गणित शिक्षण में मूल्यांकन का क्या महत्व है? - ganit shikshan mein moolyaankan ka kya mahatv hai?

CTET Exam Notes : Child Development and Pedagogy (CDP) in Hindi Medium 

Topic  : Individual differences among learners

मूल्यांकन

मूल्यांकन अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग है । यह पढ़ाने में शिक्षको की तथा सीखने में विद्यार्थियों की मदद करता है। मूल्यांकन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है न कि आवधिक । यह मुल्य निर्धारण में शैक्षिक स्तर अथवा विद्यार्थियों की उपलब्धियों को जानने में सहायक होता है।

अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में मूल्यांकन की भूमिका

अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में मूल्यांकन की महत्वपूर्ण  भूमिका होती है। नए उद्देशियो को तय करने , अधिगम अनुभव प्रस्तुत करने और विद्यार्थी की संप्राप्ति की जाँच  में मूल्यांकन- अधिगम काफी योगदान देता होता है। इसके अतिरिक्त शिक्षण और पाठ्य विवरण सुधरने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह समाज, अभिभावक और शिक्षा के ढांचे के प्रति उत्तरदायित्व को भी बताता है।

गणित शिक्षण में मूल्यांकन का क्या महत्व है? - ganit shikshan mein moolyaankan ka kya mahatv hai?

अवश्य पढ़े: मूल्यांकन के प्रकार 

मूल्यांकन की आवश्यकता और महत्व 

गणित शिक्षण में मूल्यांकन का क्या महत्व है? - ganit shikshan mein moolyaankan ka kya mahatv hai?

अच्छे  मूल्यांकन की विशेषताएँ 

गणित शिक्षण में मूल्यांकन का क्या महत्व है? - ganit shikshan mein moolyaankan ka kya mahatv hai?

मूल्यांकन, मूल्य निर्धारण और मापन 



मूल्यांकन – ” मूल्यांकन, किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम के किसी भी एक पक्ष के विषय में सुचना एकत्र करना, उसका विश्लेषण और व्याख्या है जो इस की प्रभाविता, कुशलता अन्य परिणामो को परखने की मान्य प्रक्रिया का एक एक भाग है।” 



मूल्य निर्धारण- मूल्य निर्धारण का अर्थ है वे प्रक्रियाएं और सामग्री जो विद्यार्थियों की संप्राप्ति को मापने के लिए बनाई जाती है जबकि वें किसी न किसी प्रकार के शैक्षिक कार्यकम  हुए हो। इसका मुख्य कार्य ये मालूम करना है कि कार्यक्रम के उद्देश्य किस सीमा तक पुरे हुए। वास्तविकता में मूल्य निर्धारणका अर्थ मूल्यांकन की  की तुलना में संकुचित है पर मापन की तुलना में विस्तृत ।

मापन:

गणित शिक्षण में मूल्यांकन का क्या महत्व है? - ganit shikshan mein moolyaankan ka kya mahatv hai?



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उपरोक्त तीनों बिन्दु मिलकर मूल्यांकन प्रक्रिया को पूरा करते हैं। इन तीनों के सम्बन्ध को त्रिभुजाकार आकृति से निम्न प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है :-

परिभाषाएँ (Definitions)

1.  क्विलेन व हन्ना - विद्यालय द्वारा बालक के व्यवहार में लाये गये परिवर्तनों के सम्बन्ध में प्रमाणों के संकलन और उनकी व्याख्या करने की प्रक्रिया को मूल्यांकन कहते हैं।

2.  डान्डेकर - मूल्यांकन एक ऐसी क्रमबद्ध प्रक्रिया है जो हमें यह बताती है कि बालक ने किस सीमा तक किन उद्देश्यों को प्राप्त किया है।

3.  गुड्स - मूल्यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे सही ढंग से किसी वस्तु का मापन किया जा सकता है।

4.  मुफ्फात - मूल्यांकन एक सतत् प्रक्रिया है तथा यह बालकों की औपचारिक शैक्षिक उपलब्धि की उपेक्षा करता है। यह व्यक्ति के विकास में अधिक रुचि रखता है। यह व्यक्ति के विकास को उसकी भावनाओं, विचारों तथा क्रियाओं से सम्बन्धित वांछित व्यवहारगत परिवर्तनों के रूप में व्यक्त करता है।

मूल्यांकन की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त हम कह सकते हैं कि मूल्यांकन वह सतत् प्रक्रिया है जिसके माध्यम से यह निर्धारित (निर्णय) किया जाता है कि छात्रों ने शिक्षण का किस सीमा तक अधिगम किया है तथा शिक्षण अधिगम से उनके ज्ञान एवं व्यवहार में कितनी उन्नति हुई है। इस आधार पर मूल्यांकन से संबंध में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि-

- मूल्यांकन एक सतत् प्रक्रिया है। यह मापन एवं परीक्षण की तुलना में काफी विशद् एवं व्यापक सम्प्रत्यय है।

- मूल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है।

- इसका सीधा संबंध शिक्षा के उद्देश्यों से होता है।

- यह छात्रों के परिणामों की गुणवत्ता, मूल्य एवं प्रमाणिकता के आधार पर उनके भावी कार्यक्रमों का निर्धारण करता है।

- मूल्यांकन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के संदर्भ में शिक्षक, शिक्षार्थी, शिक्षण विधियों तथा शैक्षिक व्यवस्था की गुणवत्ता कैसी रही, इस सबकी व्यापक जाँच और मापन पूरी तरह संभव है।

- इसके द्वारा विद्यार्थियों के वांछित व्यवहारगत-परिवर्तनों के संबंध में साक्षियों कर संकलन किया जाता है। इससे विद्यार्थी के व्यवहार के सभी पक्षों में आने वाले परिवर्तनों की जानकारी प्रदान करने में मदद मिलती है।

- मूल्यांकन का प्रमुख प्रयोजन छात्रों में हुए व्यवहारगत-परिवर्तनों की दिशा, प्रकृति एवं स्तर के संबंध में निर्णय करना है।

- यह शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा निर्धारण करने वाली प्रक्रिया है।

- यह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के परिणामों का परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विवरण प्रस्तुत करता है।

मूल्यांकन के उद्देश्य -

  • मूल्यांकन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
  • बालकों के व्यवहार-संबंधी परिवर्तनों की जाँच करना।
  • बालकों की दुर्बलताओं तथा योग्यताओं की जानकारी प्रदान करने में सहायता देना।
  • नवीनतम एवं प्रभावी शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों की खोज करना।
  • अनुदेशन की प्रभावशीलता का पता लगाना।
  • प्रचलित शिक्षण विधियों तथा पाठ्य-पुस्तकों की जाँच करके उनमें अपेक्षित सुधार करना।
  • बालकों का विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकरण करना।
  • बालकों की अधिगम कठिनाइयों का पता लगाना।
  • बालकों को उत्तम ढंग से सीखने के लिए प्रोत्साहित करना।
  • बालकों की व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें जानकारी प्रदान करना।
  • पाठ्यक्रम में आवश्यक संशोधन करना।
  • परीक्षा प्रणाली में सुधार करना।
  • निर्देशन एवं परामर्श हेतु उचित अवसर प्रदान करना।
  • अध्यापकों की कार्यकुशलता एवं सफलता का मापन करना।
  • शिक्षण-व्यूह रचना में सुधार एवं विकास करना।
  • निदानात्मक तथा उपचारात्मक शिक्षण पर बल देना।

मूल्यांकन की आवश्यकता एवं महत्व -

मूल्यांकन की आवश्यकता एवं महत्व को निम्न बिन्दुओं की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • मूल्यांकन के द्वारा बालकों की मानसिक शक्ति, रुचि तथा उनके दृष्टिकोण का अनुमान लगाया जा सकता है।
  • यह बालकों को योग्यतानुसार विभिन्न समूहों में विभाजित करने के लिए आवश्यक है।
  • छात्रों को व्यावसायिक एवं शैक्षिक निर्देशन देने के लिए आवश्यक है।
  • इसके द्वारा अधिगम-प्रक्रिया में सुधार होता है।
  • पाठ्यक्रम-पाठ्य-पुस्तक एवं शिक्षण-विधियों में सुधार करने हेतु यह अत्यन्त आवश्यक है।
  • इसके द्वारा छात्रों को अपनी कमजोरी तथा मजबूत स्थिति का पता लगता है।
  • मानकों का निर्धारण करने हेतु मूल्यांकन करना अति आवश्यक है।
  • बालकों की कक्षोन्नति और कक्षा विभाजन में सुविधा प्रदान करता है।
  • परीक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार करता है।

मूल्यांकन एवं मापन में अन्तर

(Difference between Evaluation and Measurement)

मापन एवं मूल्यांकन में निम्नलिखित अंतर हैं-

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अच्छी परीक्षाओं के लक्षण (Criteria of a Good Test)

  • मूल्यांकन की दृष्टि से एक अच्छी परीक्षा में सामान्यतः निम्नलिखित गुण होने चाहिये-

(1)  वस्तुनिष्ठता (Objectivity)

(2)  विश्वसनीयता (Reliability)

(3)  वैधता (Validity)

(4)  विभेदीकरण (Discrimination)

(5)  व्यापकता (Comprehensiveness)

(6)  कठिनाई स्तर (Difficulty Index)

(7)  सहजता (Usability)

(1) वस्तुनिष्ठता (Objectivity) - जिस परीक्षा पर परीक्षक का व्यक्तिगत प्रभाव नहीं पड़ता है, वह परीक्षा वस्तुनिष्ठ कहलाती है। किसी भी परीक्षण के लिये वस्तुनिष्ठ होना बहुत जरूरी है, क्योंकि इसका विश्वसनीयता व वैधता पर बहुत प्रभाव पड़ता है। एक बार स्कोरिंग कुंजी (Scoring Key) बन जाने पर यह प्रश्न ही नहीं उठना चाहिये कि प्रश्न अस्पष्ट तो नहीं है उसके उत्तर के बारे में ठीक से निर्णय नहीं लिया जा सकता। अब मूल्यांकन कोई भी करे छात्र को सदैव उतने ही अंक मिलने चाहिये, इसी को वस्तुनिष्ठता (Objectivity) कहते हैं। निबन्धात्मक परीक्षाओं (Essay Type) में यह बात नहीं होती। इसमें कापियों का मूल्यांकन करते समय परीक्षक का व्यक्तिगत निर्णय अधिक महत्व रखता है। यही कारण है कि इन परीक्षाओं के स्थान पर हम नवीन परीक्षा प्रणाली (Objective Type Test) को अधिक प्रयोग में लाते हैं।

(2) विश्वसनीयता (Reliability) - "It refers to the consistency of the measurement." अर्थात्, यदि किसी परीक्षा के परिणाम समान परिस्थितियों में एक समान बने रहते हैं तो उस परीक्षा को विश्वसनीय (Reliable) माना जाता है। इस प्रकार किसी परीक्षा को विश्वसनीयता परीक्षा में न्यादर्श की मात्रा (Sample Size) तथा अंकों की वस्तुनिष्ठता (Objectiveity in Scoring) पर निर्भर करती है।

Reliability = Sample Size + Objectivity in Scoring.

इसी प्रकार, कोई प्रश्न तभी विश्वसनीय कहा जायेगा जब उसके उत्तर विद्यार्थी की सही उपलब्धि अथवा स्तर का ज्ञान करायें अर्थात् परिणामी अंक त्रुटियों की सम्भावना से मुक्त हों। त्रुटियों की सम्भावना प्रायः निर्देशों की अस्पष्टता के कारण होती है। यह दो स्तरों पर हो सकती है- प्रथम, जब विद्यार्थी प्रश्न का उत्तर दे रहा है और दूसरा, जब परीक्षक उत्तर का मूल्यांकन कर रहा है।

रिजलैंड ने विश्वसनीयता को निम्न प्रकार परिभाषित किया है-

“विश्वसनीयता उस विश्वास (Faith) को प्रकट करती है जो कि एक परीक्षा में स्थापित की जा सकती है।” (Reliability refers to the faith that may be placed into a test.)

शैक्सपीयर ने कहा है, "Consistency, thou art the jewel." प्रकृति में जहाँ कहीं भी एकरूपता है, वहाँ विश्वसनीयता अवश्य समाहित हो जाती है।

(3) वैधता (Validity) - "Validity means truthfulness of the test or purposiveness of a test."

इसका आशय यह है कि यदि कोई परीक्षण वही मापन करता है जिसके मापन के लिये इसका निर्माण हुआ है तो वह परीक्षण वैध (Valid Test) कहलाता है। इस प्रकार वैधता गुणक (Validity Index) यह सूचित करता है कि किसी परीक्षण ने वस्तुतः उसी विशेषता (Trait) का मापन किस सीमा तक किया है जिसका मापन करने के लिये वह दावा करता है। उदाहरणार्थ, गणित की परीक्षा को वैध तभी कहेंगे जबकि उसके द्वारा हम गणित की योग्यता का ही मापन करें, इसके अतिरिक्त भाषा की योग्यता, स्वच्छता अथवा सामान्य बुद्धि का नहीं।

किसी परीक्षण की भाँति कोई प्रश्न अपनी वैधता उसी सीमा तक खो देता है जिस सीमा तक वह अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल नहीं होता। कोई आइटम (Item) वैध नहीं कहलायेगा यदि वह पाठ्यक्रम से सम्बन्धित न हो, जैसे- हम आमतौर पर कहते हैं कि यह पाठ्यक्रम के बाहर है अथवा इसमें कुछ ऐसी अवांछित सामग्री है जिसके मापन का हमारा उद्देश्य नहीं है।

(4) विभेदीकरण (Discrimination) - विभेदीकरण से तात्पर्य परीक्षण के उस गुण से है जिसके द्वारा पढ़ने में तेज, सामान्य एवं पिछड़े छात्रों के मध्य काफी सीमा तक भेद किया जा सके। इसके द्वारा यह जाना जा सकता है कि पूरे परीक्षण पर प्राप्तांकों के आधार पर अधिकतम अंक (Maximum Score) एवं न्यूनतम अंक (Minimum Score) पाने वाले छात्रों को अलग करने में प्रत्येक प्रश्न का क्या योगदान रहा। परीक्षण के आइटमों की विभेदीकरण क्षमता ज्ञात करने के लिये प्रत्येक प्रश्न का विश्लेषण किया जाता है, जिसे पद विश्लेषण प्रक्रिया (Item Analysis) कहते हैं। इससे प्रत्येक प्रश्न के कठिनाई स्तर का पता चल जाता है।

(5) व्यापकता (Comprehensivenss) - व्यापकता के अन्तर्गत परीक्षण का वह प्रारूप आ जाता है जिसके द्वारा परीक्षण उस योग्यता (Trait) के विभिन्न पक्षों का मापन करने में समर्थ हो सकता है जिसके मापन हेतु उसको निर्मित किया गया है। परीक्षण की व्यापकता के बारे में निर्णय करना स्वयं एक निर्माता की सूझ-बूझ एवं क्षमता पर निर्भर करता है। संक्षेप में व्यापकता का अर्थ दो प्रकार से लिया जाता है-

(अ)पाठ्य-वस्तु का समावेश (Coverage of Subject-Matter or Content)

(ब) उद्देश्यों का समावेश (Coverage of Objectives)।

(6) कठिनाई स्तर (Difficulty Index) - कठिनाई स्तर प्रश्न का बहुत महत्वपूर्ण लक्षण है। सम्पूर्ण प्रश्न पत्र में दिये गये अंकों के वितरण को इसी के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है। उन प्रश्नों में जिनका अंकन ‘शुद्ध अथवा अशुद्ध’ रूप में किया जा सकता है, कठिनाई स्तर की परिभाषा सही प्रश्न हल करने वाले विद्यार्थियों की प्रतिशतता है। निबन्धात्मक तथा लघु उतरीय प्रश्नों में, जो आंशिक रूप से शुद्ध हो सकते हैं, कठिनाई स्तर का सूत्र निम्न है-

D=\frac{X}{A}×100    

जहाँ, X = प्रश्न में उस वर्ग द्वारा प्राप्त अंकों का मध्यमान

A = निर्धारित पूर्णांक

 कठिनाई स्तर वास्तव में सुगमता सूचक होता है क्योंकि ज्यों-ज्यों प्रश्न सरलतर होता जाता है, D.I. बढ़ता जाता है। स्पष्टतः यह सूचक एक सामूहिक गुणक है जो शून्य से 100 तक जाता है।

(7) सहजता (Usability) वह परीक्षण जो निर्माण करने, छात्रों द्वारा उसका उत्तर देने एवं अंकदान करने, तीनों पक्षों की दृष्टि से सरल हो, एक अच्छा परीक्षण कहलाता है। अर्थात्, वह परीक्षण जिसके निर्माण में कठिनाई न हो, छात्रों को भी उसके उत्तर देने में सहजता हो तथा अंकन की प्रक्रिया में भी किसी प्रकार की जटिलता न आये, सहजता के गुण वाला परीक्षण कहलाता है।

औपचारिक विधियों द्वारा मूल्यांकन

(Evaluation through Formal Methods)

  • यह मूल्यांकन का वह तरीका है जिसमें विद्यार्थी की शैक्षिक प्रगति का निर्धारित विभागीय योजनानुसार समय-समय पर लिखित या मौखिक रूप से मूल्यांकन किया जाता है। इसमें विद्यार्थियों को ज्ञान रहता है कि उनका मूल्यांकन किया जा रहा है। इस प्रकार के मूल्यांकन से मुख्यतः छात्र की शैक्षिक उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त होता है। औपचारिक मूल्यांकन की प्रमुख विधियाँ निम्न प्रकार हैं-

1. जाँच सूची/चैक लिस्ट (Checklist)

2. प्रश्नावली (Questionnaire)

3. अभ्यास कार्य (Practice work)

4. प्रदत्त कार्य (Assignment)

5. साक्षात्कार (Interview)

6. परीक्षण (Tests)

1. जाँच सूची/चैक लिस्ट -

जाँच सूची का प्रयोग बालक की अभिरुचियों, अभिवृत्तियों तथा भावात्मक पक्ष की जाँच के लिए किया जाता है। इसकी सहायता से किसी विशिष्ट गुण या विशेषता की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति का पता लगाया जाता है। जाँच-सूची में कुछ कथन दिये होते हैं, उन कथनों के संबंध में बालक को ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में उत्तर देना होता है। इस सूची का निर्माण करते समय उद्देश्यों की स्पष्टता पर ध्यान रखना चाहिए। प्रत्येक कथन से किसी विशेष उद्देश्य का मापन करना चाहिए। उदाहरण के लिए-

1. आप स्व-अध्ययन करने में रुचि लेते हैं। हाँ/नहीं

2. आप अध्ययन करने में आनंद की अनुभूति करते हैं। हाँ/नहीं

2. प्रश्नावली -

गुडे एवं हैट के शब्दों में, “सामान्यतः प्रश्नावली से अभिप्राय प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने की युक्ति से है जिसमें एक पत्रक प्रयोग किया जाता है जिसे सूचनादाता स्वयं भरता है।” मूल्यांकन में प्रश्नावली का विशेष महत्व होता है। यह एक ऐसी सूची या प्रपत्र होता है जिसमें अनेक व्यक्ति अपना मत प्रस्तुत करते हैं। प्रश्नावली को प्रश्नों के एक समूह या सूची के रूप में भी स्पष्ट किया जा सकता है। इसमें प्रश्नों का उत्तर सूचनादाता स्वयं भरता है। इसके अन्तर्गत ऐसे प्रश्नों का समावेश किया जाता है जिनका उत्तर सूचनादाताओं द्वारा बिना किसी संकोच के दिया जा सके। इसके द्वारा सूचनाएँ आसानी से एकत्रित की जा सकती हैं, क्योंकि दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले व्यक्तियों से सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए इसे डाक द्वारा भी उस व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता है। इसी कारण बालक या व्यक्ति के संबंध में सूचनाएँ एकत्र करने की यह एक महत्वपूर्ण प्रविधि है। प्रश्नावली के मुख्य रूप से निम्न प्रकार हो सकते हैं-

1. प्रश्नों की रचना के आधार पर - संरचित एवं असंरचित प्रश्नावली।

2. प्रश्नों की प्रकृति के आधार पर - खुली प्रश्नावली, बन्द प्रश्नावली, मिश्रित प्रश्नावली तथा चित्रमय प्रश्नावली।

प्रश्नावली का निर्माण करते समय कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए ताकि हम अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु सही तथा वास्तविक सूचनाएँ प्राप्त कर सकें। कुछ प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित हैं-

- मूल्यांकनकर्त्ता को समस्या की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।

 - प्रश्नों की भाषा सरल, स्पष्ट तथा समझने योग्य होनी चाहिए।

- प्रश्नों की संख्या कम तथा संक्षिप्त उत्तर वाले प्रश्न होने चाहिए।

- प्रश्नावली का कागज एवं छपाई आकर्षक होने चाहिए।

3. अभ्यास कार्य -

अध्यापक द्वारा कराये गये शिक्षण का छात्रों द्वारा सही एवं पूर्ण अधिगम कर लिया गया है या नहीं, की पुष्टि हेतु छात्रों से अभ्यास कार्य करवाया जाता है। अध्यापक छात्रों को शिक्षण की विषयवस्तु के संबंध में विभिन्न प्रकार के प्रश्नादि के उत्तर, टिप्पणी आदि लिखने को देता है। उनके द्वारा दिये गये उत्तरों व टिप्पणियों के आधार पर शिक्षक द्वारा उनके अधिगम का मूल्यांकन किया जाता है। गणित एक ऐसा विषय है जिसमें एक नियम अथवा सूत्र का ज्ञान अन्य समस्याओं के समाधान में प्रयुक्त होता है। गणित में बालकों को चाहे कितने ही नियम या सूत्र बता दिये जायें, परंतु जब तक उन नियमों के आधार पर अभ्यास नहीं करवाया जाता तब तक वे उन नियमों को अपने व्यावहारिक जीवन में शीघ्रता एवं शुद्धता से उपयोग में नहीं ला सकते हैं। गणित की कक्षा में कभी-कभी कुछ ऐसे भी छात्र-छात्राएँ होते हैं जो गणित की जटिलतम समस्याओं का समाधान तो कर लेते हैं परंतु सरल तथा सामान्य समस्याओं को हल नहीं कर पाते हैं। ऐसी स्थिति अभ्यास की कमी के कारण उत्पन्न होती है जिससे वे उन सामान्य तथा सरल समस्याओं को भली-भाँति नहीं समझ पाते हैं। अतः जब छात्र कक्षा में अभ्यास कार्य करें तो शिक्षक को उनके कार्य का निरीक्षण करना चाहिए तथा उनकी कठिनाइयों को दूर करने के प्रयास करने चाहिए जिससे वे अपना कार्य नियमित करते रहें। अंक गणित, बीजगणित तथा ज्यामिति को अभ्यास कार्य द्वारा ही स्पष्ट तथा स्थाई रूप से समझा जा सकता है।

4. प्रदत्त कार्य -

प्रदत्त कार्य का प्रयोग दोनों प्रयोजनों से अर्थात् अधिगम और मूल्यांकन के लिए किया जाता है। कक्षा में शिक्षण के दौरान प्रायः शिक्षक किसी विषय के सभी महत्वपूर्ण पक्षों की पूर्ण विवेचना नहीं कर पाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कौशल भी होते हैं जिनका शिक्षण के लिए निर्धारित समय सीमा के अंदर मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, जैसे प्रेक्षण आंकड़ों की प्रस्तुति अथवा क्रमबद्ध रूप में सूचना देना, किसी विषय के महत्त्वपूर्ण पक्षों को संगठित करना, मौलिकता, सृजनात्मक आदि। इन सभी योग्यताओं और कौशलों की उपलब्धि के लिए विषय की विभिन्न पुस्तकों से गहन अध्ययन की आवश्यकता होती है और उस प्रसंग से संबंधित अवधारणाओं को समझने के लिए अधिक अभ्यास और कवायद (ड्रिल) की आवश्यकता होती है। प्रायः अलग-अलग स्त्रोतों से और अधिक सूचनाएँ एकत्र करने की आवश्यकता भी होती है। इन सभी योग्यताओं और कौशलों का मूल्यांकन करने के लिए विद्यार्थियों को कुछ विशेष प्रकार के प्रदत्त कार्य सौंपे जाते हैं अर्थात् जिन्हें शिक्षक द्वारा दिए गए निर्देश के अनुसार विद्यार्थी द्वारा घर पर पूरा किया जाना होता है।

प्रदत्त कार्य़ों के प्रकार -

विषयवस्तु और कौशलों के क्षेत्रों में दत्त कार्य़ों का प्रयोग एक अधिगम युक्ति तथा मूल्यांकन साधन के रूप में किया जाता है। दत्त कार्य के प्रयोजन के आधार पर दत्त कार्य़ों के स्वरूप भी अलग-अलग होते हैं। ये निम्न हैं-

  • कक्षा के पाठ का विस्तार - अधिकतम मामलों में शिक्षण अवधि के अंत में दत्त कार्य दिया जाता है जो एक प्रकार से पाठ का विस्तार होता है। यह एक ऐसा पाठ होता है जो विद्यार्थी द्वारा घर पर अपनी सुविधानुसार समय निकाल कर शिक्षक द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार पूरा किया जाता है। इस प्रकार यह अतिरिक्त अधिगम अनुभव प्रदान करता है जो संक्षिप्त कक्षा-अवधि में संभव नहीं होता।

इससे कक्षा में जो कुछ कराया जाता है उसका अतिरिक्त अभ्यास भी हो जाता है और उसका नई स्थिति में प्रयोग भी हो जाता है और इसके फलस्वरूप अवधारणाओं के स्पष्टीकरण तथा ज्ञान में वृद्धि हो जाती है।

  • स्व-मूल्यांकन - जब कक्षा में पहले से पढ़ाए गए विषय के अनुप्रयोग पर शिक्षक द्वारा कुछ गृहकार्य दिया जाता है, तो विद्यार्थी को स्व-मूल्यांकन का एक अवसर मिलता है, जिससे यह पता चलता है कि वह विद्यालय में पढ़ाए गए नए संप्रत्ययों को कितनी अच्छी तरह से समझ गया है।
  • विशिष्ट प्रकरणों का विस्तृत अध्ययन - अधिकांश मामलों में विद्यार्थी को विशिष्ट प्रकरण से संबंधित दत्त कार्य दिए जाते हैं जिसमें विद्यार्थी को उस विषय के महत्त्वपूर्ण पक्ष पर एक रिपोर्ट लिखने के लिए कहा जाता है। इसके लिए उस विषय से संबंधित पुस्तकों को पढ़ने, संगत जानकारी प्राप्त करने, अभिमतों और व्यक्तिगत अनुभवों का संश्लेषीकरण करने की आवश्यकता होती है। विद्यार्थियों से अपेक्षा की जाती है कि वे संबंधित पूरी सूचना को किसी क्रमबद्ध रूप में संगठित करें।

कभी-कभी दत्त कार्य कुछ प्रेक्षण आंकड़ों, मापों अथवा वस्तुओं के संग्रह पर आधारित हो सकते हैं, जिन्हें व्यवस्थित या सारणीबद्ध किया जाता है और यह देखा जाता है कि क्या इनमें कोई प्रारूप उभर आता है अथवा नहीं। इसमें विद्यार्थी को अपनाई गई कार्यविधि, दत्तों अथवा सूचना की प्रस्तुति, उसका विश्लेषण और दत्त कार्य की महत्त्वपूर्ण निष्पत्तियों की रिपोर्ट तैयार करने के लिए कहा जाता है।

इसके अतिरिक्त यह अच्छा रहता है कि किसी विद्यार्थी अथवा विद्यार्थियों के समूह द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को उनमें से एक विद्यार्थी पूरी कक्षा में प्रस्तुत करे। उस पर चर्चाएँ भी की जाए। इसमें शिक्षक और अन्य विद्यार्थी उन दत्त कार्य़ों पर आधारित प्रश्न पूछ सकते हैं तथा विद्यार्थी द्वारा प्रश्नों के उत्तर देने में कोई समस्या होने पर शिक्षक उसे स्पष्ट कर सकता है और उदाहरण सहित व्याख्या भी कर सकता है।

दत्त कार्य का मूल्यांकन एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। जब कोई एसानमैंट (दत्त कार्य) दी जाए तो देखा जाए कि अनुदेशात्मक उद्देश्यों से संबंधित इसका कुछ आधार है या नहीं। उस दत्त कार्य का उन उद्देश्यों की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि कितने उद्देश्य पूरे हो सके। दत्त कार्य का मूल्यांकन किया जाए और उसके लिए ग्रेड दिया जाए, अर्थात् उसका कोटि निर्धारण किया जाए। दत्त कार्य की कोटि को अंतिम मूल्य निर्धारण में शामिल किया जाना चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि दत्त कार्य सदैव रुचिकर हो परंतु यह सदैव सार्थक होना चाहिए।

5. साक्षात्कार -

साक्षात्कार तकनीक का उपयोग करते हुए भी गणित में विद्यार्थियों की शैक्षणिक उपलब्धियों तथा व्यवहारगत परिवर्तनों के मूल्यांकन में उचित सहायता मिल सकती है। इस तकनीक में जिस विद्यार्थी की उपलब्धियों या व्यवहारगत परिवर्तनों का मूल्यांकन करना हो, उससे आमने-सामने होकर इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं जिनके उत्तरों के आधार पर (तथा साथ ही उसकी व्यवहारगत चेष्टाओं के आधार पर भी) उसकी उपलब्धियों तथा व्यवहारगत परिवर्तनों के बारे में उचित जानकारी ले ली जाए। साक्षात्कार लेने वाला चाहे तो यहाँ पहले से ही तैयार प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर सकता है अथवा वह परिस्थिति अनुसार ऐसे प्रश्न साक्षात्कार के दौरान विद्यार्थी से पूछ सकता है। उद्देश्य यही होता है कि आमने-सामने होकर तथा विद्यार्थी को पूरी तरह विश्वास में लेकर उसका मनोबल बढ़ाते हुए ज्यादा से ज्यादा अच्छी तरह यह जानकारी ले ली जाए कि विद्यार्थी विशेष ने गणित शिक्षण के फलस्वरूप किस प्रकार की योग्यताएँ, कुशलताएँ अर्जित की हैं और भावात्मक क्षेत्र में उसमें किस प्रकार के व्यवहार परिवर्तन हुए हैं, आदि।

यह एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है, जिसकी सहायता से विद्यार्थी के संबंध में यथार्थ एवं विश्वसनीय सूचनाएँ एकत्र की जाती हैं। साक्षात्कार में व्यक्ति का व्यक्ति से संपर्क होता है। साक्षात्कार मुख्य रूप से निम्न प्रकार का होता है-

1. संरचित या नियंत्रित

2. असंरचित या अनियंत्रित

3. व्यक्तिगत साक्षात्कार

4. सामूहिक साक्षात्कार

5. सेवा (व्यवसाय) संबंधी साक्षात्कार

6. सर्वेक्षण साक्षात्कार

7. अनुसंधान साक्षात्कार

8. बाह्य एवं आंतरिक साक्षात्कार

6. परीक्षण -

शब्दकोश के अनुसार परीक्षण का आशय है, ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करना जो विशेष परिस्थिति में किसी व्यक्ति या वस्तु के असली चरित्र का दिग्दर्शन करे। अतः किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के ज्ञान, कौशल, बुद्धि, अभिवृत्ति आदि अभिलक्षणों के मापन हेतु प्रश्नों, अभ्यासों या अन्य साधनों वाले उपकरण/तरीके को परीक्षण कहते हैं। दूसरे शब्दों में परीक्षण शाब्दिक या गैर-शाब्दिक अनुक्रियाओं या व्यक्तियों के अन्य व्यवहारों के नमूनों के माध्यम से मानवीय व्यवहार के एक या अधिक पक्षों का यथासंभव वस्तुनिष्ठ रूप से मापन करने की तकनीक है। परीक्षण के परिणाम व्यक्ति को किसी खास अभिलक्षण के संबंध में एक अन्य स्थिति में रख देते हैं। परीक्षण से प्राप्त इस प्रकार की जानकारी, व्यक्ति के निष्पादन की तुलना या तो निश्चित कसौटियों या अन्य व्यक्तियों के निष्पादन के साथ करने में सहायक होती है। इन दोनों ही परिस्थितियों में, व्यक्तियों या समूह के संबंध में विभिन्न महत्वपूर्ण शैक्षिक निर्णय लिए जा सकते हैं। इन शैक्षिक निर्णयों में वर्गीकरण, श्रेणीयन, प्रोन्नति, मार्गदर्शन, अध्यापन-अधिगम विधियों का पुनः अभिकल्पन और मूल्यांकन साधन आदि शामिल हैं। परीक्षण के तीन प्रकार होते हैं-

  • मौखिक परीक्षण (Viva-Voce or Oral Test) - इस प्रकार के परीक्षणों का रूप लिखित न होकर मौखिक होता है। मौखिक रूप से प्रश्न पूछकर मौखिक रूप में उत्तर लेना, विचार-विमर्श करना तथा किसी एक प्रसंग या प्रकरण पर परीक्षार्थियों के मध्य वार्तालाप, वाद-विवाद या पैनल वार्ता, नाट्य प्रदर्शन, ड्रामा आदि का आयोजन कराना मौखिक परीक्षण के ही विभिन्न रूप कहे जा सकते हैं। इस प्रकार के मौखिक परीक्षणों द्वारा गणित में विद्यार्थियों की योग्यता, बुद्धि और शैक्षिक उपलब्धियों से संबंधित बहुत-सी बातों की आवश्यक जानकारी प्राप्त हो सकती हैं, यथा-

1. मौखिक गणित में वे कितने कुशल तथा सक्षम हैं। उनमें प्रश्नों या समस्याओं को मौखिक रूप से समझने तथा मौखिक रूप से गणना करके मौखिक रूप में अभिव्यक्त करने की कैसी शक्ति एवं योग्यता है, आदि।

2. गणित में प्रयोगात्मक तथा व्यवहारात्मक कौशलों की उपलब्धि के अर्जन की जाँच हेतु जो प्रयोगात्मक परीक्षाएँ ली जाती हैं या क्रियात्मक एवं व्यवहारात्मक कार्य कराए जाते हैं, उनकी प्रक्रिया के बारे में उनको कितनी जानकारी है, इसका पता लगाने में मौखिक परीक्षण उचित रूप से उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

3. मौखिक परीक्षण ज्ञानात्मक एवं प्रयोगात्मक क्षेत्रों से संबंधित उपलब्धियों के मापन के अतिरिक्त भावनात्मक व्यवहार क्षेत्र से संबंधित बहुत-सी बातों, जैसे गणित के अध्ययन के प्रति रुचि, अभिरुचि, अभिवृत्तियों, आदतों तथा व्यक्तित्व और व्यवहार में आने वाले अन्य व्यवहारगत परिवर्तनों की थाह लेने में भी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। मौखिक परीक्षण के माध्यम से बालकों की उपलब्धियों के उन पक्षों का मूल्यांकन किया जाता है जिन्हें बालक लिखित रूप में प्रदर्शित नहीं कर सकता या जिनका लिखित परीक्षणों के माध्यम से मूल्यांकन करना संभव नहीं होता। मौखिक परीक्षण के माध्यम से बच्चों की पठन, अर्थग्रहण, उच्चारण, श्रवण, भाषण, अनुक्रिया करने एवं साक्षात्कार करने की योग्यताओं का मापन किया जा सकता है।

  • प्रयोगात्मक परीक्षण (Practical Tests) - इन परीक्षणों में बालकों के द्वारा किए जाने वाले क्रियात्मक एवं प्रयोगात्मक कार्य के आधार पर उनकी इस क्षेत्र से संबंधित उपलब्धियों तथा व्यवहारगत गुणों की जाँच की जाती है। विभिन्न कुशलताओं के अर्जन का मूल्यांकन करने का एकमात्र सही साधन प्रयोगात्मक परीक्षण और परीक्षाएँ ही हैं। इसी तरह बालक की सृजनात्मक तथा रचनात्मक क्षमताओं, रुचियों तथा अभिवृत्तियों का मूल्यांकन भी उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं तथा किए जाने वाले कार्य के आधार पर ही अच्छी तरह से हो सकता है। यही कारण है कि प्रयोगात्मक परीक्षण और परीक्षाओं का उपयोग मूल्यांकन की एक विशिष्ट तकनीक के रूप में विद्यालय पाठ्यक्रम के लगभग सभी विषयों में किया जा सकता है। गणित के शिक्षण में भी काफी आवश्यक हो जाता है कि विद्यार्थियों द्वारा जो भी प्रायोगिक, क्रियात्मक तथा व्यवहारात्मक कार्य किए जाएँ और उनमें गणित के शिक्षण-अधिगम संबंधी जो भी कुशलताओं या दक्षताओं के अर्जन की बात सोची जाए, उन सबका मूल्यांकन भी होना ही चाहिए। गणित में ज्यामिति, त्रिकोणमिति आदि विषयों में अनेक ऐसे उप-विषय हैं, जिनमें प्रयोगात्मक कार्य द्वारा प्रत्ययों एवं संकल्पनाओं का स्पष्टीकरण कराया जा सकता है। क्षेत्रफल, ऊँचाई एवं दूरी आदि उप-विषयों में प्रयोगात्मक कार्य उपयोगी हैं। गणित में प्रयोगात्मक परीक्षाओं को स्थान दिया जाना चाहिए। प्रायोगिक परीक्षणों का प्रयोग बच्चों के मनो-शारीरिक (गामक) पक्ष के उद्देश्यों का मापन करने हेतु किया जाता है। ये परीक्षण क्रिया आधारित होते हें जिसमें छात्र स्वयं प्रयोग करके सीखते हैं। प्रायोगिक परीक्षाएँ ‘करके सीखने’ एवं ‘अवलोकन द्वारा सीखने’ के सिद्धान्त पर आधारित होती है। प्रायोगिक परीक्षण में छात्रों को कुछ कार्य दे दिया जाता है जिसे वे स्वयं प्रयोगशाला में प्रयोग करके पूरा करते हैं। इन परीक्षणों की सहायता से छात्रों को प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होते हैं।
  • लिखित परीक्षण (Written Tests) - ये परीक्षण लिखित रूप में आयोजित किये जाते हैं जिनमें शिक्षार्थियों से लिखित रूप में प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनके उत्तर एक निश्चित समयावधि में उन्हें उत्तर पुस्तिका में लिखकर देने होते हैं। मौखिक परीक्षाओं की अपेक्षा ये अधिक प्रभावशाली होते हैं। लिखित परीक्षाएँ इकाई, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, छःमाही एवं वार्षिक आदि रूपों में हो सकती है। गणित शिक्षण में आंतरिक तथा बाह्य परीक्षाओं से संबंधित अधिकांश कार्य लिखित परीक्षणों के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। इस प्रकार के परीक्षणों में लिखित सामग्री पेपर, पेंसिल, पेन, इंक आदि का प्रयोग किया जाता है। यह परीक्षा व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों रूपों में ली जाती है। विद्यार्थियों के द्वारा जो उत्तर पुस्तिका या उत्तर-पत्र पर दिए जाते हैं उनके सही या गलत होने की जाँच अध्यापक द्वारा की जाती है ओर उसके आधार पर ही उन्हें अंक प्रदान करके उनकी गणित संबंधी शैक्षिक उपलब्धि का मापन तथा फिर उसका गुणात्मक विवरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाता है। गणित शिक्षण के मूल्यांकन में प्रयुक्त इन लिखित परीक्षाओं में जिस प्रकार के प्रश्नों की प्रश्न-पत्रों में रचना की जाती है। उनके सामान्यतया निम्न तीन रूप देखने को मिलते हैं-

1. निबंधात्मक प्रश्न

2. लघु-उत्तरात्मक प्रश्न

3. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Question) - निबन्धात्मक प्रश्नों का उत्तर विस्तार से (निबन्धात्मक रूप में) देना होता है। उत्तर की शब्द सीमा निर्धारित नहीं की जाती है। यह परीक्षा का पुराना एवं परम्परागत तरीका है। इन परीक्षाओं में विद्यार्थी को अपने विचारों की अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता होती है, जिसमें उसके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होती है। प्रश्नों के उत्तरों में पूर्ण स्वच्छंदता, विस्तृतता तथा गहनता होने के कारण इनमें विविधताओं का होना स्वाभाविक हो जाता है। इस प्रकार की उत्तर संबंधी विविधताओं का मूल्यांकन कर बालकों की उपलब्धियों की तुलना करने का कार्य परीक्षकों द्वारा किया जाता है। निबंधात्मक परीक्षा में छात्र की उपलब्धि के साथ-साथ उसकी अभिव्यक्ति क्षमता, लेखन क्षमता, रुचियों, अभिवृत्तियों, कुशलताओं आदि का सही-सही मूल्यांकन किया जाता है। साथ ही इनसे विद्यार्थी के हस्तलेखन एवं भाषा-शैली का मूल्यांकन भी किया जाता है।

2. लघुत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Question) - लघुत्तरात्मक प्रश्नों के उत्तर बहुत छोटे (लगभग 50 से 100 शब्दों में) देने होते हैं। सामान्यतः ऐसे प्रश्नों में ही उत्तर सीमा लिख दी जाती है, जो 15-20 शब्दों से लेकर 100-150 शब्दों तक हो सकती है। इस प्रकार के प्रश्नों से छात्र की अपनी बात को संक्षिप्त एवं सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत करने की क्षमता की जाँच की जाती है।

3. वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न (Objective Type Question) - ऐसे प्रश्न जिनका उत्तर एक-दो शब्दों में या रिक्त स्थान भरकर या हाँ, नहीं में या सत्य/असत्य के रूप में या दिये हुए विकल्पों में से एक को चुनकर देना होता है, वस्तुनिष्ठ प्रश्न कहलाते हैं। वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न निबन्धात्मक परीक्षाओं की कमियों, जैसे आत्मगतता (Subjectvity), अत्यधिक समय आदि को दूर करने का सर्वोत्तम विकल्प प्रस्तुत करते हैं। वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न-पत्र आकार तथा लंबाई में निबन्धात्मक एवं लघुत्तरात्मक प्रश्नपत्र से बहुत बड़ा होता है। वस्तुनिष्ठ प्रकार की परीक्षाओं की व्यापकता (Comprehensiveness) एवं समुचितवितरण अन्य सभी प्रकार की परीक्षाओं से बहुत अधिक होता है। इन प्रश्नों का उत्तर निश्चित एवं संक्षिप्त होने से जाँचकर्त्ता को जाँच करने में सुविधा एवं सरलता रहती है। इस प्रकार के प्रश्नों में वस्तुनिष्ठता (Objectivity) बनी रहती है तथा यह पद्धति अध्यापक को छात्र के प्रति मोह, इच्छा या द्वेष होने पर भी यथार्थ मूल्यांकन के लिए बाध्य करती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के प्रकार-

(अ) हाँ या नहीं वाले प्रश्न (Yes/No) - इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर केवल हाँ या नहीं के रूप में देना होता है।

(ब) सत्य, असत्य प्रश्न (True/False) - इन प्रश्नों में दिये गये कथन के सत्य या असत्य होने के बारे में लिखना होता है।

(स) रिक्त स्थानों की पूर्ति (Fill in the Blanks) - ऐसे प्रश्नों में कुछ रिक्त स्थान दिये रहते हैं जिनमें एक-दो शब्द भरकर वाक्य पूरा करना होता है।

(द) बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) - इस प्रकार के प्रश्नों में उत्तर के चार या पाँच विकल्प दिये हुए रहते हैं। उन विकल्पों में से सही उत्तर वाले विकल्प या विकल्पों का चयन करना होता है।

(य) मिलान रूप परीक्षण (Matching Type Question) - इस प्रकार के प्रश्नों में से दो स्तंभों में से एक स्तंभ में प्रश्न तथा दूसरे स्तंभ में उत्तर दिये रहते हैं छात्र को दोनों स्तंभों से प्रश्नों के सही उत्तर मिलाने होते हैं।

अनौपचारिक विधियों द्वारा मूल्यांकन

(Evaluation Through Informal Methods)

  • अनौपचारिक मूल्यांकन में छात्रों का मूल्यांकन अध्यापक या प्रेक्षणकर्त्ता द्वारा बिना उनकी जानकारी के किया जाता है। इस मूल्यांकन द्वारा विद्यार्थियों का गुणात्मक मूल्यांकन किया जाता है। अनौपचारिक मूल्यांकन की प्रमुख तकनीके निम्न हैं-

1. अवलोकन        

2. विद्यार्थियों की टिप्पणियाँ

3. संवाद               

4. पूछे जाने वाले प्रश्नों पर ध्यान देना

5. आकस्मिक निरीक्षण अभिलेख

6. शिक्षार्थी द्वारा निर्मित वस्तुएँ

7. घटनावृत

  • अवलोकन या निरीक्षण (Observation)

“अवलोकन आँख के द्वारा विचारपूर्वक किया गया अध्ययन है जिसको सामूहिक व्यवहार एवं जटिल सामाजिक संस्था के साथ-साथ सम्पूर्ण का निर्माण करने वाली पृथक इकाइयों का सूक्ष्म निरीक्षण करने की एक प्रणाली के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।”

इस प्रविधि का उपयोग बालकों की योग्यता और व्यवहारों के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यह प्रविधि छोटे बच्चों के मूल्यांकन के लिए अधिक उपयोगी है, क्योंकि उन्हें कोई अन्य परीक्षा तो दी नहीं जा सकती है। उच्च कक्षाओं के विद्यार्थी स्वयं आत्म-निरीक्षण के लिए भी इसका प्रयोग करते हैं। इस प्रविधि द्वारा मूल्यांकन करने पर संबंधित विषय-वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करके तथ्यों का वास्तविक रूप में अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार निरीक्षण का अवलोकन द्वारा एकत्रित किये गये आंकड़ें एवं सूचनायें अधिक विश्वसनीय होती हैं।

गणित शिक्षण में निरीक्षण (अवलोकन) द्वारा छात्रों की उपलब्धियों के विषय में सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं। इस प्रविधि में बालकों में संवेगात्मक स्थिरता, सोचने के तरीकों में यथार्थता तथा मानसिक परिपक्वता आदि के विषय में सूचनाएँ कक्षा शिक्षण के दौरान निरंतर प्राप्त की जाती हैं। बालक के व्यवहार में वांछित परिवर्तन उसके समस्या समाधान करने की क्रिया के निरीक्षण के द्वारा मूल्यांकित किया जाता है। अवलोकन सहभागी (Participatory) एवं असहभागी (Non-participatory) हो सकता है। सहभागी अवलोकन में जिस बालक या समूह का अवलोकन होता है, अवलोकनकर्त्ता उस समूह में एक अनजान की भाँति सहभागी बनकर अवलोकन करता है। असहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्त्ता किसी ऐसे स्थान पर बैठकर या छिपकर अवलोकन करता है, जहाँ से वह उस समूह की सभी गतिविधियों का अवलोकन कर सके।

  • संवाद -

इस विधि में छात्रों से विभिन्न विषयों पर संवाद या वाद-विवाद करवाया जाता है और उसमें उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये तथ्यों, उनके प्रस्तुतीकरण के तरीकों एवं आपस में एक-दूसरे के साथ व्यवहार का मूल्यांकन किया जाता है।

  • पूछे जाने वाले प्रश्नों पर ध्यान देना-

इस विधि में छात्र द्वारा कक्षा-शिक्षण के दौरान या अन्य पाठ्येत्तर गतिविधियों के दौरान पूछे गये प्रश्नों पर कितना ध्यान दिया जाता है तथा उनके उत्तर देने में छात्र द्वारा किस तरह का व्यवहार प्रदर्शित किया जाता है, के मूल्यांकन द्वारा उसकी रुचि, दृष्टिकोण, अनुभूति एवं व्यक्तित्व के गुणों का मूल्यांकन किया जाता है। इसके साथ ही छात्रों द्वारा अध्यापक से पूछे गये प्रश्नों के आधार पर भी उनके ज्ञान का बोध तथा व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है।

  • आकस्मिक निरीक्षण अभिलेख (Anectodal Record)

इस अभिलेख के आधार पर विद्यार्थियों के सम्बन्ध में सामान्यीकरण किया जा सकता है और निर्देशन में इसे प्रयुक्त किया जा सकता है। इस आलेख में विद्यार्थियों के व्यवहार से संबंधित महत्वपूर्ण घटनाओं तथा कार्य़ों का वर्णन किया जाता है। आकस्मिक निरीक्षण अभिलेख में निरीक्षणकर्त्ता द्वारा बालकों की रुचियों तथा दृष्टिकोण को उत्पन्न करने वाले कारकों या घटकों का भी उल्लेख किया जाता है। इसके द्वारा मुख्यतः बालक के सामाजिक गुणों तथा समायोजन का अध्ययन आसानी से किया जा सकता है।

  • विद्यार्थियों की टिप्पणियाँ -

इस विधि में अध्यापक शिक्षण कार्य एवं अन्य गतिविधियों के संबंध में छात्रों से अपने विचार प्रकट करने को कहते हैं, जिनके आधार पर छात्रों के व्यक्तित्व एवं अधिगम का मूल्यांकन किया जाता है। इसके अलावा विद्यार्थियों द्वारा शिक्षण एवं अन्य गतिविधियों के संबंध में समय-समय पर क्या टिप्पणियाँ की गई हैं, उनके आधार पर भी छात्रों की रुचि, ज्ञान के स्तर, अवबोध, समझ आदि का मूल्यांकन किया जाता है।

  • शिक्षार्थी द्वारा निर्मित वस्तुएँ -

शिक्षार्थी के स्वयं के द्वारा बनाई हुई वस्तुओं से भी उनके कौशल और रुचियों का पता चलता है। उदाहरण के लिए किसी छात्र के द्वारा निर्मित चित्रों को देखकर केवल इतना ही पता नहीं लगता कि उसमें चित्र बनाने का कौशल किस कोटि का है अपितु उनके प्रकार को देखने से उनकी रुचियों के बारे में भी जानकारी होती है। हम जानते हैं कि छोटे बच्चे प्रायः पशु-पक्षियों के, किशोर प्रायः प्राकृतिक दृश्यों के और युवक-युवतियाँ प्रायः भिन्न लिंगियों के चित्र बनाते हैं। रुचियों का क्षेत्र तो बहुत व्यापक होता है। इन वस्तुओं को देखकर हम उस व्यापक क्षेत्र में बच्चे की रुचियों के क्षेत्र का सरलता से पता लगा लेते हैं।

  • घटनावृत्त -

घटनावृत्त से तात्पर्य उन अभिलेखों से होता है जो शिक्षक किसी शिक्षार्थी क विषय में तैयार करते हैं। इस प्रकार के अभिलेखों में शिक्षार्थी से संबंधित विशेष घटनाओं को अंकित किया जाता है जिनके द्वारा उनके संवेगात्मक व्यवहार की जानकारी होती है। इन अभिलेखों की सहायता से बालक के सामाजिक व्यवहार (दूसरे के प्रति दृष्टिकोण) और व्यक्तित्व के अन्य पक्षों के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है।

गणित शिक्षण की समस्याएँ

(Problems of Maths Teaching)

गणित शिक्षण के दौरान कई कारकों के प्रभाव के कारण छात्रों में इस विषय का अधिगम पर्याप्त ढंग से नहीं हो पाता है और वे गणित में पीछे रह जाते हैं। जैसे- शिक्षण के दौरान कई बार समझ न आने के कारण बालक का ध्यान इधर-उधर चला जाता है। ऐसे कई कारण हैं जो गणित शिक्षण की प्रक्रिया में व्यवधान पैदा करते हैं। शिक्षण प्रक्रिया को सुगम एवं सुरुचिपूर्ण बनाना अध्यापकों एवं अभिभावकों का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सीखने वालों (विद्यार्थियों) की भूमिका मुख्य होती है। इसके साथ ही शिक्षक का ज्ञान, कौशल, अपनी बात कहने का ढंग, छात्रों के साथ व्यवहार आदि कारक भी शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। इन सभी कारकों पर यदि समुचित ध्यान नहीं दिया जाए तो शिक्षण प्रक्रिया में समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान छात्रों की क्षमताओं के अनुसार अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इन समस्याओं को निम्न वर्ग़ों में विभाजित किया जा सकता है-

  • बच्चों की अक्षमता से उत्पन्न समस्याएँ - शिक्षण-अधिगम कार्य में शिक्षक एवं छात्रों दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यदि छात्र में किसी प्रकार की अक्षमता है तो शिक्षण प्रक्रिया में उसका समुचित ध्यान नहीं लग पाता है। बालकों से संबंधित अक्षमताएँ निम्न हो सकती हैं-

शारीरिक न्यूनता से ग्रस्त होना - बालकों के शरीर में यदि किसी प्रकार की अक्षमता है, जैसे- आँखें खराब होना, सुनने में कठिनाई, हकलाना-तुतलाना, शरीर के किसी अंग में दर्द हो, हाथ-पैर में किसी प्रकार का दोष हो या इसी प्रकार की अन्य कोई शारीरिक कमी हो तो ऐसे बच्चे शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अपना पूरा ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते और वे गणित जैसे विषय, जिसमें पाठ्य-विषय के हर भाग का महत्व होता है, ठीक ढंग से ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं, फलस्वरूप वे गणित में पिछड़ जाते हैं। इसके अलावा ऐसे बालकों को समायोजन संबंधी अनेक कठिनाइयाँ भी झेलनी पड़ती हैं। ऐसे बच्चों में हीनता की भावना घर कर जाती है और शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में समुचित ध्यान न लगा पाने के कारण वे पीछे रह जाते हैं।

मानसिक अक्षमताएँ - कई बच्चों में कई तरह के मानसिक विकार होते हैं जो उनकी शिक्षण-अधिगम क्षमताओं में बाधा उत्पन्न करते हैं एवं उनके सीखने की क्षमता को प्रभावित करते हैं। बालकों में पाई जाने वाली मानसिक न्यूनताएँ निम्न प्रकार की हो सकती है-

- कुछ बालकों में बुद्धिलब्धि (I.Q.) बहुत कम होती है। वे मानसिक रूप से उतने परिपक्व नहीं होते जितने कि उन्हें किसी विशेष कक्षा में गणित की पढ़ाई करने के लिए होना चाहिए।

- कुछ बालकों में एकाग्रता (Concentration Power) बहुत कम पाई जाती है। ये बालक कुछ समय निरंतर मन लगाकर कोई काम नहीं कर सकते। गणित एक ऐसा विषय है जिसे सीखने के लिए एकाग्रता बहुत आवश्यक है। अतः इसके अभाव में वे अपनी पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं।

- बालकों में मानसिक रोग या विकृतियाँ (Mental Diseases) भी हो सकती हैं, जैसे किसी को दिमागी बीमारी हो, मिरगी या पागलपन  के दौरे आते हों इत्यादि।

- कुछ बच्चों की स्मरण शक्ति (Memory) बहुत ही कमजोर होती है। ऐसे बच्चे कुछ भी अच्छी तरह याद रख सकने में अपने आपको समर्थ नहीं पाते। अतः ऐसे बच्चों का गणित की पढ़ाई में पिछड़ जाना स्वाभाविक ही है।

बच्चों में मानसिक रूप से क्या न्यूनता अथवा दोष हैं, अध्यापक को यह पता लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। मानसिक रोग होने पर संरक्षकों की सहायता से बच्चे का इलाज कराने का प्रबंध कराना चाहिए। मानसिक रूप से पिछड़े होने (I.Q. कम होने) की दशा में ऐसे बच्चों में गणित के नियमों, मूलाधारों (Fundamentals) तथा धारणाओं (Concepts) का व्यक्तिगत ध्यान देकर अच्छी तरह ज्ञान कराना चाहिए। सामान्य बच्चों को जिस तरह पढ़ाया जाता है उससे अधिक ध्यान व समय देकर तथा समय खर्च करके ऐसे बच्चों को पढ़ाया जाना चाहिए। बच्चे पूरे मन से कुछ समय तक काम कर सकें इसके लिए उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। उनकी रुचि को बढ़ाकर उन्हें अधिक देर तक काम करने की आदत डाली जा सकती है। स्मरण शक्ति को तीव्र एवं अधिक उपयोगी बनाने के लिए भी आवश्यक उपाय किए जाने चाहिए। मौखिक गणित को पाठ्यक्रम में उचित स्थान दिया जाना चाहिए तथा सूत्र, संकेत, समीकरण इत्यादि ठीक प्रकार से उपयोग कर सकने की क्षमता विकसित करनी चाहिए।

विषयगत रुचि का अभाव - यदि छात्र में गणित विषय के अध्ययन में पर्याप्त रुचि का अभाव है तो वह गणित को ठीक ढंग से नहीं पढ़ सकता। ऐसी स्थिति में गणित शिक्षण में उस बच्चे का मन बिल्कुल नहीं लगता है और वह शिक्षण प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल नहीं हो पाता है। इस समस्या के समाधान हेतु आवश्यक है बालका को गणित को जोर-जबरदस्ती रटने पर बल देने की जगह इस विषय में उसकी रुचि उत्पन्न की जाए। प्रारंभ से ही बच्चे को गणित का ज्ञान इस प्रकार प्रदान किया जाए कि वह गणित के महत्त्व को समझकर उसमें पर्याप्त रुचि लेने लगे। इस हेतु उसे गणित को दैनिक उपयोग के क्रिया-कलापों से जोड़कर सिखाया जाना चाहिए। उन्हें बिना समझे प्रश्न रटने या यांत्रिक ढंग से हल करने पर दबाव नहीं डालना चाहिए। विद्यार्थियों में गणित अध्ययन के प्रति स्वतंत्र चिंतन का विकास करना चाहिए ताकि उनकी गणित संबंधी योग्यता में वृद्धि हो।

नियमित रूप से गृहकार्य न करना - कुछ बच्चों की गृहकार्य से जी चुराने की आदत होती है। ऐसे बच्चे कक्षा में पढ़ाये जा रहे पाठ को भी ढंग से समझ नहीं पाते। ऐसे बच्चे गणित में पीछे रह जाते हैं। अध्यापक को कक्षा में ऐसे बच्चों को साथ लेकर शिक्षण कराने में कठिनाई होती है। कुछ दूसरे बच्चों के गृहकार्य की हूबहू नकल कर लेते हैं। अतः गणित के जिस तथ्य, सिद्धान्त या संकल्पना या कार्यविधि को अच्छी तरह गृहकार्य करके ठीक प्रकार एवं स्थाई रूप से सीख सकते थे, उसे नहीं समझ पाते और इस तरह वे उस दिन की पढ़ाई हुई बातों में पीछे रह जाते हैं। उनका यह पिछड़ापन बाद में स्कूल में जो कुछ पढ़ाया जाता है उसके अधिगम में बाधा उत्पन्न करता है।

कक्षा से अनुपस्थित रहना - कई विद्यार्थी नियमित रूप से कक्षा में उपस्थित नहीं रहते बल्कि आये दिन कक्षा से बंक मार जाते हैं। गणित एक ऐसा विषय है जिसमें एक अध्याय/विषय दूसरे अध्याय/विषय से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। एक दिन कक्षा में न आने पर उस दिन पढ़ज्ञये गए पाठ को बालक को समझने में कठिनाई होती है तथा उस कारण आगे के पाठों को समझना उसके लिए और कठिन हो जाता है। यह स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती जाती है और अंततः वह गणित में बहुत पीछे रह जाता है। शिक्षण कार्य के दौरान अध्यापक के लिए ऐसे बच्चों को साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल होता है। यदि वह पिछले दिन पढ़ाये गये पाठ को उसे पुनः समझाने लगे तो शेष सभी विद्यार्थियों का समय बर्बाद होने से उनमें असंतोष की भावना उत्पन्न होने का अंदेशा रहता है।

संवेगात्मक कारण - कुछ बच्चे संवेगात्मक रूप से कमजोर होते हैं। इसका कारण घर में उचित वातावरण का अभाव, माँ-बाप या अध्यापक वर्ग का अनियंत्रित व्यवहार यथा अत्यधिक लाड़-प्यार, उपेक्षा या मारपीट आदि हैं जिनकी वजह से बालक चिड़चिड़ा, दब्बू, या तुनकमिजाजी हो जाता है। संवेगात्मक रूप से अनियंत्रित बालक के संबंध में कक्षा में शिक्षण कार्य के दौरान अध्यापक को बहुत सावधानी रखनी पड़ती है। कुछ विद्यार्थी स्वभावतः बहुत भावुक होते हैं या उनमें संवेगों की मात्रा कुछ अधिक हो जाती है। फलस्वरूप या तो वे छोटी-छोटी बातों पर बहुत जल्दी क्रोध में आ जाते हैं या उन्हें अतिशीघ्र ही किसी कार्य अथवा विषय के प्रति विरक्ति हो सकती हैं। ऐसे बच्चों में सहनशीलता एवं धैर्य के गुण का अभाव होता है। शिक्षक को ऐसे बच्चों के शिक्षण कार्य में पर्याप्त विशेष सावधानी रखना आवश्यक होता है।

अध्यापक को ऐसे विद्यार्थियों के संवेगों (Emotions) के उचित शुद्धिकरण पर ध्यान देने प्रयत्न करना चाहिए। संवेग हानि या लाभ किसी भी दिशा में प्रयुक्त किए जा सकते हैं। अतः अगर बालकों को मनोवैज्ञानिक रूप से समझकर उनकी कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए उन्हें ठीक प्रकार का वातावरण, मार्ग-निर्देशन एवं सुविधाएँ दी जाएँ तथा उनके आत्म-विश्वास में उत्तरोत्तर वृद्धि की जाए तो आशाजनक परिणाम निकल सकते हैं। मारने-पीटने अथवा अनावश्यक रूप से कठोर नियंत्रण द्वारा संवेगात्मक समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं बल्कि उचित देखभाल, सहानुभूति और व्यक्तिगत मार्गनिर्देशन द्वारा ही इस लक्ष्य को प्रापत किया जा सकता है।

दोषपूर्ण हस्तलेख एवं रचना संबंधी अयोग्यताएँ - कुछ बच्चों का हस्तलेख (Handwriting) बहुत ही गन्दा एवं अस्पष्ट होता है। उनकी भाषा संबंधी अशुद्धियाँ भी बहुतायत में होती है। ऐसे बच्चों के कक्षा-कार्य एवं गृहकार्य आदि का मूल्यांकन करने में अध्यापक को अत्यधिक कठिनाई आती है। इस कारण उनका परीक्षा परिणाम भी अपेक्षित से कम रहता है। कई बच्चे प्रारंभ से ही रचना एवं चित्र बनाने में अरुचि रखते हैं। गणित में स्केल, पेंसिल, चाँदा, प्रकार आदि ज्यामितीय उपकरणों का प्रयोग ठीक ढंग से नहीं करते। इस प्रकार बच्चों के रचना संबंधी दोष एवं भाषा संबंधी कमियों की वजह से वे गणित विषय का सही तरह से अधिगम नहीं कर पाते। ऐसे बच्चों को कक्षा के अन्य बच्चों के साथ पढ़ाना अध्यापक के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है।

बच्चों की इस कमी के निवारण हेतु आवश्यक है कि बच्चों के लेख (भाषा संबंधी अशुद्धियों एवं अक्षरों की उचित बनावट) पर शुरू से ही पूरा ध्यान दिया जाए। उन्हें गणित की अपनी भाषा से भी ठीक तरह से अवगत कराया जाए। रेखागणित एवं चित्रकला संबंधी रचनाओं में उनकी रुचि एवं कुशलता बढ़ाने के लिए भी प्रारंभिक कक्षाओं से पूरी तरह प्रयत्न किए जाने चाहिए। व्यक्तिगत रूप से उनको रचना कार्य़ों में सहयोग प्रदान कर उनमें रचना संबंधी आवश्यक योग्यता उत्पन्न की जा सकती है।

उपर्युक्त समस्याओं के अलावा बालकों से संबंधित निम्न समस्याएँ भी शिक्षण-प्रक्रिया में रुकावट डालती है।

- बालकों का अनुशासनहीन व्यवहार।

- छात्रों का कक्षा में देरी से आना।

- बालकों की चोरी की प्रवृत्ति।

  • शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया से संबंधित समस्याएँ - ये ऐसे कारक हैं जिनका संबंध शिक्षक एवं शिक्षण प्रक्रिया तथा शिक्षण की परिस्थितियों से होता है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया से संबंधित समस्यात्मक कारक निम्न हैं-

शिक्षक के पढ़ाने में कमी - किसी भी विषय, विशेषकर गणित के शिक्षण में अध्यापक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। उसका पढ़ाने का तरीका शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को गहरे से प्रभावित करता है। यदि शिक्षक का पढ़ाने का तरीका त्रुटिपूर्ण है, वह बालकों को ठीक प्रकार से नहीं पढ़ा पाता है, तो बच्चों की रुचि शिक्षण प्रक्रिया से हट जाती है और वे अन्य कार्य़ों में लग जाते हैं। अयोग्य तथा उत्साहहीन शिक्षक अध्यापन से पूर्व न तो पूरी तैयारी करके आते हैं और न ही उनकी विषय पर पूरी पकड़ होती है। फलस्वरूप वे कई बार बालकों को गलत तथ्य भी पढ़ा देते हैं, साथ ही वे विद्यार्थियों को गणित के सूत्र, सिद्धान्त एवं प्रत्यय सही ढंग से नहीं समझा पाते। इन कारणों की वजह से कई बालकों को गणित एक पहाड़ जैसा अत्यधिक कठिन विषय लगने लगता है।

इस समस्या के समाधान हेतु आवश्यक है कि अध्यापक पूरी तैयारी करके कक्षा में शिक्षण कार्य करे तथा गणित के हर बिंदु को सही ढंग से समझाते हुए आगे बढ़े।

शिक्षक को गणित शिक्षण की उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग करते हुए शिक्षण का उचित वातावरण उत्पन्न करते हुए सही ढंग से गणित विषय का शिक्षण कराना चाहिए तथा साथ ही समय-समय पर आवश्यक लिखित, मौखिक, अभ्यास कार्य एवं गृहकार्य देकर बच्चों में इस ज्ञान को स्थाई बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

शिक्षक का व्यक्तित्व एवं व्यवहार - शिक्षक का व्यक्तित्व एवं बालकों के साथ व्यवहार विद्यार्थियों में उसके द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषय के प्रति उचित या उपेक्षात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी होता है। कक्षा के सभी बच्चों का मानसिक स्तर समान नहीं होता। अतः गणित जैसे विषय को सभी बच्चे समान समय में उतने ही अच्छे नहीं समझ सकते। अतः शिक्षक को धैर्यवान होना आवश्यक है। जो शिक्षक क्रोधी स्वभाव के होते हैं एवं बच्चों को बात-बात में झिड़कते हैं या उन्हें छोटी-छोटी गलती पर मारते-पीटते हैं, उनके प्रति एवं उनके विषय के प्रति बच्चों के मन में एक डर पैदा हो जाता है। शिक्षक के ऐसे व्यवहार से जब कोई छात्र गणित के किसी सिद्धान्त या सूत्र को नहीं समझ पाता तो वह उसके बाद के तथ्यों एवं सूत्रों को समझने में कठिनाई का अनुभव करता है। कई बार शिक्षकों का छात्रों  के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार भी उनमें असंतोष की भावना को जन्म दे देता है। फलस्वरूप बालक उस शिक्षक की बातों की उपेक्षा करना शुरू कर देते हैं और धीरे-धीरे वे पढ़ाई में पीछे रह जाते हैं।

इसलिए यह आवश्यक है कि अध्यापक जहाँ तक हो सके अपने व्यवहार में पर्याप्त संतुलन लाकर कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी को अपना पूर्ण स्नेह प्रदान करे तथा उनकी कठिनाइयों को समझकर उनका ठीक प्रकार से मार्ग निर्देशन करे।

व्यक्तिगत ध्यान न देना - गणित एक ऐसा विषय है जिसमें यह आवश्यक है कि प्रत्येक विद्यार्थी के ऊपर समुचित ध्यान दिया जाए। गणित के तथ्यों, सिद्धान्तों एवं प्रश्न हल करने की विधियों से परिचित कराते समय अध्यापक को यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी बच्चों को स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है अथवा नहीं? सभी बच्चे अभ्यास कार्य ठीक प्रकार से कर पा रहे हैं अथवा नहीं? परंतु गणित पढ़ाते समय अधिकतर सामूहिक हितों की रक्षा करने में वैयक्तिकता (Individuality) का बलिदान कर दिया जाता है। इससे तीव्र एवं कुशाग्र बुद्धि वाले बालक तो शिक्षक के साथ चल पड़ते हैं जबकि मंद बुद्धि बालक पीछे रह जाते हैं। एक बार पीछे रह जाने पर उनमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है और वे कोई भी नया ज्ञान प्राप्त करने में हिचकिचाते हैं।

अगर उस समय की उनकी योग्यता और सामर्थ्य को ध्यान में रखकर उन्हें शिक्षा दी जाए अथवा तीव्र बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा उनको ज्ञान देने में अधिक समय और शक्ति लगाई जाए तो वे भी सबके साथ-साथ चल सकते हैं। इस तरह अध्यापक को चाहिए कि वह सबकी योग्यता, शक्ति, सामर्थ्य, रुचि और अभिरुचि को ध्यान में रखता हुआ इस तरह की व्यवस्था करे कि कोई भी ज्ञान प्राप्ति की दौड़ में व्यर्थ ही पीछे न रह जाए, इसके लिए अगर हो सके तो मंदबुद्धि बालकों के लिए विशेष कक्षाएँ भी लगाई जा सकती हैं।

अतः अध्यापक को यह प्रत्यन करना चाहिए कि विद्यार्थी गृहकार्य नियमित रूप से ठीक-ठीक प्रकार करें। उसे उचित मात्रा में उचित प्रकार का कार्य बच्चों को देना चाहिए। कभी भी उनकी योग्यता और सामर्थ्य के बाहर उन्हें गृहकार्य नहीं दिया जाना चाहिए। उनके गृहकार्य की व्यक्तिगत रूप से अच्छी तरह नियमपूर्वक जाँच की जानी चाहिए तथा उनकी कठिनाईयों को समझकर उनका उचित रूप से मार्गनिर्देशन किया जाना चाहिए। गृहकार्य को शिक्षा का एक अनिवार्य अंग मानकर परीक्षा एवं मूल्यांकन प्रणाली में उचित स्थान दिलाने की चेष्टा करनी चाहिए।

गृहकार्य की अधिकता एवं अस्पष्टता - कई शिक्षक छात्रों को अत्यधिक मात्रा में गृहकार्य देते हैं। गृहकार्य की अधिकता व उसके करने हेतु पर्याप्त समय नहीं मिल पाने के कारण छात्र उसे पूरा करके नहीं लाते। इसी प्रकार कई बार दिया गया गृहकार्य अस्पष्ट होता है अथवा ऐसा होता है, जिसका कक्षा के अन्दर अभ्यास करवाया गया नहीं होता या शिक्षक ने उसे पढ़ाया नहीं होता। ऐसी स्थिति में छात्र उसे न समझ पाने व गलती होने के डर से करते नहीं है। फलस्वरूप धीरे-धीरे उनमें गृहकार्य को न करने की आदत बन जाती है। इससे उनमें पाठ्य विषय-वस्तु की पूरी समझ विकसित नहीं हो पाती।

शिक्षकों की कमी - कई विद्यालयों में गणित पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं होती है। फलस्वरूप कक्षा के कुल कालांश खाली रहते हैं। शिक्षकों की कमी होने के कारण बालकों की पढ़ाई समुचित रूप से नहीं हो पाती। खाली कालांश में अनुशासनहीनता की समस्या भी उत्पन्न होने लगती है। शिक्षकों के अभाव का सर्वाधिक नुकसान औसत दर्जे के विद्यार्थियों एवं कमजोर विद्यार्थियों को होता है क्योंकि वे बिना अध्यापक के निर्देशन के गणित जैसे विषय को सीखने में कठिनाई अनुभव करते हैं। धीरे-धीरे एक स्थिति ऐसी आती है कि अध्ययन में उनकी रुचि ही समाप्त हो जाती है।

विषयवस्तु एवं अध्ययन के नीरस तरीके - हमारे देश में आज भी पाठ्यक्रम परम्परागत हैं जिनका बालक के जीवन से अधिक सरोकार नहीं होता फलस्वरूप अध्ययन में उसकी गहरी रुचि जाग्रत नहीं हो पाती। इससे भी अधिक दुःखद स्थिति यह है कि विद्यालयों में आज भी अध्यापन के वही पुराने एवं परम्परागत तरीके ही अपनाये जा रहे हैं जो नीरस तथा दूषित व अमनोवैज्ञानिक हैं। इन शिक्षण विधियों में न तो छात्र के मानसिक व शारीरिक स्तरों का ध्यान रखा जाता है और न ही उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं का। ऐसे तरीकों से बहुत जल्दी ही विद्यार्थी ऊब जाते हैं एवं उनका ध्यान पढ़ाई से हट जाता है। अतः गणित जैसे विषय को बालकों के दैनिक जीवन से जोड़कर रुचिपूर्ण तरीके से अध्यापन कराया जाए तो बालक उसे बेहतर तरीके से समझ सकेंगे।

दोषपूर्ण पाठ्यक्रम - हमारे देश में कई विषयों के पाठ्यक्रम बदलते हुए समय की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले नहीं है। उनका बालक के वर्तमान व भावी जीवन से अधिक संबंध नहीं होता है। ऐसे पाठ्यक्रमों में उपयोगिता का अभाव है। ये पाठ्यक्रम जीवन से संबंधित न होकर सैद्धान्तिक मात्र हैं। फलतः इन पाठयक्रमों में बालकों की रुचि जाग्रत नहीं हो पाती है। इस वजह से कक्षा में शिक्षण प्रक्रिया में भी वे मन लगाकर सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते। इस कारण से वे ऐसे विषयों में कमजोर रह जाते हैं। बोझिल व अरुचिकर पाठ्यक्रम का शिक्षण करना अत्यधिक कठिन कार्य होता है।

  • पाठ्य सहगामी क्रियाओं से संबंधित समस्याएँ - बालक का बहुमुखी विकास शिक्षा का आधारभूत उद्देश्य है। छात्र के चहुँमुखी एवं संतुलित विकास के लिए आवश्यक है कि उसका शैक्षिक, शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सांवेगिक एवं सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में पूर्ण विकास हो। बालक के इस बहुआयामी विकास को करने के उद्देश्य से विद्यालय में अनेक प्रकार की शैक्षणिक एवं शैक्षणेत्तर पाठ्य सहगामी क्रियाएँ एवं क्रिया-कलाप आयोजित किये जाते हैं। इन क्रियाकलापों में वाद-विवाद, निबन्ध, कहानी लेखन, क्विज, अन्ताक्षरी, कवि सम्मेलन, विद्यालयी पत्रिकाएँ, शैक्षणिक भ्रमण, खेलकूद, प्रदर्शिनियों का आयोजन सेमीनार, विद्यालय परिषद का चुनाव, औद्योगिक एवं वाणिज्यिक संस्थानों का निरीक्षण, एन.सी.सी. एवं राष्ट्रीय सेवा योजना, छात्र संसद के क्रियाकलाप आदि शामिल हैं। इन क्रियाकलापों का आयोजन बालक की सर्वांगीण प्रगति में सहायक होता है। परंतु विद्यालय में इन लाभकारी क्रियाकलापों के आयोजनों में अनेक बाधाएँ आती हैं। इस प्रकार की रूकावटें निम्न हैं-

विद्यालय के प्रशासक का रवैया - कई विद्यालयों में प्रशासन के संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता। वहाँ केवल विषयों के शिक्षण पर ही प्रभावी बल दिया जाता है ताकि स्कूल का परीक्षा परिणाम अच्छा रहे। जबकि बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए पाठ्यसहगामी क्रियाओं यथा खेलकूद वाद-विवाद क्षेत्रीय भ्रमण, प्रदर्शनियाँ, मेले आदि का भी उतना ही महत्व होता है जितना कि विषयों के शिक्षण का।

खेलों के लिए पर्याप्त सुविधाओं का अभाव - हमारे देश में अधिकांश स्कूलों में पर्याप्त खेल सुविधाओं का अभाव है। अधिकांश स्कूलों में न तो शारीरिक शिक्षकों की व्यवस्था है और न ही खेलों के लिए पर्यापत सामान एवं खेल मैदान है। इसके अभाव में छात्रों को खेल की सुविधा नहीं मिल पाती है।  फलस्वरूप उनकी खेल प्रतिभा दबी रह जाती है। अतः सभी विद्यालयों में बालकों को पर्याप्त खेल सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

शिक्षण एवं अधिगम से संबंधित त्रुटि विश्लेषण

(Error Analysis and Related Aspects of Learning and Teaching)

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान छात्र सभी बातों का पूर्ण रूपेण अधिगम कर पाये या नहीं, इसकी जाँच हेतु उनका मूल्यांकन किया जाता है। मूल्यांकन से जब यह ज्ञात होता है कि कोई छात्र विशेष या छात्रों का एक समूह कुछ मामलों में गणित की संकल्पनाएँ नहीं सीख पाये हैं, अर्थात् उसके अधिगम में कुछ त्रुटियाँ व कमजोरियाँ रह गई हैं। तब इन कमियों एवं त्रुटियों तथा उनके कारणों का सही आकलन करने हेतु निदानात्मक परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है जिनके विस्तृत विश्लेषण के तहत् छात्रों द्वारा उसमें की गई त्रुटियों का विश्लेषण किया जाता है। इसमें यह ज्ञात करने का प्रयत्न किया जाता है कि छात्रों ने गणित के किस सम्प्रत्यय को सीखने में गलती की है तथा उसके पीछे कारण क्या हैं। इस प्रकार छात्रों की अधिगम संबंधी कठिनाइयों एवं त्रुटियों का ज्ञान प्राप्त कर उनके कारणों की खोज करना ही त्रुटि विश्लेषण कहलाता है। त्रुटि विश्लेषण विद्यार्थियों के द्वारा की जाने वाली त्रुटियों या गलतियों के विश्लेषण की ओर संकेत करता है जिसका प्रयोग उनके द्वारा उनकी किसी अधिगम विशेष में अनुभव की जाने वाली कठिनाइयों तथा कमजोरियों का निदान करने तथा उनके आधार पर उचित उपचारात्मक कदम उठाए जाने हेतु किया जाता है।

गणित में मूल्यांकन का क्या महत्व है?

मूल्यांकन औपचारिक और अनौपचारिक दोनों गतिविधियों के माध्यम से किया जा सकता है। गणित में मूल्यांकन, शिक्षार्थियों के गणितीय सीखने के बारे में जानकारी की पहचान करने, इकट्ठा करने और व्याख्या करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। मूल्यांकन वह साधन है, जो यह सीखता है कि शिक्षार्थी क्या जानते हैं और क्या नहीं।

शिक्षण में मूल्यांकन का क्या महत्व है?

मूल्यांकन शिक्षा के सुधार तथा गुणवत्ता उन्नयन में सहायक होता है। मूल्यांकन उचित शैक्षिक निर्णय लेने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। मूल्यांकन से शिक्षाशास्त्री, प्रशासक, अध्यापक, छात्र तथा अभिभावक शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति सीमा को जान सकते हैं। मूल्यांकन शिक्षण के उद्देश्यों को स्पष्ट करता है।

मूल्यांकन की आवश्यकता और महत्व क्या है?

है तथा साथ ही साथ अपनी कमियों की जानकारी भी मिल जाती है जो उन्हें भविष्य में अथक परिश्रम करने की प्रेरणा देती है। 3. मूल्यांकन का अध्यापकों के लिए भी बहुत महत्व है इसके द्वारा वे अपने शिक्षण की सही जानकारी प्राप्त करके उसमें सुधार करते हैं। आवश्यकता के अनुरूप संशोधन करते हैं।

गणित शिक्षण में आकलन का क्या महत्व है?

गणित को सीख पाने तथा उसमें आने वाले परिवर्तनों का बोध छात्रों को कराना; छात्रों की विज्ञान में प्रगति के प्रमाण तय करना। छात्रों को विकास के लिए प्रोत्साहित करना; प्रत्येक छात्र को सीखने का मौका देना। छात्रों को सुधार के मौके देना; कक्षा में चल रही शिक्षण की प्रकिर्या को बेहतर बनाना।