जवाहरलाल अपनी यात्रा पूरी क्यों नहीं कर सके? - javaaharalaal apanee yaatra pooree kyon nahin kar sake?

द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद के दो खेमों में बंट चुकी थी. इस दौरान सोवियत रूस साम्यवादी गुट का नेतृत्व करता था, जबकि पूंजीवादी देशों का अगुवा अमेरिका था. भारत को तब नई-नई आजादी मिली थी. देश को उन उद्योगों की जरूरत थी जिससे विकास के लिए बुनियादी ढांचा खड़ा किया जा सके. जैसे स्टील, एयरक्राफ्ट, ऑटो इंडस्ट्री, पनबिजली परियोजना आदि. नेहरू भारत के इन्हीं सपनों को लिए 1955  में सोवियत रूस की यात्रा पर निकले थे. नेहरू को; जैसा कि वो अपनी आत्मकथा में कहते हैं, आधुनिक भारत के मंदिरों का निर्माण करना था.

तब जवाहर लाल नेहरू दिल्ली से लगभग 5000 किलोमीटर दूर याकेतरिनबर्ग (Yekaterinburg) शहर में थे. उनके साथ थीं भारत की भावी प्रधानमंत्री और उनकी बेटी इंदिरा गांधी. नेहरू ने सोवियत रूस की यात्रा 7 जून 1955 को शुरू की थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत रूस के इस शहर में बड़े पैमाने पर लोहा गलाकर स्टील बनाया जा रहा था.

मास्को से लेनिनग्राद की महायात्रा

नेहरू द्वारा की गई सोवियत रूस की इस महायात्रा ने भारत-रूस के बीच दोस्ती के एक ऐसे रिश्ते की गांठ जोड़ी, जिस पर भारत और रूस आज तक इतराते हैं. नेहरू मास्को से लेनिनग्राद की वृहद यात्रा पर निकले. इस दौरान उन्होंने स्टालिनग्राद, क्रीमिया, जॉर्जिया, अस्काबाद, ताशकंद, समरकंद, अल्टाई क्षेत्र, मैग्नीटोगोर्स्क और सवर्दलोव्स्क शहरों का भ्रमण किया.

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रूस में नेहरू में स्वागत में उमड़ी भीड़

सोवियत की स्टील राजधानी में नेहरू

सवर्दलोव्स्क शहर का नाम बदलकर अब याकेतरिनबर्ग हो गया है. इस शहर को सोवियत रूस की स्टील राजधानी कहते हैं. इस शहर में मौजूद हैवी इंजीनियरिंग प्लांट उर्लमाश से नेहरू काफी प्रभावित हुए. समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्थानीय इतिहासकार ओलगा बुखारकिना बताते हैं कि उर्ल पहाड़ों की श्रृंखला में बसे इस शहर ने नेहरू का दिल जीत लिया. बाद में उर्लमाश कारखाने में ही बोकारो स्टील प्लांट के लिए भारी-भरकम मशीन बनाई गई, फिर उन्हें भारत लाया गया. हाल ही में तमिलनाडु में बने कूडनकुलम न्यूक्लियर पावर प्लांट के लिए भी रूस के इस प्लांट ने भारी यंत्र भारत को मुहैया कराए हैं.

16 दिन, 13000 किमी की विशाल यात्रा

16 दिन बाद 23 जून 1955 को जब नेहरू इंदिरा गांधी के साथ रूस की यात्रा से लौट रहे थे, तब वे इस देश में लगभग 13,000 किलोमीटर की यात्रा तय कर चुके थे. नेहरू ने सोवियत की वृहद यात्रा की. 1955 में साम्यवादी रूस ने आजाद भारत के पहले पीएम का दिल खोलकर स्वागत किया. जबर्दस्त खेमेबंदी के दौर में रूस को अपने साथ भारत जैसा विशाल देश मिला था जो साम्यवाद की विचारधारा के साथ चलने को तैयार था. नेहरू यहां के कारखाने, विश्वविद्यालय, स्कूल, कॉलेज, औद्योगिक शहर, संग्रहालय और स्टेडियम गए. उन्होंने एक देश की अर्थव्यवस्था देखी, उसका इतिहास और समाज समझा. सरकार चलाने के एक स्थापित सिस्टम से परिचित हुए.

भारत को मिले दो स्टील प्लांट

नेहरू की इस यात्रा के साथ ही भारत में दो आधुनिक स्टील प्लांट लगने का रास्ता खुल गया. ये स्टील प्लांट थे भिलाई और बोकारो. दूरदर्शी नेहरू स्टील की ताकत से पहले ही परिचित थे. एक जगह वे लिखते हैं, "स्टील अर्थव्यवस्था की ताकत का प्रतीक है, ये भविष्य के भारत का गर्व का सूचक है." भारत की इस जरूरत को उन्होंने रूस से पूरा करने का अवसर समझा और सोवियत रूस की तत्कालीन सरकार से इस बावत बात की. इस मिशन में उन्हें कामयाबी भी मिली.

नेहरू के सामने चिंता न सिर्फ अपने देश में स्टील प्लांट लगाने की थी, बल्कि एक चुनौती तकनीकी हस्तांतरण की भी थी, भारत जैसे नये-नवेले देश को ये तकनीक कोई भी सक्षम देश सह्रदयता से देने को तैयार नहीं था, लेकिन निकिता क्रुश्चेव के दौर के रूस ने भारत की जरूरतों का सम्मान किया और भारत में दो स्टील प्लांट बनाने के लिए जरूरी सामान और तकनीक देने पर राजी हो गया. रूस के इंजीनियर बोकारो (तत्कालीन बिहार) और भिलाई (तत्कालीन मध्य प्रदेश) आए, यहां पर उन्होंने भिलाई और बोकारो स्टील प्लांट को बनाने में पूरी मदद की. भिलाई भारत का पहला आधुनिक सरकारी स्टील प्लांट है. बोकारो का कारखाना इसके बाद अस्तित्व में आया.

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स्टालिन की मौत, निकिता क्रुश्चेव का जमाना

आगे बढ़ने से पहले हम आपको निकिता क्रुश्चेव के बारे में बताते हैं. मार्च 1953 में रूस की कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव स्टालिन की मौत के बाद सोवियत रूस की कमान निकिता क्रुश्चेव के हाथों में आ गई थी. 1953 से 64 तक वे कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सचिव और सोवियत रूस के कर्ताधर्ता रहे. स्टालिन के जमाने में भारत रूस के रिश्तों पर बर्फ जमी रही, लेकिन निकिता भारत के साथ दोस्ती के  पक्षधर थे, उन्हीं के कार्यकाल में नेहरू 1955 में सोवियत रूस की यात्रा पर पहुंचे थे. तब भारत और सोवियत रूस के बीच दोस्ती इस कदर परवान चढ़ी थी कि नेहरू जून में सोवियत रूस गये, तो नवंबर में निकिता क्रुश्चेव रूस के प्रधानमंत्री निकोलाई बुलगैन के साथ भारत दौरे पर आ पहुंचे.

जीवित रहते हुए नहीं देख पाए बोकारो स्टील प्लांट

नेहरू अपने जीवन काल में बोकारो स्टील प्लांट को आधुनिक भारत का मंदिर बनते हुए देखने का सपना पुरा नहीं कर पाए. वे इस प्लांट की तैयारी में ही थे कि 27 मई 1964 को उनका निधन हो गया. ये बेहद दुखद  घटना थी. यूं लगा भारत ने विज्ञान और विकास की ओर जो सफर अभी शुरू ही किया था, वो थम जाएगा.

लेकिन धीरे-धीरे भारत शोक से उबरा. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने बोकारो स्टील प्लांट की फाइल को आगे बढ़ाया. 25 जनवरी 1965 वो तारीख थी, जब भारत ने रूस के साथ बोकारो स्टील प्लांट लगाने के समझौते पर दस्तखत किया. शुरुआत में बोकारो स्टील प्लांट की क्षमता 15 से 20 लाख टन स्टील हर साल बनाने की रखी गई. जिसे बाद में 40 लाख टन हर साल किया जाना था. सोवियत रूस ने इस उद्देश्य के लिए भारत को लगभग 1667.67 मिलियन रुपये का लोन दिया. भारत की महारत्न कंपनी स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAIL) के मुताबिक बोकारो स्टील सिटी का गठन बतौर लिमिटेड कंपनी 29 जनवरी 1964 को ही हो गया था. लेकिन बाद में इसका विलय SAIL के साथ कर दिया गया.

इंदिरा गांधी ने रखी नींव

नेहरू जब 1955 में रूस के दौरे पर गए थे, तो इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं. भारत का औद्योगिक परिदृश्य कैसा हो, इस विजन को उन्होंने अपने पिता से बखूबी समझा था. जब इंदिरा लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद जनवरी 1966 में देश की पीएम बनीं तो उनके पास इस विजन को पूरा करने का मौका और सामर्थ्य दोनों आया. 6 अप्रैल 1968 को इंदिरा गांधी ने बोकारी स्टील प्लांट की आधारशिला रखी. इस प्लांट का पहला ब्लास्ट फरनेंस 2 अक्टूबर 1972 को शुरू हुआ था. इसी के साथ यहां से स्टील का उत्पादन शुरू हुआ.

बोकारो में नेहरू के सपने की झलक

आज बोकारो अपना नया जनप्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान कर रहा है. बोकारो स्टील सिटी इस शहर का नहीं पूर्वी भारत का औद्योगिक गौरव है. भारत और रूस की मित्रता के प्रतीक इस कारखाने की स्थापना के पीछे बड़ी रोमांचक दास्तान है. ये कहानी हमें 64 साल पहले के इतिहास में ले जाती है. जब शीत यु्द्ध के दौर के बीच दुनिया में दो प्रतिस्पर्द्धी विचारधारा की लड़ाई चल  रही थी, इस वैचारिक जंग के बीच भारत को अपना रास्ता चुनना था, भविष्य संवारना था. इस प्रक्रिया में हमें हमारे देश के तत्कालीन नेतृत्व की स्वपनद्रष्टा सोच की झलक दिखती है, जिस सोच की परिणति स्वावलंबी, प्रखर और मुखर आधुनिक भारत थी. 

जवाहरलाल कहाँ घूमने निकले थे?

नेहरू जी अपने चचेरे भाई के साथ कश्मीर की सैर करने निकले थे। तिब्बती पठार की हरियाली आँखों को सुकून देने वाली थी । बर्फीला मैदान दूर से जितना ही ऊबड़-खाबड़ था । रास्तों पर आठ कदम चलना दूभर हो गया ।

जवाहरलाल जी की यह कौन सी जेल यात्रा थी?

Expert-Verified Answer. अहमदनगर जिले में लेखक नेहरु जी नौंवी जेल यात्रा थी। जब नेहरू अपनी जेल नौंवी यात्रा पर अहमदनगर किले में कैद थे, तब वहां पर उन्हें काफी समय खाली रहना पड़ता था।

जोजिला पास से आगे चलकर जवाहरलाल कहाँ पहुँची 1 Point?

जवाहरलाल अपने चचेरे भाई के साथ कश्मीर घूमने निकले थे । वे दोनो जोज़ीला पास से होकर लद्दाखी इलाके की ओर चले आए थे |दोनो सफर की मुश्किल के बारे में सुनकर और भी ज्यादा उत्सुक हो गए | उनके साथ कुली, किशन और उसकी बेटी भी उसके साथ जाने को तैयार हो गई थी।

जवाहरलाल नेहरू को चाचा के नाम से क्यों जाना जाता है?

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को लोग प्यार से चाचा नेहरू या चाचा जी कह कर भी बुलाते थे। नेहरू जी बच्चों को बहुत प्यार करते थे, यही कारण है कि उनके जन्मदिन को अब बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।