गणित के अभ्यास में प्रयोग की जाने वाली सावधानियां क्या है? - ganit ke abhyaas mein prayog kee jaane vaalee saavadhaaniyaan kya hai?

Answer:  गणित शिक्षण की प्रविधियाँ इस प्रकार हैं–

(अ) मौखिक गणित :

मौखिक गणित से गणितीय समस्याओं को शीघ्रता और शुद्धता से हल करने की क्षमता, स्पष्ट चिंतन, नई परिभाषाओं एवं प्रत्ययों को समझने की योग्यता का विकास होता है। छोटी कक्षाओं में पहाड़ों को याद करना लाभदायक होता है, क्योंकि इनसे छात्रों को संख्याओं के सम्बन्धों को समझाने के अवसर मिलते हैं। पहाड़ों का पढ़ना संख्याओं के सम्बन्धों को समझने के लिए आवश्यक है।

जब अध्यापक छात्रों से मौखिक रूप से किसी प्रश्न का उत्तर निकालने को कहता है, तो छात्र मन ही मन में गणना कर उत्तर बोलकर बताता है – इस प्रकार से संचालित क्रिया को मौखिक गणित कहते हैं। कक्षा में अध्यापन करते समय छात्रों को मौखिक गणित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जिससे कि समस्त छात्रों की प्रगति का बोध हो सके। मौखिक गणित में छात्रों को प्रश्नों के उत्तर बोलकर देने होते हैं। मौखिक गणित में प्रश्न पूछने पर गणना बोलकर की जाती है अथवा गणना का उत्तर बोलकर दिया जाता है। कक्षा में समस्याओं को हल करते समय अध्यापक छात्रों से अनेक प्रश्न पूछकर पदों को श्यामपट्ट पर लिखता है तथा छात्र मौखिक रूप से अध्यापक के प्रश्नों के उत्तर बोलकर देते हैं।

गणित में मौखिक कार्य समस्याओं को हल करते समय निरन्तर करना आवश्यक है गणित में गणना–क्रियाओं को परिशुद्धता के साथ करने में मौखिक कार्य अत्यन्त सहायक है। छात्रों की कठिनाइयों के निदान में मौखिक कार्य सहायक सिद्ध होता है।

मौखिक गणित के लाभ– मौखिक गणित के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं–

1. मौखिक गणित द्वारा छात्रों में विचारशक्ति, तर्कशक्ति तथा विवेक का विकास होता है।

2. छात्रों के मूल्यांकन के लिए मौखिक गणित का प्रयोग परीक्षा का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनाया जा सकता है।

3. मौखिक गणित का प्रयोग गणित के आधारभूत सिद्धान्तों, नियमों आदि के अभ्यास में अत्यन्त सहायक होता है।

4. लिखित गणित करते समय मौखिक गणित द्वारा अनेक चरणों को शीघ्रता से किया जा सकता है।

5. गणित में सामूहिकm शिक्षण को प्रभावी बनाने में मौखिक गणित का उपयोग लाभकारी है।

6. मौखिक गणित से छात्रों में समस्याओं को हल करने के लिए आवश्यक यांत्रिक कुशलता आती है।

7. मौखिक गणित की सहायता से पाठ की पुनरावृत्ति शीघ्रता से की जा सकती है।

8. मौखिक गणित में गणना करने में समय की बचत होती है तथा छात्र अपनी त्रुटियों की जांच कर स्वयं ठीक कर सकते हैं।

9. मौखिक गणित से छात्रों में गणना–प्रक्रियाओं में परिशुद्धता आती है।

10. मौखिक गणित के माध्यम से अध्यापक को छात्रों की प्रगति के बारे में आवश्यक जानकारी निरंतर मिलती रहती है।

11. मौखिक गणित से छात्रों की विचारशक्ति को गति मिलती है तथा छात्रों का ध्यान आधारभूत सिद्धान्तों की ओर आकर्षित किया जा सकता है।

12. मौखिक गणित छात्रों को दैनिक जीवन की समस्याओं को हल करने की क्षमता पैदा करता है।

14. मौखिक गणित द्वारा छात्रों के सोचने के तरीकों में हिचकिचाहट, घबराहट या संकोच को दूर किया जा सकता है।

14. मौखिक गणित में मौखिक प्रश्नों द्वारा छात्रों का ध्यान पाठ की विशेषताओं की ओर खींचा जा सकता है।

15. मौखिक गणित द्वारा छात्रों की योग्यता की जांच शीघ्रता से की जा सकती है।

16. छोटी कक्षाओं में विशेषकर मौखिक गणित अत्यन्त गुणकारी है क्योंकि इन कक्षाओं के छात्रों को मौखिक है गणित करने में बड़ा आनन्द आता है।

17. गणित के सिद्धान्तों एवं संकल्पनाओं को मौखिक गणित द्वारा समझाकर धारणाओं को स्पष्ट किया जा सकता है |

कक्षा में मौखिक गणित का अभ्यास कराते समय ध्यान देने योग्य बातें– कक्षा में मौखिक गणित का अभ्यास कराते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिये –

1. मौखिक प्रश्नों को पूछने का निश्चित क्रम होना चाहिए।

2. मौखिक गणित के प्रश्नों में केवल छोटी संख्याओं का ही प्रयोग करना चाहिए।

3. मौखिक गणित करते समय यदि कोई अस्पष्टता हो तो छात्रों को लिख कर समाधान करने का अभ्यास करना चाहिए।

4. प्रश्न छोटे–छोटे होना चाहिए जिससे छात्र उन्हें सरलता से समझ सकें।

5. मौखिक गणित को लिखित गणित का पूरक समझा जाना चाहिए।

6. मौखिक गणित के द्वारा छात्रों में गणितीय सिद्धान्तों के बारे में स्पष्टता प्राप्त हो और उनको रटने की आदत न पड़े।

7. मौखिक गणित के माध्यम से छात्र व्यक्तिगत रूप से दक्षता प्राप्त करने का प्रयत्न करें, यह वांछनीय है।

8. नवीन सिद्धान्तों तथा प्रत्ययों को पढ़ाते समय मौखिक गणित का अधिक प्रयोग करना चाहिये।

9. मौखिक प्रश्नों के उत्तर यथासम्भव छात्र ही दें, इसका प्रयास करना चाहिए।

10. मौखिक प्रश्न छात्रों की योग्यतानुसार पूछे जाने चाहिए।

11. मौखिक प्रश्न ऐसे हों कि छात्र अनुमान लगाकर उत्तर नहीं दे सकें।

12. मौखिक गणित में अधिक बल अभ्यास तथा गणना पर दिया जाना चाहिए।

13. मौखिक प्रश्नों को सर्वप्रथम सारी कक्षा के समक्ष प्रस्तुत करने के बाद ही किसी एक छात्र विशेष को उत्तर देने के लिए कहना चाहिए।

14. मौखिक प्रश्नों के द्वारा चिंतन तथा तर्क को प्रोत्साहन मिलना चाहिये।

15. गणित की पुस्तकों में मौखिक प्रश्नों को भी दिया जाना चाहिए।

16. मौखिक प्रश्नों में जटिल गणनाओं को कराने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए।

17. मौखिक प्रश्न पूछने के बाद छात्रों को सोचने का अवसर देना चाहिए।

18. मौखिक प्रश्नों का प्रयोग कक्षा को सचेत रखने के लिए किया जाना चाहिए ताकि प्रत्येक छात्र पाठ को समझने के लिए प्रयास करे।

(ब) गणित में अभ्यास कार्य :

अभ्यास कार्य का अर्थ –

गणित में अभ्यास कार्य अत्यन्त आवश्यक है। अंकगणित, बीजगणित तथा ज्यामिति की प्रक्रियाओं का स्पष्ट अवबोधन अभ्यास कार्य से ही सम्भव है। प्रारम्भिक स्तर के गणित से लेकर उच्च स्तर के गणित को सीखने के लिए अभ्यास कार्य आवश्यक है। जोड़, बाकी, गुणा तथा भाग की सही क्रियाओं को सही–सही ढंग से करने की क्षमता बालक में तभी पैदा हो सकती है जब उसको इन क्रियाओं का व्यवस्थित ढंग से अभ्यास कराया जाय। जब तक अभ्यास कार्य नियमित एवं व्यवस्थित ढंग से नहीं किया जाता, तब तक उसके द्वारा छात्रों में वांछनीय क्षमता का विकास नहीं होता, जब तक छात्र उन क्रियाओं का मानसिक एवं मौखिक स्तर पर उपयोग नहीं कर सकते।

जिस प्रकार अन्य क्षेत्रों में निपुणता कुशलता पाने के लिए अभ्यास कार्य आवश्यक एवं उपयोगी है उसी प्रकार गणित में क्षमता प्राप्त करने के लिए अभ्यास कार्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बिना अभ्यास के व्यक्ति अपने कार्य में पारंगत नहीं हो सकता। गणित के नियमों, सूत्रों, सिद्धान्तों, विधियों, प्रक्रियाओं आदि पर अधिकार प्राप्त करने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है। यह कहावत है कि 'करत–करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान', गणित विषय के लिए अक्षरण: लागू होती है। कक्षा में जो विद्यार्थी गणित विषय में अच्छे हैं तथा विषय के सिद्धान्तों नियमों, प्रक्रियाओं आदि को समझते हैं तथा उनका सही प्रयोग करते हैं, उनकी इस क्षमता का कारण उनके व्यवस्थित ढंग से अभ्यास करना ही माना जाना चाहिए। किसी सिद्धांत को मानसिक स्तर पर जानना एक बात है तथा उसका सफल प्रयोग कर सकना दूसरी बात है निरन्तर अभ्यास के द्वारा छात्रों में स्पष्ट ज्ञान एवं प्रयोग करने की क्षमता का प्रादुर्भाव होता है यह बहुधा देखने में आता है कि गणित के छात्र गणित की छोटी–छोटी गणना करने में असमर्थ रहते हैं तथा गणना में अनेक अशुद्धियां करते हैं। अभ्यास के बिना गणित के कार्य में वेग तथा परिशुद्धता दोनों की कमी रह जाती है।

अभ्यास का साधारण शब्दों में अर्थ है एक ही कार्य को निरन्तर करते रहना जब तक उस कार्य को करने में निपुणता नहीं आ जाये। गणित में किसी एक नियम या विधि के अध्यापन के पश्चात् उस नियम या विधि से सम्बन्धित समस्याओं को छात्रों से कक्षा में तथा गृह–कार्य द्वारा करानी चाहिये। गणित में अभ्यास कराने की सर्वश्रेष्ठ विधि यही है।

अभ्यास के कार्य का महत्त्व :

यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि गणितीय सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं का अवबोधन समुचित अभ्यास कार्य के बिना नहीं हो सकता। समुचित अभ्यास कार्य का अर्थ यह नहीं है कि गणित के सूत्रों को रट कर उनका प्रयोग मात्र किया जाय वरन् अभ्यास कार्य के द्वारा गणितीय प्रत्ययों, सिद्धान्तों, नियमों, प्रक्रियाओं आदि के उचित अवबोधन में सहायता प्रदान करना है। अभ्यास कार्य का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि छात्र यंत्रवत् प्रश्नों को हल करें तथा अभ्यास कार्य उद्देश्यहीनता से परिपूर्ण हो।

अभ्यास कार्य का औचित्य गणित के अध्यापन के उद्देश्यों के संदर्भ में ही देखना चाहिए। गणित अध्यापन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये ही अभ्यास कार्य का संपादन होना चाहिए। गणित में वेग तथा परिशुद्धता के लिए अभ्यास कार्य का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। अभ्यास कार्य का नियोजन तथा संचालन गणित के कक्षोपयोगी उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। गणित में अभ्यास कार्य का महत्त्व इस प्रकार है –

1. नियमित अभ्यास का आयोजन ही गणित के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है। यदि अभ्यास कार्य का आयोजन विधिवत् नहीं होगा तो इसके प्रभावी होने में सदैव संशय बना रहेगा।

2. अभ्यास कार्य द्वारा छात्रों में गणना सम्बन्धी कुशलताओं में विकास किया जा सकता है। मानसिक गणित तथा मौखिक गणित में कुशलता के लिए भी पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है। अधिकांशत: अभ्यास के अभाव के कारण ही छात्र गणित विषय में कमजोर पाए जाते हैं।

3. अभ्यास के द्वारा छात्रों में स्वच्छता तथा कलात्मक ढंग से काम करने की आदत डाली जा सकती है। ज्यामिति के चित्रों को सही एवं स्वच्छता से खींचने की आदत का आधार अभ्यास कार्य ही है।

4. गणित को एक नीरस तथा कठिन विषय माना जाता है जो कि असत्य है। यदि हम अभ्यास कार्य का नियोजन वैज्ञानिक विधि से करें तो छात्रों की गणित में रुचि होने लगेगी। अनेक सिद्धान्तों, प्रत्ययों के बारे में अस्पष्टता के कारण ही छात्र नये उप–विषयों को सीख नहीं पाते हैं और गणित उनको कठिन एवं नीरस विषय लगने लगता है। पर्याप्त अभ्यास द्वारा प्रत्ययों एवं संकल्पनाओं को स्पष्ट किया जाना सम्भव है। गणित को नीरस एवं कठिन विषय अभ्यास कार्य की अपर्याप्तता ने ही बना दिया है।

5. गणित को सीखने के लिए तर्क एवं चिंतन करने की योग्यता का होना आवश्यक है। अभ्यास कार्य द्वारा छात्रों को व्यवस्थित ढंग से सोचना एवं तर्क करना सिखाया जा सकता है।

6. अभ्यास के प्रश्नों को हल करने से छात्रों में सफलता, आत्म–सन्तोष एवं आनन्द की अनुभूति होती है। गणित को सीखने के लिए इन अनुभूतियों द्वारा छात्रों को प्रोत्साहन मिलता है।

7. सीखे हुए सिद्धान्तों, प्रत्ययों, नियमों, प्रक्रियाओं आदि का प्रयोग अभ्यास कार्य द्वारा ही सम्भव है, अन्यथा सिद्धान्तों, नियमों आदि का ज्ञान छात्रों के लिए बोझ बनकर रह जायेगा।

8. अभ्यास कार्य से समस्याओं का वेग एवं परिशुद्धता के साथ करने की क्षमता में वृद्धि होती है। गणित में वेग तथा परिशुद्धता आवश्यक है और इसका विकास अभ्यास कार्य द्वारा सम्भव है।

9. सूत्रों, नियमों आदि को रटना हानिकारक होता है। इनका प्रयोग अभ्यास कार्य में करके छात्र इन्हें समझकर याद कर सकते हैं।

10. गणित को सफलता से सीखने के लिए धैर्य, परिश्रम, लगन, आत्म–विश्वास, एकाग्रता, चिंतन, विश्लेषण आदि गुणों की आवश्यकता होती है। यदि हम छोटी कक्षाओं से ही अभ्यास कार्य का ठीक प्रकार से नियोजन करें तो छात्रों में शनैः–शनैः इन वैयक्तिक गुणों का विकास कर सकते हैं। उच्च गणित को सफलतापूर्वक सीखने के लिए इन गुणों का छात्रों में होना आवश्यक है।

11. गणित के अभ्यास कार्य द्वारा छात्रों को स्कूल,घर तथा समाज में नियम, स्वच्छता, व्यवस्था आदि से रहने की आदत पड़ जाती है।

अभ्यास कार्य का संचालन :

गणित शिक्षण में अभ्यास कार्य का संचालन सावधानी से करना चाहिए अन्यथा अभ्यास कार्य से छात्रों को लाभ नहीं होगा। गणित शिक्षण के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही अभ्यास कार्य का नियोजन करना उपयोगी सिद्ध होगा। अभ्यास कार्य के नियोजन एवं संचालन के लिए निम्न सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए –

1. गणित में अभ्यास कार्यों में सामंजस्य स्थापित किया जाना आवश्यक है। कक्षा–कार्य, गृह–कार्य तथा अभ्यास कार्य में सामंजस्य स्थापित करके ही इनको उपयोगी बनाया जा सकता है। कक्षा में किये गये कार्य के आधार पर ही गृह–कार्य दिया जाना चाहिए।

2. यदि कुछ छात्र अभ्यास कार्य में पिछड़ जायें तो उनको विशेष प्रयासों द्वारा अन्य छात्रों के स्तर पर लाने का प्रयत्न करना चाहिए। जो छात्र अधिकांशतः अनुपस्थित रहते हों उनका विशेष ध्यान रखना आवश्यक है

3. अध्यापक को छात्रों के अभ्यास कार्य का लेखा–जोखा रखना चाहिए।

4. अभ्यास कार्य कराने के पहले यह निश्चित कर लेना चाहिए कि छात्र आधारभूत सिद्धान्तों, नियमों, सम्बन्धों आदि को भली–भांति समझ गये हैं या नहीं। उदाहरणार्थ ब्याज के प्रश्नों को हल कराने से पहले छात्रों को ब्याज ज्ञात करने का सूत्र अर्थात् (P × R × T) / (100) स्पष्ट होना चाहिए, (a ± b)2 का प्रयोग करने से पहले छात्रों को इन सूत्रों का अर्थ स्पष्ट होना चाहिए। यदि आधारभूत सिद्धान्तों की स्पष्टता के बिना अभ्यास कराया गया तो छात्रों को कोई लाभ नहीं होगा।

5. अभ्यास कार्य को अध्यापन एवं सीखने का भाग कर ही नियोजित करना चाहिए। छोटी कक्षाओं के छात्र अधिक समय तक अभ्यास कार्य नहीं कर सकते तथा इसी प्रकार उच्च–कक्षाओं के छात्रों को भी इस सम्बन्ध में अपनी सीमायें होती हैं। अभ्यास कार्य देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसे करते समय छात्रों को थकावट महसूस न हो।

6. अभ्यास कार्य छात्रों की वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखकर संचालित किया जाय। अभ्यास कार्य देते समय छात्रों की योग्यता, पृष्ठभूमि एवं स्तर का ध्यान रखा जाये। सामान्य बुद्धि एवं प्रखर बुद्धि वाले छात्रों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उन्हें अभ्यास कार्य दिया जाये।

7. अभ्यास कार्य का सम्बन्ध कक्षा में पढ़ायी जाने वाली गणित की विषय–सामग्री से होने चाहिए। कक्षा में सिखाये गये प्रत्ययों, सिद्धान्तों, प्रक्रियाओं के ज्ञान को स्थायी बनाने के लिए अभ्यास कार्य को आधार बनाना चाहिए। कक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति करने में अभ्यास कार्य को एक उपयोगी साधन बनाना चाहिए। अभ्यास कार्य साधन है, साध्य नहीं। कक्षा में नये उप–विषय का अध्यापन तभी आरम्भ करना चाहिए जब गत उप–विषय सम्बन्धी अभ्यास कार्य सम्पूर्ण हो जाये।

8. अभ्यास कार्य छात्रों के लिए बोझ सिद्ध न हो, इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है। यदि विद्यार्थियों को उनकी क्षमता से अधिक अभ्यास कार्य करने को दिया जायेगा तो वे अभ्यास कार्य को बोझ समझकर नहीं करेंगे। नियमित रूप से अभ्यास कार्य कराने से छात्र अभ्यास कार्य में रुचि लेंगे। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि एक समय में एक ही प्रकार का अभ्यास कार्य छात्रों को दिया जाये जिससे वे उसे एकाग्रता के साथ कर सकें।

9. गणित में अभ्यास कार्य करते समय छात्रों को समस्याओं के उत्तर उपलब्ध होने चाहिए। जिससे कि वे अपनी सफलता का मूल्यांकन कर सकें। जब छात्रों को अपने परिश्रम का प्रतिफल मिल जाता है तो वह अभ्यास कार्य में प्रगति बनाये रखते हैं। गणित के लिए इस प्रकार का प्रोत्साहन अत्यन्त आवश्यक है।

10. यदि गणित के किसी उप–विषय को पढ़ाते समय हम उसकी उपयोगिता तथा महत्त्व के बारे में छात्रों को मुख्य–मुख्य बातें बता दें तो वे उससे सम्बन्धित अभ्यास कार्य में रुचि लेने के लिए प्रोत्साहित होंगे। उदाहरणार्थ, लघुगुणक गणनाओं को शीघ्रता से करने में मदद करता है, दशमलव प्रणाली का प्रयोग हम लेन–देन, व्यापार, क्रय–विक्रय आदि में प्रत्येक कदम पर करते हैं, बीजगणित अंकगणित का विकास है आदि को बताने से छात्रों को इन विषयों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने की इच्छा बनी रहती है।

11. गणित में किये गये अभ्यास कार्य का सावधानी से निरीक्षण किया जाना चाहिए। छात्रों को त्रुटियों को ध्यान में रखकर अभ्यास कार्य द्वारा उन्हें दूर करने का प्रयल करना चाहिए। यदि अभ्यास कार्य द्वारा उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि अभ्यास कार्य की त्रुटियों को समय पर ठीक नहीं किया गया तो अभ्यास कार्य की उपयोगिता कम हो जायेगी। सामूहिक त्रुटियों को कक्षा में सब छात्रों के समक्ष स्पष्ट करना उचित होगा। सबसे उपयोगी सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक छात्र का अभ्यास कार्य सम्बन्धित छात्र के समक्ष ही ठीक किया जाये जिससे कि उसका ध्यान त्रुटियों की ओर खींचा जा सके।

अभ्यास कार्य में अध्यापक का स्थान :

गणित के अध्यापक को अपने गुरुतर उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक रहना चाहिए। अन्य विषयों को तो किसी सीमा तक अध्यापक की सहायता के बिना छात्र प्रयास कर स्वयं सीख सकते हैं किन्तु गणित के लिए यह बात सत्य नहीं है। गणित के अध्यापक का इस विषय को सीखने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कभी–कभी यह देखा जाता है कि गणित के अभ्यास कार्य को अध्यापक स्वयं के लिए विश्राम का साधन समझ बैठता है तथा इस मनोवृत्ति से छात्रों को अत्यधिक हानि उठानी पड़ती है। जब छात्र कक्षा में अभ्यास कर रहे हों तो अध्यापक का कर्तव्य है कि वह निरीक्षण कर छात्रों की व्यक्तिगत कठिनाइयों को दूर करे तथा यह ज्ञात करे कि अधिकांश छात्र किस प्रकार की त्रुटियां कर रहे हैं जिससे कि इन त्रुटियों का सामूहिक रूप से समाधान किया जा सके।

अध्यापन पाठों की तैयारी करते समय अभ्यास कार्य की रूपरेखा निश्चित कर लेनी चाहिए। अभ्यास कार्य का सही नियोजन अध्यापक के कार्य को सरल एवं उपयोगी बनाता है। सफल अध्यापन के लिए प्रभावी अभ्यास कार्य आवश्यक है। गणित की कक्षा में चिंतन एवं तर्क को दिशा प्रदान करने के लिए अभ्यास कार्य का आयोजन करना उपयोगी है। गणित के अध्यापक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे उप–विषयों को जहाँ गणना पक्ष अधिक महत्त्वपूर्ण है, अभ्यास कार्य को अधिक समय दे जिससे कि छात्रों में गणना सम्बन्धी दक्षताओं का विकास हो सके। अध्यापन काल में से कितना समय अभ्यास कार्य को देना चाहिए – इसका निश्चय अध्यापक को स्वयं को करना चाहिए। गणित का कुशल एवं कर्तव्य–परायण अध्यापक कक्षा में अभ्यास कार्य करते समय बालकों का सही रूप से मार्ग–दर्शन कर सकता है | अभ्यास कार्य को अध्यापन कार्य का महत्त्वपूर्ण अंग बनाने की क्षमता का अध्यापक की सफलता की कसौटी है।

छात्रों को गृह–कार्य देकर भी अभ्यास कार्य कराया जा सकता है। अध्यापक गृह–कार्य देते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखे कि यह छात्रों की क्षमता से बाहर न हो। ज्यादा अच्छा यह है कि गृह–कार्य में दी गई समस्याओं के कठिन पक्षों को मौखिक रूप से कक्षा में विश्लेषण कर दिया जाये। कक्षा में किये गये अभ्यास कार्य तथा गृह–कार्य की जांच में अच्छे विद्यार्थियों की सहायता भी ली जा सकती है। अध्यापक को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि छात्रों की प्रगति ही सब आयोजनों का उद्देश्य हो।

कार्य संशोधन का श्रम तभी सफल होता है जब छात्र अशुद्धियों पर ध्यान दें तथा उनके निवारणार्थ प्रयत्न करे। अध्यापक को इस दिशा में प्रयत्न करने चाहिए कि अशुद्धियाँ मुख्यतः सैद्धान्तिक एवं गणनात्मक होती है। सैद्धान्तिक अशुद्धियों का निवारण औपचारिक अध्यापन से सम्भव है तथा गणनात्मक त्रुटियों को छात्रों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित कर दूर किया जा सकता है। सतत् अशुद्धियों के लिए निदान की आवश्यकता होती है।

पूरे वर्ष अध्यापन कार्य का नियोजन करते समय अध्यापक को अपनी योजना में अभ्यास कार्य के लिए कुल अवधि निश्चित कर लेनी चाहिए जिससे कि वह अपने अभ्यास कार्य का आत्मविश्वास के साथ संपादन कर सके। साथ ही, मौखिक एवं लिखित अभ्यास कार्य में Co–ordination का होना भी आवश्यक है।

(स) गणित में गृह–कार्य :

गृह–कार्य की रचना इस प्रकार की जाती है जिससे शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके। अनेक शिक्षा शास्त्रियों के मतानुसार बालकों में कक्षा शिक्षण की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न अधिगम अनुभवों को संगठित करने के लिये गृह–कार्य देना अत्यन्त आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार गृह–कार्य अनुभवों के अभ्यास तथा पुनर्बलन का कार्य करता है। कक्षा शिक्षण अधिगम परिस्थितियों में बालक जो अनुभव प्राप्त करते हैं, उन्हें अपने ढंग से सीखने और स्थाई बनाने के दृष्टिकोण से गृह–कार्य का गणित में विशेष महत्त्व है। अतः गृह–कार्य वह साधन है जो बालकों को स्वयं अभ्यास करके सीखने के अवसर प्रदान करता है। यह अधिगम अनुभवों का एक प्रमुख अंग है।

गृह–कार्य के माध्यम से बालक को सीखे गये गणित के सूत्रों, नियमों, सिद्धान्तों आदि का अभ्यास करने का अवसर मिलता है। अभ्यास से इनके द्वारा अर्जित ज्ञान अधिक स्थाई तथा स्पष्ट हो जाता है। अधिगम में गृह–कार्य विषय–वस्तु के पुनर्संगठन की दृष्टि से भी आवश्यक में है। कक्षा में शिक्षक सीमित परिस्थितियों में ही शिक्षण कर पाता है। गृह–कार्य के माध्यम से उसे अर्जित ज्ञान को विभिन्न परिस्थितियों में उपयोग करने के लिए अवसर प्राप्त होते हैं। इसके लिये वह गणितीय चिंतन करता है तथा उससे उत्पन्न विचारों को अपने शब्दों में व्यक्त करता है। जिसके फलस्वरूप वह सीखे हुए अनुभवों को संगठित करता है।

इस प्रकार गृह–कार्य का आशय उस कार्य से है जो कि विद्यार्थी द्वारा घर पर किया जाता है। अर्थात्, गृह–कार्य उस कार्य को कहते हैं जिसे विद्यार्थी शिक्षणोपरान्त घर पर पूरा करता है। इससे उसके द्वारा कक्षा में अर्जित ज्ञान एवं अनुभवों की पुष्टि भी हो जाती है।

गेंद एवं शर्मा के अनुसार – शैक्षिक एवं नैतिक दृष्टिकोण से गृह–कार्य का बहुत महत्त्व है।

लॉरेन फॉक्स ने गृह–कार्य की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये लिखा है कि “गृह–कार्य बालकों के लिये चुनौतीपूर्ण होना चाहिये।”

इस प्रकार गृह–कार्य कक्षा–शिक्षण का पूरक होता है। गणित एक ऐसा विषय है जिसकी सभी समस्याओं को कक्षा में हल नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में गृह–कार्य अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। गृह–कार्य अभिभावक एवं शिक्षक के मध्य सेतु का कार्य करता है।

पढ़े–लिखे तथा जागरूक अभिभावक अपने बच्चे के गृह–कार्य में भी रुचि लेते हैं। यदि कोई बालक अपना गृह–कार्य सफलतापूर्वक कर लेता है तो यह मान लिया जाता है कि वह प्रकरण या सूत्र उसने भली–भाँति समझ लिया है।

गृह–कार्य के सिद्धान्त– गृह–कार्य सम्बन्धी प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

1. क्रमबद्धता का सिद्धान्त

2. शुद्धता का सिद्धान्त

3. मितव्ययता का सिद्धान्त

4. रुचि का सिद्धान्त

5. उपयुक्तता का सिद्धान्त

6. स्पष्टता का सिद्धान्त

गृह–कार्य का महत्त्व

गृह–कार्य का महत्त्व निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है –

वैयक्तिक विभिन्नताओं के अनुरूप अध्ययन– बालकों में वैयक्तिक विभिन्नतायें मानसिक क्षमता, सीखने की गति, स्मृति आदि में पाई जाती हैं। गृह–कार्य ऐसा साधन है जिसके द्वारा बालकों को व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अवसर मिलता है। प्रतिभाशाली तथा कुशाग्र बुद्धि वाले बालकों को गृह–कार्य अधिक तथा मन्दबुद्धि और पिछड़े बालकों को यह कम मात्रा में दिया जा सकता है जिससे कि वे अपनी क्षमताओं के अनुरूप सरलता से कार्य कर सकते हैं।

गणित में रुचि उत्पन्न करना– गृह–कार्य द्वारा बालकों में गणित के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न किया जा सकता है। जब बालक स्वयं गणित की समस्याओं को हल करता है तो इस सफलता पर उसे एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती है तथा वह गणित के अध्ययन है में रुचि लेने लगता है। इस प्रकार एक अच्छे स्तरीय तथा सन्तुलित गृह–कार्य द्वारा बालकों में गणित बालकों में गणित के प्रति रुचि विकसित करने में सहायता मिलती है।

मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक– बालकों में समस्या का हल ढूँढने की जिज्ञासा, खोज की प्रवृत्ति आदि गुणों का समावेश होता है। यदि बालक को गणित में गृह–कार्य इस रूप में दिया जाये कि उसे समस्या का हल ज्ञात करना हो अथवा कोई रचना कार्य करना हो तो इसके द्वारा उसकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।

समय का सदुपयोग– गृह–कार्य द्वारा बालकों के समय का सदुपयोग होता है। यदि उनके पास गृह–कार्य नहीं होगा तो वे इधर उधर घूमने या खेल–कूद में अपना समय बर्बाद कर देंगे। गृह–कार्य के कारण वह अपना कार्य धर पर करने के लिये बाध्य रहता है।

अभ्यास कार्य के पर्याप्त अवसर– गृह–कार्य बालक द्वारा सीखे गये गणित के किसी प्रकरण, सूत्र या नियम से सम्बन्धित होता है। कम समय होने के कारण बालकों को कक्षा में अभ्यास के लिये पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते हैं। गृह–कार्य ही वह माध्यम है जिसके द्वारा बालकों को अभ्यास कार्य करने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं।

मौलिक चिन्तन का विकास– गृह–कार्य करते समय बालक एकाग्रचित होकर जब किसी समस्या का समाधान प्राप्त करने के लिये चिन्तन करता है तो उसके मस्तिष्क में बहुत से नवीन विचार होते हैं। इस प्रकार गृह–कार्य मौलिक चिन्तन के विकास में सहायता प्रदान करता है।

नियमित रूप से कार्य करने की आदत का विकास– यदि बालक गणित के गृह–कार्य को रोजाना नहीं करेगा तो वह कक्षा में पिछड़ जायेगा। इस भय के कारण वह अपना कार्य नियमित रूप से करता रहता है। इस प्रकार गृह–कार्य बालक में नियमित तथा कार्य करने की आदत का विकास करता है।

संक्षेप में गृह –कार्य का महत्त्व इस प्रकार है–

1. इससे छात्रों में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता का विकास होता है।

2. गृह–कार्य द्वारा बालकों को सीखने में सहायता मिलती है।

3. गृह–कार्य द्वारा बालकों को पाठ्य–पुस्तकों तथा पुस्तकालय में अध्ययन करने के लिये प्रोत्साहन मिलता है।

4. इसके द्वारा अध्यापकों को बालकों की कमजोरी का निदान करने का अवसर मिलता है।

5. गृह–कार्य का मूल्यांकन करके बालकों को पुनर्बलन प्रदान किये जाते हैं।

6. सभी बालकों को समान रूप से सीखने के अवसर प्रदान किये जाते हैं।

7. यह बालकों को व्यक्तिगत शैक्षिक निर्देशन के अवसर प्रदान करता है

8. गृह–कार्य का उपयोग बालकों के व्यवहार, परिवर्तनों की पुष्टि तथा पुनरावृत्ति में किया जाता है।

गृह–कार्य देते समय सावधानियाँ– गृह–कार्य देते समय निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिये–

1. गृह–कार्य योजनाबद्ध तथा क्रमबद्ध होना चाहिये।

2. गृह–कार्य पढ़ाये गये पाठ से सम्बन्धित होना चाहिये।

3. गृह–कार्य देते समय बालकों की रुचियों तथा क्षमताओं को ध्यान में रखना चाहिये।

4. गृह–कार्य में प्रश्नों की भाषा सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिये।

5. आवश्यकता से अधिक गृह–कार्य बच्चों को नहीं देना चाहिये।

6. गृह–कार्य बालकों के शारीरिक और मानसिक स्तर के अनुरूप होना चाहिये।

7. गृह–कार्य हेतु अध्यापक को महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी बता देनी चाहिये।

(द) पर्यवेक्षित–अध्ययन :

अध्यापक की पूर्ण देख–रेख या पर्यवेक्षित में विद्यार्थियों द्वारा किया जाने वाला अध्ययन पर्यवेक्षित अध्ययन कहलाता है। इस प्रकार का अध्ययन स्वाध्याय अथवा समूह अध्ययन किसी भी रूप में संपन्न हो सकता है। विद्यार्थी अलग–अलग व्यक्तिगत रूप में अथवा समूह बनाकर चाहे जैसे अपना अध्ययन कर सकते हैं परन्तु उन्हें अपने अध्ययन क्रम से अध्यापक को अवगत कराते रहना होता है। जो कुछ भी विद्यार्थियों द्वारा किया जाता है उसकी पूरी निगरानी अथवा देख–रेख अध्यापक को करनी पड़ती है। अध्यापक यहां एक वास्तविक पर्यवेक्षक के रूप में कार्य करता है। उसे व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से विद्यार्थियों का उचित मार्ग–निर्देशन करना होता है तथा उनके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का उनकी अपनी योग्यताओं और शक्तियों के आधार पर समाधान ढूँढना पड़ता है। विद्यार्थी अध्ययन करते समय अपने विषय से दूर न चले जायें अथवा लापरवाही न बरतें, इसके लिए उनके कार्य की जांच भी करते रहना पड़ता हैं इस प्रकार के अध्ययन क्रम में विद्यार्थियों को भी अपनी समस्याओं के हल के लिए अध्यापक से परामर्श लेना होता है तथा अपनी प्रगति से व्यक्तिगत रूप से अथवा सामूहिक रूप में अध्यापक को परिचित कराते रहना पड़ता है।

गणित की शिक्षा में इस प्रकार के अध्ययन क्रम में साधारण तौर पर कुछ अग्रलिखित रूप हो सकते हैं –

1. सीखे हुए नियमों तथा सिद्धान्तों के प्रयोग से अच्छी तरह परिचित होने के लिए विद्यार्थी उन पर आधारित विभिन्न समस्याओं को अपने हाथ में ले सकते हैं। इन समस्याओं के हल की खोज करते समय अध्यापक उनको आवश्यकतानुसार परामर्श एवं सहायता दे सकता है।

2. गणित के ज्ञान को व्यावहारिक जीवन में किस प्रकार प्रयोग में लाया जाता है, इसके उचित अभ्यास के लिए विद्यार्थी विभिन्न योजनाओं को अपने हाथ में ले सकते हैं। अध्यापक इन योजनाओं की प्रगति में आवश्यकतानुसार परामर्श एवं सहयोग दे सकता है तथा उनके द्वारा किए जाने वाले सम्पूर्ण कार्य की निगरानी रख सकता है।

3. विद्यार्थियों को गणित सम्बन्धी सम्पूर्ण साहित्य के बारे में अध्ययन करने के लिए कहा जा सकता है। विद्यार्थी व्यक्तिगत रूप में अथवा सामूहिक रूप में अपना–अपना कार्य बांटकर अध्ययन शुरू कर सकते हैं।

4. प्रयोगशाला या खोज विधि का प्रयोग कराकर अध्यापक अपने विद्यार्थियों को गणित सम्बन्धी विशेष तथ्यों, नियमों तथा सिद्धान्तों की खोज में लगा सकता है।

सैद्धान्तिक आधार– पर्यवेक्षण–अध्ययन निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित हो –

1. शिक्षण में विविध प्रकार की सहायक सामग्री तथा पाठ्य–वस्तु के अध्ययन को महत्त्व दिया जाता है।

2. शिक्षण में छात्रों की आवश्यकताओं तथा स्तर को ध्यान में रखकर अध्ययन–व्यवस्था की जाती है।

3. छात्र अपनी स्वत: क्रियाओं तथा अध्ययन से अधिक सीखते हैं क्योंकि उन्हें प्रत्यक्षीकरण का अवसर मिलता है।

4. यह छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नता के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित है

पर्यवेक्षण–अध्ययन से बौद्धिक व्यवहारों के विकास के अधिक अवसर प्रदान किये जाते हैं। यह छात्रों में सामान्यीकरण, सूझ तथा समस्याओं के समाधान के लिये क्षमताओं का विकास करता है। इसमें बौद्धिक–व्यवहारों को प्रोत्साहित किया जाता है तथा छात्र एवं शिक्षक दोनों ही क्रियाशील रहते हैं।

पर्यवेक्षण–अध्ययन का स्वरूप :

इस प्रविधि में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाता है –

1. इस प्रविधि में छात्रों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है।

2. अध्ययन की विविध प्रकार की सामग्री–मानचित्र, चार्ट, मॉडल आदि के प्रयोग को ध्यान में रखा जाता है।

3. अध्ययन सामग्री के विविध स्तरों पर प्रयोग को ध्यान में रखते हैं।

4. पाठ्य–वस्तु को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का ध्यान रखा जाता है।

5. पर्यवेक्षित अध्ययन में छात्रों को उनकी योग्यताओं के अनुसार उन्हें तीन समूह–उच्च, सामान्य, निम्न स्तरों में बांट लिया जाता है तथा उनकी योग्यताओं के अनुसार अध्ययन सामग्री के उपयोग का सुझाव दिया जाता है।

6. छात्रों की पूर्व–योग्यताओं को भी ध्यान में रखा जाता है।

7. पर्यवेक्षण–अध्ययन के कालांश को निर्धारित कर लिया जाता है।

8. आवश्यक सूचनाओं तथा कठिनाइयों को ध्यान में रखकर उनके लिये निर्देशन की व्यवस्था की जाती है।

9. छात्रों के अध्ययन की क्रियाओं का पर्यवेक्षण शिक्षक द्वारा किया जाता है और वह उनके लिये निर्देशन को व्यवस्था करता है।

10. छात्रों की अध्ययन क्रियाओं का छात्र भी आपस में निरीक्षण करते हैं और सुझाव देते हैं।

पर्यवेक्षण–अध्ययन की विशेषतायें :

पर्यवेक्षित अध्ययन की अधोलिखित विशेषतायें होती हैं–

1. इस अध्ययन कालांश में छात्रों को पुस्तकालय, प्रयोगशाला तथा क्षेत्र में अधिक कार्य करने का अवसर दिया जाता है। इसमें छात्रों को गृह–कार्य भी दिये जाते है।

2. पर्यवेक्षित अध्ययन का मूल उद्देश्य अनेक सम्बन्धों के आधार पर सामान्यीकरण कराना होता है जिससे छात्र पाठ्य–वस्तु को गहनता से बोधगम्य कर सकें।

3. पर्यवेक्षित अध्ययन द्वारा छात्रों की पाठ्य–वस्तु की गहनता का विकास करता है।

4. इस विधि द्वारा कामचोर तथा आलसी बच्चों को नियंत्रण में रखा जा सकता है।

5. पर्यवेक्षित अध्ययन का अन्तिम लक्ष्य पाठ्य–वस्तु का स्वामित्व कराना होता है। इस प्रकार के अन्त में स्वामित्व का परीक्षण किया जाता है। यदि छात्र इस परीक्षा को उत्तीर्ण नहीं कर पाते हैं तब उन्हें शिक्षक अध्ययन का पुन: अवसर देता है और शिक्षक इस बार अधिक सतर्कता बरतता है

6. अध्यापक छात्रों की प्रगति से परिचित होते रहते हैं।

7. छात्रों को उचित समय पर आवश्यकतानुसार मार्ग निर्देशन मिलता रहता है।

8. पर्यवेक्षित अध्ययन में शिक्षक तथा छात्रों को अधिक क्रियाशील रहने के लिये निर्देशन देना होता है। शिक्षक छात्रों की क्रियाओं का पर्यवेक्षित करता है कि वे अपनी–अपनी क्रियायें समुचित ढंग से कर रहे हैं या नहीं।

9. पर्यवेक्षित अध्ययन के समय छात्रों की व्यक्तिगत क्रियाओं को अधिक प्रधानता दी जाती है।

इस प्रकार अध्ययन व्यवस्था में प्रत्येक छात्र को उसकी आवश्यकताओं के अनुसार अध्ययन का अवसर दिया जाता है।

पर्यवेक्षित अध्ययन की सीमायें :

पर्यवेक्षित अध्ययन व्यवस्था की निम्नलिखित सीमायें हैं–

1. इस शिक्षण व्यवस्था में अधिकांश छात्र शिक्षक के निर्देशन पर ही आश्रित रहते हैं। प्रत्येक समस्या का समाधान शिक्षक से पूछते हैं। स्वयं निर्णय नहीं लेते है।

2. विद्यालयों में पाठ्य–वस्तु सम्बन्धी सामग्री, पुस्तकें तथा प्रयोगशालाओं में इतनी सुविधायें उपलब्ध नहीं होती कि सभी छात्रों को व्यक्तिगत ढंग से कार्य करने की सुविधायें तथा अवसर प्रदान किये जा सकें।

3. पर्यवेक्षण अध्ययन की प्रमुख सीमा यह है कि इसमें छात्रों के मानवीय–व्यवहारों के विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता है। पाठ्य–वस्तु के स्वामित्व को ही विशेष महत्त्व दिया जाता है।

4. इस प्रकार के अध्ययन व्यवस्था में शिक्षक को अधिक क्रियाशील रहना पड़ता है और अधिक समय का अपव्यय होता है। शिक्षक को अधिक परिश्रम करना पड़ता है।

5. शिक्षक का पाठ्य–वस्तु में तन्मय या तल्लीन होना, छात्रों को प्रेरणा देता है। यहाँ मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक अभिप्रेरणा का प्रयोग नहीं किया जाता है, जबकि इस प्रकार की प्रेरणा अधिक प्रभावशाली होता है।

6. इस अध्ययन व्यवस्था का प्रयोग उच्च कक्षाओं के लिये अधिक उपयोगी है परन्तु प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं के छात्रों के अध्ययन में अधिक उपयोगी नहीं है।

7. इस प्रकार की शिक्षण व्यवस्था में भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों के विकास को कम महत्त्व दिया जाता है। छात्रों के ज्ञानात्मक पक्ष का ही विकास किया जाता है।

पर्यवेक्षित अध्ययन के प्रभावी प्रयोग के सुझाव :

पर्यवेक्षित अध्ययन की व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिये–

1. शिक्षक को अपने समीक्षा काल में भावात्मक पक्ष के विकास पर भी बल देना चाहिये। शिक्षक अपने व्यवहार से भी छात्रों में मानवीय–व्यवहारों तथा गुणों का विकास कर सकता है।

2. पर्यवेक्षण अध्ययन के लिये शिक्षक को ऐसे प्रकरणों को देना चाहिये जिसके लिये पुस्तकालय में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध हों तथा प्रयोगशाला में सुविधायें भी पर्याप्त हों।

3. पर्यवेक्षित अध्ययन की व्यवस्था करने से पूर्व यह देख लेना चाहिये कि छात्रों के लिये प्रकरण अलग–अलग उपलब्ध हो सकें।

4. पर्यवेक्षण अध्ययन को प्रभावशाली ढंग से प्रयुक्त करने के लिये प्रकरण की रूपरेखा अथवा समीक्षा तथा सम्बन्धित पाठ्य–पुस्तकों की सूची भी देनी चाहिये।

5. पर्यवेक्षण अध्ययन के अन्तर्गत जो गृह–कार्य दिये जायें उनका स्वरूप प्रत्येक छात्र के लिये अलग–अलग होना चाहिये जिससे वे एक दूसरे की नकल न कर सकें तथा उन्हें व्यक्तिगत अध्ययन का अवसर मिल सके।

6. शिक्षण को उन्हीं प्रकरणों की समीक्षा करनी चाहिये जिनके सम्बन्ध में छात्रों को पूर्व ज्ञान हो। समीक्षा का समय निश्चित होना चाहिये। समीक्षा के समय छात्रों की क्रियाओं का निरीक्षण करना भी आवश्यक होता है।

7. पर्यवेक्षित अध्ययन का कालांश निश्चित होना चाहिये। छात्रों को अपने अध्ययन की समीक्षा तथा आलेख तैयार करने के लिये कहना चाहिये।

8. पर्यवेक्षित अध्ययन के समय शिक्षक को कम–से–कम निर्देश देने चाहिये। छात्रों को स्वयं समस्या का समाधान करने का अवसर देना चाहिये जिससे वे शिक्षक पर आश्रित न हों।

(य) स्व–अध्ययन प्रविधि :

इस प्रविधि का योजना–कार्य भी कहा जाता है। इसमें छात्र स्वयं अध्ययन करते हैं अथवा छोटे–छोटे समूह में कार्य करते हैं। परन्तु इस प्रकार अध्ययन में यह आवश्यक नहीं है कि शिक्षण के समय शिक्षक कक्षा में उपस्थित ही रहे और न ही यह आवश्यक होता है कि शिक्षण कार्य नियमित रूप से नियोजित या संगठित किया जाये। कहने का तात्पर्य यह है कि इसमें कक्षा शिक्षण की भांति नियमित कार्यक्रम का भी अनुसरण नहीं किया जाता है। छात्र को अपने अध्ययन के कार्यक्रम की रूपरेखा स्वयं तैयार करनी होती है। उसे अपना कार्य करने तथा अध्ययन की योजना बनाने की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है। वस्तुत: यह प्रविधि छात्र केन्द्रित प्रविधि है। इस प्रविधि का प्रयोग करते समय अध्यापक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने छात्रों में इतनी क्षमता उत्पन्न कर दे कि वे स्व–अध्ययन आसानी से कर सकें अथवा स्वतन्त्र अध्ययन के परिणामस्वरूप वे समस्याओं को आसानी से हल कर सकें।

इस प्रविधि के प्रयोग में यह देखा जाता है कि छात्र अपने अध्ययन की रूपरेखा स्वयं तैयार करके अपने कार्य को स्वतन्त्र रूप से करते हैं। आज के युग में इन प्रविधि को कई रूपों में सफलता मिल रही है। एक ओर छात्र जब किसी समस्या को बिना किसी कठिनाई से हल कर लेते हैं तो उन्हें कार्य विशेष में रुचि उत्पन्न होती है तथा दूसरी ओर उनमें आत्मविश्वास विकसित होता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि इस प्रविधि में शिक्षक मात्र एक दिशा–निर्देशक के रूप में कार्य करता है। इस दृष्टि से शिक्षक के लिये यह आवश्यक है कि वह स्वतन्त्र अध्ययन हेतु सम्भावनाएं एवं अवसर एक क्रमबद्ध तरीके से प्रदान करे।

शिक्षण की परम्परागत विधियों की तुलना में यह प्रविधि निश्चित रूप से अधिक प्रभावशाली प्रविधि है। मूल रूप से इस प्रविधि का सम्बन्ध भावनात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों के विकास से है। साथ ही इसके प्रयोग से ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च शिक्षण उद्देश्यों को भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रविधि में छात्र को चिन्तन के स्वतन्त्र अवसर प्रदान किये जाते हैं तथा परम्परागत शिक्षण विधियों की तुलना में इसमें शिक्षक की भूमिका बिल्कुल भिन्न होती है। इस प्रविधि में शिक्षण का प्रमुख कार्य छात्रों को निर्देश देना है। छात्रों को जब कार्य पूरा करने और अध्ययन में कठिनाई उत्पन्न होती है तब उन्हें शिक्षक से परामर्श करना पड़ता है। शिक्षक उनकी समस्याओं का निदान करके उन्हें शैक्षिक निर्देशन प्रदान करता है। इस प्रविधि में शिक्षक का उत्तरदायित्व अन्यस विधियों की तुलना में कहीं अधिक बढ़ जाता है। क्योंकि यहां शिक्षक को व्यक्तिगत निर्देशन पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है

विशेषताएँ– स्वाध्याय प्रविधि की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–

1. छात्रों के सामान्य– ज्ञान तथा विषय–सम्बन्धी विशेष ज्ञान के स्तर को ऊंचा उठाने में भी स्वाध्याय से बहुत सहायता मिलती है।

2. स्वाध्याय से गणित के अध्ययन में बच्चों की स्वाभाविक रुचि विकसित होती है।

3. अध्यापक द्वारा पढ़ाये जाने वाले प्रकरणों को स्वाध्याय की आदत होने से विद्यार्थी थोड़ा बहुत पहले ही पढ़ लेते हैं, इससे इन प्रकरणों को समझाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती।

4. ये प्रविधि बच्चों को स्वावलम्बी एवं आत्म–निर्भर बनाती है।

5. अपने प्रयत्नों द्वारा समस्याओं के हल करने तथा स्वयं पढ़ते रहने से विद्यार्थियों के आत्म–विश्वास में वृद्धि होती है।

6. स्वाध्याय बालकों में अनुसंधानात्मक दृष्टिकोण विकसित करने में भी सहायक होता है।

7. प्रकरणों को पढ़ाये जाने के बाद उनसे सम्बन्धित सीखे हुए ज्ञान को मस्तिष्क में ठीक प्रकार से बिठाने में स्वाध्याय सहायता करता है।

8. स्वाध्याय के माध्यम से खाली समय का सदुपयोग हो जाता है

स्वाध्याय को प्रोत्साहित करने के उपाय :

गणित में स्वाध्याय की प्रवृत्ति को विकसित करने के लिये निम्नलिखित उपाय इस दिशा में प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं–

1. स्वाध्याय की आदत को शनै–शनैः विकसित करने में गृह–कार्य तथा अधिन्यासों का भी विशेष महत्त्व है।

2. स्वाध्याय की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए गणित सम्बन्धी विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जा सकता है, जैसे – वाद–विवाद, भाषण, निबन्ध प्रतियोगिताएं आदि।

3. प्रारम्भ में विद्यार्थियों को गणित सम्बन्धी रुचिकर साहित्य जैसे – गणित का इतिहास, गणितज्ञों की जीवनी इत्यादि पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसमें उनमें गणित के प्रति लालसा जागृत होगी तथा स्वतः ही उनका झुकाव इस प्रकार की सामग्री के अध्ययन में हो जायेगा। धीरे–धीरे उनका यह झुकाव स्वाध्याय की स्थायी आदत में परिणत हो सकता है।

4. अध्यापक जिस प्रकरण के बारे में जिस दिन छात्रों को ज्ञान कराना चाहता हो उसके बारे में उन्हें पहले से ही बता दिया जाना चाहिये ताकि छात्र उस प्रकरण से सम्बन्धित कुछ न कुछ घर से पढ़कर आ सकें। इस हेतु अध्यापक छात्रों के समक्ष कुछ रूपरेखा भी रख सकता है जिसके आधार पर छात्र स्वाध्याय करे।

5. छात्रों के समक्ष गणित की समस्याओं के हल प्रस्तुत करने की अपेक्षा उन्हें इन समस्याओं को हल करने के ढंग पर अधिक जोर देना चाहिये। स्वत: हल निकालने में स्वाध्याय को उचित पाध्यम बनाया जा सकता है।

6. बालकों में पुस्तकालय के प्रति रुचि उत्पन्न करके उनमें स्वाध्याय की उचित नींव डाली जा सकती है। इस आकर्षण को उत्पन्न करने के लिए पुस्तकालय की उचित व्यवस्था आवश्यक है।

कहने का तात्पर्य यह है, कि इस प्रकार के कुछ प्रयत्नों द्वारा बच्चों में स्वाध्याय की आदत को विकसित करने में सहायता मिल सकती है। स्वाध्याय को जहाँ तक हो सके अध्यापक को अपने शिक्षण कार्यक्रम का एक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण अंग मानकर चलना चाहिये। साथ ही, इस प्रवृत्ति को प्रोतसाहित करने के लिये उसे उचित मार्ग–दर्शन एवं पर्यवेक्षण द्वारा भी भरसक प्रयत्न करने चाहिये।

गणित विषय में अभ्यास का क्या महत्व है?

निरंतर अभ्यास के द्वारा विद्यार्थियों में स्पष्ट ज्ञान एवं उपयोग करने की क्षमता का प्रादुर्भाव होता है। यह बहुधा देखने में आता है कि गणित के विद्यार्थी गणित की छोटी-छोटी गणना करने में असमर्थ रहते हैं तथा गणित में अनेक अशुद्धियां करते हैं। अभ्यास के बिना गणित के कार्य में वेग तथा परिशुद्धता दोनों की कमी रह जाती है।

गणित शिक्षण में अभ्यास कार्य का प्रमुख उद्देश्य क्या है?

इसलिए, गणित शिक्षण में अभ्यास कार्य का मुख्य उद्देश्य गणना संबंधी कौशल को बढ़ाना है। Additional Informationsअभ्यास कार्य का महत्व: यह छात्रों में आत्मविश्वास और उपलब्धि की भावना विकसित करता है। सीखी गई सामग्री को लंबे समय तक रखा जा सकता है।

गणित का उपयोग कैसे कर सकते हैं?

1) गणित एक भाषा है। गणित के एक नए क्षेत्र का अध्ययन करने से आपको एक सार्वभौमिक बातचीत का हिस्सा बनने में मदद मिल सकती है। 2) पैसा। विषय के बारे में अधिक समझने से व्यक्ति को मुद्रा, ब्याज दरों, ऋणों और परिसंपत्तियों के बारे में अधिक जानने में मदद मिलती है।

गणित में सबसे उपयोगी शिक्षण सहायता क्या है?

(1) श्यामपट तथा चॉक– गणित अध्यापक हेतु श्यामपट बड़ी उपयोगी वस्तु है। अंकगणित तथा बीजगणित के प्रश्नों के हल, रेखागणित के चित्र एवं आँकड़ों के ग्राफ गणित अध्यापक श्यामपट पर लिखकर ही बालकों को बताते हैं। श्यामपट की अनुपस्थिति में गणित का शिक्षण असंभव है।