डॉ. देवव्रत सिंह। Show संचार किसी भी समाज की आधारभूत आवश्यकता है। ये भी कहा जा सकता है कि संचार समाज के निर्माण की पहली शर्त है। सदियों से अलग-अलग समाजों ने संचार के लिए विशिष्ट माध्यमों को विकसित किया है। आदिम समाजों में सामूहिक नृत्य-गायन और भोजन करना संचार का सशक्त माध्यम होते थे। आज भी आदिवासी समाजों में ये परंपरा जीवित है तो इसके पीछे मजबूत आधार भी है। एक साथ नाचने-गाने और भोजन करने से आदिवासी समाज के बीच-बीच ना केवल गहरा संवाद स्थापित होता है बल्कि पूरा आयोजन अपने सदस्यों के बीच ये संदेश भी छोड़ता है कि वे आपस में गहरे जुड़े हुए हैं। आधुनिक समाज यदि डिस्को या पब संस्कृति को जन्म देते हैं तो ये उनकी उसी आदिम इच्छा का परिणाम है जिसमें प्रत्येक मनुष्य दूसरों से जुड़ना चाहता है और इसी प्रकार समाज का निर्माण होता है। भले ही आज के पब या अन्य सामाजिक आयोजन आदिम समाजों से भिन्न हैं लेकिन इससे साबित यही होता है कि संचार मनुष्य की पहली जरूरत है। संचार के माध्यम से ही संस्कृति का निर्माण होता है और मनुष्य अपनी संचार गतिविधियों से ही संस्कृति को निरंतर उत्कृष्ट बनाता है और उसे अगली पीढि़यों तक पहुंचाता है। मानव विकास और संचार का इतिहास मानव जब झुंडों में रहने के बजाये कबीलों में व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने लगा तो उसका संचार भी पहले से व्यवस्थित हुआ। सभ्यता के विकास से काफी पहले ही मानव ने तस्वीरों और प्रतीकों के जरिये संचार करना सीख लिया था। लेकिन व्यवस्थित भाषा का जन्म मनुष्य की एक बड़ी उपलब्धि थी। भाषा की उत्पत्ति लगभग 7000 ईसा पूर्व हुई। यही वो समय है जब सभ्यता का जन्म माना जाता है। मनुष्य केवल शिकार पर निर्भर करने के स्थान पर खेती करने लगा। घुमंतू जीवन छोड़ एक स्थान पर नगर बसाने लगा। सुमेर और हड़प्पा की सभ्यता इस काल के प्रमुख उदाहरण हैं। हड़प्पा संस्कृति में हम मूर्तियों और सिक्कों के रूप में अनेक प्रतीक पाते हैं जिससे पता चलता है कि ये नगरीय समाज एक समृद्ध भाषा विकसित कर चुका था। यही नहीं प्रतीकों की भाषा (पिक्टोग्राफिक्स) के अनेक हिस्से मिले हैं जिन्हें अभी तक पूरी तरह पढ़ा नहीं जा सका है। वैदिक काल में श्रुतियां और वेद सभी कुछ वाचिक परंपरा में मौजूद था। यज्ञों में मंत्रोच्चारण के जरिये ही देवताओं को खुश करने की कोशिश की जाती थी। सारा ज्ञान भी वाचिक परंपरा के माध्यम से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता था। वेदों को बहुत बाद में लिपिबद्ध किया गया। गुरू अपने शिष्यों को पूरा का पूरा वेद याद करवा देता था। पहले-पहल ऋचाओं को पत्तों पर लिखकर सहेजने की कोशिश की गयी। बौद्ध और जैन काल में समृद्ध भाषा विकसित हो चुकी थी और उसको पत्थरों पर उकेर कर स्थाई बनाने की भी परंपरा थी। महात्मा बुद्ध ने आम लोगों द्वारा बोले जाने वाली और प्रकृत भाषा में अपने प्रवचन दिये ताकि जन-जन तक उनकी बात पहुंचे। मंदिर संचार के प्रभावशाली केन्द्र होते थे। जहां मूर्तियों के अलावा धार्मिक कर्म-कांडों के जरिये भी सामाजिक संचार होता था। इस काल में ढ़ोल-नगाड़ों के माध्यम से गांव-गांव में मुनादी भी राजा के आदेशों को जनता तक पहुंचाने का एक माध्यम थे। रोमन समाज में पत्थरों पर खुदाई करके सूचना पट बनाये जाते थे। बाजारों में विशेष स्थानों पर इन पटों को लगाने का नियत स्थान होता था। ये एक प्रकार के पोस्टर होते थे जिन्हें सूचना पुरानी पड़ने पर बदल दिया जाता था। इस सब के बावजूद प्राचीन समाज में वाचिक परंपरा ही लंबे समय तक प्रमुख संचार माध्यम बनी रही। मध्ययुगीन समाजों में कला-संस्कृति का समृद्ध रूप दिखाई देता है। जिसमें लोक संस्कृति के रूप में विभिन्न विधाओं में नाटक, गीत, नृत्य इत्यादि विकसित होते हैं। ये सब एक तरफ सामाजिक रीति रिवाजों के रूप में समाज में विद्यमान रहे वहीं ये साझा मनोरंजन और संचार के साधन भी बने रहे। इन सांस्कृतिक गतिविधियों में संचार के साथ-साथ धर्म, परंपराएं, मनोरंजन, सामाजिक मेलजोल सभी कुछ मिलेजुले रूप में मौजूद था। समाज का एक विशिष्ट हिस्सा इन सांस्कृतिक गतिविधियों को आयोजित करने में लग गया। लोक कलाओं की खूबी ये रही कि आम लोग भी इसमें उतनी ही तल्लीनता से हिस्सा लेता जितना कि कलाकार, क्योंकि ये अधिक मुश्किल नहीं थी। दरअसल, लोक कला में आम लोग ही नये प्रयोग करते थे और उसे परिमार्जित करते थे। अधिकांश लोक गीतों के रचयिता का नाम किसी को मालूम नहीं है। राजाओं की तरफ से भी इस प्रकार के सामाजिक आयोजनों के लिए मदद दी जाती थी। लेकिन अधिकांश समाजों में कुछ परिवार इस कला के माध्यम से अपना गुजर बसर करते थे इसलिए वही कला विशेष को जिंदा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लोक कलाओं के समानांतर दरबारी कला भी विकसित होने लगी जो अधिक व्यवस्थित और शास्त्रीय थी। शास्त्रीय संगीत केवल समाज के संभ्रांत तबके के लोगों के लिये ही उपलब्ध था। राजाओं और नवाबों के विशेष आश्रय में पहले वाले शास्त्रीय कलाकार अधिक गूढ़ता और बारीकी लिये संगीत और नृत्य की साधना करते। शास्त्रीय संगीत के जानकार कलाकारों ने अपने घराने बना लिये। जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस कला को सहेज कर रखते थे। भारत में शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परंपरा मौजूद है। इसके अलावा भारतीय संदर्भ में मेले परंपरागत संचार के प्रमुख माध्यम रहे। मेले अकसर बड़े मंदिरों के आसपास किसी धार्मिक मौके पर आयोजित किये जाते हैं। मेले एक साथ धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक गतिविधियों भरे होते हैं। मेले समाज के लिये मेलजोल के साथ-साथ मनोरंजन का माध्यम भी होते हैं। मेलों की परंपरा भारत में आज भी विद्यमान है। कुंभ मेले की विशालता इसका एक सशक्त उदाहरण है। पुराने समय में राजा मेलों का उपयोग अपने प्रभाव को बढ़ाने और जनता में संदेश फैलाने के लिए करते थे। परंपरागत संचार की अवधारणा भारत में परंपरागत संचार का स्वरूप जात्रा- जात्रा पूर्वी भारत यानी बंगाल का प्रसिद्ध नाटक है। हालांकि उड़ीसा और बिहार के कुछ हिस्सों में जात्रा का प्रचलन है। इस नाटक में पात्र काफी अधिक संख्या में होते हैं और सामान्यत ये द्वारपाल अथवा जमादार और उसकी पत्नी या कंजर जाति से संबंधित चरित्रों की भूमिका में होते हैं। ये पात्र नाटक में हास्य परिस्थितियों के निर्माण में सहायक एवं माहिर होते हैं। जात्रा के नाटक ज्यादातर व्यंगात्मक होते हैं। जात्रा का संगीत भी काफी लोकलुभावन, सजीव एवं मस्ती भरा होता है। जात्रा में प्राय बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानियां मंचित की जाती हैं। मंदिर का प्रांगण इनका मंच होता है। जात्रा के लिए आयताकार रंगशाला होती है। स्टेज थोड़ा ऊंचा होता है, पात्रों के आने जाने के लिए एक ढलवां रास्ता भी स्टेज पर बना होता है। तमाशा- महाराष्ट्र की ये लोकप्रिय नाटय कला अपनी कथा वस्तु में धार्मिक नहीं है। लेकिन इसमें अनेक बार जीवन का दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। तमाशा पूरी तरह एक मनोरंजक शैली है। इसमें महिला पात्र अपने पति या प्रेमी के गुणगान मे गीत गाती है। कलाकार अपनी बात गीत, वार्तालाप और नृत्य के मिलेजुले रूप में करते हैं। तमाशा के बीच-बीच में लावणी और पोवड़ भी प्रस्तुत की जाती है। लावणी दरअसल महाराष्ट्र की ग्रामीण महिलाओं का नृत्य है। तेज लय पर गीत और नृत्य लावणी की विशेषता है। तड़क-भड़क वाली पोशाकों में लावणी कलाकार मादक और मनमोहक लगती है। नौटंकी- उत्तर भारत की लोक नाटय कला नौटंकी को खुले स्टेज पर मंचित किया जाता है। पौराणिक कहानियों पर आधारित नौटंकी की कथाएं एक सूत्रधार प्रस्तुत करता है। ढोलक तेज लय में नौटंकी कलाकार गाते भी हैं और नाचते भी हैं। इसमें लैला मजनू, लोकप्रिय राजाओं और डकैतों की कहानियों को भी बीच-बीच में सुनाया जाता है। कठपुतली- ये भी एक भिन्न प्रकार की लोक कला है। बेजान होते हुए भी सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। पहले इसका प्रयोग सिर्फ मनोरंजन के लिए होता था लेकिन आज शिक्षा के क्षेत्र में इसकी असीम संभावनाएं देखी जा रही हैं। कठपुतली का लोक नाटकों में इस्तेमाल काफी प्राचीन समय से हो रहा है। इनकी विषय-वस्तु मुख्यतः रामायण और महाभारत से संबंधित ही रहती थी। भारत के साथ-साथ अनेक पड़ोसी एशियाई देशों में भी कठपुतली नाटकों का मंचन किया जाता है। आजादी आंदोलन में भी इनकी भूमिका रही है। यक्षगान- उतरी कर्नाटक के यक्षगान को बयालाट भी कहा जाता है। जिसका मतलब है खुले मैदान का नाटक (बयालू) इसके अलावा यक्षगान को दोद्दात के नाम से भी जाना जाता है, यह नाटक हमेशा खुले में प्रदर्शित होता है। भागवत की विषय-वस्तु पर आधारित होता है। इस नाटक में एक व्याख्याकार तथा एक मसखरा (विदूषक) होता है। व्याख्याकार को भगवता कहा जाता है जिसका मुख्य काम तुकबंदियों व गायन के जरिये कहानी कहना होता है। भवई- ये नाटक उतरी गुजरात में खेला जाता है। यह विशुद्ध धार्मिक नाटक है जो अम्बा देवी माता के स्थान के आस-पास या उसके सम्मुख ही प्रस्तुत किया जाता है। इसमें तीन मुख्य पात्र होते हैं- नायक, रंगलो और रंगली। नायक नाटक का सूत्रधार है या उसे प्रबंधक भी कह सकते हैं। नायक एक गायक, कथा वर्णनकर्ता अथवा वाचय की भूमिका एक साथ निभाता है। रंगलो (विदूषक) मसखरा की भूमिका में होता है तथा रंगली का काम होता है रंगलों का उसकी बातों में साथ देना तथा ये नजर रखना कि कहीं वो अपनी पटरी से उतर तो नहीं रहा है या भटक तो नहीं रहा है। रंगलो अपने व्यंगात्मक अंदाज में अनेक सामाजिक और राजनैतिक बुराइयों का खुलासा कर लोगों को जागरूक बनाता है। भवई में स्वतंत्रता पूर्वक एक साथ कई विधाओं-संवाद, एकल या सामूहिक नृत्य, गीत, माइम, जादुई तरीके, दोहा, चैपाई और गरबा का प्रयोग कर लिया जाता है। केतन मेहता की एक फिल्म भी है भवनी भवई, जिसमें इस लोक नाटक को सिनेमाई भाषा में ज्यों का त्यों रूपांतरित किया गया है। नुक्कड़ नाटक- नुक्कड़ नाटकों का जन्म अधिक पुराना नहीं है। दरअसल, बीसवीं सदी में अनेक जनसंगठनों ने लोक कलाओं की मदद लेकर नुक्कड़ नाटकों को लोकप्रिय बनाया। इन संस्थाओं में इप्टा का नाम प्रमुख है। नुक्कड़ नाटक मूल रूप से संस्थागत नाटकों के खिलाफ एक विद्रोह कहा जा सकता है। इप्टा नाटक को संभ्रांत लोगों के मनोरंजन का साधन की बजाए आम लोगों की समस्याओं के खिलाफ लड़ाई लड़ने के औजार के रूप में देखता था। इप्टा ने नुक्कड़ नाटक के जरिये गावों में आम लोगों को विभिन्न मसलों पर जागरूक बनाया है। लोक गीत – भारतीय समाज में जीवन के हर मौके के लिए गीत मौजूद है। जन्म, विवाह से लेकर मृत्यु के भी गीत गाये जाते हैं। ये लोक गीत ना केवल खुशियां और गम मनाने का साधन हैं बल्कि इनके जरिये भारतीय समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रवाहित करता है। विवाह के अनेक गीतों में युवा लड़के-लड़कियों को वैवाहिक जीवन के लिए अनेक सीख दी जाती है। लोक कथा और लोक गाथा- कथा कहने और प्रवचन देने की भारत में लंबी परंपरा है। जो आज भी बड़े-बड़े गुरूओं के रूप में जारी हैं। आल्हा-उदल के किस्से हों या फिर भागवत कथा आज भी खुशी के मौकों पर लोग अपने घरों में कथा वाचन के लिए ज्ञानियों को बुलाते हैं और अनेक दिनों तक बैठकर कथा सुनते हैं। ये वाचिक परंपरा है। कीर्तन- गांधी जी ने कीर्तन जैसे परंपरागत माध्यम का अंग्रेजों के खिलाफ बखूबी इस्तेमाल किया था। भक्ति आंदोलन में अधिकांश संतों ने भी आम लोगों को कीर्तन में लगाया था। इसके जरिये ना केवल सामाजिक संगत होती थी बल्कि गीतों और भजनों की मदद से अनेक धार्मिक-सामाजिक संदेश प्रचारित किये जाते थे। आजादी आंदोलन में भी कीर्तन का खूब प्रयोग किया गया है। लोक कला – सभी प्रकार की लोक चित्रकला इस श्रेणी में आती हैं। ग्रामीण समाज में महिलाएं घरों को लीपपोत कर सजाती हैं। बिहार की मधुबनी पेंटिंग इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। वहां महिलाएं घरों की दीवारों पर ये चित्रकारी करती हैं। हरियाणा में गोबर से सांझी का निर्माण भी लोक कला का एक उदाहरण है। राजस्थानी महिलाएं अपने घरों के बाहर विशेष प्रकार की सजावट करती हैं। इन सबके अलावा भी ग्रामीण जीवन में लकड़ी, कपड़े, लोहे और मिट्टी के सामान में जुलाहे, कुम्हार, खाती, सुनार आदि सभी लोग सदियों से ना केवल कलात्मकता को बचाये हुए हैं बल्कि वे कला असली सृजक और उपासक हैं। परंपरागत संचार की विशेषताएं
परंपरागत संचार की सीमाएं आधुनिक मीडिया का परंपरागत संचार पर प्रभाव विकास में परंपरागत संचार का योगदान आजादी आंदोलन में सेनानियों ने लोकगीतों और नाटकों के माध्यम से लोगों को जागरूक बनाया था। आजादी के बाद विकास के जितने भी कार्यक्रम चलाये, सरकार ने विकास योजनाओं और अभियानों के प्रचार-प्रसार के लिये जन माध्यमों का सहारा लिया। विकास के संदेशों को फैलाने के लिए पंरपरागत संचार माध्यमों की भी मदद ली गयी। सरकार ने दृश्य-श्रव्य प्रचार निदेशालय और संगीत नाटक अकादमी का गठन किया। जिसने हरित क्रांति के संदेश को कठपुतली, लोकगीतों, और नाटकों के जरिये दूरदराज में फैलाया। छोटी बचत कने के संदेश को लेकर यूनियन बैंक आॅफ इंडिया ने कठपुतली शो आयोजित किये जिसका गावों मे काफी असर हुआ और किसानों ने बैंक में बचत करना आरंभ किया। देशभर में साक्षरता मिशन परंपरागत माध्यमों के बेहतर इस्तेमाल का एक शानदार उदाहरण है। पढ़ने-लिखने और स्कूल जाने के संदेशों को घर-घर तक ले जाने के लिए आम लोगों की जुबान में नारे, गीत, किस्से, कहानियां, सांग, रागणी बनायी गयी। नुक्कड़ नाटकों और नौटंकियों के जरिये ग्रामीणें के दिलों तक बात पहुंचाने की कोशिश की गयी। वर्तमान में परंपरागत संचार की प्रासंगिकता आधुनिक युग में परंपरागत माध्यमों के उपयोग पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि नयी तकनीक से मिलकर परंपरागत माध्यम और कलाएं निरंतर अपनी उपस्थिति महसूस करा रही है। लोक कथा और प्रवचनों के क्रम में आज भी मुरारी बापू आसाराम, राधा स्वामी जैसे अनेक आध्यात्मिक गुरू लोक प्रतीकों का सहारा लेकर ठेठ परंपरागत अंदाज में पौराणिक कहानियां सुनाते हैं। जिन्हें आम लोग बड़ी तादाद में घंटों सुनते हैं। यही नहीं धार्मिक गुरू इन प्रवचनों के वीडियो टेप का प्रसारण आस्था और जागरण जैसे टेलीविजन चैनलों पर करवाते हैं। भारतीय समाज में मेले आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए हैं बल्कि मेलों में लोगों की संख्या पहले से बढ़ी है। रामलीलाओं का आयोजन पहले से भव्य हुआ है। आधुनिक तकनीक की मदद से अब वो पहले से अधिक आकर्षक बन गयी है। अनेक कंपनियों ने लोक कलाकारों के गाये गीतों को ऑडियो टेप और सीडी के रूप में बाजार में उतार दिया है। आधुनिक फैशन में लोक प्रतीकों को अपना कर एक किस्म का एथनिक फ्यूजन बनाया जा रहा है। परंपरागत संचार का भविष्य बेहतर भविष्य के लिए सुझाव
डॉ. देवव्रत सिंह झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। संचार के परंपरागत साधन क्या है?महत्त्व वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में जनसंचार माध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। समाज में संचार माध्यमों की भूमिका मूल रूप से वह प्रकार्य है जो यह बताता है कि समाज संचार माध्यमों का उपयोग किस उद्देश्य के लिए करता है। समाज का संचार माध्यमों से संबंध सर्वसमावेशी आत्मवाचक (स्वआश्रित) और परिवर्ती दोनों प्रकार का है।
परंपरागत माध्यम कौन सा है?गैर-इलेक्ट्रॉनिक माध्यम जो हमारी संस्क ति के एक भाग के रूप में कार्य करते हैं तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में परम्पराओं के हस्तांतरण का साधन बनते हैं परम्परागत माध्यम कहलाते हैं ।
पारंपरिक जनसंचार माध्यम कौन सा है?प्रायः इसका अर्थ सम्मिलित रूप से समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र से लिया जाता है जो समाचार एवं विज्ञापन दोनो के प्रसारण के लिये प्रयुक्त होते हैं। जनसंचार माध्यम में संचार शब्द की उत्पति संस्कृत के 'चर' धातु से हुई है जिसका अर्थ है चलना।
संचार के माध्यम कौन कौन से हैं?पत्र-पत्रिकाएँ. सिनेमा. आकाशवाणी और रेडियो. टेलीविजन. इन्टरनेट. सोशल मिडिया. विज्ञापन. विविध माध्यम. |