Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्या चमक Textbook Exercise Questions and Answers. Show
JAC Class 10 Hindi मानवीय करुणा की दिव्या चमक Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. उनके शोध ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ के कुछ अध्याय ‘परिमल’ में पढ़े गए थे। उन्होंने ‘परिमल’ में भी कार्य किया। वे सदैव हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए चिंतित रहते थे। इसके लिए वे प्रत्येक मंच पर आवाज़ उठाते थे। उन्हें उन लोगों पर झुंझलाहट होती थी, जो हिंदी जानते हुए भी हिंदी का प्रयोग नहीं करते थे। इस तरह हम कह सकते हैं कि फ़ादर बुल्के का हिंदी के प्रति विशेष लगाव और प्रेम था। प्रश्न 4. किसी ने भी उन्हें कभी क्रोध में नहीं देखा था। वे सबके साथ प्यार व ममता से मिलते थे। जिससे एक बार मिलते थे, उससे रिश्ता बना लेते थे, फिर वे संबंध कभी नहीं तोड़ते थे। फ़ादर अपने से संबंधित सभी लोगों के घर, परिवार और उनकी दुख-तकलीफों की जानकारी रखते थे। दुख के समय उनके मुख से निकले दो शब्द जीवन में नया जोश भर देते थे। फ़ादर बुल्के का व्यक्तित्व वास्तव में देवदार की छाया के समान था। उनसे रिश्ता जोड़ने के बाद बड़े भाई के अपनत्व, ममता, प्यार और आशीर्वाद की कभी कमी नहीं होती थी। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. (ख) लेखक के फ़ादर बुल्के से अंतरंग संबंध थे। फ़ादर बुल्के से मिलना और उनसे बात करना लेखक को अच्छा लगता था। फ़ादर ने उसके हर दुख-सुख में उसका साथ निभाया था। इसलिए लेखक को लगता है कि फ़ादर बुल्के को याद करना उनके लिए एकांत में उदास शांत संगीत सुनने जैसा है, जो अशांत मन को शांति प्रदान करता है। फ़ादर ने सदैव उनके अशांत मन को शांति प्रदान की थी। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. प्रश्न 9. इसलिए लेखक के यह पूछने पर कि कैसी है आपकी जन्मभूमि? फ़ादर बुल्के ने तत्परता से जबाव दिया कि उनकी जन्मभूमि बहुत सुंदर है। यह उत्तर उनकी आत्मा की आवाज़ थी। हमें अपनी जन्मभूमि प्राणों से बढ़कर प्रिय है। जन्मभूमि में ही मनुष्य का उचित विकास होता है। उसकी आत्मा में अपनी जन्मभूमि की मिट्टी की महक होती है। जन्मभूमि से मनुष्य का रिश्ता उसके जन्म से शुरू होकर उसके मरणोपरांत तक रहता है। जन्मभूमि ही हमें हमारी पहचान, संस्कृति तथा सभ्यता से अवगत करवाती है। हमें अपनी जन्मभूमि के लिए कृतज्ञ होना चाहिए और उसकी रक्षा और सम्मान पर कभी आँच नहीं आने देनी चाहिए। भाषा-अध्ययन – प्रश्न 10. शीत प्रदेश में वास करने वाला व्यक्ति काँप-काँप कर जी लेता है, लेकिन जब उसके देश पर कोई संकट आता है तो वह अपनी जन्मभूमि पर प्राण न्योछावर कर देता है। ‘यह मेरा देश है’ कथन में कितनी मधुरता है। इसमें जो कुछ है, वह सब मेरा है। जो व्यक्ति ऐसी भावना से रहित है, उसके लिए ठीक ही कहा गया है – जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान
है। मेरा महान देश भारत सब देशों का मुकुट है। इसका अतीत स्वर्णिम रहा है। एक समय था, जब इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। प्रकृति ने इसे अपने अपार वैभव, शक्ति एवं सौंदर्य से विभूषित किया है। इसके आकाश के नीचे मानवीय प्रतिभा ने अपने सर्वोत्तम वरदानों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया है। इस देश के चिंतकों ने गूढतम प्रश्न की तह में पहुँचने का सफल प्रयास किया है। मेरा देश अति प्राचीन है। इसे सिंधु देश, आर्यावर्त, हिंदुस्तान भी कहते हैं। इसके उत्तर में ऊँचा हिमालय पर्वत इसके मुकुट के समान है। उसके पार तिब्बत तथा चीन हैं। दक्षिण में समुद्र इसके पाँव धोता है। श्रीलंका द्वीप वहाँ समीप ही है। उसका इतिहास भी भारत से संबद्ध है। पूर्व में बांग्लादेश और म्यांमार देश हैं। पश्चिम में पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, ईरान देश हैं। प्राचीन समय में तथा आज से दो हज़ार वर्ष पहले सम्राट अशोक के राज्यकाल में और उसके बाद भी गांधार (अफ़गानिस्तान) भारत का ही प्रांत था। कुछ सौ वर्षों पहले तक बाँग्लादेश, ब्रह्मदेश व पाकिस्तान भारत के ही अंग थे। इस देश पर अंग्रेजों ने आक्रमण करके यहाँ पर विदेशी राज्य स्थापित किया और इसे खूब लूटा। पर अब वे दुख भरे दिन बीत चुके हैं। हमारे देश के वीरों, सैनिकों, देशभक्तों और क्रांतिकारियों के त्याग व बलिदान से 15 अगस्त 1947 ई० को भारत स्वतंत्र होकर दिनों-दिन उन्नत और शक्तिशाली होता जा रहा है। 26 जनवरी, 1950 से भारत में नया संविधान लागू हुआ और यह ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बन गया। अनेक ज्वारभाटों का सामना करते हुए भी इसका सांस्कृतिक गौरव अक्षुण्ण रहा है। यहाँ गंगा, यमुना, सरयू, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी, सोन, सतलुज, व्यास, रावी आदि पवित्र नदियाँ बहती हैं, जो इस देश को सींचकर हरा-भरा करती हैं। इनमें स्नान कर देशवासी पुण्य लाभ उठाते हैं। यहाँ बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर-ये छह ऋतुएँ क्रमशः आती हैं। इस देश में अनेक तरह की जलवायु है। भाँति-भाँति के फल-फूल, वनस्पतियाँ, अन्न आदि यहाँ उत्पन्न होते हैं। इस देश को देखकर हृदय गदगद हो जाता है। यहाँ अनेक दर्शनीय स्थान हैं। यह एक विशाल देश है। इस समय इसकी जनसंख्या लगभग एक सौ पच्चीस करोड़ से अधिक हो गई है, जो संसार में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। यहाँ हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि मतों के लोग परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। यहाँ हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, बाँग्ला, तमिल, तेलुगू आदि अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। दिल्ली इसकी राजधानी है। वहीं संसद भी है, जिसके लोकसभा और राज्यसभा दो अंग हैं। मेरे देश के प्रमुख राष्ट्रपति’ कहलाते हैं। एक उपराष्ट्रपति भी होता है। देश का शासन प्रधानमंत्री तथा उसका मंत्रिमंडल चलाता है। इस देश में विभिन्न राज्य या प्रदेश हैं, जहाँ विधानसभाएँ हैं। वहाँ मुख्यमंत्री और उसके मंत्रिमंडल द्वारा शासन होता है। यह धर्मनिरपेक्ष देश है। यहाँ बड़े धर्मात्मा, तपस्वी, त्यागी, परोपकारी, वीर, बलिदानी महापुरुष हुए हैं। यहाँ की स्त्रियाँ पतिव्रता, सती, साध्वी, वीरता और साहस की पुतलियाँ हैं। उन्होंने कई बार जौहर व्रत किए हैं। वे योग्य और दृढ़ शासक भी हो चुकी हैं और आज भी हैं। यहाँ के ध्रुव, प्रहलाद, लव-कुश, अभिमन्यु, हकीकतराय आदि बालकों ने अपने ऊँचे जीवनादर्शों से इस देश का नाम उज्ज्वल किया है। मेरा देश गौरवशाली है। इसका इतिहास सोने के अक्षरों में लिखा हुआ है। यह स्वर्ग के समान सभी सुखों को प्रदान करने में समर्थ है। मैं इस पर तन-मन-धन न्योछावर करने के लिए तत्पर रहता हूँ। मुझे अपने देश पर और अपने भारतीय होने पर गर्व है। प्रश्न 11. प्रिय मित्र, यदि आप भी हमारे साथ शिमला चलें तो यात्रा का आनंद आ जाएगा। आप किसी प्रकार का संकोच न करें। मेरे माता-पिताजी भी आपको देखकर बहुत प्रसन्न होंगे। आप शीघ्र ही अपने कार्यक्रम के बारे में सूचित करें। हमारा विचार जून के प्रथम सप्ताह में जाने का है। शिमला से लौटने
के बाद जम्मू-कश्मीर जाने का विचार है, जहाँ अनेक दर्शनीय स्थान हैं। जम्मू के पास कटरा में वैष्णो देवी का मंदिर मेरे आकर्षण का केंद्र है। मुझे अभी तक इस सुंदर भवन को देखने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। आशा है कि इस बार यह जिज्ञासा भी शांत हो जाएगी। आप अपने कार्यक्रम से शीघ्र ही सूचित करें। प्रश्न 12. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. यह भी जानें – परिमल – निराला के प्रसिद्ध काव्य संकलन से प्रेरणा लेते हुए 10 दिसंबर 1944 को प्रयाग विश्वविद्यालय के साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले कुछ उत्साही युवक मित्रों द्वारा परिमल समूह की स्थापना की गई। ‘परिमल’ द्वारा अखिल भारतीय स्तर की गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं जिनमें कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि पर खुली आलोचना और उन्मुक्त बहस की जाती। परिमल का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद था। जौनपुर, मुंबई, मथुरा, पटना, कटनी में भी इसकी शाखाएँ रहीं। परिमल ने इलाहाबाद में साहित्य-चिंतन के प्रति नए दृष्टिकोण का न केवल निर्माण किया बल्कि शहर के वातावरण को एक साहित्यिक संस्कार देने का प्रयास भी किया। फ़ादर कामिल बुल्के (1909-1982) JAC Class 10 Hindi मानवीय करुणा की दिव्या चमक Important Questions and Answersप्रश्न 1. 2. व्यक्तित्व – फ़ादर बुल्के का व्यक्तित्व हर किसी के हृदय में अपनी छाप छोड़ता था। उनका रंग गोरा था। उनकी दाढ़ी भूरी थी, जिसमें सफ़ेदी की झलक भी दिखाई देती थी। उनकी आँखें नीली थीं। उनके चेहरे पर तेज़ था। उनका व्यक्तित्व उन्हें भीड़ – में अलग पहचान देता था। 3. शिक्षा – रेम्सचैपल शहर में जब उन्होंने संन्यास लिया उस समय वे इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे। भारत आकर उन्होंने कोलकाता से बी०ए०, इलाहाबाद से एम० ए० और प्रयाग विश्वविद्यालय से हिंदी में शोधकार्य किया। शोध का विषय था – ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’। 4. अध्यापन कार्य – फादर बुल्के सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी तथा संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष थे। वहाँ उन्होंने अपना अंग्रेजी-हिंदी कोश लिखा, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने बाइबिल का भी अनुवाद किया। 5. शांत स्वभाव-फ़ादर बुल्के शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्हें कभी भी किसी ने क्रोध में नहीं देखा था। उनका शांत स्वभाव हर किसी को प्रभावित करता था। 6. ओजस्वी वाणी-फ़ादर बुल्के की वाणी ओजस्वी थी। उनके मुख से निकले दो सांत्वना के शब्द अँधेरे जीवन में रोशनी ला देते थे। उनके विचार ऐसे होते थे, जिन्हें कोई काट नहीं सकता था। 7. बड़े भाई की भूमिका में-फ़ादर बुल्के प्रत्येक व्यक्ति के लिए बड़े भाई की भूमिका में दिखाई देते थे। उनकी उपस्थिति में सभी कार्य शांति और सरलता से संपन्न होते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। ‘परिमल’ में काम करते समय वहाँ का वातावरण एक परिवार की तरह था, जिसके बड़े सदस्य फ़ादर थे। वे बड़े भाई की तरह सबको सुझाव और राय देते थे। 8. मिलनसार-फ़ादर बुल्के मिलनसार व्यक्ति थे। वे जिससे एक बार रिश्ता बना लेते थे, उसे कभी नहीं तोड़ते थे। जब भी वे दिल्ली जाते, तो सबसे मिलकर आते थे; चाहे वह मिलना दो मिनट का होता था। 9. हिंदी भाषा के प्रति प्यार-फ़ादर बुल्के एक विदेशी होते हुए भी बहुत अपने थे। उनके अपनेपन का कारण था-उनका भारत, भारत की संस्कृति और भारतीय भाषा हिंदी से विशेष प्यार। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे और इसके लिए प्रयासरत भी रहते थे। उनकी हिंदी भाषा के प्रति चिंता प्रत्येक मंच पर स्पष्ट देखी जा सकती थी। उन्हें उस समय बहुत झुंझलाहट होती थी, जब हिंदी वाले ही हिंदी की उपेक्षा करते थे। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष प्रेम था। 10. कष्टदायी मृत्यु-फ़ादर बुल्के शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। वे दूसरों के दुख से जल्दी दुखी हो जाते थे। जिन्होंने सदैव अपने स्वभाव से मिठास बाँटी थी, उसी की मृत्यु ज़हरबाद से हुई थी। उन्हें अंतिम समय में बहुत यातना सहन करनी पड़ी थी। उन्होंने अपने जीवन के सैंतालीस साल भारत में बिताए थे। मृत्यु के समय उनकी आयु तिहत्तर वर्ष थी। 18 अगस्त 1982 को दिल्ली में उनकी मृत्यु हुई। फ़ादर बुल्के का व्यक्तित्व तपती धूप में शीतलता प्रदान करने वाला था। इसलिए लेखक का उनको याद करना एक उदास शांत संगीत सुनने जैसा था। प्रश्न 2. हम लोगों को फ़ादर बुल्के के जीवन से यह संदेश लेना चाहिए कि जब एक विदेशी अनजान देश, अनजान लोगों और अनजान भाषा को अपना बना सकता है तो हम अपने देश, अपने लोगों और अपनी भाषा को अपना क्यों नहीं बना सकते? हमें अपने भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए। अपने देश और उसकी राष्ट्रभाषा हिंदी के सम्मान की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. पठित गद्याश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए
– (क) परिमल से आप क्या समझते हैं? (ख) फ़ादर को याद करना कैसा है? (ग) किनको देखना करुणा के जल में स्नान करने के
समान है? (घ) फ़ादर बुल्के की बातें क्या करने की प्रेरणा देती थी? (ङ) घर के उत्सवों में फ़ादर की क्या भूमिका रहती थी? उच्च चिंतन क्षमताओं एवं अभिव्यक्ति पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – पाठ पर आधारित प्रश्नों को पढ़कर सही उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) फ़ादर ने ‘जिसेट संघ’ में दो वर्ष किस विषय की पढ़ाई की? (ग) फ़ादर की उपस्थिति किस वृक्ष की छाया के समान प्रतीत होती थी? (घ) फ़ादर कामिल बुल्के अकसर किसकी यादों में खो जाते थे? (ङ) फ़ादर ने किसके प्रसिद्ध
नाटक का रूपांतर हिंदी में किया? महत्वपूर्ण गद्यांशों के अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. फ़ादर को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसके लिए इस ज़हर का विधान क्यों हो? यह सवाल किस ईश्वर से पूछे ? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था। वह देह की इस यातना की परीक्षा की उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दें? अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे जिसके बड़े फ़ादर बुल्के थे। हमारे हँसी-मज़ाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते, हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. लेखक के अनुसार फ़ादर बुल्के को देखने मात्र से ऐसा लगता था, जैसे उन्हें हम किसी पवित्र सरोवर के उज्ज्वल जल में स्नान करके पवित्र हो गए हों। उनसे बातचीत करना तथा उनकी बातें सुनना कर्म करने की प्रेरणा भर देता था। 3. ‘परिमल’ एक साहित्यिक संस्था थी। इसमें समय-समय पर साहित्यिक विचार गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं, जिनमें तत्कालीन साहित्य की विभिन्न विधाओं पर चर्चा होती थी। इन गोष्ठियाँ में नए-पुराने सभी साहित्यकार अपने-अपने विचार व्यक्त करते थे। 4. घर के उत्सवों में फ़ादर बुल्के सबके साथ मिल-जुलकर उत्साहपूर्वक भाग लेते थे। वे एक बड़े भाई के समान अथवा एक पारिवारिक पुरोहित के समान सबको आशीर्वाद देते थे। उनके इस व्यवहार से सभी पुलकित हो उठते थे। 3. फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी-कभी लगता है वह मन में संन्यासी नहीं थे। रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते ज़रूर मिलते-खोजकर, समय निकालकर, गरमी, सरदी, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है? अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. एक संन्यासी होते हुए भी फ़ादर बुल्के रिश्तों की गरिमा समझते थे। तथा रिश्तों को निभाना जानते थे। जिसके साथ उनका कोई संबंध बन जाता था, उसे वे अंतकाल तक निभाते थे। वे रिश्ते जोड़कर तोड़ते नहीं थे। 3. लेखक कहता है कि यदि फ़ादर बुल्के से कई वर्षों बाद मुलाकात होती थी, तो भी वे बड़ी प्रगाढ़ता से मिलते थे। उनके साथ जो रिश्ते थे, उसकी गहराई की सुगंध उस मिलन से महसूस होती थी। उनका अपनापन रिश्तों को और भी अधिक मज़बूती देता था। 4. लेखक बताता है कि फ़ादर बुल्के जब कभी दिल्ली आते थे, तो वे अपने व्यस्त कार्यक्रम में से समय निकालकर उससे मिलने अवश्य आते थे। इस प्रकार मिलने में चाहे उन्हें गरमी अथवा सरदी का सामना करना पड़ता, वे इसकी भी चिंता नहीं करते थे। उनकी इसी स्वभावगत विशेषता के कारण लेखक को कहना पड़ा कि मिलने के लिए ऐसा प्रयास कोई भी संन्यासी नहीं करता है। 4. उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच में इसकी तकलीफ़ बयान करते, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिंदी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी दुख-तकलीफ़ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. फ़ादर बुल्के इसी प्रश्न पर झुंझलाते थे कि हिंदी को अपने ही देश में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा। उन्हें इस बात पर बहुत दुख था कि स्वयं हिंदी वाले ही हिंदी की उपेक्षा कर रहे हैं। हिंदी वालों द्वारा हिंदी का अनादर तथा अनदेखी करने पर वे बहुत दुखी हो जाते थे। 3. इन पंक्तियों में लेखक ने फ़ादर बुल्के के स्वभाव का उल्लेख करते हुए कहा है कि वे जब भी किसी से मिलते थे, तो एक आत्मीय के रूप में उस व्यक्ति से उसके घर-परिवार, उसके सुख-दुख आदि के बारे में पूछते थे। 4. यदि कोई दुखी व्यक्ति फ़ादर बुल्के को अपनी दुखभरी कहानी सुनाता था, तो फ़ादर उस व्यक्ति को इस प्रकार से सांत्वना देते थे कि उस व्यक्ति को लगता था मानो उसके सभी कष्ट व दुख दूर हो गए हों। लेखक को लगता है कि फ़ादर ने किसी के दुख को दूर करने वाले सांत्वना के इन शब्दों को गहरी तपस्या से ही प्राप्त किया था। 5. इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल-फूल गंध से भरा और सबसे अलग, सबका होकर, सबसे ऊँचाई पर, मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी स्मृति हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह आजीवन बनी रहेगी। मैं उस पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धानत हूँ। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. लेखक के लिए फ़ादर बुल्के की स्मृति पवित्र भावनाओं से युक्त है। जैसे किसी यज्ञ की पवित्र अग्नि की तपस सदा अनुभव की जा सकती है, उसी प्रकार से लेखक के मन में भी फ़ादर की पुनीत स्मृति आजीवन बनी रहेगी। उनकी मानवीय करुणा ने लेखक के मन में यह भावना जागृत की है। 3. लेखक ने अपने इस आलेख ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ के माध्यम से फ़ादर को श्रद्धांजलि दी है। लेखक उनकी पवित्र एवं करुणामय जीवन-पद्धति से प्रभावित रहा है। 4. लेखक के लिए फ़ादर कामिल बुल्के मानवीय करुणा की दिव्य चमक के समान थे। वे लेखक के लिए बड़े भाई के समान मार्गदर्शक, आशीर्वाददाता तथा शुभचिंतक थे। लेखक को उन जैसा हिंदी-प्रेमी, संन्यासी होते हुए भी संबंधों को गरिमा प्रदान करने वाला, सबके सुख-दुख का साथी अन्य कोई नहीं दिखाई देता था। मानवीय करुणा की दिव्या चमक Summary in Hindiलेखक-परिचय : जीवन-नई कविता के सशक्त कवि तथा प्रतिभावान साहित्यकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में सन 1927 ई० हुआ था। सन 1949 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। इन्होंने कुछ वर्ष तक अध्यापन कार्य करने के पश्चात आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर के रूप में काम किया। इन्होंने ‘दिनमान’ में उपसंपादक तथा बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ में संपादक के रूप में कार्य किया था। इन्हें ‘टियों पर टंगे लोग’ कविता-संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था। सन 1983 ई० में इनका निधन हो गया था। रचनाएँ – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने साहित्य की विभिन्न विधाओं को अपनी लेखनी से समृद्ध किया। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं – भाषा-शैली – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की भाषा-शैली अत्यंत सहज, सरल, व्यावहारिक, भावपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। इन्होंने कहीं भी असाधारण अथवा कलिष्ट भाषा का प्रयोग नहीं किया है। मानवीय करुणा की दिव्य चमक इनका फ़ादर कामिल बुल्के से संबंधित संस्मरण है, जिसमें लेखक ने उनसे संबंधित कुछ अंतरंग प्रसंगों को उजागर किया है। फ़ादर की मृत्यु पर लेखक का यह कथन इसी ओर संकेत करता है-‘फ़ादर को ज़हरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरे के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त कुछ नहीं था उसके लिए इस ज़हर का विधान क्यों?’ लेखक ने वात्सल्य, यातना, आकृति, साक्षी, वृत्त जैसे तत्सम शब्दों के साथ ही महसूस, ज़हर, छोर, सँकरी, कब्र जैसे विदेशी तथा देशज शब्दों का भी भरपूर प्रयोग किया है। लेखक ने भावपूर्ण शैली में फ़ादर को स्मरण करते हुए लिखा है-‘फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था।’ लेखक ने फ़ादर से संबंधित अपनी स्मृतियों को अत्यंत सहज रूप से प्रस्तुत किया है। पाठ का सार : ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ के लेखक ‘सर्वेश्वर दयाल सक्सेना’ हैं। यह पाठ एक संस्मरण है। लेखक ने इस पाठ में फ़ादर कामिल बुल्के से संबंधित स्मृतियों का वर्णन किया है। फादर बुल्के ने अपनी जन्मभूमि रैम्सचैपल (बेल्जियम) को छोड़कर भारत को अपनी कार्यभूमि बनाया। उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों से विशेष लगाव था। फ़ादर की मृत्यु जहरबाद से हुई थी। उनके साथ ऐसा होना ईश्वर का अन्याय था। इसका कारण यह था कि वे सारी उम्र दूसरों को अमृत सी मिठास देते रहे थे। उनका व्यक्तित्व ही नहीं अपितु स्वभाव भी साधुओं जैसा था। लेखक उन्हें पैंतीस सालों से जानता था। वे जहाँ भी रहे, अपने प्रियजनों पर ममता लुटाते रहे। फ़ादर को याद करना, देखना और सुनना-ये सबकुछ लेखक के मन में अजीब शांत-सी हलचल मचा देते थे। उसे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं, जब वह उनके साथ काम करता था। फादर बड़े भाई की भूमिका में सदैव सहायता के लिए तत्पर रहते थे। उनका वात्सल्य सबके लिए देवदार पेड़ की छाया के समान था। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि वह फ़ादर की बात कहाँ से शुरू करे। फ़ादर जब भी मिलते थे, जोश में होते थे। उनमें प्यार और ममता कूट-कूटकर भरी हुई थी। किसी ने भी कभी उन्हें क्रोध में नहीं देखा था। फ़ादर बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे, जब वे संन्यासी होकर भारत आ गए। उनका पूरा परिवार बेल्जियम के रैम्सचैपल में रहता था। भारत में रहते हुए वे अपनी जन्मभूमि रैम्सचैपल और अपनी माँ को प्रायः याद करते थे। वे अपने विषय में बताते थे कि उनकी माँ ने उनके बचपन में ही घोषणा कर दी थी कि यह लड़का हाथ से निकल गया है और उन्होंने अपनी माँ की बात पूरी कर दी। वे संन्यासी बनकर भारत के गिरजाघर में आ गए। आरंभ के दो साल उन्होंने धर्माचार की पढ़ाई की। इसके बाद 9-10 साल तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। कलकत्ता से उन्होंने बी० ए० तथा इलाहाबाद से एम०ए० किया था। वर्ष 1950 में उन्होंने अपना शोधकार्य प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से पूरा किया था। उनके शोधकार्य का विषय-‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ था। उन्होंने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लूबर्ड’ का हिंदी में ‘नीलपंछी’ नाम से रूपांतर किया। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। यहाँ रहकर उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी-हिंदी कोश तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद भी किया। राँची में उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। फादर बुल्के मन से नहीं अपितु संकल्प से संन्यासी थे। वे जिससे एक बार रिश्ता जोड़ लेते थे, उसे कभी नहीं तोड़ते थे। दिल्ली आकर कभी वे बिना मिले नहीं जाते थे। मिलने के लिए सभी प्रकार की तकलीफों को सहन कर लेते थे। ऐसा कोई भी संन्यासी नहीं करता था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। वे हर सभा में हिंदी को सर्वोच्च भाषा बनाने की बात करते थे। वे उन लोगों पर झुंझलाते थे, जो हिंदी भाषा वाले होते हुए भी हिंदी की उपेक्षा करते थे। उनका स्वभाव सभी लोगों की दुख-तकलीफों में उनका साथ देता था। उनके मुँह से निकले सांत्वना के दो बोल जीवन में रोशनी भर देते थे। लेखक की जब पत्नी और पुत्र की मृत्यु हुई, उस समय फ़ादर ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “हर मौत दिखाती है जीवन को नई राह।” लेखक को फ़ादर की बीमारी का पता नहीं चला। वह उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली पहुंचा था। वे चिरशांति की अवस्था में लेटे थे। उनकी मृत्यु 18 अगस्त 1982 को हुई। उन्हें कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके ताबूत के साथ रघुवंश जी, जैनेंद्र कुमार, डॉ० सत्य प्रकाश, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन, विजयेंद्र स्नातक और रघुवंश जी का बेटा आदि थे। साथ में मसीही समुदाय के लोग तथा पादरीगण थे। सभी दुखी और उदास थे। उनका अंतिम संस्कार मसीही विधि से हुआ। उनकी अंतिम यात्रा में रोने वालों की कमी नहीं थी। इस तरह एक छायादार व फल-फूल गंध से भरा वृक्ष हम सबसे अलग हो गया। उनकी स्मृति जीवन भर यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह सबके मन में बनी रहेगी। लेखक उनकी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धा से नतमस्तक है। कठिन शब्दों के अर्थ : देह – शरीर। यातना – कष्ट। परीक्षा – इम्तिहान। आकृति – आकार। साक्षी – गवाह। महसूस – अनुभव। निर्मल – साफ़, स्वच्छ। संकल्प – निश्चय। उत्सव – त्योहार, शुभ अवसर। आशीष – आशीर्वाद। वात्सल्य – ममता, प्यार। स्मृति – यादें। डूब जाना – खो जाना। सांत्वना – सहानुभूति। छोर – किनारा। वृत्त – घेरा। आवेश – जोश, उत्साह। जहरबाद – गैंग्रीन, एक तरह का ज़हरीला और कष्ट साध्य फोड़ा। आस्था – विश्वास, श्रद्धा। देहरी – दहलीज़। सँकरी – तंग। पादरी – ईसाई धर्म का पुरोहित या आचार्य। आतुर – अधीर, उत्सुक। निर्लिप्त – आसक्ति रहित, जो लिप्त न हो। आवेश – जोश, उत्साह। लबालब – भरा हुआ। गंध – महक। धर्माचार – धर्म का पालन या आचरण। रूपांतर – किसी वस्तु का बदला हुआ रूप। अकाट्य – जो कट न सके, जो बात काटी न जा सके। विरल – कम मिलने वाली। ताबूत – शव या मुरदा ले जाने वाला संदूक या बक्सा। करील – झाड़ी के रूप में उगने वाला एक कँटीला और बिना पत्ते का पौधा। गैरिक वसन – साधुओं द्वारा धारण किए जाने वाले गेरुए वस्त्र। श्रद्धानत – प्रेम और भक्तियुक्त पूज्यभाव। फादर बुल्के ने हिंदी उत्थान के लिए क्या क्या प्रयास किए?1 Answer. भारत में रहते हुए फ़ादर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम०ए० किया। ... . हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अकाट्य तर्क प्रस्तुत करते।. हर मंच से हिंदी की दुर्दशा पर दुख प्रकट करते।. हिंदी वालों द्वारा हिंदी की उपेक्षा पर दुख प्रकट करते।. वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने के लिए चिंतित रहते।. फादर बुल्के ने हिंदी भाषा के विकास में क्या योगदान दिया लिखिए?सबसे पहले, उन्होंने हिन्दी साहित्य के ज्ञान में वृद्धि की । उन्होंने राम कथा के आरंभ और विकास पर शोध-ग्रंथ लिखा । उन्होंने हिन्दी में बाइबिल का अनुवाद करके भारतवासियों को ईसाई धर्म पढ़ने का अवसर दिया । उन्होंने एक नाटक का भी हिन्दी में अनुवाद किया।
फ़ादर कामिल बुल्के हिंदी भाषा प्रेमी थे क्या आप इस कथन से सहमत हैं तर्क सहित उत्तर दीजिए?फादर बुल्के ने पहला अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश तैयार किया था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। यहाँ के लोगों की हिंदी के प्रति उदासीनता देखकर वे क्रोधित हो जाते थे। इन प्रसंगों से पता चलता है कि वे हिंदी प्रेमी थे।
1 फ़ादर कामिल बुलके के हिंदी प्रेम को दर्शाने के लिए लेखक ने क्या क्या उदाहरण दिया?हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अकाट्य तर्क प्रस्तुत करते। हर मंच से हिंदी की दुर्दशा पर दुख प्रकट करते। हिंदी वालों द्वारा हिंदी की उपेक्षा पर दुख प्रकट करते। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने के लिए चिंतित रहते।
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