भगवत गीता में आत्मा को क्या बताया है? - bhagavat geeta mein aatma ko kya bataaya hai?

श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय

आत्मा का स्वरुप योग ग्रंथों एवं उपनिषदों में पूर्णरूप से प्राप्त होता है। अलग-अलग ग्रंथों के अनुसार आत्मा की भिन्न-भिन्न व्याख्या की गयी है। यहाँ पर हम श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार आत्मा का स्वरूप जान रहे हैं। गीता का परिचय एवं गीता का महत्व हम पूर्व में ही जान चुके हैं। कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन सगे संबंधियों को देख कर  मोहग्रस्त हो जाता है तब भगवान श्रीकृष्ण उसे कई प्रकार से समझाते हैं और कहते हैं कि यह सृष्टिचक्र निरन्तर चली आ रही है इसे रोका नहीं जा सकतामनुष्य इसे रोकने में असमर्थ है। परन्तु अर्जुन के न समझने के कारण भगवान श्रीकृष्ण आगे आत्मा का स्वरुप समझाते हैं

गीता में आत्मा का स्वरुप

यह सृष्टि ईश्वरीय नियमों के अनुसार चल रही है इसमें फेर-बदल मनुष्य कर ही नहीं सकता। बच्चा जन्म लेता है तो उसका बालपनजवानी और वृद्धावस्था अपने आप आती है और वह अन्त में मरता भी है तथा मरकर पुनः जन्म ले लेता है यह क्रम चलता ही रहता है जिसे रोका नहीं जा सकता। इसलिए ज्ञानीजन किसी के लिए भी मोह नहीं करते। इसी क्रम में भगवान श्रीकृष्ण आत्मा के स्वरूप के विषय में बताते हए अर्जुन को समझाते हैं कि-

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।

गीता- 2/19

अर्थात् जो पुरुष इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ मानता हैवे दोनों ही यह नहीं जानते की यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारती हैऔर न किसी के द्वारा मारी जा सकती है। आत्मा का स्वरूप बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं -

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

गीता- 2/20

अर्थात् यह आत्मा न तो किसी काल में जन्मता है और न मरता है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह आत्मा अजन्मानित्यसनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह आत्मा मारी नहीं जा सकती।

यह आत्मा सदा अपने ही रूप में रहता है। उत्पन्न होनाअस्तित्व में आनाबदलनाघटनाबढ़ना और नष्ट होना ये शरीर के धर्म हैंआत्मा के नहीं। जो भी पदार्थ उत्पन्न होगा उसमें ये छ: स्थितियां अवश्य आएंगी। शरीर भी इन छ: स्थितियों से गुजरता है इसलिए यह नित्य नहीं है केवल इस शरीर में आत्मा ही एकमात्र ऐसा तत्व है जो न तो किसी से उत्पन्न होता हैन घटता-बढ़ता है और न नष्ट ही होता है। यही एकमात्र नित्यशाश्वतसनातन एवं पुरातन है।

भगवत गीता में आत्मा को क्या बताया है? - bhagavat geeta mein aatma ko kya bataaya hai?

आत्मज्ञानी पुरूष आत्मा को ही अपना स्वरूप मानते हैं न कि शरीर को। जिससे वे मरने की चिन्ता नहीं करके अपने कर्तव्यों का पालनमात्र करते हैं। उनका किसी के साथ मोहप्रेमरागद्वेष आदि भी नहीं होता। ऐसे निस्पृह वास्तविक जीवन जीते हैंअन्य तो अज्ञान में ही भटकते रहते हैं। आगे कहते हैं –

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

गीता- 2/22

अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता हैवैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरको त्याग कर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मृत्यु केवल शरीर की होती है व पुनः आत्मा नया शरीर ग्रहण कर लेगी। आगे कहते हैं 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

गीता- 2/23

अर्थात् इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकतेआग जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती

अर्थात् यह आत्मा इन भौतिक पदार्थों से जैसे की- पृथ्वीजलअग्नि, वायु और आकाश से प्रभावित नहीं होताक्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य हैयह आत्मा अदाह्य अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्यसर्वव्यापीअचलस्थिर रहने वाला और सनातन है (गीता 2/24)। आगे कहते हैं –

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।

गीता- 2/25

अर्थात् सृष्टि की समस्त क्रियाओं का यही एकमात्र कारण है तथ यही सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त हैयह आत्मा अचिन्तय है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है। हे अर्जुन तुझे शोक नहीं करना चाहिए। आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है जिसमें कोई विकार नहीं है।

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यह आत्मा एक शुद्ध चैतन्य शक्ति है जिसमें कोई विकार नहीं है उसकी चैतन्य शक्ति से शरीर की सभी क्रियायें संचालित होती हैं। इस शक्ति का जब जड़ प्रकृति से संयोग होता है तो सर्वप्रथम मन व बुद्धि का विकास होता है इसी से वासनोत्पत्ति होती हैजो जन्म एवं पुनर्जन्म का कारण बनती है अतः जन्म और मृत्यु केवल शरीर की होती हैआत्मा की नहीं।

उपरोक्त भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश जो कि अर्जुन के प्रति हैं जिनमें स्पष्ट हो जाता है कि जब तक शरीर में आत्मा हैं तभी तक शरीर क्रियाशील होकर उसके सभी कार्य संचालित होते हैंयहाँ एक प्रश्न उठाता है कि आत्मा का निवास स्थान कहां है जिसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि आत्मा का निवास स्थान शरीर हैऔर इसलिए है कि जो भोग कर्म शेष रह जाता है उसे भोगने के लिए ही प्राणी को पुनर्जन्म लेना पड़ता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी इन्हीं तथ्यों में निहित है।

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गीता में आत्मा के बारे में क्या लिखा है?

गीता में श्रीकृष्ण ने आत्मा को अमर और अविनाशी बताया है जिसे न शस्त्र कट सकता है, पानी इसे गला नहीं सकता, अग्नि इसे जल नहीं सकती, वायु इसे सोख नहीं सकती। यह तो ऐसा जीव है जो व्यक्ति के कर्मफल के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकता रहता है।

गीता के अनुसार मरने के बाद क्या होता है?

गीता 8/16।। अर्थ : हे अर्जुन! ब्रह्म लोक सहित सभी लोक पुनरावृति हैं, परंतु हे कौन्तेय, मुझे प्राप्त होने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। व्याख्या : मृत्यु के बाद जीवात्मा कुछ काल के लिए अपने शुभ-अशुभ कर्मों के आधार पर किसी न किसी लोक में वास करती है, यदि पाप ज्यादा हैं तो नरक लोक और यदि पुण्य ज्यादा हैं तो स्वर्ग लोक।

गीता के अनुसार मृत्यु क्या है?

ठीक इसके विपरीत अपनी आयु पूर्ण कर लेने के उपरांत आत्मा का जीर्ण-शीर्ण मरणधर्मा शरीर के त्याग को ही मृत्यु कहते हैं। वेद भगवान ने भी 'मृत्युरीशे' कहकर स्पष्ट कर दिया कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है।

गीता के अनुसार शरीर क्या है?

गीता में शरीर को रथ की उपमा देते हुए कहा गया है कि इन्द्रियां इसके घोड़े हैं, मन सारथी और आत्मा स्वामी है। शरीर और मन का संबंध शासित और शासक जैसा है। शरीर वही कुछ करता है, जिसका मन निर्देश देता है। मन जिधर लगाम खींचता है, शरीर रथ के घोड़े उसी दिशा की ओर दौड़ पड़ते हैं।