नर्मदा जी के पति कौन थे? - narmada jee ke pati kaun the?

|| त्वदीय पाद पंकजं नमामि देवी नर्मदे ||

नर्मदा सरितां वरा -नर्मदा को सरितां वरा क्यों माना जाता है?

नर्मदा माता की असंख्य विशेषताओ में श्री "नर्मदा की कृपा द्रष्टि" से दिखे कुछ कारण यह है :-

नर्मदा सरितां वरा -नर्मदा नदियों में सर्वश्रेष्ट हैं !

नर्मदा तट पर दाह संस्कार के बाद, गंगा तट पर इसलिए नहीं जाते हैं कि, नर्मदा जी से मिलने गंगा जी स्वयं आती है।

नर्मदा नदी पर ही नर्मदा पुराण है ! अन्य नदियों का पुराण नहीं हैं !

नर्मदा अपने उदगम स्थान अमरकंटक में प्रकट होकर, नीचे से ऊपर की और प्रवाहित होती हैं, जबकि जल का स्वभाविक हैं ऊपर से नीचे बहना !

नर्मदा जल में प्रवाहित लकड़ी एवं अस्थिय कालांतर में पाषण रूप में परिवर्तित हो जाती हैं !

नर्मदा अपने उदगम स्थान से लेकर समुद्र पर्यन्त उतर एवं दक्षिण दोनों तटों में,दोनों और सात मील तक पृथ्वी के अंदर ही अंदर प्रवाहित होती हैं , पृथ्वी के उपर तो वे मात्र दर्शनार्थ प्रवाहित होती हैं | (उलेखनीय है कि भूकंप मापक यंत्रों ने भी पृथ्वी की इस दरार को स्वीकृत किया हैं )

नर्मदा से अधिक तीब्र जल प्रवाह वेग विश्व की किसी अन्य नदी का नहीं है |

नर्मदा से प्रवाहित जल घर में लाकर प्रतिदिन जल चठाने से बदता है |

नर्मदा तट में जीवाश्म प्राप्त होते हैं | (अनेक क्षेत्रों के वृक्ष आज भी पाषण रूप में परिवर्तित देखे जा सकते हैं |)

नर्मदा से प्राप्त शिवलिग ही देश के समस्त शिव मंदिरों में स्थापित हैं क्योकि ,शिवलिग केवल नर्मदा में ही प्राप्त होते हैं अन्यत्र नहीं |

नर्मदा में ही बाण लिंग शिव एवं नर्मदेश्वर (शिव ) प्राप्त होते है अन्यत्र नहीं |

नर्मदा के किनारे ही नागमणि वाले मणि नागेश्वर सर्प रहते हैं अन्यत्र नहीं |

नर्मदा का हर कंकड़ शंकर होता है ,उसकी प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती क्योकि , वह स्वयं ही प्रतिष्टित रहता है |

नर्मदा में वर्ष में एक बार गंगा आदि समस्त नदियाँ स्वयं ही नर्मदा जी से मिलने आती हैं |

नर्मदा राज राजेश्वरी हैं वे कहीं नहीं जाती हैं |

नर्मदा में समस्त तीर्थ वर्ष में एक बार नर्मदा के दर्शनार्थ स्वयं आते हैं |

नर्मदा के किनारे तटों पर ,वे समस्त तीर्थ अद्रश्य रूप में स्थापित है जिनका वर्णन कई पुराण, धर्मशास्त्र या कथाओं में आया हैं |

नर्मदा का प्रादुर्भाव स्रष्टि के प्रारम्भ में सोमप नामक पितरों ने श्राद्ध के लिए किया था |

नर्मदा में ही श्राद्ध की उत्पति एवं पितरो द्वारा ब्रम्हांड का प्रथम श्राद्ध हुआ था अतः नर्मदा श्राद्ध जननी हैं |

नर्मदा पुराण के अनुसार नर्मदा ही एक मात्र ऐसी देवी (नदी )हैं ,जो सदा हास्य मुद्रा में रहती है |

नर्मदा तट पर ही सिद्दी प्राप्त होती है| ब्रम्हांड के समस्त देव, ऋषि, मुनि, मानव (भले ही उनकी तपस्या का क्षेत्र कही भी रहा हो) सिद्दी प्राप्त करने के लिए नर्मदा तट पर अवश्य आये है| नर्मदा तट पर सिद्धि पाकर ही वे विश्व प्रसिद्ध हुए|

नर्मदा (प्रवाहित ) जल में नियमित स्नान करने से असाध्य चर्मरोग मिट जाता है |

नर्मदा (प्रवाहित ) जल में तीन वर्षों तक ,प्रत्येक रविवार को नियमित स्नान करने से श्वेत कुष्ठ रोग मिट जाता हैं किन्तु ,कोई भी रविवार खंडित नहीं होना चाहिए |

नर्मदा स्नान से समस्त क्रूर ग्रहों की शांति हो जाती है | नर्मदा तट पर ग्रहों की शांति हेतु किया गया जप पूजन हवन,तत्काल फलदायी होता है |

नर्मदा अपने भक्तों को जीवन काल में दर्शन अवश्य देती हैं भले ही उस रूप में हम माता को पहिचान न सके|

नर्मदा की कृपा से मानव अपने कार्य क्षेत्र में ,एक बार उन्नति के शिखर पर अवश्य जाता है |

नर्मदा कभी भी मर्यादा भंग नहीं करती है ,वे वर्षा काल में पूर्व दिशा से प्रवाहित होकर , पश्चिम दिशा के ओर ही जाती हैं अन्य नदियाँ ,वर्षा काल में अपने तट बंध तोडकर ,अन्य दिशा में भी प्रवाहित होने लगती हैं |

नर्मदा पर्वतो का मान मर्दन करती हुई पर्वतीय क्षेत्रमें प्रवाहित होकर जन ,धन हानि नहीं करती हैं (मानव निर्मित बांधों को छोडकर )अन्य नदियाँ मैदानी , रितीले भूभाग में प्रवाहित होकर बाढ़ रूपी विनाशकारी तांडव करती हैं |

नर्मदा ने प्रकट होते ही अपने अद्भुत आलौकिक सौन्दार्य से समस्त सुरों ,देवो को चमत्कृत करके खूब छकाया था | नर्मदा की चमत्कारी लीला को देखकर शिव पर्वती हसते -हसते हाफ्ने लगे थे |

नेत्रों से अविरल आनंदाश्रु प्रवाहित हो रहे थे| उन्होंने नर्मदा का वरदान पूर्वक नामकरण करते हुए कहा - देवी तुमने हमारे ह्रदय को अत्यंत हर्षित कर दिया, अब पृथ्वी पर इसी प्रकार नर्म (हास्य ,हर्ष ) दा(देती रहो ) अतः आज से तुम्हारा नाम नर्मदा होगा |

नर्मदा के किनारे ही देश की प्राचीनतम -कोल ,किरात ,व्याध ,गौण ,भील, म्लेच आदि जन जातियों के लोग रहा करते थे ,वे बड़े शिव भक्त थे |

नर्मदा ही विश्व में एक मात्र ऐसी नदी हैं जिनकी परिक्रमा का विधान हैं, अन्य नदियों की परिक्रमा नहीं होती हैं|

नर्मदा का एक नाम दचिन गंगा है |

नर्मदा मनुष्यों को देवत्व प्रदान कर अजर अमर बनाती हैं|

नर्मदा में ६० करोड़, ६०हजार तीर्थ है (कलियुग में यह प्रत्यक्ष द्रष्टिगोचर नहीं होते )

नर्मदा चाहे ग्राम हो या वन, सभी स्थानों में पवित्र हैं जबकि गंगा कनखल में एवं सरस्वती कुरुक्षेत्र में ही अधिक पवित्र मानी गई हैं

नर्मदा दर्शन मात्र से ही प्राणी को पवित्र कर देती हैं जबकि सरस्वती तीन दिनों तक स्नान से, यमुना सात दिनों तक स्नान से गंगा एक दिन के स्नान से प्राणी को पवित्र करती हैं |

नर्मदा पितरों की भी पुत्री हैं अतः नर्मदा किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है|

नर्मदा शिव की इला नामक शक्ति हैं|

नर्मदा को नमस्कार कर नर्मदा का नामोच्चारण करने से सर्प दंश का भय नहीं रहता है|

नर्मदा के इस मंत्र का जप करने से विषधर सर्प का जहर उतर जाता है|

नर्मदाये नमः प्रातः, नर्मदाये नमो निशि| नमोस्तु नर्मदे तुम्यम, त्राहि माम विष सर्पतह| (प्रातः काल नर्मदा को नमस्कार, रात्रि में नर्मदा को नमस्कार, हे नर्मदा तुम्हे नमस्कार है, मुझे विषधर सापों से बचाओं (साप के विष से मेरी रक्षा करो )

नर्मदा आनंद तत्व ,ज्ञान तत्व सिद्धि तत्व ,मोक्ष तत्व प्रदान कर , शास्वत सुख शांति प्रदान करती हैं |

नर्मदा का रहस्य कोई भी ज्ञानी विज्ञानी नहीं जान सकता है | नर्मदा अपने भक्तो पर कृपा कर स्वयं ही दिव्य द्रष्टि प्रदान करती है |

नर्मदा का कोई भी दर्शन नहीं कर सकता है नर्मदा स्वयं भक्तों पर कृपा करके उन्हें बुलाती है |

नर्मदा के दर्शन हेतु समस्त अवतारों में भगवान् स्वयं ही उनके निकट गए थे |

नर्मदा सुख ,शांति , समर्धि प्रदायनी देवी हैं |

नर्मदा वह अम्र तत्व हैं ,जिसे पाकर मनुष्य पूर्ण तृप्त हो जाता है |

नर्मदा देव एवं पितृ दोनो कार्यों के लिए अत्यंत पवित्र मानी गई हैं |

नर्मदा का सारे देश में श्री सत्यनारायण व्रत कथा के रूप में इति श्री रेवा खंडे कहा जाता है |

श्री सत्यनारायण की कथा अर्थात घर बैठे नर्मदा का स्मरण |

नर्मदा में सदाशिव, शांति से वास करते हैं क्युकी जहाँ नर्मदा हैं और जहां शिव हैं वहां नर्मदा हैं |

नर्मदा शिव के साथ ही यदि अमरकंटक की युति भी हो तो साधक को ल्लाखित लक्ष की प्राप्ति होती हैं नर्मदा के किनारे सरसती के समस्त खनिज पदार्थ हैं l

नर्मदा तट पर ही भगवान् धन्वन्तरी की समस्त औषधीया प्राप्त होती हैं नर्मदा तट पर ही त्रेता युग में भगवान् श्री राम द्वारा प्रथम वार कुम्वेश्वर तीर्थ की स्थापना हुई थी जिसमें सृष्टी के समस्त तीर्थों का जल , ऋसी मुनियों द्वारा कुम्भो ,घंटों में लाया गया था नर्मदा के त्रिपुरी तीर्थ देश का केंद्र बिंदु भी था ।

नर्मदा तट पर दाह संस्कार के बाद, गंगा तट पर इसलिए नहीं जाते हैं कि, नर्मदा जी से मिलने गंगा जी स्वयं आती है .....

!! परम पावनी नर्मदा परिक्रमा!!

नर्मदा जी वैराग्य की अधिष्ठात्री है। गंगा जी ज्ञान की, यमुना जी भक्ति की, ब्रह्मपुत्रा तेज की, गोदावरी ऐश्वर्य की, कृष्णा कामना की और सरस्वती जी विवेक के प्रतिष्ठान के लिये संसार में आई हैं। सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है व श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व होता है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं।

नर्मदा जी की परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है। परिक्रमा वासी लगभ्ग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।

नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है । यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।

व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है । नर्मदा परिक्रमा के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिए श्री शैलेंद्र नारायण शास्त्री घोषाल क्रत तपोभूमि नर्मदा, स्वामी मायानन्द चैतन्य कृत नर्मदा पंचांग (1915) श्री दयाशंकर दुबे कृत नर्मदा रहस्य (1934), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत नर्मदा दर्शन (1988) तथा स्वामी ओंकारानन्द गिरि कृत श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा पठनीय पुस्तकें हैं जिनमें इस परिक्रमा के तौर-तरीकों और परिक्रमा मार्ग का विवरण विस्तार से मिलता है । इसके अतिरिक्त श्री अमृतलाल वेगड द्वारा पूरी नर्मदा की परिक्रमा के बारे में लिखी गई अद्वितीय पुस्तकें ’’सौंदर्य की नदी‘‘ नर्मदा तथा ’’अमृतस्य नर्मदा‘‘ नर्मदा परिक्रमा पथ के सौंदर्य और संस्कृति दोनों पर अनूठे ढंग से प्रकाश डालती है । श्री वेगड की ये दोनों पुस्तकें हिन्दी साहित्य के प्रेमियों और नर्मदा अनुरागियों के लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर जैसी हैं । यद्वपि ये सभी पुस्तकें नर्मदा पर निर्मित बांधें से बने जलाशयों के कारण परिक्रमा पथ के कुछ हिस्सों के बारे में आज केवल एतिहासिक महत्व की ही रह गई है, परन्तु फिर भी नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य पठनीय है । नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक ’अमरकण्टक से अमरकण्टक तक‘ (2006) भी आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है ।

पतित पावनी नर्मदा की विलक्षणता यह भी है कि वह दक्षिण भारत के पठार की अन्य समस्त प्रमुख नदियों के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है । इसके अतिरिक्त केवल ताप्ती ही पश्चिम की ओर बहती है परन्तु एक वैज्ञानिक धारणा यह भी है कि करोडों वर्ष पहले ताप्ती भी नर्मदा की सहायक नदी ही थी और बाद में भूगर्भीय उथल-पुथल से दोनों के मुहाने पर समुद्र केकिनारों में भू-आकृति में बदलाव के फलस्वरूप ये अलग-अलग होकर समुद्र में मिलने लगीं । कुछ भी रहा हो परन्तु इस विषय पर भू-वैज्ञानिक आमतौर पर सहमत हैं कि नर्मदा और ताप्ती विश्व की प्राचीनतम नदियाँ हैं । नर्मदा घाटी में मौजूद चट्टानों की बनावट और शंख तथा सीपों के जीवाश्मों की बडी संख्या में मिलना इस बात को स्पष्ट करता है कि यहां समुद्री खारे पानी की उपस्थिति थी । यहां मिले वनस्पतियों के जीवाश्मों में खरे पानी के आस-पास उगने वाले पेड-पौधों के सम्मिलित होने से भी यह धारणा पुष्ट होती है कि यह क्षेत्र करोडों वर्ष पूर्व भू-भाग के भीतर अबर सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था । नर्मदा पुराण से भी ज्ञात होता है कि नर्मदा नदी का उद्गम स्थल प्रारंभ में एक अत्यन्त विशाल झील के समान था । यह झील संभवतः समुद्र के खारे पानी से निर्मित झील रही होगी । कुछ विद्वानों का मत है कि धार जिले में बाघ की गुफाओं तक समुद्र लगा हुआ था और संभवतः यहां नर्मदा की खाडी का बंदरगाह रहा होगा ।

नर्मदा का उद्गम म0प्र0 के अनूपपुर जिले (पुराने शहडोल जिले का दक्षिण-पश्चिमी भाग) में स्थित अमरकण्टक के पठार पर लगभग 22*40श् छ अक्षांश तथा 81*46श् म् देशान्तर पर एक कुण्ड में है । यह स्थान सतपुडा तथा विंध्य पर्वतमालाओं को मिलने वाली उत्तर से दक्षिण की ओर फैली मैकल पर्वत श्रेणी में समुद्र तल से 1051 मी0 ऊंचाई पर स्थित है । अपने उद्गम स्थल से उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 8 कि0मी0 की दूरी पर नर्मदा 25 मी0 ऊंचाई से अचानक नीचे कूद पडती है जिससे ऐश्वर्यशाली कपिलधारा प्रपात का निर्माण होता है । इसके बाद लगभग 75 कि0मी0 तक नर्मदा पश्चिम और उत्तर-पश्चिम दिशा में ही बहती है । अपनी इस यात्रा में आसपास के अनेक छोटे नदी-नालों से पानी बटोरते-सहेजते नर्मदा सशक्त होती चलती है| डिंडोरी तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा से तुरर, सिवनी, मचरार तथा चकरार आदि नदियाँ मिल जाती हैं । डिंडोरी के बाद पश्चिमी दिशा में बहने का रूझान बनाए हुए भी नर्मदा सर्पाकार बहती है । अपने उद्गम स्थल से 140 कि0मी0 तक बह चुकने के बाद मानों नर्मदा का मूड बदलता है और वह पश्चिम दिशा का प्रवाह छोडकर दक्षिण की ओर मुड जाती है । इसी दौरान एक प्रमुख सहायक नदी बुढनेर का नर्मदा से संगम हो जाता है । दक्षिण दिशा में चलते-चलते नर्मदा को मानों फिर याद आ जाता है कि वह तो पश्चिम दिशा में जाने के लिए घर से निकली थी अतः वह वापस उत्तर दिशा में मुडकर मण्डला नगर को घेरते हुए एक कुण्डली बनाती है । मण्डला में दक्षिण की ओर से आने वाली बंजर नदी इससे मिल जाती है जिससे चिमटे जैसी आकृति का निर्माण होता है । यहाँ ऐसा लगता है कि नर्मदा बंजर से मिलने के लिए खुद उसकी ओर बढ गई हो और मिलाप के तुरंत बाद वापस अपने पुराने रास्ते पर चल पडी हो । इसके बाद नर्मदा मोटे तौर पर उत्तर की ओर बहती है । जबलपुर के पहले नर्मदा पर बरगी बांध बन जाने के बाद यहां विशाल जलाशय का निर्माण हो गया है ।

जबलपुर में ही भेंडाघाट में नर्मदा का दूसरा प्रसिद्ध प्रपात धुंआधार पडता है जहां नर्मदा अत्यन्त वेग से 15 मी0 नीचे छलांग मारकर मानों नृत्य करने लगती है । धुंआधार प्रपात के आगे थोडी दूरी पर ही विश्व प्रसिद्ध संगमरमर की चट्टानों के गलियारे से होकर बहती हुई यह नदी प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम छटा बिखेरती है । जबलपुर से आगे चलकर नर्मदा नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सीहोर व हरदा जिलों से होकर बहती है जहां शेर, शक्कर, तवा, गंजाल, अजनाल जैसी नदियाँ इससे जुडती चली जाती हैं । हरदा जिले में स्थित नेमावर को नर्मदा मध्य बिन्दु या नाभिस्थल माना जाता है । हरदा जिले को छोडने के बाद नर्मदा पूर्वी निमाड जिले में प्रवेश करती है जहां काफी विरोध, जन आंदोलनों और लंबी कानूनी लडाई के बाद पुनासा में नर्मदा पर बांध बनकर बिजली उत्पादन करने लगा है। अब यहाँ से आगे बढने के लिए नर्मदा स्वतंत्र नहीं है बल्कि बांध का संचालन करने वाले व्यवस्थापकों और अभियन्ताओं के निर्णय के अनुसार घटती-बढती रहती है ।

पुनासा से आगे एक के बाद एक बांधों के पाश में बंध जाने के कारण पिछले दशक में नर्मदा के स्वरूप में काफी बदलाव आया है । इस क्षेत्र में कभी नर्मदा को अपना कूदने और छलांग लगाने वाला बचपन मानों फिर से याद आ जाया करता था और धारडी गांव के निकट सहसा लगभग 12 मीटर की ऊंचाई से पुनः छलांग लगा बैठती थी । परन्तु उसकी इस कोशिश में प्रागैतिहासिक काल की चट्टानें आडे आ जाने से छोटे-बडे अनेक प्रपाप निर्मित हो जाया करते थे जिनकी छटा अप्रतिम हुआ करती थी । इस स्थान की रमणीयता का अनुभव इसे देखकर ही किया जा सकता है । वेगडजी ने इस स्थान को छोटे-बडे अनेक प्रपातों के कारण प्रपातों के डिपार्टमेन्टल स्टोर का नाम दिया था जहां कोई अपनी क्षमता और इच्छा के अनुसार मनपसंद प्रपात चुनकर उसे घंटों निहारते बैठा रह सकता था । दुर्लभ प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण वह स्थल जून 2007 में ओंकारेश्वर बांध में जल-भराव के साथ ही जलाशय में डूब गया है । इस स्थान के पश्चात देवास और खण्डवा जिले के जंगलों और घाटियों से बहती हुई नर्मदा प्रसिद्ध ओंकारेश्वर मांधाता तक जा पहुंचती है जहां भारत के प्रसिद्ध द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक ओंकारेश्वर का धाम है । यहां पर मांधाता द्वीप से ठीक पहले ओंकारेश्वर बांध लगभग पूरा हो चुका है जो नर्मदा के प्रवाह को पुनः नियंत्रित करगा ।

माधांता पहुंचने से पहले नर्मदा की दो प्रमुख सहायिकाएंॅ कनाड उत्तरी तट से और कावेरी दक्षिणी तट से आ जुडतीं हैं । ओंकारेश्वर बांध के द्वारा निर्मित जलाशय का बैकवाटर लगभग पुनासा तक पहुंचेगा अतः जल-भराव के बाद नर्मदा का यह हिस्सा लगभग पूरी तरह जलाशय में ही बदल जाएगा। ओंकारेश्वर के बाद पुनः जंगल के क्षेत्र से बहती हुई नर्मदा बडवाह के आसपास वनों से बाहर आ जाती है और बडवानी-झाबुआ में पुनः वनक्षेत्र में प्रवेश करने के पहले यह वनों से बाहर ही बहती है । बडवाह के पास नर्मदा के उत्तरी तट से चोरल नदी आ मिलती है और बडवानी तक पहुंचते-पहुंचते बेदा, डेब तथा गोई नदियों का नर्मदा के दक्षिणी तट से संगम हो जाता है ।

इसके आगे धार जिले में मान तथा उरी नदियाँ व झाबुआ जिले में हथनी नदी नर्मदा के उत्तरी तट से आ मिलती है । यह सारा क्षेत्र उत्तरी तट पर विंध्याचल श्रेणी की पहाडयों और दक्षिणी तट पर सतपुडा श्रेणी की पहाडयों द्वारा निर्मित नौका जैसे भू-भाग के बीच पडता है । झाबुआ जिले से आगे नर्मदा म0प्र0 से बाहर हो जाती है । इस प्रकार अमरकण्टक में प्रकट हुई नर्मदा म0प्र0 को छोडने के पहले 1079 कि0मी0 लंबा सफर तय कर लेती है जो इसकी कुल लंबाई 1312 कि0मी0 का 82.24 प्रतिशत है । नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल 98496 वर्ग कि0मी0 है जो 4 राज्यों में पडता है । इसमें से 85149 वर्ग कि0मी0 (86.19 प्रतिशत) म0प्र0 में आता है तथा शेष 13647 वर्ग कि0मी0 (13.81 प्रतिशत) गुजरात, महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ राज्यों में आता है ।

नर्मदा बेसिन के जलग्रहण क्षेत्र को छोटी-छोटी जलग्रहण इकाइयों में बांटा गया है । म0प्र0 से बाहर आने के बाद नर्मदा 32 कि0मी0 लंबाई में म0प्र0 और महाराष्ट्र राज्य के बीच की सीमा तथा फिर 40 कि0मी0 लंबाई में महाराष्ट्र व गुजरात राज्य के बीच सीमा बनाती है व इसके बाद भृगुकच्छ में सागर मिलन के पहले गुजरात राज्य में 161 कि0मी0 की दूरी तय करती है ।

परिक्रमावासियों के सामान्य नियम

1. प्रतिदिन नर्मदा जी में स्नान करें। जलपान भी रेवा जल का ही करें।

2. प्रदक्षिणा में दान ग्रहण न करें। श्रद्धापूर्वक कोई भेजन करावे तो कर लें क्योंकि आतिथ्य सत्कार का अंगीकार करना तीर्थयात्री का धर्म है। त्यागी, विरक्त संत तो भेजन ही नहीं करते भ्क्षिा करते हैं जो अमृत सदृश्य मानी जाती है।

3. व्यर्थ वाद-विवाद, पराई निदा, चुगली न करें। वाणी का संयम बनाए रखें। सदा सत्यवादी रहें।

4. कायिक तप भी सदा अपनाए रहें- देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञ पूजनं, शौच, मार्जनाम्। ब्रह्मचर्य, अहिसा च शरीर तप उच्यते।।

5. मनः प्रसादः सौम्य त्वं मौनमात्म विनिग्रह। भव संशुद्धिरित्येतत् मानस तप उच्यते।। (गीता 17वां अध्याय) श्रीमद्वगवतगीता का त्रिविध तप आजीवन मानव मात्र को ग्रहण करना चाहिए। एतदर्थ परिक्रमा वासियों को प्रतिदिन गीता, रामायणादि का पाठ भी करते रहना उचित है।

6. परिक्रमा आरंभ् करने के पूर्व नर्मदा जी में संकल्प करें। माई की कडाही याने हलुआ जैसा प्रसाद बनाकर कन्याओं, साधु-ब्राह्मणों तथा अतिथि अभ्यागतों को यथाशक्ति भेजन करावे।

7. दक्षिण तट की प्रदक्षिणा नर्मदा तट से 5 मील से अधिक दूर और उत्तर तट की प्रदक्षिणा साढे सात मील से अधिक दूर से नहीं करना चाहिए।

8. कहीं भी नर्मदा जी को पार न करें। जहाँ नर्मदा जी में टापू हो गये वहाँ भी न जावें, किन्तु जो सहायक नदियाँ हैं, नर्मजा जी में आकर मिलती हैं, उन्हें भी पार करना आवश्यक हो तो केवल एक बार ही पार करें।

9. चतुर्मास में परिक्रमा न करें। देवशयनी आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक सभी गृहस्थ चतुर्मास मानते हैं। मासत्मासे वैपक्षः की बात को लेकर चार पक्षों का सन्यासी यति प्रायः करते हैं। नर्मदा प्रदक्षिणा वासी विजयादशी तक दशहरा पर्यन्त तीन मास का भी कर लेते हैं। उस समय मैया की कढाई यथाशक्ति करें। कोई-कोई प्रारम्भ् में भी करके प्रसन्न रहते हैं।

10. बहुत सामग्री साथ लेकर न चलें। थोडे हल्के बर्तन तथा थाली कटोरी आदि रखें। सीधा सामान भी एक दो बार पाने योग्य साथ रख लें।

11. बाल न कटवायें। नख भी बारंबार न कटावें। वानप्रस्थी का व्रत लें, ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करें। सदाचार अपनायें रहें। श्रृंगार की दृष्टि से तेल आदि कभी न लगावें। साबुन का प्रयोग न करें। शुद्ध मिट्टी का सदा उपयोग करें।

12. परिक्रमा अमरकंटन से प्रारंभ् कर अमरकंटक में ही समाप्त होनी चाहिए। जब परिक्रमा परिपूर्ण हो जाये तब किसी भी एक स्थान पर जाकर भ्गवान शंकर जी का अभ्षिेक कर जल चढावें। पूजाभ्षिेक करें करायें। मुण्डनादि कराकर विधिवत् पुनः स्नानादि, नर्मदा मैया की कढाई उत्साह और सामर्थ्य के अनुसार करें। ब्राह्मण, साधु, अभ्यागतों को, कन्याओं को भी भेजन अवश्य करायें फिर आशीर्वाद ग्रहण करके संकल्प निवृत्त हो जायें और अंत में नर्मदा जी की विनती करें।

नर्मदा में इस प्रयोग से पल भर में दूर हो जाएंगे कुंडली के ये दोष, जानिए अद्भुत रहस्य

बालमीक पाण्डेय @ जबलपुर। कहते हैं मां की दुआओं के हजारों हाथ होते हैं। यदि आपके सिर पर मां का हाथ है तो फिर दुनिया की कोई भी आसुरी शक्ति आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। यदि आप ग्रहों की चाल से परेशान हैं और कष्ट आपका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं तो आप एक आसान उपाय से अपनी बाधाओं को पलभर में दूर कर सकते हैं। मां नर्मदा का आशीर्वाद आपको हर बुरी बलाओं से बचा सकता है। नमामि देवि नर्मदे नर्मदा सेवा यात्रा के दौरान आप मां के एक से बढ़कर एक रहस्यों से वाकिफ हो रहे हैं, उनमें से एक है मां नर्मदा स्नान से

ऐसे होता है दोषों का समापन

पं. अंबिका प्रसाद शुक्ल ने बताया कि नर्मदा पुराण में मां के अनेकों अद्भुत रहस्यों का पता चलता है। नर्मदा का जल शंकर के श्चेद से उत्पन्न हुआ है। यह इतना पवित्र है कि किसी भी दोष का शमन करने का सामथ्र्य रखता है। मनुष्य की कुंडली में स्थित उग्र ग्रह को शांत करने की इसमें शक्ति है। मंगल, शनि राहु, केतु के दोष तो इस जल के स्नान मात्र से दूर हो जाते हैं। विशेषकर शनिश्चरी अमावस्या के दिन इसके स्नान से कई बाहरी हानिकारक शक्तियों से बचने की शक्ति मिलती है।

काल सर्प दोष से तत्काल मुक्ति

पं. गणेशदत्त द्विवेदी ने बताया कि यदि किसी भी व्यक्ति की जन्मकुंडली में काल सर्प या नाग दोष हो तो अमावस्या के दिन इसके जल में चांदी से निर्मित नाग का संस्कार कर विसर्जन करने से इस दोष से शांति मिलेगी। भगवान शंकर से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा आद्यशक्ति की शक्तियों से पूर्ण है। इतना ही नहीं स्नान करने एवं दर्शन करने से सूर्य के समान धैर्य एवं गुरू के समान धार्मिकता मिलती है।

पवित्रता है खास पहचान

राजकुमार शास्त्री बताते हैं कि नर्मदा विश्व की एक मात्र ऐसी नदी है, जिसकी परिक्रमा की जाती है, क्योंकि इसके हर घाट पर पवित्रता का वास है तथा इसके घाटों पर महर्षि मार्कण्डेय, अगत्स्य, महर्षि कपिल एवं कई ऋषि-मुनियों ने तपस्या की। शंकराचार्यों ने भी इसकी महिमा का गुणगान किया है।

बिंदु सिंधु में परिणत होकर बहने लगी तरंगिणी माँ ! प्रबलवेग से अरिदल के

भी पातक - पुंञ निवारिणी माँ !

कालरूपयमदूतों का भय हरती रक्षा

करतीमाँ ! तेरे पद पंकज में रेवे सदा

वंदना मेरी माँ ।।1।।

तेरे जल में लीन दीन वे मीन स्वर्ग पा

जाते माँ ! मच्छ- कच्छ-जलचर-नभचर

- चकई - चकवे सुख पाते माँ ! भार हारिणी कलिमल का सब तीर्थ शिरोमणि

होती माँ ! तेरे पद पंकज में रेवे ! सदा वंदना मेरी माँ ।।2।।

अति गंभीर नीर से धोती पापराशि भूतल की माँ ! कल कल करती पातक हरती संकट शैल सँहरती माँ ! भीषण - प्रलय - पयोनिधि में नित मुनि को आश्रय देती माँ तेरे पद पंकज में रेवे सदा वंदना मेरी माँ।।

भय भागा मेरा तब ही निर्मल नीर निहारा माँ ! शौनक मार्कण्डेय देवगण सेवित सतत तिहारा माँ ! बारम्बार जन्म मरणादिक भववारिधि भयहारिणी माँ !

तेरे पदपंकज मेंरेवे सदा वंदना मेरी माँ।4।

हुए अलक्षित लक्ष - लक्ष किन्नर सुरादि से पूजित माँ ! लक्षित लक्ष धीर पक्षीगण से तेरा तट कूजित माँ ! शिष्ट वशिष्ठ आदि कर्दम ऋषि पिप्पलाद सुख देनी माँ ! तेरे पद पंकज में रेवे सदा वंदना मेरी माँ।5

सनकादिक मुनि नचिकेतासुत कश्यप अत्रि भ्रमर ये माँ ! नारदादि तब चरण कमल को धारण करें हृदय में माँ ! रवि - शशि-सुरपति-रन्तिदेव को धर्म कर्म सुखशःश देती माँ ! तेरे पद पंकज में रेवे सदा वंदना मेरी माँ ।।6 ।।

दृष्ट अदृषट अघों का तूँ आयुध शी लक्ष्य भेदती माँ ! अधमाधम भी जीव जन्तु को भोग - मोक्ष दे देती माँ ! वितरण कर विधि - हरी - हर चा पद निज पद अर्पित करती माँ ! तेरे पद पंकजमें रेवे सदा वंदना मेरी माँ।।7।।

सुना अमृतमय गान अहाहा ! जटाशंकरी तट पर माँ ! कोल-भील-शठ-नट-भाटों में पण्डित के हिय पट पर माँ ! दुस्तर- पाप -ताप-संहारिणी जीवमात्र सुखकारिणी माँ ! तेरे पदपंकज में रेवे सदा वंदना मेरी माँ।8

जो यह तीनों समय नर्मदा अष्टक तेरा गाते माँ ! पढ़ें निरन्तर प्रेम सहित वे दुर्गति कभी न पाते माँ ! 'प्रणव' गीत में प्रीति करें नर नरक न कोई जाते माँ ! दुर्लभ देह सुलभ करके नित माहेश्वर पद पाते माँ।9

जयतु नर्मदे ! जयतु वर्मदे ! तीर्थ जननि हे अम्बे ! माँ !

जयतु नर्मदे ! जयतु शर्मदे ! सुखदायिनी ! शिवगंगे माँ !

जयतु नर्मदे ! जयतु हम् र्यदे ! हर - हर विपद हमारी माँ ! तेरे पद पंकज में रेवे ! सदा वंदना मेरी माँ ।।

नमोऽस्तु ते पुण्यजले,नमो मकरगामिनी।

नमस्ते पापमोचिन्यै,नमो देवी ! वरानने!।।

नर्मदामादिनाथञ्च प्रणम्य परया गिरा।

वैखर्या तु वदेदुच्चैर्नमदे हर नर्मदे।।2।।

**(आचार्य श्रीशंकरस्वामी ने नर्मदा के प्रवाह =पूर को कलश में भरकर गुरु की रक्षा की यहीं सन्यास लिया।यह स्थान ओंकारेश्वर और कोई साँकल घांट शंकर पुरी बतलाते हैं; तभी यह नर्मदाष्टक रचा भाषा भाषियों के लिए उसका यह अनुवाद है,जो पूज्यपाद ओंकारानंदजी द्वारा रचित नर्मदा-कल्पवल्ली से साभार)।

अमरकंटक से रेवासागर तक मां नर्मदा की पावन यात्रा

अमरकण्टक से नर्मदा की पावन यात्रा प्रारंभ होती है

नर्मदा का उदगम होने से अमरकण्टक का एक बड़ी तीर्थ है। गांव बहुत छोटा है। इंदौर की महारानी अहिल्याबाई की बनवाई एक बड़ी धर्मशाला यहां है। चारों ओर बियाबान जंगल है, जिसमें जानवरों का डर सदा बना रहता है। पछवा हवा जोर से चलती रहती है। जाड़े के दिनों में कंडक बहुत रहती है। लगभग 3000 फुट से भी अधिक की ऊंचाई पर होने के कारण गरमी के दिनों में बड़ा आनंद रहता है।

नर्मदा जहां से निकलती है, वहां एक छोटा सा कुण्ड बना हुआ है। कहते हैं, नागपुर के किसी भोंसले राजा ने इसे बनवाया था। कुण्ड के चारों ओर सीढ़ियां बनी हुई हैं। इसके आसपास बने हुए मंदिरों में दो नर्मदा के, दो गौरी शंकर के, एक श्रीरामचंद्र का, एक मुरली-मनोहर का और दूसरे कई देवी-देवताओं के हैं।

अमरकण्टक में हर साल महाशिवरात्रि पर मेला लगता है। उस समय हजारों यात्री आते हें, कुण्ड में स्नान करते हैं और शंकर की तथा नर्मदा की पूजा करते हैं। यहां पर पर्वत बहुत ही रमणीय है। जड़ी-बूटियों और फूल-फलों का भण्डार है।

सबसे पहला महत्व का स्थान आता है मंडला, जो अमरकण्टक से कोई 295 कि.मी. की दूरी पर नर्मदा के उत्तरी तट पर बसा है। यहां पर नर्मदा का दृश्य बहुत सुन्दर है। तीर पर सुन्दर घाट बने हुए हैं और उनके ऊपर कई मंदिर।

नर्मदा के किनारे एक पुराना किला है, जिसे गढ़-मण्डला के राजा नरेन्द्र शाह ने सन 1680 के आसपास बनवाया था और मण्डला को अपनी राजधानी बना दिया था। किला अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। उसके अंदर राजेश्वरी का मन्दिर है, जिसमें दूसरे देवताओं के साथ एक मूर्ति सहस्रार्जुन की है। कुछ लोगों का कहना है कि यह मण्डला ही प्राचीन माहिष्मती है और भगवान शंकराचार्य का मण्डन मिश्र से यहीं पर शास्त्रार्थ हुआ था, परन्तु इस विषय में सब एक राय नहीं हैं।

मण्डला के पास पहाड़ियां हैं, जिनके कारण नर्मदा की धारा सैकड़ों छोटी-छोटी धाराओं में बंट गई है। इसलिए इस स्थान का नाम ‘सहस्रधारा’ हो गया है। कहते हैं, यहां पर राजा सहस्रबाहु ने अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा के प्रवाह को रोकने का प्रयत्न किया था। सहस्रधारा का दृश्य बहुत सुन्दर है।

मण्डला के बाद दूसरा सुन्दर स्थान है भेड़ा-घाट ।

माहिष्मति का अहिलेश्वर मंदिर

यह जबलपुर से 19 कि.मी. पर है। वहां तक पक्की सड़क है। जबलपुर से इटारसी जानेवाली रेलवे लाइन पर इसी नाम का रेलवे स्टेशन है। वहां से यह स्थान साढ़े चार कि.मी. पड़ता है। किसी जमाने में भृगु ऋषि ने यहां पर तप किया था। उत्तर की ओर से वामन गंगा नाम की एक छोटी नदी नर्मदा में मिलती है। इस संगम (भेड़ा) के कारण ही इस स्थान को ‘भेड़ा-घाट’ कहते हैं।

भेड़ा-घाट से थोड़ी दूर पर नर्मदा का एक प्रपात है। इसे ‘धुआंधार’ कहते हैं। यहां नर्मदा की धारा कोई 40 फुट ऊपर से बड़ी तेजी से नीचे गिरती है। जल के कण दूर से धुएं के समान दीखते हैं। इसी से इसे ‘धुआंधार’ कहते हैं।

धुआंधार के बाद साढ़े तीन कि.मी. तक नर्मदा का प्रवाह सफेद संगमरमर की चट्रानों के बीच से गुजरता है। दोनों ओर सौ-सौ फुट से भी अधिक ऊंची सफेद दीवारें खड़ी हैं और इठलाती हुई नर्मदा उनके बीच से होकर निकलती है। चांदनी रात में यह दृश्य बड़ा ही आकर्षक लगता है। एक जगह पर तो ये चट्रटाने इतनी पास आ जाती हैं कि बन्दर बड़ी आसानी से इधर से उधर कूद सकते हैं। इसलिए इस जगह को ‘बन्दर-कूदनी’ कहते हैं। हमारे देश के बहुत ही सुन्दर स्थानों में से यह एक है।

भेड़ा-घाट में एक छोटी सी पहाड़ी पर गौरीशंकर मंदिर है। इसे ‘चौसठ योगिनियों का मंदिर’ भी कहते हैं। इस पहाड़ी के दोनों ओर नर्मदा बहती है। त्रिपुरी के महाराज कर्ण देव की महारानी अल्हणा देवी ने सन 1955-56 में यहीं मंदिर बनवाया था। अब उसकी हालत अच्छी नहीं है। योगिनियों की मूर्तियां भी खंडित हैं।

भेड़ा-घाट के बाद दूसरे सुन्दर स्थान हैं- ब्रहाण घाट, रामघाट, सूर्यकुंड और होशंगाबाद। ब्राहाण-घाट से थोड़ी दूर पर नर्मदा की दो धारांए हो गई हैं। वहां बीच में एक छोटा सा द्वीप बन गया है, जिसकी शोभा देखती ही बनती है। कुछ आगे जाकर धारा एक छोटी सी पहाड़ी पर से गिरती है और वहां कई धाराओं में बंट जाती है। इसी कारण इस स्थान को ‘सप्त धारा’ कहते हैं। इन धाराओं के नीचे बहुत बड़े-बड़े और गहरे कुंड बन गये हैं। इनके नाम भीम, अर्जुन और ब्रहादेव आदि के नाम पर पड़ गये हैं। कहते हैं, ब्रहादेव ने यहां यज्ञ किया था।

यहां से कुछ दूरी पर नर्मदा के दक्षीण तट पर रानी दुर्गावती का बनवाया हुआ विशाल घाट और एक शिव मंदिर है। इसी के पास अपने दोनों दांतों पर पृथ्वी को धारण किये वराह भगवान की एक मूर्ति है। सांडिया में शांडिल्य ऋषि ने अपनी पत्नी सहित वर्षो तक तप किया था। कई बड़े-बड़े यज्ञ किये थे। सांडिया से साढ़े आठ कि.मी. आगे नर्मदा के दक्षीणी तट पर माछा ग्राम के पास कुब्जा नदी का संगम है।

इसे ‘रामघाट’ कहते हैं। अयोध्या के राजा रंतिदेव ने प्राचीन काल में यहां पर महान बिल्व-यज्ञ किया था। इस यज्ञ से एक विशाल ज्योति प्रकट हुई थी। तब से इसका नाम ‘बिल्वाम्रक तीर्थ’ हो गया।

कुछ दूरी पर सूर्य कुंड तीर्थ है। कहा जाता है कि यहां भगवान सूर्य नारायण ने अंधकासुर को मारा था।

बांदरा भान में तबा नाम की नदी नर्मदा में मिलती है। यहां पर प्रयाग के त्रिवेणी संगम की याद आ जाती है। कहा जाता है, जहां राजा वैश वानर ने तप किया था। बांदरा भान ने नौ कि.मी. पर दक्षीण तट पर होशंगाबाद नगर है। कहते हैं, मालवा के सुलतान होशंगशाह ने इसे बसाया था। यहां पहले जो गांव था, उसका नाम ‘नर्मदापुर’ था। यहां पर सुन्दर पक्के घाट बने हैं। पास में एक धर्मशाला और नर्मदा का मंदिर है।

इसके बाद मेल घाट सांडिया और नेमावर के पास पहुंच जाते हैं। मेल घाट जामनेर नदी के संगम पर है। यहां आत्माराम बाबा नामक एक संत पुरुष की समाधि है। उनकी पुण्यतिथि पर यहां हर साल मेला लगता है।

नेमावर में सिद्धेश्वर महादेव का एक सुन्दर प्राचीन मन्दिर है। कला का यह एक देखने योग्य नमूना है। नेमावर नर्मदा की यात्रा का बीच का पड़ाव है। इसलिए इसे ‘नाभि स्थान’ भी कहते हैं। यहां से भड़ोंच और अमरकण्टक समान दूरी पर है।

नेमावर और ॐकारेश्वर के बीच धायड़ी कुण्ड नर्मदा का सबसे बड़ा जल-प्रपात है। 50 फुट की ऊंचाई से यहां नर्मदा का जल एक कुण्ड में गिरता है। जल के साथ-साथ इस कुण्ड में छोटे-बड़े पत्थर भी गिरते रहते हैं। वे घुट-घुटकर सुन्दर, चिकने, चमकीले शिवलिंग बन जाते हैं। सारे देश में शंकर के जितने भी मन्दिर बनते हैं, उनके लिए शिवलिंग अक्सर यहीं से जाते हैं। मध्य रेलवे के बीच स्टेशन से यह स्थान कोई 20 मील है। यहीं पुनासा की जल विद्युत-योजना का बांध तबा नदी पर बना है।

अब हम नर्मदा के तट पर बसे ऊंकारेश्वर नामक स्थान पर आ पहुंचे, जो प्राकृतिक सौंदर्य, इतिहास और साधना की दृष्टि से रेवा-तीर पर सबसे महान और पवित्र माना जाता है। यह पश्चिम रेलवे की छोटी लाइन पर इन्दौर और खंडवा के बीच ऊंकारेश्वर-रोड नामक रेलवे स्टेशन से 11 कि.मी. पर है। पक्की डामर की सड़क है। इन्दौर, खण्डवा, ऊंकारेश्वर-रोड और सनावद से रोज मोटरें जाती हैं।

ऊंकारेश्वर एक प्राचीन तीर्थ है। यहां नर्मदा के बीच में एक टापू है, या यों कहिये कि एक विशाल ऊंची पहाड़ी है, जिसके दोनों ओर से नर्मदा की धाराएं बहती हैं। टेकड़ी के दक्षीणी ढाल पर ऊंकारेश्वर का मन्दिर है। दक्षीणवाली धारा के दोनों ओर बगस्ती है। दक्षीण वाली बस्ती का नाम है। ‘विष्णुपुरी’ और उत्तरवाली बस्ती का नाम है ‘शव-पुरी’। यह द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक है। दक्षीण तट पर अमरेश्वर का सुन्दर मन्दिर है। मन्दिर अति प्राचीन है। नीचे एक धारा दक्षीण से आकर नर्मदा में एक गोमुख से होकर गिरती है। इसे ‘कपिल धारा संगम’ कहते हैं। कपिल-धारा के पूर्व में भी कुछ बस्ती है। उसका नाम ब्रहापुरी है।

विष्णुपुरी के पश्चिम में कुछ दूरी पर मार्कण्डेयशिला नाम की चट्रटान है। श्रद्धालु यात्री इस पर आकर लेटते हैं। उनका विचार है कि ऐसा करने से यमपुर की यातनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इसी के समीप पहाड़ी पर मार्कण्डेय ऋषि का मन्दिर है और पास में श्री मामानंद चैतन्य का आश्रम है। विष्णुपुरी से शिवपुरी तक नाव से जाते हैं। शिवपुरी में एक पक्के घाट के पास जाकर नाव लगती है। इसे ‘कोटि-तीर्थ’ अथवा ‘चक्र-तीर्थ’ कहते हैं। इस घाट ऊपर ही पहाड़ी की ढाल पर ऊंकारेश्वर का मन्दिर है। टापू को ‘मान्धाता’ कहते हैं। कहा जाता है कि ईक्ष्वाकु वंश के प्रतापी महाराज मांधाता ने यहां भगवान शंकर की आराधना की थी। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान ने यह स्वीकार किया था कि वह भक्तों के कल्याण के लिए सदा यहां निवास करेंगे। ऊंकारेश्वर की स्थापना तभी से हुई है। एक और भी चमत्कार भरी बात है। इस पहाड़ी का आकार ॐ जैसा है।

पहाड़ी बड़ी रमणीक है। इस पर कई मन्दिर और पवित्र स्थान है। पहाड़ी के ऊपर विशाल मैदान है, जहां से आसपास दूर-दूर तक का प्रदेश बड़ा ही मनोरम दिखाई देता है। जान पड़ता है कि यहां पहले अच्छी बस्ती थी, जिसके चारों ओर दीवार थी। दीवार के कुछ खंडहर और दरवाजे के कुछ खंडहर और दरवाजे अभी तक बचे हुए हैं। अन्दर वाले दरवाजे के पास अष्टभुजा देवी का तथा दूसरे स्थानों पर बहुत ही विशाल सुन्दर मूर्तियां अब भी खड़ी हैं। मैदान के पूर्ववाले भाग में एक बड़ा मन्दिर था, जिसके खंडहरों के रुप में कुछ खम्भे, ओटला, गर्भगृह और छत के कुछ हिस्से ही अब बचे हैं। मन्दिर की छत लगभग पन्द्रह फुट ऊंची होगी और ओटला दस फुट। ओटले के चारों तरफ पांच-पांच फुट ऊंचे सुडौल हाथियों की कतार खुदी हुई है। इनको देखकर कल्पना हो सकती है कि मन्दिर और यह सारी बस्ती जब कभी अपने पूर्ण वैभव में रहे होंगे, कितने वैभवशाली होंगे। इस मन्दिर से कुछ दूरी पर दूसरी धारा के, जिसका नाम कावेरी है, उत्तर तट पर प्रसिद्ध जैनतीर्थ सिद्धवर कूट है। ॐकारेश्वर और अमरेश्वर का यह पुण्य धाम जाने कितने योगियों और ऋषियों का सिद्ध क्षेत्र रहा है। इस टापू में और आसपास कहीं भी चले जाइये, किसी न किसी महापुरुष या ऋषि का नाम उसके साथ जुड़ा हुआ मिलेगा। शंकराचार्य, उनके गुरु गोविन्द पादाचार्य और उनके भी गुरु गौड पादाचार्य यही रहे थे। उनके बाद भी आज तक यह सिद्धों और तपस्वियों का आश्रम स्थान रहा है।

ॐकारेश्वर में वर्ष में दो बार बड़े मेले लगते हैं कीर्तिकी पूर्णिमा पर और महाशिवरात्रि पर। कार्तिकी पूर्णिमा का मेला खास बड़ा होता है।

ॐकारेश्वर के आसपास दोनों तीरों पर बड़ा घना वन है, जिसे ‘सीता का वन’ कहते हैं। लोगों का कहना है कि वाल्मीकि ऋषि का आश्रम यहीं कहीं था।

ॐकारेश्वर से महेश्वर कोई 64 कि.मी. है। इसके बीच दो-तीन स्थान उल्लेखनीय हैं। सबसे पहले रावेट आता है। यहां नर्मदा का पाट इतना उथला है कि आदमी पैरों चलकर उसे पार कर सकता है। किसी जमाने में फौंजें यहीं से नर्मदा को पार करती थी। पेशवाओं की सेनाएं इधर से ही गुजरती थीं। परम प्रतापी पेशवा बाजीराव का उत्तर की यात्रा करते हुए यहीं देहांत हुआ था। रावेट में उनकी समाधि है।

इसके पड़ोस में ससाबरड नामक एक स्थान में रेणुका माता का मन्दिर है। कहते हैं, परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि ऋषि की आज्ञा से अपनी माता का सिर यहीं काटा था और फिर पिता से वरदान लेकर उन्हें जिला भी दिया था।

इसके बाद महेश्वर से पहले नर्मदा के उत्तर तट पर एक कस्बा है मंडलेश्वर।

अनेक विद्धानों का मत है कि मंडन मिश्र का असली स्थान यही है और महेश्वर प्राचीन माहिष्मती है। मण्डलेश्वर से महेश्वर लगभग ८ कि.मी. है। संभव है, माहिष्मती का फैलाव पुराने जमाने में यहां तक रहा हो। भगवान शंकराचार्य अपनी दिग्विजय-यात्रा में जिस रास्ते से आये, उसका वर्णन‘शांकर-दिग्विजय’ में है। यह वर्णन महेश्वर और मण्डलेश्वर की स्थिति से और आसपास के प्रदेश से मिलता है। मण्डलेश्वर में एक पुराना मन्दिर है, जिसमें मण्डन मिश्र, भारती और शंकराचार्य की मूर्तियां हैं, परन्तु इनके नाम दूसरे हैं। भारती का नाम ‘सरस्वती’ है और जिसे शंकराचार्य की मूर्ति बताया जाता है, उसे वहां ‘कार्तिकेय स्वामी’ कहा जाता है परन्तु ये दोनों कार्तिकेय स्वामी और सरस्वती शंकर के मन्दिर में कहीं नहीं देखे गये। इससे साफ है कि वास्तव में यह मण्डन मिश्र का ही स्थान है। मन्दिर का वर्णन भी ‘शांकर-दिग्विजय’ के वर्णन से मिलता जुलता है।

इन्दुमती के स्वयंवर के लिए आये हुए अनेक राजाओं में अनूप देश के राजा, माहिष्मती के अधिपति का उल्लेख कालिदास ने ‘रघुवंश’ में किया है। उसमें इन्दुमती की सखी सुनन्दा कहती है, अपने महल की खिड़की में बैठकर रेवा को देखने का आनंद उठाना हो “प्रासाद जालैजैलवेणु रम्याम रेवां मदिप्रेक्षुतु मस्तिकाम:” तो अनूप देश के इस सकल गुणों से विभूषित अनूप देशस्य गुणैरनूनम नरेश को वर लो। महेश्वर से यह वर्णन पूरी तरह मिलता है।

आधुनिक इतिहास में भी महेश्वर का अपना स्थान है। महारानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम सारे देश में विख्यात है। महेश्वर इनकी राजधानी थी। उनके समय से लेकर अबतक यह वस्त्र-कला का एक सुन्दर केन्द्र रहा है। महेश्वर में किला, मन्दिर, अहिल्याबाई का महल, उनकी छत्री और घाट देखने योग्य हैं। घाटों को देखकर तो काशी की याद आ जाती है। सन 1948 में महात्मा गांधी की अस्थियां यहां नर्मदा में विसर्जित की गई थीं।

महेश्वर के सामने नर्मदा के उस पार एक छोटा सा गांव है, जिसका नाम नावड़ाटवड़ी है। ‘वायु पुराण’ में इसे स्वर्ग-द्वीप तीर्थ कहा गया है। यहां शलिवाहन का मन्दिर है। दक्षिण के शालिवाहन या सातवाहन राजाओं ने मिट्रटी में से सिपाही पैदा करके यवनों को नर्मदा पार खदेड़ दिया था। इसलिए नर्मदा के दक्षीण में शालिवाहनशक माना जाता है। अब तो भारत सरकार ने इसे सारे देश के लिए जारी कर दिया है। उसमें तिथि गणना का क्रम कुछ बदल दिया गया है।

महेश्वर से पश्चिम में सहस्रधारा जल-प्रपात है। यहां नर्मदा के बीच में चट्रटानें आ गई हैं, जिनके बीच से गुजरते हुए वहां सैकड़ों छोटी बड़ी धाराएं बन गई हैं। इसका कलकल निनाद दूर-दूर तक सुनाई देता है। इन चट्रटानों के कारण महेश्वर के पास एक कुंड सा बन गया है, जहां अथाह जल भरा रहता है।

महेश्वर से कोई 19 कि.मी. पर खलघाट है। बम्बई-आगरा सड़क यहीं से नर्मदा को एक पुल पर से होकर पार करती है। कहते हैं, प्राचीन काल में ब्राहाजी ने यहां तप किया था। इस स्थान को ‘कपिला तीर्थ’ भी कहते हैं।

कपिला तीर्थ से 12 कि.मी. पश्चिम में धर्मपुरी है। “स्कंद-पुराण” और ‘वायु पुराण’ में इसे महर्षि दधीचि का आश्रम बताया गया है। वृत्रासुर के वध के लिए इन्द्र ने उनसे हडडियों की मांग की थी और महर्षि ने प्रसन्नता के साथ दे दी थीं। उनसे वज्र बनाकर इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था।

धर्मपुरी के पास नर्मदा में एक छोटा सा टापू बन गया है, जहां शंकर का एक सुन्दर मन्दिर है। यहीं नागेश्वर नामक एक स्थान है, जहां पर मालवा के सुलतान बाजबहादुर की प्रेयसी भानुमती के गुरु रहते थे। भानुमती नर्मदा की बड़ी भक्त थी और संगीत में बहुत ही निपुण भी। नर्मदा के तीर पर वह जहां-तहां बैठ जाती और मधुर कण्ठ से गीत गाती भानुमती बहुत ही रुपवती थी। एक बार सुलतान के कानों में उसके संगीत की ध्वनि पड़ गई। वह उस पर गुग्ध हो गया और उसकी तलाश में निकल पड़ा। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते अन्त में उसे पता लग गया। उसने भानुमती से याचना की। मालवा-निमाड़ में भानुमती और बाजबहादुर के प्रेम की कहानियां अब तक सुनी जा सकती हैं। अंत में भानुमती ने बाजबहादुर के प्रेम को स्वीकार कर लिया, परन्तु एक शर्त के साथ। वह नर्मदा को छोड़कर कहीं नहीं जायगी, नर्मदा का ही जल पीयेगी और रोज नर्मदा का दर्शन करेगी। कहते हैं, किसी महात्मा के प्रताप से माण्डव में नर्मदा एकाएक प्रकट हो गई। वहां एक कुण्ड बनवा दिया गया, जिसे रेवा-कुण्ड कहते हैं, और उसी के पास भानुमती का महल भी बनवा दिया गया, जहां से प्रतिदिन वह नर्मदा की धारा का दर्शन किया करती थी। नर्मदा की परिक्रमा करनेवाले धर्मपुरी से रेवा-कुण्ड तक जाते हैं और फिर लौटकर प्रवाह के साथ हो जाते हैं।

माण्डव के किले में अनेक दर्शनीय स्थान हैं। पुराने जमाने में इसे मण्डप दुर्ग कहते थे। यह बड़ा नगर था। कहते हैं, कोई सात सौ तो जैन मन्दिर ही थे। विद्या का केन्द्र था। मुसलमान सुलतानों के काल में भी उसकी बड़ी शान थी। भगवान रामचन्द्र का एक प्राचीन मन्दिर है, जिसमें श्रीराम की मूर्ति बहुत सुन्दर है।

धर्मपुरी के बाद कुश ऋषि की तपोभूति शुक्लेश्वर, देवों की माता अदिति की तपस्या द्वारा पुन्नत ऋद्धेश्वर और सूर्य-वंश के राजा ब्रहादत्ता की यज्ञ-भूमि ऊकलवाडा होते हुए हम चिरवलदा पहुंचते हैं। यहां महर्षियों (विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्री वसिष्ठ, कश्यप) ने तप किया था। आज के युग में भी यतिवर वासुदेवानन्द सरस्वती की तपश्चर्या का यह साक्षी रहा है। सामने दक्षीण तट पर राजघाट है, जहां सन 1948 में महात्मा गांधी की अस्थियां विसजिर्तत की गई थीं। यहां पर फरवरी में हर साल सर्वोदय-मेला लगता है। यहां से 5 कि.मी. पर दक्षीण में बड़वानी नामक एक सुन्दर कस्बा है, जो स्वराज्य के पहले इसी नाम के एक छोटे से राज्य की राजधानी थी।

बड़वानी के पास सतपुड़ा की पहाड़ियों में एक जैन तीर्थ है, जिसे ‘वावन गजाजी’ कहते हैं। एक पहाड़ी की बगल में संपूर्ण चट्रटान में खुदी यह एक विशाल खड़ी मूर्ति कोई 84 फुट ऊंची है। इसी पहाड़ी के ऊपर एक मन्दिर भी है, जिसकी जैनियों और हिंदुओं में समान रुप से मान्यता है। हिन्दू लोग इसे ‘दत्तात्रेय की पादुका’ कहते हैं। जैन इसे ‘मेघनाद और कुंभकर्ण की तपोभूमि’ मानते हैं। इधर के शिखरों में यह सतपुड़ा का शायद सबसे ऊंचा शिखर है और जब आसमान साफ होता है तो माण्डव यहां से दिखाई देता है।

सतपुड़ा का यह भाग गोवर्धन क्षेत्र भी माना जाता है। यह निमाड़ी गोवंश का घर है। यहां के गाय और बैल खेती के काम के विचार से बहुत अच्छे माने जाते हैं। बड़े बलिष्ठ और पानीदार। यों तो होशंगाबाद से लेकर हिरनफाल तक निमाड़ में अच्छे बैल होते हैं, परन्तु यह भाग विशेष रुप से प्रसिद्ध है। गायों की वह नस्ल दूध देने में इतनी अच्छी नहीं है।

बीजारान में विंध्यवासिनी देवी ने, धर्मराज तीर्थ में धर्मराज ने और हिरनफाल में हिरण्याक्ष ने तप किया था। यहां पर नर्मदा का पाट बहुत ही संकरा है।

कुछ किलोमीटर पश्चिम में बढ़ने पर हापेश्वर की शोभा देखते बनती है। पहाड़ी पर शंकर का एक भव्य और सुन्दर मन्दिर है, जहां से आसपास का दृश्य बड़ा ही मनोहारी लगता है। यहां पर वरुण ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। इस सारे प्रदेश में बड़े-बड़े और दुर्गम वन हैं।

हापेश्वर के बाद उल्लेखनीय तीर्थ है- शूलपाणी। सिंदुरी संगम से घने जंगली और पहाड़ों के बीच से होकर दस-बारह मील चलने पर नर्मदा के दक्षीण तट पर शूलपाणी तीर्थ मिलता है। यहां शूलपाणी का बहुत प्राचीन मन्दिर है। कमलेश्वर, राजराजेश्वर आदि और भी कई मन्दिर हैं। यहीं पास में ब्रहादेव द्वारा स्थापित ब्रहोश्वर लिंग भी बताया जाता है। इसके दक्षीण में शेषशायी भगवान का मन्दिर है। दीर्घपता ऋषि का कुलसहित यहीं उद्धार हुआ बताते हैं। काशिराज चित्रसेन को भी यहीं सिद्धि मिली थी।

गरुड़ेश्वर में भगवान दत्तात्रेय के मन्दिर और यतिवर वासुदेवानंद सरस्वती की समाधि है।

शुक्रतीर्थ, अकतेश्व, कर्नाली, चांदोद, शुकेश्वर, व्यासतीर्थ होते हुए हम अनसूयामाई पहुंचते हैं, जहां अत्री –ऋषि की आज्ञा से देवी श्री अनसूयाजी ने पुत्र प्राप्ति के लिए तप किया था और उससे प्रसन्न होकर ब्रहा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं ने यहीं दत्तात्रेय के रुप में उनका पुत्र होना स्वीकार कर जन्म ग्रहण किया था। कंजेठा में शकुन्तला-पुत्र महाराज भरत ने अनेक यज्ञ किये। सीनोर में ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से अनेक पवित्र स्थान हैं।

सीनोर के बाद भड़ोंच तक कई छोटे-बड़े गांव, तीर्थ और तपश्चर्या के स्थान हैं। अंगारेश्वर में मंगल ने तप करके अंगारेश्वर की स्थापना की थी। निकोरा में पृथ्वी का उद्धार करने के बाद वराह भगवान ने इस तीर्थ की स्थापना की। लाडवां में कुसुमेश्वर तीर्थ है। मंगलेश्वर में कश्यप कुल में पैदा हुए भार्गव ऋषि ने तप किया था। शुक्रतीर्थ में नर्मदा के बीच टापू में एक विशाल बरगद का पेड़ है। शायद यह संसार में सबसे बड़ा वट-वृक्ष है। यहां महात्मा कबीर ने कुछ समय तक निवास किया था। इसलिए इसे ‘कबीर-वट’ कहते हैं। इसके नीचे हजारों आदमी विश्राम कर सकते हैं।

इसके बाद कुछ मील चलकर हम भड़ोंच पहुंचते हैं, जहां नर्मदा समुद्र में मिल जाती है। पश्चिम रेलवे का यह एक प्रमुख स्टेशन है। नगर की लम्बाई कोई ५ कि.मी. और चौड़ाई डेढ़ कि.मी. है। यहां पहले एक किला भी था, जिसे सिद्धराज जयसिंह ने बनवाया था। अब तो उसके खण्डहर हैं। भड़ोंच को ‘भृगु-कच्छ’ अथवा ‘भृगु-तीर्थ’ भी कहते हैं। यहां भृगु ऋषि का निवास था। यहीं राजा बलि ने दस अश्वमेध-यज्ञ किये थे। सोमनाथ का मन्दिर भी इसी स्थान पर है। भड़ोंच नगर की पंचकोशी में कोई पचास से ऊपर पवित्र स्थान बताये जाते हैं।

भड़ोंच के सामने के तीर पर समुद्र के निकट विमलेश्वर नामक स्थान है। परिक्रमा करनेवाले यहां से नाव में बैठकर समुद्र द्वारा नर्मदा के उत्तर तट पर लोहारिया गांव के पास उतरते हैं। यह फासला १९ कि.मी. का है।

भारत की नदियों में नर्मदा का अपना महत्व है। न जाने जितनी भूमि को उसने हरा-भरा बनाया है, और उसके किनारे पर बने तीर्थ न जाने कब से अनगिनत नर-नारियों को प्ररेणा देते रहे हैं, आगे भी देते रहेंगे।

त्वमेका लोकानां परमपददानार्द्रंहृदया।

पुरारातेर्जाता सुकृतभरपूरात्तकरूणा।।

त्रिपुरारी शंकर के देह से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा अनंत गुणों से भरपूर है।झ्सलिये नर्मदा ऐसी सरिता है ,जो करुण , आर्द्र होकर भक्तों को परम पद प्रदान करती है।

प्रयागे यद्भवेत्पुण्यं गयायां च त्रिपुष्करे ।

कुरुक्षेत्रे तु राजेन्द्रं राहुग्रस्ते दिवाकरे।।

सोमेश्वरे च यत्पुण्यं सोमस्य ग्रहणे तथा।

तत्फलं लभते यत्र स्नानमात्रान्न संशयः।।

गया प्रयाग की यात्रा , सूर्य ग्रहण काल में त्रिपुष्कर और कुरुक्षेत्र का स्नान, चंद्रग्रहण काल में सोमनाथ के दर्शन , झ्न सभी का सम्मिलित फल मात्र नर्मदा स्नान से निस्संशय मिलता है।

🌸💦मात् श्री नर्मदे हर💦🌸

नर्मदा किसकी पत्नी थी?

राजा मैखल ने जब राजकुमारी नर्मदा और राजकुमार सोनभद्र का विवाह तय किया तो राजकुमारी की इच्‍छा हुई कि वह एक बार तो उन्‍हें देख लें। इसके लिए उन्‍होंने अपनी सखी जुहिला को राजकुमार के पास अपने संदेश के साथ भेजा।

नर्मदा के पति का क्या नाम है?

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, जब नर्मदा जी बड़ी हुईं तो उनके पिता मैखलराज ने उनका विवाह राजकुमार सोनभद्र से तय कर दिया। एक बाद उनको राजकुमार से मिलने की इच्छा हुई तो उन्होंने एक दासी को उनसे मिलने के लिए भेजा। वह दासी राजसी आभूषणों से अलंकृत थी, जिसे राजकुमार सोनभद्र नर्मदा समझ लिए। दोनों का विवाह हो गया।

नर्मदा पिछले जन्म में कौन थी?

महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया। इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में 10,000 दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से निम्न ऐसे वरदान प्राप्त किए, जो कि अन्य किसी नदी और तीर्थ के पास नहीं है।

नर्मदा नदी उल्टी क्यों होती है?

नर्मदा नदी का उल्टा बहने का भौगोलिक कारण रिफ्ट वैली (Rift Valley) है। दरअसल, रिफ्ट वैली की ढाल विपरीत दिशा में हैं। इस कारण ये नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। नर्मदा नदी की 41 सहायक नदियां है, जिसमें से 22 नदियां बाएं किनारे और 19 नदियां दाएं किनारे पर मिलती हैं।