समुद्र मंथन जरूरी क्यों धरती बनाने के लिए समुद्र मंथन जरूरी था, क्योंकि उस वक्त धरती का छोटा सा हिस्सा ही जल से बाहर था,बाकी हर जगह पानी ही पानी था। इसके लिए केवल देवता ही काफी नहीं थे। देवताओं के साथ राक्षसों की शक्ति का भी प्रयोग होना था। राक्षस राजी हो गए, क्योंकि समुद्र मंथन से जो अमृत मिलता, वह उन्हें अमर कर देता। त्रिदेव ने लीला रची और इंद्र से ऋषि दुर्वासा का अपमान हो गया। इंद्र को अपने सिंहासन से हाथ धोना पड़ा, तब वह विष्णु की शरण में गए और उनकी सलाह पर वह सागर का मंथन करने के लिए तैयार हुए। मंथन से निकलने वाले अमृत को देवताओं को पिलाना था। मंदार पर्वत और वासुकि नाग की सहायता से समुद्र मंथन की तैयारी शुरू हुई। विष्णु ने कछुए का रूप लेकर मथनी बन मंदार पर्वत अपनी पीठ पर रखा और उसे समुद्र में नहीं डूबने दिया। सबसे पहले विष निकला जिसे देवताओं और राक्षसों दोनों ने लेने से मना कर दिया। इससे सृष्टि नष्ट हो सकती थी, इसलिए शिव जी ने इस विष का पान किया, लेकिन पार्वती के प्रयत्नों से विष शिव के गले में ही अटक गया और उनका गला नीला हो गया, इसलिए शिव नीलकंठ कहलाए। समुद्र मंथन के वक्त कई और चीजें भी निकलीं जैसे कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा नामक सफेद घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, धन की देवी, देवों के चिकित्सक धनवंतरि आदि। अंत में अमृत के लिए सभी इंतजार कर रहे थे। असुरों के हाथ न लगे, इसलिए विष्णु ने मोहिनी बन कर असुरों का ध्यान अमृत से हटाया और देवताओं को अमृत-पान कराया। समुद्र मंथन में छिपे जीवन उपदेश और इस पौराणिक कथा का आध्यात्मिक संबंध है। आध्यात्मिक रूप से देखा जाए तो समुद्र का अर्थ है शरीर, और मंथन से अमृत और विष दोनों निकलते हैं। इस कहानी के किरदार हमारे जीवन से मेल खाते हैं जैसे देवता सकारात्मक सोच और समझ को दर्शाते हैं वहीं असुर नकारात्मक सोच एवं बुराइयों के प्रतीक हैं। समुद्र विष और मोहिनी समुद्र मंथन का प्रतीक दर्शन यही है कि परिस्थतियां कितनी भी बुरी क्यों न हों कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। कोई न कोई मार्ग अवश्य निकल आता है और स्थिति पहले जैसी हो जाती है। हिन्दू समाज में फांक पैदा करना, आस्थाओं पर आघात करना यह सब आक्रांताओं के आजमाए हुए पैंतरे हैं जिनका प्रयोग राजनीति का एक वर्ग भारतीय समाज पर अब भी कर रहा है पुरखों में गांधी हुए बिना गांधी हो जाने वाली, गांधी से अचानक दत्तात्रेय कौल हो जाने वाली और दद्दा के 'फिरोज' होने के बावजूद उनके उपनाम को न अपनाने वाली परिवार परम्परा छैनी-हथौड़ा लेकर अपने मिशनरी भाव से 'मिशन' पर है। मिशन है – जनेऊ लहराते हुए स्वयं मंदिर-मंदिर जाना, खुद गंगा में डुबकी लगाना और अपने पूर्व विदेश मंत्री की ब्रिगेड और उनके प्रभावी विदेशी मीडिया तंत्र-मंत्र से देश-दुनिया में 'हिन्दूफोबिया' का ज्वार चढ़ाना। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने अपनी नई पुस्तक ‘सनराइज ओवर अयोध्या’ के ‘द सैफ्रन स्काई’ अध्याय में हिंदुत्व की तुलना कुख्यात आतंकवादी इस्लामी संगठन आईएसआईएस और बोको हराम से की है। खुर्शीद ने लिखा है कि हिंदुत्व का मौजूदा स्वरूप उसे साधु-संतों के सनातन और प्राचीन हिंदू धर्म से अलग कर रहा है। स्पष्ट है कि खुर्शीद हिंदुत्व की छैनी लेकर हिंदू धर्म में ही दरार डालने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता (पूर्व विदेश राज्य मंत्री) शशि थरूर ने खुर्शीद की पुस्तक के विमोचन के एक हफ्ते बाद अपनी पुस्तक ‘प्राइड, प्रिजुडिस एंड पंडिटरी : द असेंशियल शशि थरूर’ के विमोचन पर हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच अंतर बताया। ध्यान दीजिएगा, 2018 में प्रकाशित अपनी पिछली पुस्तक 'व्हाई आई एम ए हिन्दू' के माध्यम से शशि थरूर ने हिंदू धर्म और हिंदुत्व में विभेद पैदा करने वाली राजनीति की शुरुआत की थी। इसे इक्का-दुक्का नेताओं के मतिभ्रम के बजाय जनेऊधारी कांग्रेस की वास्तविक मंशा इसलिए भी मानना चाहिए क्योंकि खुर्शीद की इस बात के एक दिन बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने भी हिंदू धर्म और हिंदुत्व में अंतर बताते हुए बयान दिया। उन्होंने भी कहा कि हिंदू और हिंदुत्व में फर्क है, यदि फर्क नहीं होता तो दूसरे नाम की आवश्यकता नहीं होती। हिंदू धर्म और हिंदुत्व को अलग-अलग बताने की इस मुहिम में पी. चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, पवन खेड़ा, मणिशंकर अय्यर (पूर्व केन्द्रीय मंत्री) जैसे तमाम नेता कूद पड़े हैं। इस पूरे विमर्श को
हिंदुत्व पर हो रही राजनीति और इस सनातन विचार के सही अर्थ, इन दो आयामों में देखने की आवश्यकता है। इसे जानना चाहिए। इसके लिए यह समझना जरूरी है कि विभाजन करता कौन है और किसके टुकड़े करता है? अंग्रेज भी ‘बांटो और राज करो’ के सिद्धांत पर चलते थे। सत्ता प्राप्त करने और राज करने के लिए विभाजनकारी बिंदुओं की राजनीति करना सत्ता के लालची लोगों का हथियार
होता है। विभाजन उस शक्ति या समीकरण का किया जाता है जो सत्ता में प्रभावी है। उस शक्ति को तोड़ने से ताना-बाना टूटता है और निश्चित ही उसके सामाजिक और दीर्घकालिक दुष्प्रभाव भी होते हैं। यही चेष्टा लोकतंत्र के आंगन से बुहारी जा रही कांग्रेस भी कर रही है। हिंदुत्व का मर्म : सही का स्वीकार, योग्य का परिष्कार, गलत का बहिष्कार। हिंदुत्व दूसरे के लिए नफरत और ईश्वर को क्रोधी मानते हुए उससे भय करने का भ्रम तोड़ता है। हम मानते हैं कि सारा चराचर जीव-जगत, जड़-चेतन उस ईश्वर के अंश के तौर पर ही अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए ईश्वर का भय या ईश्वर से भयभीत जैसी संकल्पना से परे जाकर हम सोच सकते हैं – तत्वमसि-तत्त्वमसिह्व = तत त्वं असि अर्थात तुम वही हो। तत्वमसि – यह एक आर्षवाक्य है जो यह घोषणा करता है कि ‘तुम वो ही हो, जो तुम खोज रहे हो।’ यह साधक और साध्य के ऐक्य को दर्शाता है। जो तुझ में है, वह मुझ में है और जो हम सब में है, उससे डरना क्या! हिंदुत्व का मर्म यह है कि यह मानवता में भेद नहीं करता। भेद का भाव ही न होना हिन्दू होना है। सनातन धर्म को किसी व्यक्ति ने निर्मित नहीं किया। इसीलिए इसमें संकीर्णता के लिए कोई स्थान नहीं है। जैसे ईश्वर सर्वव्यापक है, वह किसी के प्रति भेदभाव नहीं रखता, उसी प्रकार हिंदुत्व, जो सनातन धर्म का पर्याय है, उसमें भी कोई भेदभाव नहीं है। यह खुलापन ही हिंदुत्व का मूल है। किसी के लिए नफरत ना पालना, किंतु यह सृष्टि ठीक से चले, इसके लिए-शठे शाठ्यम समाचरेत, यह विचार लेकर परिस्थिति अनुसार व्यवहार करना, यह दर्शन भी हिंदुत्व का है। अत: हिन्दू किसी संप्रदाय का विरोधी होगा, यह धारणा अज्ञानता से भरी हुई है। हिंदुत्व और भारत महर्षि अरविन्द ने 'भारतीय संस्कृति के अधिष्ठान' नामक अपनी पुस्तक में सिद्ध किया कि इस प्राचीनतम देश के दीर्घकालीन जीवन के कारण तरह-तरह के अनुभवों से, एक विशेष प्रकार का जीवन क्रम और दृष्टिकोण विकसित हुआ। अंततोगत्वा वह हमारी धरोहर बन गया। सदियों से वह देश की पहचान बन गया। और स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषणों में इसी को पहचानने के लिए कहा था। हमारे इस प्राचीन देश के इस आत्मभाव का नाम है हिन्दुत्व। उसे अंग्रेजी में हिन्दूनेस (Hinduness) कहते हैं। जैसे जर्मनी का Germanness, इंग्लेंड का Englishness, , फ्रान्स का Frenchness उसी प्रकार Hinduness, देसी भाषा में हिन्दुत्व। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक कहां है। जब देश स्वतंत्र हुआ और विविध क्षेत्रों में स्वतंत्र, प्रेरक बोधवाक्यों की आवश्यकता महसूस हुई तब राष्ट्र के सांस्कृतिक विचार को व्यक्त करने वाला उद्घोष -सत्यमेव जयते- इसी सनातन की झोली से आया। ‘योगक्षेमं
वहाम्यहम’, शं नोवरुण:, सत्यम् शिवम् सुंदरम् आदि सभी स्वीकार किए गये बोधवाक्य इस हिन्दुत्व के ही परिचायक हैं और उपनिषदों से आए हैं। पर्यावरण : सारी की सारी प्रकृति केवल मानव के उपभोग के लिए है, यह था सेमटिक (semetic) सिद्धान्त और मजहबी मार्गदर्शन। उस से त्रस्त पश्चिमी दुनियां आज चिल्ला रही है 'इको-फ्रेंडली'। किन्तु हिन्दुत्व का मार्गदर्शन है 'इको-ब्रदर्ली' यानी पर्यावरण बन्धुता। दार्शनिक कवि भर्तृहरि भाईचारे के आधार पर पंचभूतों की सादर वन्दना करते हैं। उनकी प्रार्थना सुनें – ‘माता मेदिनि, तात मारुत, सखे तेज: सुबन्धो जल:भ्रातव्योम निबद्ध एव भवतामन्त्य: प्रणामांजलि:।।’ वैराग्यशतकं मानव अधिकार : द्वितीय महायुद्ध के बाद 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में मानवीय अधिकारों की वैश्विक घोषणा हुई जिसे मानवीय इतिहास का एक अमूल्य दस्तावेज कहा जाता है। उस घोषणा का 14वां अनुच्छेद कहता है 'उत्पीड़न से मुक्त होना और उसके लिए किसी भी देश की शरण लेना एक मानवप्राणी का अधिकार है।' इस्लामी आक्रमण के पूर्व का हिन्दुस्थान का इतिहास क्या कहता है? सन् 68 में रोम साम्राज्य द्वारा उत्पीड़ित यहूदियों को इस देश में किसने शरण दी थी? चौथी सदी में ईसाइयों के क्नानैट (ूल्लंल्ल्र३ी) समूह को किसने शरण दी थी? आठवीं सदी में मुसलमानी मतांधों द्वारा उत्पीड़ित पारसी बन्धुओं को किसने शरण दी थी? उत्तर हम सब जानते हैं। उन दिनों कहां था 1948 में घोषित यह सार्वभौमिक घोषणापत्र? हां, मौजूद था, हिन्दुत्व के हृदय में जिसने महानारायणोपनिषद् में कहा था- ‘यत्र विश्वं भवत्येकनीड।’ राजनीति और हिंदुत्व स्वीकार और उदारता की टेक लगाते हुए सनातन की गोद में चढ़कर इस विचार का ही शिकार करने निकली विचारधाराओं से सतर्क रहना और इनके षड्यंत्रों का यथोचित उपचार करना आवश्यक है। हिन्दू समाज में फांक पैदा करना, आस्थाओं पर आघात करना, यह सब आक्रांताओं के आजमाए हुए पैंतरे हैं जिनका प्रयोग राजनीति का एक वर्ग भारतीय समाज पर अब भी कर रहा है। इस ‘शिकारी’ राजनीति से सतर्क रहना होगा – केवल किसी एक दल तथा सत्ता के लिए नहीं अपितु देश के लिए, मानवता के लिए… सभी के कल्याण के लिए। मानव जाति की रक्षा के लिए, इस सृष्टि की रक्षा के लिए। @hiteshshankar विष का अमृत बनने का क्या अर्थ है?विष से अमृत करे मतलब... ये शरीर विष के समान है, इसमें दुर्गुण ही दुर्गुण भरे हुए हैं, इन दुर्गुणों को अमृतरूपी सद्गुणों में केवल गुरु ही बदल सकता है। इसलिये गुरु ही है जो विष रूपी दुर्गुण युक्त शरीर को अमृत रूपी सद्गुणयुक्त शरीर में बदलता है, अर्थात गुरु ही विष को अमृत करता है। शीश दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।
विष से अमृत कब होता है?मानव में छिपे पाप, बुरी भावना, विषय वासना रूपी विष उस समय अमृत बन जाते हैं, जब एक परम भक्त दूसरे परम भक्त से मिल जाता है। उस समय सभी प्रकार के अंधेरे समाप्त हो जाते हैं, मन के विकार दूर हो जाते हैं। इस तरह उनका विषय वासना रूपी विष समाप्त हो जाता है और वे अमृत समान हो जाते हैं।
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