SC और ST में क्या अंतर है? - sch aur st mein kya antar hai?

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी और इसके तहत मामलों में तुरंत गिरफ़्तारी की जगह शुरुआती जांच की बात कही थी.

एक आदेश में जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा था कि सात दिनों के भीतर शुरुआती जांच ज़रूर पूरी हो जानी चाहिए.

क़ानून के आलोचक इसके दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं.

समर्थक कहते हैं कि ये क़ानून दलितों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होने वाले जातिसूचक शब्दों और हज़ारों सालों से चले आ रहे ज़ुल्म को रोकने में मदद करता है.

सोमवार को इस एक्ट में हुए बदलावों के विरोध में देश भर में दलितों ने प्रदर्शन किया था और कई जगह हिंसा भड़की. हिंसा में नौ लोग मारे गए.

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी, लेकिन केंद्र को करारा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपने फ़ैसले पर स्टे देने से इनकार कर दिया.

आइए जानते हैं सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मुख्य बातें.

1. अगर किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ क़ानून के अंतर्गत मामला रिपोर्ट होता है तो अदालत ने अपने आदेश में सात दिनों के भीतर पूरी हो जाने वाली शुरुआती जांच की बात कही.

2. अदालत ने कहा कि चाहे शुरुआती जांच हो, चाहे मामले को दर्ज कर लिया गया हो, अभियुक्त की गिरफ़्तारी ज़रूरी नहीं है.

3. अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ़्तारी के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति ज़रूरी होगी.

4. अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ़्तारी के लिए एसएसपी की सहमति ज़रूरी होगी.

5. एससी/एसटी क़ानून के सेक्शन 18 में अग्रिम ज़मानत की मनाही है. अदालत ने अपने आदेश में अग्रिम ज़मानत की इजाज़त दे दी. अदालत ने कहा कि पहली नज़र में अगर ऐसा लगता है कि कोई मामला नहीं है या जहां न्यायिक समीक्षा के बाद लगता है कि क़ानून के अंतर्गत शिकायत में बदनीयती की भावना है, वहां अग्रिम ज़मानत पर कोई संपूर्ण रोक नहीं है.

6. अदालत ने कहा कि एससी/एसटी क़ानून का ये मतलब नहीं कि जाति व्यवस्था जारी रहे क्योंकि ऐसा होने पर समाज में सभी को साथ लाने में और संवैधानिक मूल्यों पर असर पड़ सकता है. अदालत ने कहा कि संविधान बिना जाति या धर्म के भेदभाव के सभी की बराबरी की बात कहता है.

7. आदेश में अदालत ने कहा कि कानून बनाते वक्त संसद का इरादा क़ानून को ब्लैकमेल या निजी बदले के लिए इस्तेमाल का नहीं था. क़ानून का मक़सद ये नहीं है कि सरकारी कर्मचारियों को काम से रोका जाए. हर मामले में - झूठे और सही दोनो में - अगर अग्रिम ज़मानत को मना कर दिया गया तो निर्दोष लोगों को बचाने वाला कोई नहीं होगा.

8. अदालत ने कहा कि अगर किसी के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो वो निष्क्रिय नहीं रह सकती और ये ज़रूरी है कि मूल अधिकारों के हनन और नाइंसाफ़ी को रोकने के लिए नए साधनों और रणनीति का इस्तेमाल हो.

9. आदेश में साल 2015 के एनसीआरबी डेटा का ज़िक्र है जिसके मुताबिक ऐसे 15-16 प्रतिशत मामलों में पुलिस ने जांच के बाद क्लोज़र रिपोर्ट फ़ाइल कर दी. साथ ही अदालत में गए 75 प्रतिशत मामलों को या तो ख़त्म कर दिया गया, या उनमें अभियुक्त बरी हो गए, या फिर उन्हें वापस ले लिया गया. इस केस में एमिकस क्यूरे रहे अमरेंद्र शरण ने बीबीसी को बताया ऐसे मामलों की जांच डीएसपी स्तर के अधिकारी करते हैं "इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि ये जांच साफ़ सुथरी होती होगी."

10. आदेश में ज़िक्र है कि जब संसद में क़ानून के अंतर्गत झूठी शिकायतों को लेकर सवाल उठा तो जवाब आया कि अगर एससी/एसटी समाज के लोगों को झूठे मामलों में दंड दिया गया तो ये क़ानून की भावना के ख़िलाफ़ होगा.

सुप्रीम कोर्ट का ये ताज़ा फ़ैसला डॉक्टर सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य और एएनआर मामले में आया है. मामला महाराष्ट्र का है जहां अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के ख़िलाफ़ इस क़ानून के अंतर्गत मामला दर्ज कराया.

गैर-अनुसूचित जाति के इन अधिकारियों ने उस व्यक्ति की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके खिलाफ़ टिप्पणी की थी. जब मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी ने अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए उनके वरिष्ठ अधिकारी से इजाज़त मांगी तो इजाज़त नहीं दी गई.

इस पर उनके खिलाफ़ भी पुलिस में मामला दर्ज कर दिया गया. बचाव पक्ष का कहना है कि अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो इससे काम करना मुश्किल जो जाएगा.

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माला दीक्षित, नई दिल्ली। सबसे जरूरतमंद तक आरक्षण का लाभ पहुंचाने की नई राह खुल रही है। सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने आरक्षण के भीतर आरक्षण यानी कोटे में कोटा को सही ठहराया है। पीठ का कहना है कि आरक्षण का लाभ सभी तक समान रूप से पहुंचाने के लिए राज्य सरकार को एससी/एसटी श्रेणी में वर्गीकरण का अधिकार है। राज्य सरकार आरक्षित श्रेणी में उपवर्ग बना सकती है।

2004 में ईसी चिन्नैया मामले में सुप्रीम कोर्ट के ही पांच जजों की एक पीठ ने इससे विपरीत फैसला देते हुए कहा था कि एससी/एसटी में उपवर्गीकरण का राज्यों को अधिकार नहीं है। जस्टिस अरण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि समान क्षमता वाली दो पीठ के विपरीत फैसलों को देखते हुए प्रधान न्यायाधीश से मामले को सात जजों या उससे ब़़डी पीठ के समक्ष विचार के लिए लगाने का आग्रह करते हैं। जस्टिस अरण मिश्रा, इंदिरा बैनर्जी, विनीत सरन, एमआर शाह और अनिरद्ध बोस की पीठ ने 78 पेज के विस्तृत फैसले में कहा कि बदलती सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखे बगैर सामाजिक बदलाव के संवैधानिक उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

एससी/एसटी में भी क्रीमीलेयर

कोर्ट ने आरक्षण के हमेशा लागू रहने के औचित्य, एससी/एसटी वर्ग में भी क्रीमीलेयर लागू करने जैसे कई मुद्दों को छूते हुए कहा कि आरक्षण का लाभ सबसे जरूरतमंद तक नहीं पहुंच रहा है। इसके लिए राज्य आरक्षण देते समय अनुच्छेद 14, 15 और 16 की अवधारणा के आधार पर सूची में दी गई अनुसूचित जातियों में तर्कसंगत उपवर्गीकरण भी कर सकता है। राज्य सरकार सूची में छे़़डछा़़ड नहीं कर सकती और न ही वह सूची में किसी जाति को जो़़ड अथवा घटा सकती है और न ही जाति की जांच कर सकती है।

असमानता बढ़ाने के लिए नहीं है आरक्षण

कोर्ट ने कहा कि जब आरक्षण एक वर्ग के बीच असमानता पैदा करे तो राज्य का दायित्व है कि वह उपवर्गीकरण के जरिये उसे दूर करे और इस तरह उसका बंटवारा करे कि लाभ सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित न रहे बल्कि सभी के साथ न्याय हो। मान्य सीमा तक आरक्षण देने का अधिकार राज्य विधायिका के पास है। विभिन्न रिपोर्ट दर्शाती हैं कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्ग में सब जातियां समान नहीं हैं।

क्या था 2004 का फैसला?

2004 में ईसी चिन्नैया मामले में शीषर्ष अदालत की पांच सदस्यीय पीठ ने कहा था कि राज्यों को आरक्षित जातियों के भीतर वर्गीकरण का अधिकार नहीं है। कोटे के अंदर कोटा सही नहीं है।

अब अदालत ने यह कहा

पुन: वर्गीकरण नहीं किया गया तो असमानता का सामना कर रहे लोगों को समान अधिकार देने का लक्ष्य अधूरा रह जाएगा। इस दिशा में कदम उठाने के लिए वर्गो के बीच अंतर करने का अधिकार राज्यों से नहीं छीना जा सकता।

यह होगा असर

देखने में आया है कि एक बार आरक्षण का लाभ ले चुकी जातियां ही बार--बार उसका लाभ पाती रहती हैं। वहीं बहुत से निचले तबके कभी आरक्षण का लाभ नहीं ले पाते हैं। एससी/एसटी जातियों में उपवर्गीकरण की राह खुलने से उस निचले तबके को भी मुख्यधारा में आने का मौका मिलेगा।

यह है मामला

पंजाब सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों में से 50 फीसद 'वाल्मिकी' एवं 'मजहबी सिख' को देने का प्रविधान किया था। 2004 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। इस फैसले के खिलाफ पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। इस संबंध में कुछ अन्य याचिकाएं भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हैं।

अदालत ने यह भी कहा

- राज्य सरकार को आरक्षण देने और उसे बराबरी से बांटने का अधिकार है। वह दूसरों को लाभ से वंचित किए बगैर अनुसूचित जाति में ज्यादा पिछ़़डे वर्ग को तरजीह देते हुए लाभ देने का तौर तरीका तय कर सकती है

- किसी वर्ग को वरीयता देने के लिए तय आरक्षित कोटे से एक निश्चित हिस्सा देना अनुच्छेद 341, 342 और 342ए के तहत सूची का उल्लंघन नहीं माना जाएगा, क्योंकि सूची में शामिल किसी भी जाति को वंचित नहीं किया गया है

- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति और शैक्षणिक रूप से पिछ़़डा वर्ग, जिसे आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं किया गया है, आरक्षण के निश्चित हिस्से या पूरे हिस्से का दावा नहीं कर सकते

बड़ी बात

ध्यान रहे कि फिलहाल केंद्र सरकार ने ओबीसी में वर्गीकरण के लिए आयोग का गठन किया है। अगर बड़ी पीठ से भी उपवर्ग बनाने के हक में फैसला आया तो आरक्षण का स्वरूप बहुत कुछ बदलेगा।

एससी में कौन कौन सी कास्ट आती है?

यूपी एसटी कास्ट लिस्ट भोटिया, जौनसारी, थारू, भंगी (मुस्लिम), राजी ,बोक्सा आदि.

एससी का क्या मतलब है?

SC (Scheduled Castes) इस श्रेणी में ऐसी जातियों को रखा गया है जो आर्थिक रूप से पिछड़े होने के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी पिछड़ी हुई है। आजादी के बाद से इन जातियों को निचले स्तर की जाती समझा जाता है।