लहरों के राजहंस में एक ऐसे कथानक का नाटकीय पुनराख्यान है जिसमें सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द्व निहित है। इस द्वन्द्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों का अंतर्विरोध है। जीवन के प्रेय और श्रेय के बीच एक कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व है, जिसके कारण व्यक्ति के लिए चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाती। चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा-बीज और उसका केन्द्र-बिन्दु है। धर्म-भावना से प्रेरित इस कथानक में उलझे हुए ऐसे ही अनेक प्रश्नों का इस कृति में नए भाव-बोध के परिवेश में परीक्षण किया गया है। सुंदरी के रूपपाश में बँधे हुए अनिश्चित, अस्थिर और संशयी मन वाले नंद की यही स्थिति होनी थी कि नाटक का अंत होते-होते उसके हाथों में भिक्षापात्र होता और धर्म-दीक्षा में उसके केश काट दिये जाते। Show लहरों के राजहंस के कथानक को आधुनिक जीवन के भावबोध का जो संवेदन दिया गया है, वह इस ऐतिहासिक कथानक को रचनात्मक स्तर पर महत्वपूर्ण बनाता है। वास्तव में ऐतिहासिक कथानकों के आधार पर श्रेष्ठ और सशक्त नाटकों की रचना तभी हो सकती है, जब नाटककार ऐतिहासिक पात्रों और कथा-स्थितियों को ‘अनैतिहासिक’ और ‘युगीन’ बना दे तथा कथा के अंतर्द्वन्द्व को आधुनिक अर्थ-व्यंजना प्रदान कर दे। सभी देशों के नाटक-साहित्य के इतिहास में विभिन्न युगों में जब भी श्रेष्ठ ऐतिहासिक नाटकों की रचना हुई है, तब नाटककारों ने प्राचीन कथानकों को नई दृष्टि से देखा है और उनको नई अर्थ-व्यंजना दी है। उसी परम्परा में मोहन राकेश का यह नाटक भी है जो अध्ययन-कक्षों तथा रंगशालाओं में पाठकों और दर्शकों, दोनों को रस देता है। कम लोग जानते हैं कि 1968 में लहरों के राजहंस का एक संशोधित परिवर्तित नया रूप प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका के अन्त में राकेश ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि इस नाटक के 1963 में छपे प्रथम रूप का प्रकाशन भविष्य में नहीं होना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से पता नहीं किन ज्ञात अज्ञात कारणों के चलते, तब से अब तक इस नाटक का पहला रूप ही लगातार छपता और बिकता रहा है। उसी के गुण दोषों को बार-बार दोहराते बहुसंख्यक शोध एवं आलोचना ग्रन्थ इस बीच लगातार लिखे और पढ़े पढ़ाए जाते हैं। यह सच है कि कुछ नाटक समीक्षकों एवं रंगकर्मियों को आज भी इस नाटक का पहला रूप नए के मुकाबले बेहतर प्रतीत होता है और कुछ नाट्य निर्देशकों ने इस बीच दोनो विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद अभिमंचन के लिए प्रथम संस्करण वाले आलेख को ही चुना भी है। परन्तु मेरे विचार से इस विवादास्पद प्रश्न पर लेखकीय इच्छा का ही सम्मान होना चाहिए-क्योंकि राकेश ने तो नए के साथ-साथ पुराने रूप के भी छपते रहने के सुझाव का भी स्पष्ट विरोध किया था। हमें विश्वास है कि लेखकीय सम्मान और गरिमा के प्रतीक बन चुके रचनाकार मोहन राकेश के जीवित रहते उसकी इच्छा का ऐसा अनादर कभी सम्भव नहीं होता। लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद। अब लहरों के राजहंस के नए रूप के पुनर्प्रकाशन के साथ पैंतीस वर्ष बाद ही सही राकेश की उस अन्तिम इच्छा पूर्ति हो रही है तो हम सबके लिए निश्चय ही यह सन्तोष और प्रसन्नता की बात है। प्रकाशक का यह आश्वासन और भी सुखकर है कि नाटककार की इच्छानुसार इस नाटक के पुराने रूप का प्रकाशन भविष्य में नहीं किया जाएगा। अब पाठकों को केवल इसका यह नया रूप ही उपलब्ध होगा। हमें विश्वास है कि इससे आलोचकों शिक्षाओं और रंगकर्मियों के बीच इस नाटक के प्रति नई उत्सुकता जागेगी और इसके समुचित मूल्यांकन से रचना और रचनाकार को न्याय मिल सकेगा। सन् छियालीस सैंतालीस में सुन्दरी नन्द, अलका और मैत्रेय को लेकर लिखी गई एक ‘अनाम ऐतिहासिक कहानी’ से लेकर सन् छियासठ-सड़सठ में लिखे रंग नाटक लहरों के राजहंस के नए रूप में लिखे जाने की बीस बाईस वर्ष लम्बी, जटिल और रचनात्मक अन्तर्यात्रा की अन्तरंग कथा तो इसी संस्करण के साथ प्रकाशित आलेख नाटक का यह परिवर्तित रूप में स्वयं नाटककार ने ही लिख दी है। अतः यहाँ इस नाटक के पुराने और नए रूप की भिन्नता के कुछ सूक्ष्म एवं महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को रेखांकित करना इसे सही सन्दर्भ एवं परिप्रेक्ष्य देने की दृष्टि से आवश्यक प्रतीत होता है। लहरों के राजहंस के दोनों रूपों का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि पहले संस्करण में नाटक का परदा पर श्वेतांग का श्यामांग के प्रति संवाद था-‘(कार्य में व्यस्त) तुम्हारी उलझन अभी समाप्त नहीं हुई ?’ परन्तु नए रूप में परदा उठने पर अँधेरे में नेपथ्य से त्रिशरणो के समवेत-स्वर की प्रभावपूर्ण योजना की गई है। इससे मूल नाटक के आरम्भ होने
से पहले ही दर्शक-पाठक का मन ‘बौद्धकाल’ में चला जाता है और सुन्दरी के विरुद्ध गौतम बुद्ध की अप्रत्यक्ष परन्तु प्रभावी शक्ति का पूर्व संकेत भी मिल जाता है। इसके अतिरिक्त श्वेतांग के एक पंक्ति के संवाद को अब तीस पंक्तियों के लम्बे संवाद में बदल दिया गया है जो ‘क्या बात है, नागदास’ से आरम्भ होकर तुम्हारी उलझन अभी समाप्त नहीं हुई ? तक चलता है। इससे कामोत्सव की चहल-पहल, हलचल तैयारी महत्त्व और राजसी समारोहपूर्ण वातावरण की स्थापना में सहायता मिलती है। ‘जिससे आपको विशेष अनुराग है। जिससे बात करके आपको विशेष सुख मिलता है। जिसकी बातों में आपको अपने अन्तर्मन की छाया झलकती दिखाई देती है। जानती हूँ।’ दूसरे अंक के आरम्भ में ‘संगीत खंडों के समान’ नेपथ्य से आने वाले श्यामांग के लम्बे प्रलापपूर्ण
संवादों को संक्षिप्त कर दिया गया है और सुन्दरी के जागने से पहले नन्द के एक लम्बे एकालाप की योजना की गई है। यह एकालाप नन्द के व्यक्तित्व को गहराई से प्रतिष्ठित करता है और उसके चरित्र की अनेक परतें उघाड़ता हुआ उसके जटिल अन्तर्द्वन्द्व की झलक भी पाठक दर्शक को दे देता है। पहले अंक के अन्त और दूसरे अंक के आरम्भ के बीच के अन्तराल को भी यह एकालाप भरने का प्रयास करता है। दर्पण अब कांच के स्थान पर कच्चे रजत का हो गया है जो देश काल के अनुरूप है। तीसरे अंक का आरम्भ दोनों संस्करणों में पूर्णतः समान है। नए संस्करण में तीसरे अंक का उत्तरार्द्ध अपनी वैचारिकता, गम्भीरकता, तीव्रता और नाटकीयता की दृष्टि से हिन्दी नाट्य साहित्य की उल्लेखनीय उपलब्धि है। नन्द और सुन्दरी के तनावपूर्ण नुकीले संवादों से नाटक संतूर के तारों की तरह लगातार कसता चला जाता है और चरम पर पहुँच कर जैसे एक झटके से सम्बन्ध का तार झनझनाकर टूट जाता है। कहीं जरा-सा भी ढीलापन नहीं है यहाँ; साँस लेने तक का अवकाश नहीं है। ‘....जिस सामर्थ्य और विश्वास के बल पर जी रहा था, उसी के सामने मुझे असमर्थ और असहाय बना कर फेंक दिया गया है....।’ तथा अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच में
चेतना को एक प्रश्नचिह्न बनाकर छोड़ दिया गया है...। जैसे बहुउद्धृत सैद्धान्तिक संवादों को भी नए संस्करण में स्थान नहीं दिया गया। ‘मैं चौराहे पर खड़ा एक नंगा व्यक्ति हूँ’ वाला संवाद भी स्वागत- कथन के रूप में था, अब उसे सुन्दरी से सीधे वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नए संस्करण में वैसे अनेक और अधिकांश स्थानों पर संवादों को माँजा-सँवारा गया है परन्तु सुन्दरी के संवादों में विशेष रूप से एक नई चमक पैदा की गई है। अब सुन्दरी अपने आभिजात्य और अपनी गरिमा से उद्भूत संवाद लय को कहीं नष्ट नहीं
होने देती। इस प्रकार लहरों के राजहंस के इस नए संस्करण में- लहरों के राजहंस के नायिका कौन है?इसका प्रथम प्रकाशन वर्ष 1963 में और फिर संशोधित प्रकाशन 1968 में हुआ। इस नाटक की भूमिका के अन्त में राकेश जी ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि इस नाटक के 1963 में छपे प्रथम रूप का प्रकाशन भविष्य में नहीं होना चाहिए।
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. लहरों के राजहंस के राजहंस किसका प्रतीक है?कथानक लहरों के राजहंस में एक ऐसे कथानक का नाटकीय पुनराख्यान है जिसमें सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द्व निहित है। इस द्वन्द्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों का अंतर्विरोध है।
लहरों के राजहंस का प्रकाशन वर्ष क्या है?कम लोग जानते हैं कि 1968 में लहरों के राजहंस का एक संशोधित परिवर्तित नया रूप प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका के अन्त में राकेश ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि इस नाटक के 1963 में छपे प्रथम रूप का प्रकाशन भविष्य में नहीं होना चाहिए।
लहरों के राजहंस के कुल कितने अंक हैं?“लहरों के राजहंस” नाटक में कुल तीन (3) अंक हैं।
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