Show कक्षकों के अतिव्यापन के प्रकार के आधार पर सहसंयोजी आबंध को दो प्रकार में बांटा गया
है। 1. सिग्मा बंधदो परमाणुओं के मध्य एक ही अक्ष पर उनके कक्षकों के सिरे के अतिव्यापन से जो बंध बनता है। उसे सिग्मा बंध (Sigma bond in Hindi) कहते हैं। इसे σ बंध द्वारा दर्शाया जाता है। सिग्मा बंध निम्न प्रकार के अतिव्यापन से बनते हैं। (i) s-s अतिव्यापन – (i) s-p अतिव्यापन – (i) p-p अतिव्यापन – 2. पाई बंधदो परमाणुओं की बाह्य कोश
के दो p-कक्षकों या p व d या दो d-कक्षकों के पाश्र्वीय अतिव्यापन से जो बंध बनते है। उसे पाई बंध (Pi bond in Hindi) कहते हैं। इसे π बंध द्वारा दर्शाया जाता है। पाई बंध में इलेक्ट्रॉनों का घनत्व अंतरानाभिकीय अक्ष पर शून्य होता है। तथा अंतरानाभिकीय अक्ष के तल के ऊपर और नीचे इलेक्ट्रॉन घनत्व अधिकतम होता है। सिग्मा बंध पाई बंध से प्रबल क्यों होता हैयह तो हम जानते ही हैं कि सहसंयोजक आबंध की प्रबलता अतिव्यापन के विस्तार पर निर्भर करती है। जिस बंध पर अतिव्यापन जितना अधिक होगा वह बंध उतना ही अधिक प्रबल होगा। सिग्मा बंध व पाई बंध में अंतर
प्रमुख बंध कितने होते हैं?बन्ध चार प्रकार के होते हैं। मूल बन्ध : गुदा संबंधी रोक। उड्डियान बन्ध : मध्य पेट को उठाना। जालन्धर बन्ध : ठोड्डी को बन्द करना।
योग में बंद कितने प्रकार के होते हैं?बन्ध (योग). मूल बन्ध. उड्डियान बन्ध. जालन्धर बन्ध. महा बन्ध. बन्ध का क्या अर्थ है?बंध का अर्थ है रोकना, कसना, बांधना या ताला लगाना। यदि हम योग में 'बंध' की बात करें तो यह शरीर के कुछ हिस्सों में ऊर्जा प्रवाह को रोककर, उसे अन्य अंगों में प्रवाहित या संचित करने का कार्य करता है। सही मायनों में यह ऊर्जा के वितरण का कार्य करता है। इससे आंतरिक अंगांे की मालिश होती है तथा रक्त का जमाव दूर होता है।
बंध कहाँ कहाँ लगते हैं?किसी किसी अभ्यास में दो या तीन बंधों और मुद्राओं को सम्मिलित करना पड़ता है। यौगिक क्रियाओं का जब नित्य विधिपूर्वक अभ्यास किया जाता है निश्चय ही उनका इच्छित फल मिलता है। मुद्राओं एवं बंधों के प्रयोग करने से मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, बवासीर, खाँसी, दमा, तिल्ली का बढ़ना, योनिरोग, कोढ़ एवं अनेक असाध्य रोग अच्छे हो जाते हैं।
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