नाटक के मुख्य तत्व क्या है? - naatak ke mukhy tatv kya hai?

नाटक के तत्त्व

भारतीय काव्य शास्त्र के अनुसार दृश्य-श्रव्य काव्य के छह मुख्य तत्त्व माने गए हैं-1. वस्तु अथवा कथावस्तु 2. चरित्र चित्रण 3.कथोपकथन-संवाद 4.देशकाल 5. भाषा शैली 6. उद्देश्य।

(1) वस्तु अथवा कथावस्तु - विभिन्न साहित्यिक विधाओं की तरह नाटक की कथावस्तु भी बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। नाट्य-शास्त्र में वही कथानक उत्तम माना गया हैं, जिसमें सर्वभाव, सर्वरस तथा सर्वकर्मों की प्रवृत्तियाँ तथा विभिन्न अवस्थाओं का विधान हो। नाटक की कथावस्तु में औदात्य (Greatness) एवं औचित्य (Justification) का पूरा-पूरा ध्यान रखना पड़ता है। जो अंश इसके विरुद्ध जा रहे हों, उन्हें त्याग देना चाहिए।

(2) चरित्र चित्रण -नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व पात्र है। इनके सहारे ही कथानक आगे बढ़ता है। नाटक की सफलता उसके सजीव एवं स्वाभाविक पात्र के नियोजन पर निर्भर करती है। अत:, नाटककार को चरित्र-चित्रण में बड़ी सावधानी से काम लेना पड़ता है। नाटक का नायक प्रधान पुरुष होता है जो फल की प्राप्ति करता है। उसे मधुर, विनयी, त्यागी, मिष्टभाषी, लोकप्रिय, उच्चवंशी, युवा, उत्साही, दृढ़, तेजस्वी, कलाप्रिय, शास्त्रज्ञ और धार्मिक होना चाहिए । नाटक की प्रधान नारी पात्र नायिका कहलाती है। नायिका के गुण नायक के समान ही होने चाहिए।

(3) कथोपकथन-संवाद -कथोपकथन नाटक का प्राणतत्त्व है। कथोपकथन के अभाव में नाटक की कल्पना तक नहीं हो सकती। वे पात्रानुरुप तथा प्रसंग-परिस्थिति के अनुकूल होने चाहिए। संवाद जितने सार्थक, संक्षिप्त और समर्थ होते हैं, नाटक उतना ही सफल माना जाता है।संवादों की भाषा सरल, सुबोध तथा प्रवाहमयी होनी चाहिए।

(4) देशकाल -नाटक में देशकाल का निर्वाह भी होना चाहिए। इस तत्त्व का निर्वाह अभिनय, दृश्य-विधान, पात्रों की वेशभूषा, आचार-विचार, संस्कृति, रीति रिवाज आदि के द्वारा होता हैं। देशकाल के प्रयोग से नाटक जीवन्त हो उठते है। सफल नाटककार दृश्यविधान, मंच व्यवस्था, वेशभूषा और अभिनय आदि के द्वारा सजीव वातावरण की सृष्टि कर लेता है।

(5) भाषा शैली- नाटक चूँकि एक दृश्य विधा है, इसलिए दर्शक संवादों के द्वारा ही कथा को ग्रहण करता है। अत: नाटक की भाषा सरल, स्पष्ट और सजीव हानी चाहिए। भिन्न-भिन्न  पात्रों की श्रेणी, योग्यता तथा परिस्थिति के अनुसार भाषा का रूप होना चाहिए। पात्रानुकूल भाषा नाटक में सौन्दर्य वृद्धि करती है। उसे प्रसाद, ओज और माधुर्य गुण समन्वित होना चाहिए। साथ ही उसे कलात्मक एवं प्रभावशाली भी होना चाहिए। नाटक में अति अलंकृत भाषा अधिक रुचिकर नहीं होती।

(6) उद्देश्य -नाटककार किसी न किसी उद्देश्य को लेकर चलता है। वैसे भारतीय शास्त्र में पुरुषार्थ चतुष्टय (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) को नाटक का मुख्य उद्देश्य माना जाता है। अन्य एक नाट्य उद्देश्य रस-अनुभूति कराना भी है। सरल भाषा में नाटक का उद्देश्य ज्ञानाधारित मनोरंजन करवाना है।


आज हम नाटक के तत्व पढ़ेंगे और हर एक तत्वों को उदाहरण सहित विस्तार में समझेंगे।

‘ नाटक ‘ अथवा ‘ दृश्य काव्य ‘ साहित्य की अत्यंत प्राचीन विधा है। संस्कृत साहित्य में इसे ‘ रूपक ‘ नाम भी दिया गया है।

नाटक का अर्थ है ‘ नट ‘ |

कार्य अनवीकरण में कुशल व्यक्ति संबंध रखने के कारण ही विधा में नाटक कहलाते हैं।

वस्तुतः नाटक , साहित्य की वह विधा है , जिसकी सफलता का परीक्षण रंगमंच पर होता है। किंतु रंगमंच युग विशेष की जनरुचि और तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर होता है इसलिए समय के साथ नाटक के स्वरुप में भी परिवर्तन होता है।

अब हम नाटक के तत्वों को विस्तार से समझेंगे। और प्रत्येक भाग को उदाहरण सहित समझेंगे।

1. कथावस्तु –

कथावस्तु को ‘नाटक’ ही कहा जाता है अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ की संज्ञा दी जाती है जिसका अर्थ आधार या भूमि है। कथा तो सभी प्रबंध का प्रबंधात्मक रचनाओं की रीढ़ होती है और नाटक भी क्योंकि प्रबंधात्मक रचना है इसलिए कथानक इसका अनिवार्य है।

भारतीय आचार्यों ने नाटक में तीन प्रकार की कथाओं का निर्धारण किया है –
१ प्रख्यात
२ उत्पाद्य
३ मिस्र प्रख्यात कथा।

प्रख्यात कथा –

प्रख्यात कथा इतिहास , पुराण से प्राप्त होती है। जब उत्पाद्य कथा कल्पना पराश्रित होती है , मिश्र कथा कहलाती है।

इतिहास और कथा दोनों का योग रहता है।

इन कथा आधारों के बाद नाटक कथा को मुख्य तथा गौण अथवा प्रासंगिक भेदों में बांटा जाता है , इनमें से प्रासंगिक के भी आगे पताका और प्रकरी है । पताका प्रासंगिक कथावस्तु मुख्य कथा के साथ अंत तक चलती है जब प्रकरी बीच में ही समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त नाटक की कथा के विकास हेतु कार्य व्यापार की पांच अवस्थाएं प्रारंभ प्रयत्न , परपर्याशा नियताप्ति और कलागम होती है।

इसके अतिरिक्त नाटक में पांच संधियों का प्रयोग भी किया जाता है।

वास्तव में नाटक को अपनी कथावस्तु की योजना में पात्रों और घटनाओं में इस रुप में संगति बैठानी होती है कि पात्र कार्य व्यापार को अच्छे ढंग से अभिव्यक्त कर सके। नाटककार को ऐसे प्रसंग कथा में नहीं रखनी चाहिए जो मंच के संयोग ना हो यदि कुछ प्रसंग बहुत आवश्यक है तो नाटककार को उसकी सूचना कथा में दे देनी चाहिए।

2. पात्र एवं चरित्र चित्रण –

नाटक में नाटक का अपने विचारों , भावों आदि का प्रतिपादन पात्रों के माध्यम से ही करना होता है। अतः नाटक में पात्रों का विशेष स्थान होता है। प्रमुख पात्र अथवा नायक कला का अधिकारी होता है तथा समाज को उचित दशा तक ले जाने वाला होता है। भारतीय परंपरा के अनुसार वह विनयी , सुंदर , शालीनवान , त्यागी , उच्च कुलीन होना चाहिए। किंतु आज नाटकों में किसान , मजदूर आदि कोई भी पात्र हो सकता है। पात्रों के संदर्भ में नाटककार को केवल उन्हीं पात्रों की सृष्टि करनी चाहिए जो घटनाओं को गतिशील बनाने में तथा नाटक के चरित्र पर प्रकाश डालने में सहायक होते हैं।

3. संवाद –

  • नाटक में नाटकार के पास अपनी और से कहने का अवकाश नहीं रहता।
  • वह संवादों द्वारा ही वस्तु का उद्घाटन तथा पात्रों के चरित्र का विकास करता है।
  • अतः इसके संवाद सरल , सुबोध , स्वभाविक तथा पात्रअनुकूल होने चाहिए।
  • गंभीर दार्शनिक विषयों से इसकी अनुभूति में बाधा होती है।
  • इसलिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

नीर सत्ता के निरावरण तथा पात्रों की मनोभावों की मनोकामना के लिए कभी-कभी स्वागत कथन तथा गीतों की योजना भी आवश्यक समझी गई है।

4. देशकाल वातावरण –

देशकाल वातावरण के चित्रण में नाटककार को युग अनुरूप के प्रति विशेष सतर्क रहना आवश्यक होता है। पश्चिमी नाटक में देशकाल के अंतर्गत संकलनअत्र समय स्थान और कार्य की कुशलता का वर्णन किया जाता है। वस्तुतः यह तीनों तत्व ‘ यूनानी रंगमंच ‘ के अनुकूल थे। जहां रात भर चलने वाले लंबे नाटक होते थे और दृश्य परिवर्तन की योजना नहीं होती थी।

परंतु आज रंगमंच के विकास के कारण संकलन का महत्व समाप्त हो गया है।

भारतीय नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख ना होते हुए भी नाटक में स्वाभाविकता , औचित्य तथा सजीवता की प्रतिष्ठा के लिए देशकाल वातावरण का उचित ध्यान रखा जाता है। इसके अंतर्गत पात्रों की वेशभूषा तत्कालिक धार्मिक , राजनीतिक , सामाजिक परिस्थितियों में युग का विशेष स्थान है।

अतः नाटक के तत्वों में देशकाल वातावरण का अपना महत्व है।

5. भाषा शैली –

नाटक सर्वसाधारण की वस्तु है अतः उसकी भाषा शैली सरल , स्पष्ट और सुबोध होनी चाहिए , जिससे नाटक में प्रभाविकता का समावेश हो सके तथा दर्शक को क्लिष्ट भाषा के कारण बौद्धिक श्रम ना करना पड़े अन्यथा रस की अनुभूति में बाधा पहुंचेगी।

अतः नाटक की भाषा सरल व स्पष्ट रूप में प्रवाहित होनी चाहिए।

नाटक के तत्व को वीडियो फॉर्मेट में भी आप समझ सकते हैं। अगर आप संपूर्ण जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो नीचे दी गई वीडियो को प्ले करके देखें।

6. उद्देश्य –

सामाजिक के हृदय में रक्त का संचार करना ही नाटक का उद्देश्य होता है। नाटक के अन्य तत्व इस उद्देश्य के साधन मात्र होते हैं। भारतीय दृष्टिकोण सदा आशावादी रहा है इसलिए संस्कृत के प्रायः सभी नाटक सुखांत रहे हैं। पश्चिम नाटककारों ने या साहित्यकारों ने साहित्य को जीवन की व्याख्या मानते हुए उसके प्रति यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया है उसके प्रभाव से हमारे यहां भी कई नाटक दुखांत में लिखे गए हैं , किंतु सत्य है कि उदास पात्रों के दुखांत अंत से मन खिन्न हो जाता है।

अतः दुखांत नाटको का प्रचार कम होना चाहिए।

7. अभिनेता

यह नाटक की प्रमुख विशेषता है।

नाटक को नाटक के तत्व प्रदान करने का श्रेय इसी को है।

यही नाट्यतत्व का वह गुण है जो दर्शक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

इस संबंध में नाटककार को नाटकों के रूप , आकार , दृश्यों की सजावट और उसके उचित संतुलन , परिधान , व्यवस्था , प्रकाश व्यवस्था आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए। दूसरे शब्दों में लेखक की दृष्टि रंगशाला के विधि – विधानों की ओर विशेष रुप से होनी चाहिए इसी में नाटक की सफलता निहित है।

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नाटक के मुख्य तत्व कौन से हैं?

संस्कृत आचार्यों ने नाटक के तत्त्व कुल 5 माने हैं-कथावस्तु, नेता, रस, अभिनय और वृत्ति। पाश्चात्य विद्वान छः मूलतत्त्व मानते हैं- कथावस्तु, पात्र, कथोपकथन, देश-काल, शैली और उद्देश्य। हिन्दी साहित्य के समालोचकों पर संस्कृत आचार्यों और ऑग्ल विद्वानों, दोनों का प्रभाव है।

नाटक के मुख्य तत्व कितने हैं?

पारम्परिक सन्दर्भ में, नाटक, काव्य का एक रूप है (दृश्यकाव्य)। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैंनाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है।