर रुककर अखण्ड धूनी रमाते हैं। कुछ नाथ साधक हिमालय की गुफाओं में चले जाते हैं। साधना-पद्धति[संपादित करें]नाथ सम्प्रदाय में सात्विक भाव से शिव की भक्ति की जाती है। वे शिव को 'अलख' (अलक्ष) नाम से सम्बोधित करते हैं। ये अभिवादन के लिए 'आदेश' या आदीश शब्द का प्रयोग करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या 'परम पुरुष' होता है। नाथ साधु-सन्त हठयोग पर विशेष बल देते हैं। गुरु परम्परा[संपादित करें]प्रारम्भिक दस नाथ[संपादित करें]आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुननाथ चौरासी सिद्ध एवं नौ नाथ[संपादित करें]नवनाथ (दक्षिण भारतीय चित्रण) ८वी सदी में ८४ सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी गई है। नौ नाथ गुरु 1. मच्छेंद्रनाथ2. गोरखनाथ 3. जालंदरनाथ 4. नागेशनाथ 5. भर्तरीनाथ 6. चर्पटीनाथ 7. कानीफनाथ 8. गहनीनाथ 9. रेवननाथ इसके अलावा ये भी हैं: 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ।ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, , गोगा नाथ, पंढरीनाथ और श्री स्वामी समर्थ, गजानन महाराज को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। वैष्णोवी देवी धाम के भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं। और विशेष इन्हे योगी भी कहते और जोगी भी कहा जाता हैं। देवो के देव महादेव जी स्वयं शिव जी ने नवनाथो को खुद का नाम जोगी दिया हैं। इन्हें तो नाथो के नाथ नवनाथ भी कहा जाता हैं। सन्यास दीक्षा[संपादित करें]नाथ सम्प्रदाय में किसी भी प्रकार का भेद-भाव आदि काल से नहीं रहा है। इस संप्रदाय को किसी भी जाति, वर्ण व किसी भी उम्र में अपनाया जा सकता है।सन्यासी का अर्थ काम , क्रोध , मोह , लोभ आदि बुराईयों का त्याग कर समस्त संसार से मोह छोड़ कर शिव भक्ति में समाधि लगाकर लीन होना बताया जाता है। प्राचीन काल में राजा-महाराजा भी अपना राज-पाठ छोड़ सन्यास इसी लिए लिया करते थे ताकि वे अपना बचा हुआ जीवन सांसारिक परेशानियों को त्याग कर साधुओ की तरह साधारण जीवन बिताते थे। नाथ संप्रदाय को अपनाने के बाद 7 से 12 साल की कठोर तपस्या के बाद ही सन्यासी को दीक्षा दी जाती थी। विशेष परिस्तिथियों में गुरु अनुसार कभी भी दीक्षा दी जा सकती है। दीक्षा देने से पहले वा बाद में दीक्षा पाने वाले को उम्र भर कठोर नियमो का पालन करना होता है। वो कभी किसी राजा के दरबार में पद प्राप्त नहीं कर सकता , वो कभी किसी राज दरबार में या राज घराने में भोजन नहीं कर सकता परन्तु राज दरबार वा राजा से भिक्षा जरुर प्राप्त कर सकता है। उसे बिना सिले भगवा वस्त्र धारण करने होते है ।हर साँस के साथ मन में आदेश शब्द का जाप करना होता है किसी अन्य नाथ का अभिवादन भी आदेश शब्द से ही करना होता है । सन्यासी योग व जड़ी- बूटी से किसी का रोग ठीक कर सकता है पर एवज में वो रोगी या उसके परिवार से भिक्षा में सिर्फ अनाज या भगवा वस्त्र ही ले सकता है। वह रोग को ठीक करने के लिए किसी भी प्रकार के आभूषण , मुद्रा आदि ना ले सकता हैऔर न इनका संचय कर सकता। महाराष्ट्र मे जो नवनाथ भक्तिसार ग्रंथ प्राप्त हुआ है जो गुरु मच्छेंद्रनाथ द्वारा लिखित हे. उस आधार पर ऐसा कहा जाता हे कि नाथसंप्रदाय गुरु गोरक्षनाथ द्वारा निर्मित हेI सिद्धों और नाथों में भेद[संपादित करें]सिद्ध अनीश्वरवादी थे, जबकि नाथ ईश्वरवादी। सिद्ध नारी भोग में विश्वास करते थे जबकि नाथपन्थी उसके विरोधी थे। गुरु महिमा, पिण्ड-ब्रह्माण्डवाद तथा हठयोग नाथ साहित्य का वैशिष्ट्य है। नाथों ने निरीश्वरवादी शून्य को ईश्वरवादी शून्य में प्रतिष्ठित किया। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
वर्गीकरण[संपादित करें]जोगियों को भारत के अधिकांश राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया गया है , अर्थात् असम, राजस्थान, दिल्ली, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश राज्य में अनुसूचित जाति । [९]
नाथ संप्रदाय के संस्थापक कौन हैं?नाथ सम्प्रदाय समस्त देश में बिखरा हुआ था। गुरु गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया, अतः इसके संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं।
नाथ संप्रदाय का मूल मंत्र क्या है?अदीक्षिता य कुर्वन्ति,जप पूजा दिका क्रिया । निष्फलं तत प्रिये तेषां,शिलायाम मुप्त बीजवत् । वह निष्फल हो जाता है जैसे पत्थर में बीज डालने से अन्न की प्राप्ती नही होती । नाथ सिद्ध पीठ – मकरध्वज बालाजी धाम , बलाड रोड , ब्यावर – अजमेर !
नाथ साहित्य का प्रमुख कवि कौन है?इनमें गोरखनाथ एवं मत्स्येन्द्रनाथ का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है, इनके अलावा नाथ साहित्य के अन्य प्रमुख कवि हैं – जालंधरपा, गोपीचंद, भरथरी आदि ।
नो नाथो के गुरु कौन थे?प्राचीनकाल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मत्स्येंद्रनाथ और उनके शिष्य गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस संप्रदाय के बिखराव और इस संप्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है।
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