दक्षिण भारत का पुराना नाम क्या था? - dakshin bhaarat ka puraana naam kya tha?

भारत के पांच हिस्से हैं एक उत्तर भारत, दूसरा पर्वोत्तर भारत, तीसरा पश्चिम भारत, चौथा मध्य भारत और पांचवां दक्षिण भारत। दक्षिण भारत का केंद्र तमिल रहा है। जिस तरह उत्तर या पश्चिम भारत में मोहनजोदड़ो या सिंधु घाटी की सभ्यता को सबसे प्राचीन माना जाता है उसी तरह दक्षिण भारत में तमिल सभ्यता को भी सबसे प्राचीन सभ्यता माना जाता है। आओ जानते हैं इस संबंध में 10 खास बातें।

1. पुरातत्व शोधकर्ता मानते हैं कि तमिल सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता थी। अरब की खाड़ी में ऐसे दो नगर ढूंढे गए हैं जो कि भारत के प्राचीन वैभव और इतिहास को प्रमाणित करते हैं। यहां से प्राप्त पुरा अवशेषों की कार्बन डेटिंग से पता चला है कि यह 5 हजार से 9 हजार वर्ष पुरानी हैं। द्वारिका की तरह यह नगर की प्राकृतिक आपदाओं के कारण समुद्र में समा गए थे।

2. इन नगरों की खोज से यह पता चलता है कि गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों से जुड़ी तमिल सभ्यता कितनी प्राचीन थी। दक्षिण भारत के प्राचीन नगरों में पंचवटी, नासिक, महाबलेश्वर, महाबलीपुरम, किष्किंधा, हम्पी, ऋष्यमूक पर्वत, कोडीकरई, रामेश्‍वरम और धनुषकोडी (रामसेतु) को सबसे प्राचीन माना जाता है। कावेरी नदी को दक्षिण की गंगा कहा जाता है। कर्नाटक और तमिलनाडु इस कावेरी घाटी में पड़ने वाले प्रमुख राज्य हैं। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर रामायण और महाभारतकालीन अवशेष पाए जाते हैं। आगे चलकर पंपा नदी है।

3. जो लोग यह मानते हैं कि सिन्धु घाटी की सभ्यता से भारत के इतिहास की शुरुआत होती है, उनकी सोच अब पुरानी हो चुकी है। ऐसे लोग गुजरात समुद्र के भीतर द्वारिका नगरी के मिलने के साक्ष्य को नकार सकते हैं। अब उन्हें 'कुमारी कंदम' के अस्तित्व को भी नकारने की ताकत जुटाना होगी। आज से 100 या 50 साल पहले इतिहास को जानने के स्रोत कम थे। उस काल में लिखी गई इतिहास की किताबों को पढ़कर ही अब इतिहास को नहीं जाना जा सकता, हालांकि वे किताबें हमारे ज्ञान का आधार जरूर हैं, लेकिन अब नए शोध के साथ इतिहास को जानने की जरूरता है।

4. वैज्ञानिक कहते हैं कि गोंडवाना नामक एक द्वीप के टूटने से भारत, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका का निर्माण हुआ। उस काल में भारत कैसा था, यह शोध का विषय हो सकता है। लेकिन हम बात कर रहे हैं आज से 15,000 वर्ष पूर्व के भारत की। 19वीं सदी में अमेरिकी और यूरोपीय विद्वानों के एक वर्ग ने अफ्रीका, भारत और मेडागास्कर के बीच जियोलॉजिकल और अन्य समानताएं समझाने के लिए जलमग्न हो चुके एक महाद्वीप का अनुमान लगाया और उसे लेमुरिया (Lemuria) का नाम दिया। हलांकि इस दौरान एक और महाद्वीप खोजा जिसका नाम मु (mu) दिया गया। उसके बारे में हम बात नहीं करेंगे, क्योंकि यह विषय बहुत विस्तृत है।

5. तमिल इतिहासकारों के अनुसार इस द्वीप का नाम 'कुमारी कंदम' था। 'कुमारी कंदम' आज के भारत के दक्षिण में स्थित हिन्द महासागर में एक खो चुकी तमिल सभ्यता की प्राचीनता को दर्शाता है। इसे 'कुमारी नाडू' के नाम से भी जाना जाता है। तमिल शोधकर्ताओं और विद्वानों के एक वर्ग ने तमिल और संस्कृत साहित्य के आधार पर समुद्र में खो चुकी उस भूमि को पांडियन महापुरुषों के साथ जोड़ा है। तमिल पुनर्जागरणवादियों के अनुसार 'कुमारी कंदम' के पांडियन राजा का पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन था। दक्षिण भारत के लोकगीतों में इतिहास के साथ उस खो चुकी इस सभ्यता का वर्णन मिलता है। नतीजतन, जब इसके बारे में जानकारी देने वाले खोजकर्ता भारत के नगरों में पहुंचे, तब इस लोकगीत और कथा को बल मिला।

6.. तमिल लेखकों के अनुसार आधुनिक मानव सभ्यता का विकास अफ्रीका महाद्वीप में न होकर हिन्द महासागर में स्थित 'कुमारी कंदम' नामक द्वीप में हुआ था। हालांकि 'कुमारी कंदम' या लुमेरिया को हिन्द महासागर में विलुप्त हो चुकी काल्पनिक सभ्यता कहा जाता है। कुछ लेखक तो इसे रावण की लंका के नाम से भी जोड़ते हैं, क्योंकि दक्षिण भारत को श्रीलंका से जोड़ने वाला राम सेतु भी इसी महाद्वीप में पड़ता है।

7. इस महाद्वीप को लेमुरिया नाम भूगोलवेत्ता फिलीप स्क्लाटर (Philip Sclater) ने 19वीं सदी में दिया था। सन् 1903 में वीजी सूर्यकुमार ने इसे सर्वप्रथम 'कुमारी कंदम' नाम दिया था। कहा जाता है कि यह 'कुमारी कंदम' ही रावण के देश 'लंका' का विस्तृत स्वरूप है, जो कि वर्तमान भारत से भी बड़ा था। फिलीप स्क्लाटर ने मेडागास्कर और भारत में बहुत बड़ी मात्रा में वानरों के जीवाश्मों (Lemur Fossils) के मिलने पर यहां एक नई सभ्यता के होने का अनुमान व्यक्त किया था। उन्होंने इस विषय पर एक किताब भी लिखी जिसका नाम ‘The Mammals of Madagascar’ था, जो कि 1864 में प्रकाशित हई थी।

9. 'कुमारी कंदम' का क्षेत्र उत्तर में कन्याकुमारी से लेकर पश्चिम में ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी तट और मेडागास्कर तक फैला था। भूगोलवेत्ता एआर वासुदेवन के शोधानुसार मानव सभ्यता का विकास अफ्रीका महाद्वीप में न होकर कुमारी हिन्द महासागर के 'कुमारी कंदम' नामक द्वीप पर हुआ था। उनके अध्ययन कहते हैं कि आज से लगभग 14,000 साल पहले जब 'कुमारी कंदम' जलमग्न हो गया तो लोग यहां से पलायन कर अफ्रीका, यूरोप, चीन सहित पूरे विश्व में फैल गए और कई नई सभ्यताओं को जन्म दिया।


10. ऐसा माना जाता है कि हिमयुग के अंतिम सालों में तापमान बढ़ना शुरू हो गया था जिसके कारण ग्लैशियरों का पिघलना शुरू हुआ और समुद्र का जलस्तर बहुत बढ़ गया और अंतत: यह सभ्यता पानी में डूब गई। तमिल लेखकों के अनुसार जब 'कुमारी कंदम' जलमग्न हुआ तो उसका 7,000 मील का क्षेत्र 49 टुकड़ों में बंट गया था। इस प्रकार यह महाद्वीप, हिमयुग के अंत में समुद्र में डूबा तो लोगों ने अलग-अलग जगहों पर शरण ली और पूरी दुनिया में कई नई सभ्यताओं (यूरोप, अफ्रीका, भारत, मिस्र, चीन इत्यादि) का विकास हुआ।

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    • ★ पल्लव वंश :- 
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    • ★ चालुक्य :- 
      • बादामी/वातापी के चालुक्य :-
      • कल्याणी के चालुक्य :-
    • ★ मदुरई के पाण्ड्य (छठी से 14वीं शताब्दी) :- 
    • ★ चोल (9वीं – 13वीं शताब्दी) :- 
        • चोल साम्राज्य में प्रशासनिक इकाई :- 
    • ★ राष्ट्रकूट :-
    • ★ प्रतिहार (8वीं से 10वीं शताब्दी) :-

★ पल्लव वंश :- 

● दक्षिण भारत में पल्लव वंश का उदय उस समय हुआ जब सातवाहन वंश अपने पतन की ओर था.
● सिंह विष्णु को पल्लव वंश का संस्थापक माना जाता है। इसके काल मे महाबलीपुरम नामक स्थान पर वराह मन्दिर का निर्माण हुआ। 

● सिंह विष्णु वैष्णव धर्म का अनुयायी था।

◆ महेंद्रवर्मन :- इसे साहित्य का संरक्षक माना गया। इसके काल मे दक्षिण भारत मे बौद्ध व जैन धर्म का अधिक प्रचार हो रहा था। इसलिए महेंद्रवर्मन के द्वारा वैष्णव धर्म को संरक्षण प्रदान किया गया। महेंद्रवर्मन के द्वारा मतविलास प्रसहन नामक पुस्तक की रचना की गई जो एक हास्य ग्रंथ था।

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◆ नरसिंह वर्मन – I :- इसे पल्लव वंश का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है। इसने बादामी के चालुक्य शासकों को पराजित किया अतः इसके द्वारा वातापी कोंड की उपाधि ली गयी। नरसिंह वर्मन के द्वारा महामल्स की भी उपाधि ली गई। इसके काल मे महाबलीपुरम में रथ मंदिरों का निर्माण हुआ। ये रथ मन्दिर सप्त पैगोड़ा के नाम से जाने गए। (Dynasty of South India)

◆ नरसिंहवर्मन द्वितीय :- यह परमेश्वर वर्मन प्रथम का पुत्र था। इसका काल शांति का काल था। इसके समय चोल-पल्लव संघर्ष रुक गया। इसने एक  दूतमण्डल चीन भेजा और चीनी बौद्ध यात्रियों के लिए नागापत्तनम में बिहार बनवाया जिसे चीनी पैगोड़ा कहा जाता है। इसने कांची के कैलाश मंदिर और महाबलीपुरम के शोर मंदिर का निर्माण कराया। दण्डिन ने इसकी राजसभा को भी सुशोभित किया।

◆ परमेश्वरवर्मन द्वितीय :- परमेश्वरवर्मन द्वितीय इस वंश परंपरा का अंतिम शासक था। इसके बारे में कहा जाता है कि इसने बृहस्पति द्वारा बनाये सिद्धांतों का अनुसरण कर संसार की रक्षा की। यह तिरुमंगलाई का समकालीन था। इसकी आकस्मिक मृत्यु के बाद पल्लव वंश पल्लव राज्य में संकट उत्पन्न हो गया। इसका कारण था की इसका कोई वैध उत्तराधिकारी नहीं था।

◆ नंदिवर्मन द्वितीय :- उसके बाद लोगों ने नंदिवर्मन द्वितीय को  शासक बना दिया। परंतु यह सिंहविष्णु की परंपरा का न होकर भीमवर्मा की परंपरा का था जो कि सामंत हुआ करते थे। यह वैष्णव मत का अनुयायी था। इसने कांची के मुक्तेश्वर मंदिर और बैकुंठ पेरुमल मंदिर का निर्माण कराया।

◆ नंदिवर्मन तृतीय :- यह शैव मत का अनुयायी था। इसने तमिल साहित्य को संरक्षण दिया।

■ पल्लवकालीन स्थापत्य कला :- 

● मंडप :- इसके तहत पत्थरों को काटकर मंदिरों का निर्माण किया गया।

● रथमन्दिर :- मामल्ल शैली में निर्मित रथ मन्दिर महाबलीपुरम (तमिलनाडु) नामक स्थान पर है। इन मंदिरों के निर्माण में मंडप व रथ दोनों का प्रयोग किया गया। एकाश्म पत्थरों के द्वारा मामल्ल शैली में रथ मंदिरों का निर्माण हुआ ये रथ मन्दिर सप्त पैगोड़ा के नाम से जाने गए। यहाँ युधिष्ठिर का रथ सबसे प्रसिद्ध है और द्रोपदी का रथ सबसे छोटा है।

■ पल्लवकालीन राजनैतीक इकाई :- 

● पल्लव काल मे केंद्र का विभाजन प्रान्त में किया जाता था। प्रान्त को राज्य अथवा मण्डल कहते थे। मण्डल का विभाजन विषय मे किया जाता था। और विषय का विभाजन कोट्टम में किया जाता था। कोट्टम को नगर कहा गया। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी।

● दक्षिण भारत मे 10वीं शताब्दी के आस-पास इन छोटे राजवंशों का पतन होना शुरू हो गया था। रामसरण शर्मा की पुस्तक “भारत के प्राचीन नगरों का पतन” से इस बारे में जानकारी मिलती है। (Dynasty of South India)

★ चालुक्य :- 

● चालुक्यों के इतिहास को तीन कालों में बांटा जा सकता है :

  1. प्रारंभिक पश्चिम काल (छठी – 8वीं शताब्दी) बादामी (वातापी) के चालुक्य
  2.  पश्चात् पश्चिम काल (7वीं – 12वीं शताब्दी) कल्याणी के चालुक्य
  3.  पूर्वी चालुक्य काल (7वीं – 12वीं शताब्दी) वेंगी के चालुक्य

बादामी/वातापी के चालुक्य :-

◆ मूलराज प्रथम :- इस वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। इसने सरस्वती घाटी में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। ये शाकम्भरी के विग्रहराज से पराजित हुआ और कंथा दुर्ग में शरण ली।

◆ भीमदेव प्रथम :- यह सबसे शक्तिशाली शासक था। इसने कलचुरी नरेश कर्ण के साथ मिलकर परमार भोज की विरुद्ध एक संघ की स्थापना की। इस संघ ने धारा नगर को लूटा, लेकिन लूट के माल को लेकर ये संघ टूट गया। इसके बाद भीम ने परमार जयसिंह द्वितीय को साथ लेकर कर्ण को पराजित किया। इसने आबू पर्वत पर अपना अधिकार सुदृढ़ किया। इसी के सामंत विमल ने आबू पर्वत पर दिलवाड़ा के जैन मंदिर का निर्माण कराया। इसके निर्माता वास्तुपाल व तेजपाल थे। इस मंदिर के गर्भगृह में ऋषभदेव/आदिनाथ की मूर्ति है जिसकी आँखें हीरे की हैं। इसी के शासनकाल में गजनबी ने 1025 ईo में सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा। भीमदेव भागकर कंथा के दुर्ग में छिप गया। बाद में इसने सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। सोमनाथ मंदिर जो पहले लकड़ी व ईंट से निर्मित था , भीम ने उसे पत्थर से निर्मित कराया।

◆ जयसिंह सिद्धराज :- यह शैव मत का अनुयायी था और अपनी माँ के कहने पर सोमनाथ की यात्रा कर समाप्त कर दिया। इसने आबू पर्वत पर अपने सात पूर्वजों की गजारोही मूर्तियाँ बनबायीं। इसने सिद्धपुर में रूद्र महाकाल मंदिर का निर्माण कराया। इसने खम्भात में मस्जिद बनाने के लिए एक लाख सिक्कों का दान किया। यह विभिन्न धर्मो व सम्प्रदायों के लोगों से चर्चाएं किया करता था। इसके दरबार में प्रसिद्ध जैन विद्वान् हेमचन्द्र रहते थे।

◆ अजयपाल :- इसने जैन मंदिरों को ध्वस्त किया और साधुओं की हत्याएं करवा दीं। इसके समय शैव और जैन मतानुयायियों के मध्य गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया।

कल्याणी के चालुक्य :-

कल्याणी के चालुक्य वंश का उदय राष्ट्रकूटों के पतन के बाद हुआ। इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता तैलप द्वितीय था। इनका पारिवारिक चिन्ह वराह था।

◆ तैलप द्वितीय :- तैलप द्वितीय का परमार शासक मुंज से लम्बे समय तक संघर्ष चला। मेरुतुंग की प्रबंध चिंतामणि से ज्ञात होता है कि इसने मुंज पर छः बार आक्रमण किया परन्तु हारता रहा।

◆ सोमेश्वर प्रथम :- सोमेश्वर प्रथम 1043 ईo में अगला शासक बना। इसने ही चालुक्यों की राजधानी मान्यखेत से कल्याणी स्थानांतरित की। इसने भोज परमार की राजधानी धारा पर आक्रमण कर उसे आत्मसमर्पण करने को मजबूर किया। राजराज चोल ने इसे बुरी तरह परास्त कर विजयेंद्र की उपाधि धारण की। चोलों से मिली लगातार हार के बाद इसने तुंगभद्रा नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली।

◆ सोमेश्वर तृतीय :-  यह स्वयं एक विद्वान व्यक्ति था। इसने युद्ध से अधिक शांति की ओर ध्यान दिया। इसने भूलोकमल्ल और त्रिभुवनमल्ल जैसी उपाधियाँ धारण की। इसने मानसोल्लास नामक शिल्पशास्त्र की रचना की।

◆ सोमेश्वर चतुर्थ :- सोमेश्वर चतुर्थ कल्याणी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक था। यह तैलप तृतीय का पुत्र था।

★ मदुरई के पाण्ड्य (छठी से 14वीं शताब्दी) :- 

● दक्षिण भारत में शासन करने वाले सबसे पुराने वंशों में से एक पाण्ड्य भी थे. इनका वर्णन कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगस्थनीज के इंडिका में भी मिलता है.
● इनका सबसे प्रसिद्द शासक नेंडूजेलियन था जिसने मदुरई को अपनी राजधानी बनाया.
● पाण्ड्य शासकों ने मदुरई में एक तमिल साहित्यिक अकादमी की स्थापना की जिसे संगम कहा जाता है. उन्होंने त्याग के वैदिक धर्म को अपनाया और ब्राम्हण पुजारियों का संरक्षण किया. उनकी शक्ति एक जनजाति ‘कालभ्र’ के आक्रमण से घटती चली गई.
●  छठी सदी के अंत में एक बार पुनः पांड्यों का उदय हुआ. उनका प्रथम महत्वपूर्ण शासक दुन्दुंगन (590-620) था जिसने कालभ्रों को परस्त कर पांड्यों के गौरव की स्थापना की.
● अंतिम पांड्य राजा पराक्रमदेव था जो दक्षिण में विस्तार की प्रक्रिया में उसफ़ खान (मुह्हमद-बिन-तुगलक़ का वायसराय) द्वारा पराजित किया गया.

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★ चोल (9वीं – 13वीं शताब्दी) :- 

● चोल वंश दक्षिण भारत के सबसे प्रसिद्द वंशों में से एक है जिसने तंजौर को अपनी राजधानी बनाकर तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ हिस्सों पर शासन किया।

● चोल काल मे राज्य के लिए मण्डलम शब्द का प्रयोग किया गया है।

● संगम काल मे चोल शासक करिकाल था। नवीं शताब्दी में कावेरी व पेन्नार नदियों के आस-पास विजयालय नामक व्यक्ति ने चोल वंश की स्थापना कि। विजयालय ने तंजौर पर अधिकार किया था ओर विजयालय के द्वारा नर केसरी की उपाधि ली गयी थी।

◆ आदित्य प्रथम (880-907) :- इसके काल मे चोल राज्य पल्लवों से पूर्ण रूप से स्वतंत्र हुवा अतः आदित्य प्रथम के द्वारा कोदण्डराय की उपाधि ली गयी।

◆ परातंक प्रथम (907-953) :- इसके काल मे मदुरै पर पाण्ड्य शासकों का अधिकार था। परातंक प्रथम ने मदुरै पर अधिकार कर लिया और परातंक प्रथम के द्वारा मदुरेकोंड की उपाधि ली गयी।

◆ राजराज प्रथम (985-1014) :- राजराज प्रथम के शासन के दौरान चोल अपने शीर्ष पर थे. उसने राष्ट्रकूटों से अपना क्षेत्र वापस छीन लिया और चोल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली बन गया. उसने तंजावुर (तमिलनाडु) में वृहदेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया। राजराज प्रथम के काल मे भूमि सर्वेक्षण का कार्य कराया गया। इसके काल मे स्थानीय स्वशासन की शुरूआत हुई। राजराज प्रथम ने चीन में अपने राजदूत भेजे थे। (Dynasty of South India)

चोल साम्राज्य में प्रशासनिक इकाई :- 

● केंद्र > मण्डलम > वलनाडू > नाडु > कोट्टम > गांव

● आय का स्रोत :- दक्षिण भारत मे कडमै एक प्रकार का भूमि कर था यह बागान कर भी था। जो सुपारी पर लिया जाता था।

मग्नमै :- यह भी एक प्रकार का कर था जो स्वर्णकार, बढई व कुम्भकार से लिया जाता था।

पेरुन्दनम :- उच्च सरकारी अधिकारी

वैडेक्कार :- राजा के अंगरक्षक

उडनकुट्टम :- राज्य के मंत्री

चोलकालीन ग्राम सभा :- 

  • उर – साधारण लोगो की सभा
  • सभा/महासभा – वरिष्ठ ब्राम्हणों की सभा
  • नगरम – व्यापारियों का संगठन

★ राष्ट्रकूट :-

● राष्ट्रकूट दक्षिण भारत मे बादामी के चालुक्य शासकों के सामन्त थे। आधुनिक लातूर (महाराष्ट्र) व उसके आसपास का क्षेत्र राष्ट्रकूट शासकों के नियंत्रण में था।  राष्ट्रकूट शासक दंतीदुर्ग ने आठवीं शताब्दी में अपने साम्राज्य का विस्तार किया और मान्यखेत को अपनी राजधानी के रूप में स्थापित किया।

◆ कृषण प्रथम :- इसके काल में एलोरा में प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण हुआ जिसका आधार द्रविड़ शैली था।

◆ ध्रुव :- ध्रुव ने गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज व बंगाल के शासक धर्मपाल को पराजित किया था और ध्रुव ने अपनी उत्तर भारत की विजय के उपलक्ष में राजकीय चिन्ह के रूप में गंगा व यमुना का प्रयोग किया गया।

◆ अमोघवर्ष :-  इसका काल साहित्य के लिए जाना जाता है अमोघवर्ष ने कन्नड़ भाषा में कवि राजमार्ग नामक पुस्तक की रचना की।  आगे चलकर कृष्ण तृतीय व इंद्र तृतीय राष्ट्रकूट शासक हुए इन्होंने गुर्जर प्रतिहार शासकों के साथ संघर्ष किया था।

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★ प्रतिहार (8वीं से 10वीं शताब्दी) :-

● प्रतिहारों को गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता था. ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि ये मूलतः गुजरात या दक्षिण-पश्चिम राजस्थान से थे.
● नागभट्ट प्रथम, ने सिंध से राजस्थान में घुसपैठ करने वाले अरबी आक्रमणकारियों से पश्चिम भारत की रक्षा की.
● नागभट्ट प्रथम, के बाद प्रतिहारों को लगातार हार का सामना करना पड़ा जिसमें इन्हें सर्वाधिक राष्ट्रकूट शासकों ने पराजित किया.
● प्रतिहार शक्ति, मिहिरभोज, जो भोज के नाम से प्रसिद्द था, की सफलता के बाद अपना खोया गौरव पुनः पा सकी.
● उसके विख्यात शासन ने अरबी यात्री सुलेमान को आकर्षित किया था.
● मिहिरभोज का उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल प्रथम था जिसकी प्रमुख उपलब्धि मगध और उत्तरी बंगाल पर अपना आधिपत्य था. उसके दरबार का प्रसिद्द लेखक राजशेखर था जिसने अनेक साहित्यिक रचनाएँ लिखी –

  1.  कर्पूरमंजरी
  2. बालरामायण
  3. विद्वशाल भंजिका
  4. भुवनकोश
  5. हरविलास
  6. काव्यमीमांसा

● महेन्द्रपाल की मृत्यु के साथ ही सिंहासन के लिए संघर्ष शुरू हो गया. भोज द्वितीय ने गद्दी कब्ज़ा ली लेकिन जल्द ही, सौतेले भाई महिपाल प्रथम ने खुद को सिंहासन वारिस घोषित कर दिया.
● राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय के दक्कन वापसी से महिपाल को उसके आक्रमण से लगे घातक झटके से सँभलने का मौका मिला. महिपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी, महेन्द्रपाल प्रथम अपने साम्राज्य को बनाये रखने में कामयाब रहा.

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दक्षिण भारत का प्राचीन नाम क्या है?

दक्षिण भारत के आरंभिक इतिहास में तीन राजवंशों चोल, चेर एवं पांड्य का उल्लेख मिलता है। प्रारंभिक-मध्ययुगीन काल में यह क्षेत्र चोलमंडलम् कहलाया। आरंभ में चोल राज्य की राजधानी उरैयुर (तिरुचिरापल्ली) में स्थित थी। बाद में चोल राज्य की राजधानी को पुहार में स्थानांतरित कर दिया गया।

दक्षिण भारत का राजा कौन था?

चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन के सामंत दंतिदुर्ग ने राष्ट्रकूट वंश की नींव डाली थी। राष्ट्रकूट दक्षिण भारत में अपनी शक्ति तथा साम्राज्य विस्तार के लिए जाने जाते हैं। कृष्ण प्रथम, गोविंद द्वितीय, राजा ध्रुव, धारावर्ष, गोविंद तृतीय, अमोघवर्ष व कृष्ण द्वितीय इस वंश के प्रमुख शासक हुए। इनकी राजधानी 'मान्यखेट' थी।

दक्षिण भारत का सबसे प्राचीन राजवंश कौन सा है?

पल्लव वंश :- दक्षिण भारत में पल्लव वंश का उदय उस समय हुआ जब सातवाहन वंश अपने पतन की ओर था. सिंह विष्णु को पल्लव वंश का संस्थापक माना जाता है। इसके काल मे महाबलीपुरम नामक स्थान पर वराह मन्दिर का निर्माण हुआ।

दक्षिण भारत का उपनाम क्या है?

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