Aadhunik Kaal Ki Pravritiyan pdfPradeep Chawla on 16-10-2018 Show हिन्दी में साहित्यिक वादों एवं प्रवृतियों का परिचय अनेक पुस्तकों में सुलभ है। सर्वत्र वादों की संख्या गिनाने में होड़-सी लगी हुई है। बहुज्ञता प्रदर्शित करने के लिए जैसे सबसे खुला मैदान यही दिखाई पड़ रहा है। कोशिश यही है कि किसी पाश्चात्यवाद का नाम छूट न जाये। कुछ उत्साही अपनी मौलिक खोज प्रमाणित करने के लिए हर यूरोपीयवाद के लिए हिंदी से कुछ-न-कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत कर देते हैं। इस प्रकार हिन्दी में धड़ल्ले से अभिव्यंजनावाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, बिम्बवाद, भविष्यवाद, समाजवादी यथार्थवाद आदि की चर्चा हो रही है, गोया ये सभी प्रवृतियाँ हिन्दी साहित्य की हैं अथवा हिन्दी में भी प्रचलित रही हैं। कहना न होगा कि ज्ञानवर्धन के इन उत्साही प्रयत्नों से आधुनिक हिन्दी साहित्य की अपनी वास्तविक प्रवृति के बारे में काफी भ्रम फैल रहा है। वैसे, किसी अन्य भारतीय साहित्य में प्रचलित प्रवृति एवं वाद का परिचय हिन्दी पाठक देना बुरा नहीं है और हिन्दी के किसी साहित्यिक आन्दोलन के मूल स्त्रोतों का परिचय देने के लिए सम्भावना के रूप में यदि यूरोप के किसी वाद की चर्चा की जाये तो उस पर भी शायद किसी को आपत्ति हो; किन्तु हिन्दी में अनेक प्रचलित-अप्रचलित देशी-विदेशी वादों को अन्धाधुन्ध चर्चा का निवारण होना चाहिए। निःसन्देह यह प्रवृति व्यावसायिक पुस्तकों में विशेष रूप से उभर कर आयी है, किन्तु सन्दर्भ के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले सम्मानित साहित्य-कोशों ने भी इस भ्रम के प्रसार में काफी योगदान किया है। किसी एक साहित्य में प्रचलित वाद के दो-एक अन्यत्र भी मिल सकते हैं, किन्तु इससे किसी साहित्य में उस वाद का अस्तित्व प्रमाणित नहीं होता। विभिन्न साहित्यिक वादों के उत्थान और पतन के इतिहास से परिचित अध्येता जानते हैं कि हर वाद अपने साहित्य एवं समाज के विशेष परिवेश के अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है और उसके आंदोलन के पीछे एक इतिहास है। उदाहरण के लिए फ्रान्सीसी प्रतीकवाद और अग्रेजी बिम्बवाद अपने-अपने निश्तित देशकाल से सम्बद्ध हैं, इसलिए हिन्दी में वादों की चर्चा करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है कि अपने यहाँ ये वाद किसी साहित्यिक आन्दोलन के रूप में चले या नहीं और कुल मिलाकर इन्होंने हमारी साहित्यिक परम्परा में क्या योगदान दिया ? कहना न होगा कि हिन्दी में प्रायः इस विवेक को पीठ ही दी गयी है। पिछले युग में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने समकालीन छायावादी एवं रहस्यवादी काव्य-प्रवृतियों की समीक्षा करते हुए क्रोचे के अभिव्यंजनावाद, पश्चिमी कलावाद, फ्रान्सीसी प्रतीकवाद आदि की विस्तृत आलोचना की थी क्योंकि अनका ख्याल था कि पाश्चात्य साहित्य की ये पतनोन्नमुख प्रवृतियाँ हिन्दी साहित्य पर भी दूषित प्रभाव डाल रही हैं। फिर क्या था वाद के लेखकों को कलम चलाने के लिए राजमार्ग मिल गया और इन वादों पर इस तरह लिखा जाने लगा जैसे कोई उनके घर की चीज हो। हिन्दी में अभिव्यजंनावाद को इतनी चर्चा देखकर कभी-कभी भ्रम होने लगता है कि क्रोचे इटली में नहीं, बल्कि भारत में ही पैदा हुआ था। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। शुक्ल जी ने क्रोचे की कड़ी आलोचना की पीछे हिन्दी के दस अध्यापक क्रोचे के समर्थन में खड़े हो गये जैसे क्रोचे के साथ सहानुभूति दिखाना अत्यन्त आवश्यक हो गया हो। यह भी ‘अतिथि देवो भव’ के भारतीय आदर्श का उदाहरण है। किसी ने इस बात का पता लगाने का कष्ठ नहीं उठाया कि स्वयं यूरोपीय साहित्य में रचना के क्षेत्र में अभिव्यंजनावाद पर यह टिप्पणी है कि साहित्य रचना इसका प्रभाव न्यूनतम है-सिर्फ दो-तीन अभिव्यंवजनावादी नाटकों को छोड़कर और कुछ नहीं लिखा गया; दूसरी ओर ‘हिन्दी साहित्य कोश’ है जिसमें इस प्रकार के किसी तथ्य का उल्लेख नहीं है। हिन्दी पर पाश्चात्य प्रभाव का भी एक उदाहरण है। अभिव्यंजनावाद के साथ ही शुक्ल जी ने ‘पहले से सावधान करने के लिए’ सन् 1934 ई. के इन्दौर वाले भाषण में ही संवेदनावाद (इमेप्रेशनिज्म) एवं मूर्तविधावाद (इमैजिज्म) की भी संक्षिप्त एवं सारगर्भित आलोचना की थी। किन्तु वर्षों तक आलोचकों का ध्यान उनकी ओर गया ही नहीं-यहाँ तक हिन्दी में जब यत्र-तत्र उन वादों का प्रभाव काव्य-रचना में प्रगट होने लगे तब भी उनको पहचानने वाली दृष्टि नहीं दिखाई पड़ी। आज भी इन वादों पर चर्चा होती है, तो उनका रूप बहुत कुछ हवाई ही होता है, जैसा इसके पहले हिन्दी में कभी इनकी चर्चा हुई ही न हो। अपनी साहित्य परम्परा के बाद का यह भी एक उदाहरण है। इससे प्रकट है कि हिन्दी के बहुत से साहित्यिक अपनी परम्परा से अधिक यूरोपीय साहित्य की सूचना रखते हैं। हिन्दी में वाद-विस्तार की विडंबना उस समय चरम सीमा पर दिखाई पड़ती है जब हम ‘समाजवादी यथार्थवाद’ सम्बन्धी चर्चा पर पहुँचते हैं। उत्साही लेखकों ने हिन्दी उपन्यासों में ‘समाजवादी यथार्थवाद’ की एक धारा निरूपित कर दी है; क्योंकि हिन्दी के कुछ उपन्यासों के लेखक कम्यूनिस्ठ हैं ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के लिए प्रयत्न करने वाले रूसी उपन्यासकारों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में समाजवाद की स्थापना होने से पहले ही साहित्य में ‘समाजवादी यथार्थवाद’ की नीव पड़ गयी। जहाँ रूस में समाजवाद की स्थापना करने के वर्षों बाद समाजवादी समाज की आवश्कताओं को देखते हुए ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के साहित्य-सिद्धान्त का निर्माण हुआ, वहाँ भारत में अभी से साहित्य के अन्दर भविष्य के लिए सिद्धान्तों एवं रचनाओं का निर्माण हो रहा है। भारतीय दूरदर्शिता का यह सबसे सर्वोंत्तम उदाहरण है। संक्षेप में इन वादों की चर्चा से स्पष्ट है कि हिन्दी आलोचना में आज भी ‘हमारे यहाँ सब कुछ है’ वाली प्रवृति काम कर रही है। जिस प्रकार पिछले युग में किसी यूरोपीय विचारधारा को एक साँस में अभारतीय कहकर विरोध किया जाता था और दूसरी साँस में अभारतीय कहकर विरोध किया जाता था और दूसरी साँस में उसे अपने यहाँ पहले ही मौजूद बतलाकर आत्मगौरव बढ़ाने की कोशिश की जाती थी, उसी प्रकार अन्तर्विरोध का हास्यापद रूप आज भी दिखाई पड़ता है। वास्तविकता यह है कि हिन्दी के साहित्य रचना के क्षेत्र में जितने ‘वाद’ नहीं हैं उनसे कहीं अधिक आलोचना में पढ़ाये जा रहे हैं। जितनी जल्दी यह बकवास बन्द हो, उतना ही अच्छा हो। साहित्य का कल्याण इसी में है। कहना न होगा कि वादों की चर्चा में प्रसंगानुकूलता के वोध की आज कितनी आवश्यकता है। इस प्रकार आधुनिक हिन्दी साहित्य में छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद चार ही प्रवृत्तियाँ निश्चित रूप से इतिहास-सम्मत हैं जिन्हें ‘वाद’ के रूप में प्रचलन की मात्रा प्राप्त है। निःसंदेह इन चारों प्रवृत्तियों के अन्दर आधुनिक युग का हिन्हीं साहित्य नहीं सिमट जाता; किन्तु यह तथ्य है कि साहित्यिक आन्दोलन के रूप में कुछ दूर तक यहीं वाद चले। वाद-विशेष की स्वभावगत एकांगिता इनमें से हर एक के साथ जुड़ी हुई है जिसके फलस्वरूप साहित्य-रचना में यत्र-तत्र विकृतियाँ भी आयीं,
किन्तु इसके साथ यह भी तथ्य है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य का जो भी रूप आज दिखाई पड़ रहा है वह इन्हीं साहित्यिक आन्दोलनों के कारण और हिन्ही साहित्य की वृद्धि में इसका निश्चित ऐतिहासिक योग है। विलक्षण समीक्षकों ने कहीं-कहीं इस वैशिष्ट्य की ओर संकेत किया है, किन्तु स्वीकार करना होगा कि सुस्पष्ठ एवं सुव्यवस्थित ढंग से हिन्दी के उन वादों के निजी जातिगत वैशिष्ट्य होना अभी शेष है-यहाँ तक कि अभी छायावाद के ही हिन्दी जातीय वैशिष्ट्य का तथ्यपूर्ण विवरण सामने नहीं आया है। सहज अनुभव ज्ञान के सहारे आधुनिक हिन्दी का कोई भी पाठक देख सकता है कि कुछ बाह्म प्रभावों के अन्तर्गत लिखे जाने पर भी निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ हिन्दी की अपनी रचना है जिसे पढ़ने के बाद कोई भी यह कहेगा कि यह कविता हिन्दी में ही संभव थी और जिसके व्यक्तित्व की स्वतन्त्रता विश्व के सम्पूर्ण रामामांटिक काव्य आसानी से पहचानी जा सकती है। चूँकि यह विषय अलग से विस्तृत विचार की अपेक्षा रखता है इसलिए एकाध उदाहरणों के द्वारा इसका संकेत कर देना ही अलम होगा। प्रसंगात् हिन्दी के ‘हालावाद’ की चर्चा आवश्यक है। किसी समय पत्रिकाओं में दो-एक कोने से ‘हालावाद’ की आवाजें आयीं, किन्तु साहित्य-समीक्षा के क्षेत्र में इस वाद को स्वीकृति न मिल सकी। इस वाद के साथ मुख्य रूप से बच्चन की मधुशाला, मधुबाला, मदुकलश आदि संग्रहों की कविताओं का नाम जुड़ा है। वैसे देखा-देखी इस रंग की कुछ और कविताएँ सामने आयीं, किन्तु आगे चलकर एक तो स्वयं बच्चन ने तौबा कर ली, दूसरे साथ देने वाले भी नहीं आये और इस प्रकार यह प्रवृत्ति किसी व्यवस्थ्त काव्य आन्दोलन का रूप न ले सकी। परन्तु यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि एक दूसरी संबंध-भावना के स्तर पर यह तथाकथित हालावादी मनोवृत्ति एक दौर के अनेक कवियों में पायीं जाती है जिनमें ‘मस्ती’ का एक और ही आलम है। बच्चन के अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, दिनकर एक हद तक नरेन्द्र शर्मा और यहाँ तक कि सुभद्राकुमारी चौहान एवं माखन लाल चतुर्वेदी में भी कमोवेश सहज अक्खड़ता-फक्कड़ता से मिली-जुली रूमानियत मिलती है। निश्चित रूप से उन कवियों के काव्य का ‘तेवर’ छायावादी कवियों से अलग है और बाद में प्रगतिवाद से भी इनका स्वर भिन्न दिखाई पड़ता है। हिन्दी साहित्य के किसी भी इतिहास में इस दौर का स्थान निश्चित है; किन्तु किसी संगठित या व्यवस्थित ‘वाद’ के रूप में इस प्रकार विचार करना सम्भव नहीं दिखता। यों भी, मस्ती की यह प्रवृत्ति प्रकृत्या वाद-मुक्त है। श्री विजय देव नारायण साही ने इस काव्य-वृत्ति के लिए ‘जवानी का काव्य’ नाम सुझाया है (और प्रसंगात् यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस काव्य-प्रवृत्ति पर पहली बार व्यवस्थित विचार उन्होंने ही किया है) परन्तु यह संखया अधिक से अधिक वर्णन के लिए ही उपयोगी हो सकती है। कुछ लोग इसे ‘उत्तर छायावादी’ प्रवृत्ति अथवा छायावाद का ‘परशिष्ठ’ भी कहते पाये जाते है; किन्तु इससे उस काव्य-प्रवृत्ति की अपनी विशिष्टता का सही बोध नहीं होता। निःसंदेह यह काव्य-प्रवृत्ति भी हिन्दी की अपनी है किन्तु नाम रूप दोनों ही दृष्टियों से अनिर्दिष्ट इस काव्य-प्रवृत्ति पर स्वतन्त्र रूप से विचार करना फिरहाल सम्भव नहीं प्रतीत होता। कुछ ऐसी विवशता प्रयोगवाद से अलग ‘नयीं कविता’ पर स्वतन्त्र विचार करने के साथ महसूस होती है। इस प्रकार जो विषय प्रस्तुत चर्चा में छूट गये हैं उन्हें निकट भविष्य में विचार के लिए सुरक्षित रखते हुए प्रसंगानुकूलता की जा सकती है। लोलार्क कुंड वाराणसी -नामवर सिंह छायावादछायावाद विशेष रूप से दिन्दी साहित्य के ‘रामांटिक’ उत्थान की वह काव्धारा है जो लगभग ईसवी सन् 1917 से ’36 (‘उच्छवा’ से ‘युगान्त’) तक की प्रमुख युगवाणी रही, जिसमें प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी प्रभृति मुख्य कवि हुए और सामान्य रूप से ‘भावोच्छवास-प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह ‘स्वच्छन्द प्रवृत्ति’ है जो देश-काल-गत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा में निरंतर व्यक्त होती रही है। स्वच्छदता की उस सामान्य भाव-धारा की विशेष अभिव्यक्ति का नाम हिन्दी साहित्य में छायावाद पड़ा। तत्कालीन पत्रिकाओं से पता चलता है कि ‘छायावाद’ संज्ञा का प्रचलन 1920 ई. तक हो चुका था। मुकुटधर पांडेय ने 1920 ई. में जबलपुर की ‘श्री शारदा पत्रिका में ‘हिन्दी में छायावाद’ शीर्षक चार निबन्धों की एक लेख-माला प्रकाशित करवाई थी। इस लेखमाला से पता चलता है कि ‘हिन्दी में उसका नितान्त अभाव देखकर इधर-उधर की कुछ टीका-टिप्पणियों के सहारे’ मुकुटधर पांडेय ने वह निबन्ध प्रस्तुत किया था। इससे स्पष्ट कि उस निबन्ध के पहले भी छायावाद पर कुछ टीका-टिप्पणी हो चुकी थी। उस युग की प्रतिनिधि पत्रिका ‘सरस्वती’ में ‘छायावाद’ का प्रथम उल्लेख जून, 1921 के अंक में मिलता है। किन्हीं सुशील कुमार ने ‘हिन्दीं में छायावाद’ शीर्षक एक संवादात्मक निबन्ध लिखा है। इस व्यंग्यात्मक निबन्ध में छायावादी कविता को टैगोर-स्कूल की चित्रकला के समान ‘अस्पष्ट’ कहा गया है। ‘छायावाद क्या है’ प्रश्न का उत्तर देते हुए मुकुटधर पांडेय ने लिखा है कि ‘‘अंग्रजी या किसी पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग साहित्य की वर्तमान स्थति की जानकारी रखने वाले तो सुनते ही समझ जायेंगे कि यह शब्द ‘मिसिटसिज्म’ के लिए आया है।’’ इसी प्रकार सुशील कुमार वाले निबन्ध में भी छायावादी कविता को ‘कोरे कागद की भाँति अस्पष्ट’, ‘निर्मल बह्म की विशद छाया’, ‘वाणी की नीरवता का उच्छास’ एवं ‘अनंत का विलास’ ‘छायावाद’ के लिए ‘मिस्टिसिज्म’ शब्द के आते ही ‘रहस्हवाद की बुनियाद पड़ गयी और सुकवि-किंकर-छद्यनाम-धारी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘आजकल के हिन्दी कवि और कविता’ (सरस्वतीः 6 मई, 1927) निबन्ध से पता चलता है कि जिन कविताओं को और लोग छायावाद कहते थे उन्हीं को वे ‘रहस्यवाद’ कहना चाहते थे; लेकिन मुकुटधर पांडेय जहाँ उनमें अध्यात्मिकता’ देखते थे, वहाँ आचार्य द्विवेदी के लिए वे ‘अन्योक्ति पद्धति’ से अधिक न थी, ‘छायावाद’ का प्रचलित अर्थ समझने की कोशिश करते हुए उसी निबन्ध आचार्य द्विवेदी कहते हैं-‘छायावाद से लोगों का क्या मतलब है कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र पड़े तो उसे छायावादी-कविता कहना चाहिए।’’ इस तरह पन्त के ‘पल्लव’ और प्रसाद के ‘झरना’ आदि संग्रहों की कविताओं को 1927 ई. तक अंग्रजी में ‘मिस्टसिज्म’ और हिन्दी में कभी ‘छायावाद’ और कभी ‘रहस्यवाद’ कहा जाता था। 1925 में प्रकाशित की आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘काव्य में ‘रहस्यवाद’ पुस्तक स भी यहीं सिद्ध होता है। साथ ही, शुक्ल जी के विवेचन से यह भी मालुम होता है तात्विक दृष्टि से उन रचनाओं को ‘रहस्यवाद’ कहा जाता था और रूप विधान की दृष्टि में ‘छायावाद’। सन् 1930 के आसपास हिन्दी छायावादी कविताओं को आलोचना के सिलसिले में अंग्रेजी के रोमांटिक कवि वड्सवर्थ, शेली, कीट्स आदि का नाम लिया जाने लगा और इस तरह छायावाद के साथ ‘रोमैंटिसिज्म’ नाम भी जुड़ गया। आचार्य शुक्ल ने ‘रोमैंटिसिज्म’ के लिए हिन्दी में ‘स्वच्छंदतावाद’ शब्द चलाया और वह चल भी पड़ा, किन्तु उनके ‘स्वच्छंदतावाद’ की परिभाषा इतनी सीमित थी कि वह सम्पूर्ण छायावादी कविताओं को न घेर सकी; उसकी सीमा में श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, गुरुभक्त सिंह, सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, उदयशंकर भट्ट और संभवतः नवीन तथा माखनलाल चतुर्वेदी ही आ सके। उनके अनुसार ‘प्रकृति प्रगण के चर-अचर प्राणियों का रागपूर्ण परिचय, उनकी गतविधि पर आत्मीयता-व्यंजक दृष्टिपात, सुख-दुख में उनके साहचर्य की भावना से ये सब बातें स्वाभाविक स्वच्छंदता के पथचिन्ह हैं।’’ इस प्रकार शुक्ल जी के ‘स्वच्छंदतावाद’ अंग्रेजी के ‘रोमैंटिसिज्म’ का अनुवाद होते हुए भी छायावादी कविता का एक ही अंग बनकर रह गया और धीरे-धीरे ‘छायावाद’ संपूर्ण ‘रोंमैंटिसिज्म’ का वाचक बन गया। (2)छायावाद सम्बन्धी परिभाषाओं और आलोचनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि आलोचकों ने प्रायः किसी एक कवि अथवा किसी एक कविता-संग्रह को ध्यान में रखकर छायावाद की विशेषताओं का निरूपण किया गया है। इस तरह उन्होंने ‘शुद्ध छायावाद’ की एक सीमारेखा खींचकर छायावाद के अन्य कवियों तथा कविताओं को उससे बाहर कर दिया है। जैसे किसी नें पंत जी को ही शुद्ध छायावादी माना है, तो दूसरे ने उनकी सम्पूर्ण रचनाओं
में भी केवल ‘पल्लव’ को ‘शुद्ध’ छायावादी के अंतर्गत स्वीकार किया है और फिर ‘पल्लव’ में भी अपनी रुचि तथा पूर्व निश्चित-धारणा की समर्थक कविताओं के आधार पर ‘छायावाद’ की सामान्य विशेषताएँ गिना दी हैं इस तरह यही नहीं कि प्रसाद, निराला, महादेवी की बहुत-सी कविताएँ ‘छायावाद’ से बाहर हो जाती है बल्कि स्वयं पंत जी की भी ‘वीणा’, ‘ग्रन्थि’ और ‘गंजन की काफी रचनाएँ छायावादेतर ठहरती हैं। परंतु आलोचक को इसकी परवाह नहीं है। उसका ‘शुद्ध’ छायावाद अपनी जगह पर कायम है और वह कायम रहेगा, भले ही उसकी सीमा से छायावाद का
अधिकांश साहित्य बाहर पड़ा रह जाये। एक छवि के असंख्य उडगण दूसरी ओर, ‘छायावाद’ की विभिन्न प्रवृत्तियों और विशेषताओं की गणना करने वाले आलोचकों ने भी छायावाद को एक स्थिर और जड़ वस्तु मानकर विचार किया है। उनसे इस तथ्य की उपेक्षा की गयी है कि छायावाद एक प्रवाहमय काव्यधारा थी; एक ऐतिहासिक उत्थान के साथ उसका उदय हुआ और उसी के साथ उसका क्रमिक विकास तथा ह्रास हुआ। छायावाद के अठारह-बीस वर्षों के इतिहास में अनेक विशेषताएँ, जो आरम्भ में थीं, वे कुछ दूर जाकर समाप्त हो गयीं और फिर अनेक नयीं विशेषताएँ जुड़ गयीं। निःसंदेह छायावाद के उदय और अस्त की चर्चा तो हुई है, लेकिन उसके क्रमिक विकास का विचार बहुत कम हुआ है। इसका प्रमुख कारण यही है कि भाववादी आलोचकों ने छायावाद को जो प्रायः समाज से ऊपर सर्वथा शुद्ध भाव-राशि मानकर विचार किया है। (3)छायावाद व्यक्तिवाद की कविता है, जिसका आरम्भ व्यक्ति के महत्त् को स्वीकार करने और करवाने से हुआ, किन्तु पर्यवसान संसार और व्यक्ति की स्थायी शत्रुता में हुआ। बीसवीं सदी की काव्य सीमा में प्रवेश करने पर हिन्दी कविता के पाठक का ध्यान सबसे पहले जिस विषेशता की ओर जाता है, वह है वैयक्तिक अभिव्यक्ति। व्यक्तिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में आधुनिक कवि ने जो निर्भीकता और साहस दिखलाया, वह पहले किसी कवि में नहीं मिलता। आधुनिक ‘लीरिक’ अथवा ‘प्रगीत’ इसी वैयक्तिक्ता के प्रतीक हैं। मध्ययुग के संत-भक्त और रीतिवादी कवि प्रायः निर्वैयक्तिक ढंग से अपनी बातें कहते थे। संतो और भक्तों के विनय के पदों में जो वैयक्तिक ढंग दिखायी पड़ता है, वह केवल भगवान के प्रति निवेदन है, अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में वे प्रायः मौन ही रहते थे और काव्य में अपने प्रणय-संबंधों की चर्चा करने की बात तो उस समय सोची भी नहीं जा सकती थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय व्यक्ति सामाजिक मर्यादाओं से कितना बँधा हुआ था। आधुनिक कवि ने जीवन की इस शंकुलता तथा अतिशय सामाजिकता को तीव्रता के साथ अनुभव किया। वर्डसवर्थ के शब्दों में उसे लगा कि ‘The world is too much with us’, प्राचीन कृषिवस्था पर आधारित समाज ऐसा ही होता है जिसके छोटे दायरों में लोगों में अपने पड़ोसी के अच्छे-बुरे सभी कार्यों में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी रहती है; और कभी-कभी यह सहायक की जगह बाधक प्रतीत होने लगती है। आधुनिक शिक्षा से प्रभावित युवक ने इस व्यक्ति रोध सामाजिकता का बहिष्कार करके पहले तो निर्जनता में आश्रय लिया, जैसे कि पंत जी के वक्त्यों से पता चलता है और फिर धीरे-धीरे शक्तसंचय करके समाज में आक उन रूढ़ियों के प्रति अपने वैयक्तिक विद्रोह का उद्घोष किया। पहले तो उसे पशु-पक्षियों की तरह प्राकृतिक जीवन में ही अपनी निजता, स्वतन्त्रता और आत्मभाव की सम्भावना दिखाई पड़ी, किन्तु बाद में जब कदम-कदम पर उसका संघर्ष सामाजिक रूढ़ियों से होने लगा तो उसने अपने व्यक्तित्व को उसके प्रतिरोध में खड़ा किया। ‘आत्मकथा’ उसका विषय हो गया और ‘मैं’ उसकी शैली। प्रसाद ने तो स्पष्टतः अपनी ‘आत्मकथा’ का स्पष्टीकरण ही लिख डाला और ‘निराला’, ने सबकी ओर से स्वीकार किया कि मैंने ‘मैं’ शैली अपनायी !’’ अपनी दुर्बलताएँ भी उसने साहस के साथ कहीं जिन बातों को अब तक लोग समाज के भय से छिपाते थे उन्हें छायावादी कवि ने खोल कर रख दिया। पंत जी ने ‘उच्छवास’, ‘आँसू’, और ‘ग्रन्ति’ में प्रणयानुभूति की अबाध अभिव्यक्ति की। ‘उच्छावास्’ की सरल बालिका कोई आध्यात्मिक सत्ता नहीं है, और न उसके साथ व्यक्त हुआ कोई प्रणय संबंध कोई आध्यात्मिक भावना है ! सीधे शब्दों में ‘बालिका मेरी मनोरम मित्र थी’। लेकिन समाज तो ऐसी चीजों को बर्दास्त कर नहीं सकता, इसलिए उस लांछन के विरुद्ध अपने प्रेम की पवित्रता को घोषित करते हुए कवि कहता है- कभी तो अब तक पावन प्रेम प्रसाद का ‘आँसू’ भी मूलतः इसी प्रकार का मानवीय प्रेम-काव्य है, जिसके द्वितीय संस्कार में कवि ने सामाजिक भय से रहस्यात्मकता और लोकमंगल का गहरा पुट दे दिया है। फिर भी असलियत जगजाहिर रही और आचार्य शुक्ल से भी कहे बिना न रहा गया कि ‘इन रहस्यवादी रचनाओं के देखकर चाहें तो यह कहें इनकी मधुचर्या के मानस-प्रसार के लिए रहस्वाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानुभूति ससीम
से कूदकर असीम पर जा रही।’ सम्बन्धित प्रश्नComments Anurag barman on 08-12-2022 Aadhunik kal ki pramukh pravratiya Vikesh kumar on 12-11-2022 Pravartiyan kya hoti hai Vishnu Singh Kushwah kon he on 06-11-2022 Vishnu Singh Kushwah kon he Vishnu Singh Kushwah on 06-11-2022 Bhartendu yug ka namkaran Monika sharma on 30-10-2022 Adhunik kal ki visheshtaye Krishna rajak on 02-09-2022 Adhunik kal ke janak kon hai Manvendra dau on 25-07-2022 Mujhe ye story acchi lagi Deepak pandey on 07-07-2022 Hindi kall ki pirmokh pir batiya Ankit Sindhiya on 04-07-2022 आधुनिक युग की काव्यप् प्रवृतियों पर प्रकाश डालिये ॽ Richa on 25-06-2022 Mujhe aadikal notes chahiye Satendra kumar on 28-03-2022 Hindi pdf Sonu on 06-03-2022 Aadhunik yug kavya parvtiyo ka vrnn ki jiye Arif mansuri on 03-02-2022 Aaheunik kal ki prvattiya pat prakash dale Painting theory on 26-01-2022 Kla ke adhunik prvartiyo Se kya abhipray h Sapna on 26-01-2022 Kla ke adhunik prvartiyo Se kya abhipay h डव्वर on 20-01-2022 आदिकाल आदिकाल का वर्णन बताइए Homer on 17-01-2022 Kavyo प्रिया on 28-12-2021 आधुनिक युग की काव्य प्रवृत्ति समझाइए Aman on 17-12-2021 Aadhunik Kaal ki koi do pravachan likhiye Aman Aman on 17-12-2021 Aadhunik kal ki koi do Pavitra bataiye Purnima nagpure on 09-12-2021 Kavya kit rotiyan ka ullekh kijiye arjun on 05-12-2021 adhunik kal ki do pravritiya Rohini vishwakarma on 03-12-2021 Aadhunik kavya ki Pramukh prabatiya no mil rhi please send me answer Rahul on 29-11-2021 Aadhunik Kaal ki koi do pravritiyan likhiye Hindi on 22-11-2021 आधुनिक काल की दो प्रव्तीय Reetikal ke poet on 20-11-2021 Vihari lal Nikhil on 01-11-2021 Adhunik kal ki visheshta learn kar lene se yah prayog badi or chhayavadi or pragativadi teeno ki visheshtao me work karegi R on 17-10-2021 आधुनिक काल की प्रवृत्ति N on 04-09-2021 Aadhunik Kaal ki Pramukh Kavya kritiyan kaun kaun ki hai Lalit on 24-07-2021 Paribhaashit sabdo ke prakar tatha nirmaan prabatiya par prakash daliye Sijjaykumar saryam on 21-07-2021 आधुनिक समीक्षा पश्चात की विशिष्ट प्रवृतियां पर प्रकाश डालिए Alisha on 15-07-2021 Mujhe question nii mil raha hai plz send me my answer Poshan sahu on 28-06-2021 Madhyakal ke bare me jankari Rupsingh paraste on 15-04-2021 Aadhunik kall ki premukh prevartiyon ko rekhankit kijiye Rajkumari lodhi on 28-03-2021 Aadhunik kal ki prmukh pravattiyon ka badan kijiye Govind mausik on 09-02-2021 Aadhunik yug ke pramukh Kavya pravartiya per Prakash daliye Aditi Singh on 30-01-2021 Adhunikal kal key sahitya ka Swatantra Mey yogdan P on 29-09-2020 Chayavad kya hai आधुनिक युग की काव्य प्रवृत्तियां कौन सी है?इस प्रकार आधुनिक हिन्दी साहित्य में छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद चार ही प्रवृत्तियाँ निश्चित रूप से इतिहास-सम्मत हैं जिन्हें 'वाद' के रूप में प्रचलन की मात्रा प्राप्त है।
आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां किसकी रचना है?Aadhunik Sahitya Ki Pravrittiyan - Hindi book by - Namvar Singh - आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ - नामवर सिंह
आधुनिक काव्य क्या है?आधुनिक हिंदी काव्य, कई विश्वविद्यालय के बी॰ ए॰ पाठ्यक्रम के हिंदी साहित्य विषय का एक प्रश्न पत्र है। हिंदी काव्य का आधुनिक काल 1850 से आरम्भ होता है। इसी युग मे हिंदी पद्य के साथ साथ गद्य का भी विकास हुआ। जन संचार के विभिन्न साधनों जैसे रेडिओ व समाचार पत्र का विकास इसी समय हुआ था।
आधुनिक कविता से क्या तात्पर्य है इसकी प्रमुख प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए?आधुनिक हिन्दी कविता का प्रारम्भ संवत् 1900 से माना जाता है। यह काल अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस काल में हिन्दी साहित्य का चहुंमुखी विकास हुआ। इस काल में सांस्कृतिक,राजनीतिक एवं सामाजिक आन्दोलनों के फलस्वरूप हिन्दी काव्य में नई चेतना तथा विचारों ने जन्म लिया और साहित्य बहुआयामी क्षेत्रों को सस्पर्श करने लगा।
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