आवारा मसीहा विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित प्रसिद्ध बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी है। शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की गणना भारत के ऐसे उपन्याकारों में की जाती है जो सच्चे अर्थों में देशभर में अत्यन्त लोकप्रिय थे। उनकी प्रायः सभी रचनाओं का अनुवाद भारत की सभी भाषाओं में हुआ और वे खूब चाव से बार बार पढ़ी गयी, आज भी पढी जाती है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि एकाध को छोड़कर उनकी कोई भी संतोषजनक जीवनी बांग्ला में भी उपलब्ध नहीं है। इस कार्य को पूरा करने का बीड़ा अनेक वर्ष पूर्व श्री विष्णु प्रभाकर ने उठाया था। वे स्वयं प्रथम श्रेणी के कथाकार हैं और शरतचंद्र में गहरी आस्था रखते हैं, उन्होंने यात्रा-पत्र-व्यवहार, भेंटवार्ता आदि अब तक के समस्त उपायों और साधनों से इस कार्य को पूर्ण किया है, जो कि इस ग्रन्थ में प्रस्तुत है। यह जीवन चरित्र न केवल बहुत विस्तार से उन पर प्रकाश डालता है अपितु उनके जीवन के कई अज्ञात पहलुओं को भी उजागर करता है। ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था। पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को। इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। लेखक कथनजब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही मन डर रहा था कि कहीं बंगाली मित्र मेरी कुछ स्थापनाओं को लेकर क्रुद्ध न हो उठें। लेकिन मेरे हर्ष का पार नहीं था जब सबसे पहला पत्र मुझे एक बांग्ला भाषा की पत्रिका के संपादक का मिला। उन्होंने लिखा था कि आपने एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और चिरस्थायी कार्य किया जो हम नहीं कर सके। मैं तो जैसे जी उठा। वैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सभी पाठकों ने मुझे साधुवाद दिया। उन पाठकों में सभी वर्गों और श्रेणियों के व्यक्ति थे। तब से यह क्रम अभी तक जारी है। इसकी रचना प्रक्रिया पर प्रथम संस्करण की भूमिका में मैंने विस्तार से प्रकाश डाला है। उसके प्रकाशित होने के बाद मुझे यह आशा थी कि शायद कुछ और तथ्य सामने आयें लेकिन तीसरा संस्करण प्रकाशित होने तक कुछ विशेष उपलब्धि नहीं हुई परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ अवश्य सामने आईं जो उनके चरित्र को और उजागर करती थीं। उनका वर्णन तीसरे संस्करण की भूमिका में (सितम्बर 1977) किया। वे सब अंश संस्करण की भूमिका में भी शामिल कर लिए गए हैं। दूसरे संस्करण में टंकण और मुद्रण या किसी और प्रमादवश जो अशुद्धियाँ रह गई थीं उन्हें भी ठीक कर दिया था। यहाँ-वहाँ आए कुछ उद्धरण या तो निकाल दिए थे या उनके कलेवर कुछ कम कर दिया था। मैंने उस संस्करण में बांग्ला शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग किया था। समीक्षकों और सुधी पाठकों के सुझाव पर उन्हें भी कम कर दिया। महात्मा गाँधी पर शरत् बाबू ने जो मार्मिक लेख लिखा था उसे परिशिष्ट में दे दिया था। उस लेख को देने का कारण यह था कि शायद सभी लोग उन्हें गाँधी जी का कट्टर विरोधी मानते थे पर उस लेख में शरत् बाबू ने उनका जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उनके प्रति विरोध के रहते भी जो गहरी आस्था प्रकट की है, वह अद्भुत है। उसे परिशिष्ट में देने का कारण यह था कि तीसरे खंड में भारीपन की जो शिकायत कुछ मित्रों ने की थी वो कम हो जाए। शायद हुई भी है। -विष्णु प्रभाकर भूमिकाकभी सोचा भी न था कि एक दिन मुझे अपराजेय
कथाशिल्पी शरत्-चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, के
स्वामी नाथूराम प्रेमी ने शरत्-साहित्य का प्रामाणिक अनुवाद हिन्दी में प्रकाशित किया है। उनकी इच्छा थी कि इसी माला में शरत्-चन्द्र की एक जीवनी भी प्रकाशित की जाए। उन्होंने इसकी चर्चा श्री यशपाल जैन से की और न जाने कैसे लेखक के रूप में मेरा नाम सामने आ गया। यशपालजी के आग्रह पर मैंने एकदम ही यह
काम अपने हाथ में ले लिया हो, ऐसा नहीं था, लेकिन अन्ततः लेना पड़ा, यह सच है। इसका मुख्य कारण था शरत्-चन्द्र के प्रति मेरी अनुरक्ति। उनके साहित्य को पढ़कर उनके जीवन के बारे में विशेषकर श्रीकान्त और राजलक्ष्मी के बारे में, जानने की उत्कट इच्छा कई बार हुई है। शायद वह इच्छा पूरी होने का यह अवसर था। सोचा, बंगला साहित्य में निश्चिय ही उनकी अनेक प्रामाणिक
जीवनियां प्रकाशित हुई होंगी। लेख-संस्मरण तो न जाने कितने लिखे गये होंगे। वहीं से सामग्री लेकर यह छोटी-सी जीवनी लिखी जा सकेगी। लेकिन खोज करने पर पता लगा कि प्रामाणिक तो क्या, कल्पित कहानी को जीवनी का रूप देकर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, पर उनमें शरत् बाबू का वास्तविक रूप तो क्या प्रकट होता वह और भी जटिल हो उठा है।
टीका टिप्पणी और संदर्भबाहरी कड़ियाँ
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ङ आवारा मसीहा के रचनाकार कौन हैं ?`?उन्हें करीब दो सप्ताह पहले छाती में संक्रमण और श्वास लेने में तकलीफ के बाद पंजाबी बाग स्थित एक अस्पताल में दाखिल कराया गया था। प्रभाकर के परिवार में दो पुत्र और दो पुत्रियां हैं। उनकी पत्नी का पहले ही निधन हो चुका है।
आवारा मसीहा को लिखने में कितने वर्ष लगे?यशपाल जी के आग्रह पर ही मैंने यह काम अपने हाथों में लिया।" विष्णु जी ने 1959 में शरतबाबू की जीवनी लिखने के लिए अपनी यात्रा शुरू कर दी और उन्हें "आवारा मसीहा" लिखने में 14 साल लगे। इसे लिखने के लिए वैसे उन्होंने 1965 तक सारी सामग्री जुटा डाली थी।
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