नमस्कार, यह पोस्ट लॉ स्टूडेंट्स के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। इस पोस्ट में राज्य का अर्थ, परिभाषा व राज्य के आवश्यक तत्वों के बारे में बताया गया है| अगर आपने इससे पहले विधिशास्त्र के बारे में नहीं पढ़ा है तब आप विधिशास्त्र केटेगरी से विधिशास्त्र के बारे मै
और अधिक पढ़ सकते है| विधि का राज्य से गहरा सम्बन्ध है और राज्य के बिना उसका अलग अस्तित्व भी नहीं है। सामान्य अर्थ में राज्य से आशय ऐसे राजनीतिक संगठन से है जो अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, बाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा तथा सामाजिक उन्नति के लिए अस्तित्व में आता है। विधिक दृष्टि से ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम मेक्यावेली (Machiavelli) ने किया था| प्राचीन यूनान में राज्य’ नाम
की कोई संस्था अस्तित्व में नहीं थी उस समय यूनानी विचारक राज्य के स्थान पर ‘पोलिटी’ शब्द का प्रयोग करते थे जिसका आशय ‘नगर या राज्य’ होता था| प्राचीन रोम में ऐसे जन-समुदायों के लिए ‘सिविटास’ (Civitas) शब्द का प्रयोग किया जाता था। मध्य युग में राज्य शब्द की परिकल्पना को साम्राज्य और रजवाड़ों तक ही सीमित रखा गया था। मध्यकाल में सम्प्रभुता शासकों में निहित होने के कारण ‘राज्य’ को सर्वोपरि सत्ता का प्रतीक माना जाने लगा। ‘राज्य के विषय में विद्वानों के विचार अलग अलग रहे हैं। मेक्यावेली, ओपेनहाइम तथा कार्लमार्क्स आदि कुछ विद्वान इसे एक शक्तिपुंज के रूप में देखते हैं जबकि अन्य इसे एक जन-कल्याणकारी व्यवस्था मानते हैं। अनेक लेखकों ने राज्य के प्रति कानूनी दृष्टिकोण अपनाते हुए इसे कानूनी आधार पर संगठित एक जन-कल्याणकारी समाज माना है। राज्य की प्रकृति के विषय में प्राचीन यूनान में सोफिस्टों का मत था कि राज्य रूढ़िगत
(conventional) है जबकि सुकरात तथा प्लेटो इन विचारकों के अनुसार राज्य का स्वरूप स्वाभाविक है और नागरिकों के नैतिक विकास के लिए राज्य परम आवश्यक है। रूसो, काण्ट, हीगल तथा ब्रैडले आदि आदर्शवादी विधिशास्त्रियों ने भी मानव के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए राज्य को अपरिहार्य माना है। ह्यगो ग्रोशस का मत था कि राज्य मानव-कल्याण के लिए निर्मित एक सामान्य जन समुदाय है तथा इन्हीं विचारकों के प्रभाव के परिणामस्वरूप वर्तमान में लोक कल्याणकारी राज्य (welfare-state) की कल्पना साकार हुई
है। अनेक विद्वानों ने राज्य को शक्ति का प्रतीक ‘एक आवश्यक बुराई’ (necessary evil) मानते हुए उसे “व्यक्ति की प्राकृतिक स्वतन्त्रता को सीमित करने वाली संस्था’ निरूपित किया है। हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार राज्य एक ‘संयुक्त बीमा कम्पनी’ (Joint Stock Company) के समान है जिसकी सदस्यता ऐच्छिक और वैकल्पिक होनी चाहिये। अंत: ‘राज्य’ का प्रमुख कार्य लोगों के हितों, अधिकारों की रक्षा करना है जिसे वह शांति स्थापना एवं न्याय प्रशासन द्वारा सम्पादित करता
है। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राज्य द्वारा कुछ नियम लागू किये जाते हैं जिन्हें ‘विधि’ या ‘कानून’ कहा जाता है। ‘विधि’ के स्वरूप को समझने के लिए ‘राज्य’ के स्वरूप को जानना आवश्यक है। विभिन्न विधिशास्त्रियों ने राज्य अनेक प्रकार से परिभाषित किया है| राज्य शब्द (State) लेटीन के ‘स्टेट्स’ (status) शब्द से लिया गया है| जिसका शाब्दिक अर्थ “Standing” अर्थात अस्तित्व में होना है यह शब्द ‘प्रास्थिति
(Status)’ को प्रकट करता है। सामान्यतया राज्य का तात्पर्य एक ऐसे राजनीतिक संगठन से है जो अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, बाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा तथा सामाजिक उन्नति के लिए अस्तित्व में आता है तथा यह एक ऐसी संस्था है जिसका कोई स्वरूप नहीं है। विधि के अन्तर्गत उसे कृत्रिम व्यक्तित्व (artificial personality) प्रदान किया गया है। प्रमुख विधिशास्त्रियों ने राज्य की परिभाषा इस प्रकार की है – बोसांके (Bosanquel) – बोसांके (Bosanquel) के अनुसार राज्य समस्त जीवन की एक क्रियात्मक धारणा है।। वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) – भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने राज्य को ‘एक निश्चित भू-भाग पर कानूनी रूप से संगठित किसी जन-समुदाय कहा हैं। परन्तु विल्सन की यह परिभाषा अपूर्ण है क्योंकि मानव-इतिहास में ऐसे अनेक सुसंगठित राजनीतिक जन-समुदाय अस्तित्व में थे, जिनकी निश्चित भू-सीमाएँ होने पर भी वे राज्य नहीं माने जाते थे। ‘राज्य’ की कोटि में आने के लिए यह आवश्यक है कि निश्चित भू-भाग पर रहने वाला संगठित जन समुदाय स्वतंत्र हो तथा उसे संप्रभुता (sovereignty) प्राप्त हो। उदाहरणार्थ के लिए 15 अगस्त, 1947 से पूर्व भारत स्वतंत्र नहीं था इसलिए उसे ‘राज्य’ नहीं कहा जा सकता था। सर जॉन सामण्ड –सर जॉन सामण्ड के अनुसार राज्य या राजनीतिक समाज मनुष्यों का ऐसा संगठन है जो निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। इसमें निश्चित उद्देश्य से सामण्ड का आशय बाहरी आक्रमण से राज्य की रक्षा करने तथा जन-समुदाय में आन्तरिक शांति-व्यवस्था बनाये रखने से है। परन्तु सामण्ड की यह परिभाषा भी अपूर्ण प्रतीत होती है, क्योंकि इसमें ‘भू-भाग’ सम्बन्धी तत्व की पूर्ण अवहेलना की गई है। ऑस्टिन (Austin) – विख्यात विधिशास्त्री ऑस्टिन ने राज्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि ‘राज्य’ संप्रभ (sovereign) का पर्यायवाची है। यह किसी ऐसे एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के समूह का प्रतीक है, जो राजनीति की दृष्टि से स्वतन्त्र समाज में सर्वश्रेष्ठ शक्ति रखता है । हालैण्ड (Holland) – हालैण्ड के अनुसार “राज्य अनेक व्यक्तियों के ऐसे संगठन को कहते हैं जिनके आधिपत्य में सामान्यत: एक निश्चित भू-खण्ड हो और जिनमें बहुसंख्यकों या एक विशिष्ट वर्ग के लोगों की इच्छा का प्राबल्य बहुमत के कारण उन लोगों पर हो जो उनके विरोधी हों।”| यह परिभाषा अधिक तर्कसंगत थी क्योंकि इसमें राज्य के चारों आवश्यक तत्वों (जनसंख्या, भू-प्रदेश, सरकार तथा सम्प्रभुता) का समावेश है। बेन्थम – बेन्थम ने राज्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि जब प्रजा किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की आज्ञा का पालन करती है जिन्हें हम प्रशासक कहते हैं, तो ऐसी प्रजा और प्रशासक के सम्मिलित स्वरूप को राजनीतिक समाज या ‘राज्य’ कहा जाता है| अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने चिसहोम बनाम जॉर्जिया के वाद में ‘राज्य’ की व्याख्या करते हुए अभिनिर्धारित किया कि ‘राज्य स्वतंत्र व्यक्तियों का ऐसा निकाय है जो इस सामान्य उद्देश्य से संगठित हुए हैं कि वे उन वस्तुओं का, जो उनकी स्वयं अपनी हैं, शान्तिपूर्वक लाभ उठा सकें और दूसरों के प्रति न्याय कर सकें।’ इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्तियों द्वारा राज्य का निर्माण अपने सामान्य हितों की रक्षा के लिए किया जाता है ताकि वे अपनी वस्तुओं का उपयोग शांतिपूर्ण ढंग से कर सकें। गार्नर (Garner) – गार्नर ने राज्य की परिभाषा अधिक सुस्पष्ट एवं सरल शब्दों में की है। उनके अनुसार “न्यूनाधिक बहुसंख्यक मनुष्यों के एक ऐसे समुदाय को राज्य कहा जा सकता है जो स्थायी रूप से एक निश्चित भू-खण्ड पर निवास करता हो, जो बाह्य नियंत्रण से सर्वथा स्वतंत्र हो और जिसकी एक ऐसी सुसंगठित सरकार हो जिसके आदेशों का, उसके निवासियों का एक बहुत बड़ा भाग, सहज रूप से पालन करता हो। इस परिभाषा में सम्प्रभुता प्राप्त राजनीतिक संगठन के अस्तित्व पर बल दिया गया है। ह्यगो ग्रोशस (Hugo Grotius) – के अनुसार ‘राज्य’ मानव कल्याण के लिए निर्मित एक सामान्य जन समुदाय है| मेक आइवर (Mac Iver) – के अनुसार राज्य एक ऐसा संगठन है जो सरकार द्वारा घोषित विधि की शास्ति का प्रयोग करते हुए एक निर्धारित भू-क्षेत्र के समुदाय में सार्वभौमिक सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने का कार्य करता है। ओपनहेम (Oppenheim) – के अनुसार राज्य तब अस्तित्व में आता है जब व्यक्तियों का समुदाय किसी देश में उसकी संप्रभु शक्ति के अधीन स्थापित हो जाता है। रॉबर्ट फिलिमोर (Robert Philimore) – ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि के संदर्भ में राज्यों को एक ऐसा राजनीतिक संगठन निरूपित किया है जो “एक नियत भू-भाग पर स्थायी रूप में रहने वाले व्यक्तियों को सामान्य कानूनों, आदतों और प्रथाओं से आबद्ध करता है और एक संगठित सरकार के माध्यम से अपनी सीमा में स्थित सभी व्यक्तियों और वस्तुओं पर स्वतंत्र प्रभुसत्ता और नियंत्रण रखता है; और जो युद्ध और शांति की क्षमता रखते हुए विश्व के अन्य समुदायों से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करता है।” आर० जी० गेट्टेल (R.G. Gettell) – के अनुसार राज्य व्यक्तियों का एक ऐसा समुदाय है जिसका निश्चित भू-भाग पर आधिपत्य होता है और जो विधिक रूप से बाह्य नियंत्रण से स्वतंत्र होता है, जिसकी एक संगठित सरकार होती है और जो स्वयं द्वारा निर्मित कानून द्वारा अपने क्षेत्राधीन समस्त व्यक्तियों तथा समूहों पर प्रशासन करता है।’ राज्य के आवश्यक तत्व (Elements of State) –राज्य की उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राज्य के अस्तित्व में आने के लिए कुछ तत्वों (elements) का होना आवश्यक है। यदि इन तत्वों में से एक भी तत्व कम हो, तो ऐसे जन-समुदाय को ‘राज्य’ नहीं कहा जा सकता। राज्य के तत्व निम्न है – (1) जनसंख्या (Population) – मानव के बिना मानव-समुदाय का अस्तित्व असंभव है। अत: जनसंख्या के बिना राज्य का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। अंत: राज्य के लिए मनुष्यों का संगठित समुदाय होना अत्यन्त आवश्यक है और राज्य के लिए यह आवश्यक है कि उसकी जनसंख्या पर्याप्त हो, अर्थात् वह कम से कम इतनी हो कि उसे शासक और शासित वर्ग में बांटा जा सके। लेकिन एक राज्य के अंतर्गत कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इस संबंध में विद्वानों के अलग अलग विचार हैं| इस विषय में प्लेटो के अनुसार किसी राज्य के लिए 5000 नागरिकों की संख्या पर्याप्त थी जिसमें स्त्रियाँ, बूढ़े, बच्चे तथा दास सम्मिलित नहीं किये गये थे। अरस्तु के विचार से राज्य के लिए निश्चित संख्या निर्धारित करना आवश्यक था किन्तु वह न तो बहुत कम हो और न बहुत अधिक हो। छोटे-छोटे गणराज्यों का समर्थक होने के कारण रूसो ने आदर्श राज्य के लिए लगभग 10,000 नागरिक होना पर्याप्त माना था। लेकिन वर्तमान समय में मानव सभ्यता के विकास तथा मानव समुदाय में हो रही निरंतर वृद्धि के कारण राज्य के तत्व के रूप में जनसंख्या का विशेष महत्त्व नहीं रहा है। (2) भू-भाग (Territory) – राज्य के लिए एक निश्चित भू-भाग होना बहुत ही आवश्यक है। यह भू-भाग ऐसा होना चाहिये जहाँ कुछ लोग स्थायी रूप से रहते हों। यही कारण है कि जब तक यहूदी लोग समस्त विश्व में बिखरे रहे और किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बसे, वे कोई राज्य नहीं बना सके; किन्तु अब वे इजराइल में स्थायी रूप से बस गये हैं, जो वर्तमान में एक शक्तिशाली राज्य है। राज्य के भू-भाग के क्षेत्रफल के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं बनाये जा सकते जिस कारण से राज्य छोटा या बड़ा भी हो सकता है। राज्य के क्षेत्रफल में भूमि, उसकी नदियाँ, झीलें, समुद्र के किनारे से केवल बारह नॉटीकल मील (Nautical miles) दूर तक का भाग सम्मिलित है। इसी प्रकार राज्य की सत्ता समुद्रों पर चलने वाले उन जलपोतों पर भी लागू होती है जो उस राज्य का ध्वज फहराते हैं। विदेशों में स्थापित दूतावास भी राज्य की भूमि के अंश माने जाते हैं। राज्य की प्रादेशिक सीमाओं में भू-भाग का वायुमण्डल तथा भूगर्भ क्षेत्र भी सम्मिलित रहता है। परन्तु विख्यात विधिशास्त्री सामण्ड भू-भाग को राज्य का आवश्यक तत्व मानते हैं। उनका विचार है कि एक भ्रमणशील जाति को भी राज्य’ कहा जा सकता है यदि उसने स्वयं को सरकार के लिए कुछ आवश्यक कार्यों को पूरा करने के लिए संगठित किया है। (3) सरकार (Government) – राज्य के अस्तित्व के लिए सरकार का होना नितांत आवश्यक है क्योंकि सरकार एक ऐसी संस्था है जिसके माध्यम से राज्य अपने कार्यों को सम्पादित करता है। प्रजा को नियंत्रण में रखने के लिए राज्य द्वारा कानूनों का निर्माण किया जाता है तथा उन्हें लागू किया जाता है। सरकार का मुख्य कार्य यह है कि वह राज्य को बाह्य एवं आन्तरिक आक्रमणों से सुरक्षित रखे तथा समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखे। गेट्टेल (R.G. Gettell) के अनुसार, “सरकार राज्य और व्यक्तियों के बीच एक कड़ी का काम करती है। यह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं और सामान्य हितों से सम्बन्धित विषयों को संचालित किया जाता है। सरकार का गठन राज्य में लागू होने वाले संविधान के अनुसार होता है। संविधान के अनुसार ही राज्य के भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, जैसे कि संघात्मक संविधान के अंतर्गत सरकार संघीय (Federal) होती है जबकि एकात्मक संविधान के अंतर्गत सरकार अध्यक्षीय (Presidential) होती है। (4) सम्प्रभुता शक्ति (Sovereignty) — सम्प्रभुता का सामान्य अर्थ सर्वोच्चता होता है और प्रभुता-शक्ति राज्य का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। प्रभुता शक्ति ही राज्य के राजनीतिक अस्तित्व को निर्धारित करती है। यह इस बात को प्रकट करता है कि उसके अधीन व्यक्ति आज्ञापालक होंगे| प्रभुता-शक्ति से तात्पर्य राज्य की स्वाधीनता से है। दूसरे शब्दों में, राज्य में आन्तरिक दृष्टि से कोई समान्तर सत्ता नहीं होनी चाहिये और वह बाह्य या विदेशी नियंत्रण से पूर्णत: मुक्त होना चाहिये। ऑस्टिन ने प्रभुता शक्ति के दो अनिवार्य लक्षण बनाए हैं – (1) अखंडनीयता (2) असीमितता। परन्तु वर्तमान संघीय शासन प्रणाली वाले राज्यों के विषय में यह उचित नहीं है कि प्रभुता शक्ति अखंडनीय एवं असीमित होती है क्योंकि संघीय प्रणाली (Federal System) में प्रभुता शक्ति केन्द्र तथा घटक राज्यों में बंटी रहने के साथ-साथ इनमें सीमित भी रहती है। इसीलिए जेथ्रो ब्राउन ने कहा कि वास्तव में राज्य स्वयमेव प्रभुसत्ताधारी होता है लेकिन यह प्रभुता शक्ति उसके तीन अंगों (organs) में बंटी रहती हैं जिन्हें कार्यपालिक प्रभुता, न्यायपालिक प्रभुता तथा विधायनी प्रभुता कहा जा सकता है और संसद राज्य की विधायनी प्रभुता का प्रतिनिधित्व करती है। Reference – Jurisprudence & Legal Theory (14th Version, 2005) I hope This Post Series Has Been Beneficial For All Of You. To Get Information Related To Similar Laws, Subscribe To The Blog And Like And Share The Post. Post navigationराज्य के चार आवश्यक तत्व कौन है?" , फिलिमोर की इस परिभाषा में राज्य के चारों तत्वों – (1) जनसंख्या, (2) निश्चित भू-भाग, (3) सरकार, तथा (4) आन्तरिक तथा बाहरी सम्प्रभुता - का उल्लेख किया गया है। (ELEMENTS OF STATE) विभिन्न विचारकों ने राज्य के तत्वों के सम्बन्ध में अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं।
राज्य के कितने तत्व होते हैं?व्याख्यान माला में रासेयो कार्यक्रम अधिकारी सुशील एक्का ने कहा कि राज्य के निर्माण के लिए चार तत्वों का होना आवश्यक है। जनसंख्या, निश्चित भूभाग, सरकार और संप्रभुता। इसमें जनसंख्या प्रथम और आवश्यक तत्व है।
राज्य के सबसे महत्वपूर्ण तत्व क्या है?निम्न में संप्रभुता राज्य का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। संप्रभुता शब्द यह स्पष्ट करता है कि भारतीय संविधान भारत के लोगों द्वारा ही निर्मित है और भारत के बाहर ऐसी कोई सत्ता नही है जिस पर यह देश किसी भी रूप से निर्भर है।
राज्य से आप क्या समझते हैं राज्य के आवश्यक तत्व का वर्णन कीजिए?गार्नर के अनुसार, " राज्य संख्या मे कम या अधिक व्यक्तियों का ऐसा संगठन है, जो किसी प्रदेश के एक निश्चित भू-भाग मे स्थायी रूप से निवास करता हो, जो बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्र अथवा लगभग स्वतंत्र हो, जिसका एक संगठित शासन हो जिसके आदर्शों का पालन नागरिकों का विशाल समुदाय स्वाभावतः करता हो।"
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