इंग्लिश में बहु को क्या बोलते हैं? - inglish mein bahu ko kya bolate hain?

bahu English Meaning:
बहु Adjective
 ‣ much
 ‣ many
 ‣ great
बाहु Noun, Feminine
 ‣ an arm
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Hindi, or more precisely Modern Standard Hindi, is a standardised and Sanskritised register of the Hindustani language. Hindustani is the native language of people living in Delhi, Haryana, Uttar Pradesh, Bihar, Jharkhand, Madhya Pradesh and parts of Rajasthan. Hindi is one of the official languages of India. There are 22 languages listed in the 8th Schedule of Indian Constitution.
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नमस्कार आपका पर्सनल है बहू को इंग्लिश में क्या बोलते हैं तो मैं आपको बताना चाहूंगा बहू को इंग्लिश में टोटल लव बोलते हैं धन्यवाद

namaskar aapka personal hai bahu ko english me kya bolte hain toh main aapko batana chahunga bahu ko english me total love bolte hain dhanyavad

नमस्कार आपका पर्सनल है बहू को इंग्लिश में क्या बोलते हैं तो मैं आपको बताना चाहूंगा बहू को

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इंग्लिश में बहु को क्या बोलते हैं? - inglish mein bahu ko kya bolate hain?
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इंग्लिश में बहु को क्या बोलते हैं? - inglish mein bahu ko kya bolate hain?

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दोस्‍तो, आपका स्‍वागत है | क्‍या आप जानना चाहते है की, बहू को इंग्लिश में क्‍या कहते है ? | Bahu ko English Mein Kya Kahate Hain ? बहू को इंग्लिश में क्‍या बोलते है ? तो इस सवाल का जवाब और जानकारी आपको इस आर्टीकल में मिल जाएगी |

दोस्‍तो, जब कोई लडकी शादी करके अपने ससूराल में जाती है तो उसे वहां पर सांस और ससूर बहू कहके बुलाते है | साथही घर के बडे भी बहू कहते है | कई जगहो पर आज भी बहू का बहोत सन्‍मान होता है | ससुराल वाले अच्‍छे मिलने पर अथवा सांस और ससूर अच्‍छे होने पर वह उस बहू को अपनी बेटी की तरह रखते है |

बहू को इंग्लिश में क्‍या कहते है ? | Bahu ko English Mein Kya Kahate Hain ?

दोस्‍तो, बहू को इंग्लिश में Daughter in law कहते है | हिंदी में इसका उच्‍चारण डॉटर इन लॉ होता है | जब कोई लडकी अपने मायके से शादी करके ससूराल आती है तब उसे बहू कहा जाता है | वह बहू अपने मायके की तरह ही ससुराल में भी सभी को मान सन्‍मान देती है | पती की और सांस ससूर की सेवा करती है |

दोस्‍तो, आशा करते है की, आपको बहू को इंग्लिश में क्‍या कहते है ? | Bahu ko English Mein Kya Kahate Hain ? बहू को इंग्लिश में क्‍या बोलते है ? तो इस सवाल का जवाब और जानकारी मिल गई होगी | इसी तरह की और जानकारी हासिल करने के लिए आप इस ब्‍लॉग के दूसरे आर्टीकल पढ सकते है | धन्‍यवाद….

कोई अब्दुल शादी और तलाक इस्लामिक क़ानून के हिसाब से ही करना चाहता है. तलाक भी उसी हिसाब से देना चाहता है. लोक व्यवहार, खानपान और कपड़े भी उसी के आधार पर पहनना चाहता है. साप्ताहिक अवकाश भी शुक्रवार को ही चाहिए उसे. क्योंकि उसके मोहल्ले या गांव की आबादी अब मुस्लिम बहुल हो चुकी है. और बच्चे भी इस्लामिक मान्यताओं के तहत पैदा करना चाहता है. अब्दुल ईमान के पक्के हैं और बहुत मजहबी हैं. हर इंसान को बराबर मानते हैं. उनके मजहब में कोई ऊँच-नीच या जातीय भेदभाव नहीं है. अब्दुल आमतौर पर एक ही शादी करते हैं, लेकिन कभी-कभार दो या उससे ज्यादा शादियां करनी पड़ती हैं. ऐसी शादियां 'अक्सर' पत्नी के गर्भ धारण नहीं करने की वजह से होती हैं. अभी यूपी से एक दिलचस्प मामला सामने आया था. 18 साल की एक लड़की ने अपनी ट्यूटर के पति से शादी कर ली. दोनों पत्नियां एक ही घर में राजी खुशी रह भी रही हैं. ट्यूटर, पति की शादी के लिए इसलिए राजी हुई कि वो मां नहीं बन सकती थी. मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी? इस्लाम में यह अवैध नहीं है.

इस्लाम के आधार पर कोई अब्दुल बात-बात पर पत्नी को तलाक देने की अनुमति भी पा लेते हैं. मसलन चावल में कंकड़ आ गया हो या फिर गोश्त ठीक से नहीं पका. वे चाहें तो इसके लिए अपनी पत्नी को तलाक-तलाक-तलाक कह सकते हैं. सिर्फ इतना भर. या फिर अब्दुल, अरब गए हैं- वहां अफसर हैं और यहां भारत में उनकी पत्नी बिना हिजाब के छज्जे पर मायके में किसी से बतिया भर ले तो मां की शिकायत पर अब्दुल फोन/स्काइप के जरिए भी तलाक-तलाक कह सकते हैं. इस्लाम ने उन्हें अधिकार दिया है. वैसे अब ट्रिपल तलाक पर मोदी जी की कृपा से क़ानून है. बावजूद कि क़ानून जैसे आया है वैसे ही ख़त्म भी किया जा सकता. और यह भी कि चावल में कंकड़ आने और चिकन ठीक से नहीं पकने की वजह से या फिर छज्जे पर मायके में बात करने से कोई मनोहर पत्नी को भले तलाक-तलाक नहीं कहे, मगर उसे पीटते पाए जाते हैं. यह भी सत्य ही है. लेकिन मनोहर की पत्नी, पति की दूसरी शादी पर राजी नहीं होती. ऐसा भी नहीं है कि देश में मनोहरों की कमी है जो योग्य वारिस की तलाश में और कुछ यूं ही- हिंदू मैरिज एक्ट का सरासर उल्लंघन कर दूसरी शादियां कर लेते हैं. असंख्य उदाहरण हैं. महाराष्ट्र में भी अभी एक ताजा मामला आया था.

इंग्लिश में बहु को क्या बोलते हैं? - inglish mein bahu ko kya bolate hain?
यूनिफॉर्म सिविल कोड का प्राइवेट बिल राज्यसभा में पेश हो चुका है.प्रतीकात्मक फोटो.

इस्लाम में नसबंदी पर रोक है. तो अब्दुल कई बच्चे पैदा करेंगे. उनका तर्क है कि हम बच्चे पैदा कर रहे, सरकार से खर्चा तो नहीं मांग रहे फिर क्या तकलीफ है. अब्दुल के यहां सामाजिक व्यवस्था में जो सबसे ऊपर हैं यानी अशराफ, वे अपनी 'हम दो हमारे दो वाली' फोटो लेकर खड़े हो जाएंगे. कहेंगे- संघी हैं क्या? क्या बकवास कर रहे हैं आप. सारे मुसलमान ऐसे नहीं होते. हमें देखिए. हम सेकुलर मूल्यों पर चलने वाले लोग हैं. हम जाहिल नहीं हैं. पढ़े लिखे हैं. हमारे बच्चे इंग्लिश मीडियम स्कूल में जा रहे हैं. हम नौकरियां भी कर रहे हैं. यह फांसीवादी एजेंडा है. लालू जी के भी तो आधा दर्जन बच्चे हैं और बीजेपी सांसद रविकिशन भी तो दो से ज्यादा बच्चों के पिता हैं. देश का माहौल खराब किया जा रहा है. देश तोड़ा जा रहा है. मुसलमानों का जीना दूभर कर दिया है. हो सकता है कि न्यूयॉर्क टाइम्स इसी बात पर एक तगड़ी सी रिपोर्ट भी कर दे- "मोदी के देश में इस्लामोफोबिया चरम पर."

अब्दुल कहते हैं उनमें जाति नहीं है, पर आरक्षण के लिए उन्हें जाति चाहिए

अब्दुल मजहबी हैं. जबरदस्त. वे कहते हैं कि उनके यहां कोई जाति नहीं. लेकिन जैसे ही आरक्षण की बात आ जाएगी, अब्दुल कहेंगे- हमें भी आरक्षण चाहिए. बच्चों को पालना मुश्किल हो गया है भाई. महंगाई है. स्कूल फीस कैसे भरें, ट्रेनों का किराया महंगा हो गया है. डॉलर के मुकाबले रुपया रोज गिर रहा है. खाने पीने के सामानों पर तो आफत आई है. मोदी सरकार गरीबों को भूख से मार देना चाहती है. ये है... वो है.... तमाम मुद्दे गिनाएंगे आरक्षण लेने के लिए जैसे दूसरे समुदाय के जरूरतमंद चिल्लाते रहते हैं. यहां अब्दुल के मजहब का ब्रदरहुड ख़त्म हो जाता है. जातिवाद का कॉन्सेप्ट ध्वस्त हो जाता है. अब्दुल असल में पसमांदा होते हैं. पसमांदा में भी कई कैटेगरी हैं. जो अतीत के उच्चवर्णीय पसमांदा थे- उनमें कुछ को आरक्षण का लाभ मिलता है. मामला चाहे इधर का हो या उधर का, असल में आरक्षण के खेल में मध्य जातियों का ही जलवा जलाल नजर आता है. दलित-मुस्लिमों के आरक्षण की बात जोरों पर हो रही है अब.

बादशाही दौर में भी लाभ, बंटवारे में भी पाकिस्तान के रूप में भारी मुनाफा तो फिर धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में लोकतांत्रिक अधिकार से हक़ लेना कोई कहने की बात नहीं है. जितना ज्यादा एकजुट वोट होगा लोकतंत्र में हक़ पर दावा उतना पक्का. यूं समझिए कि उदाहरण के लिए पंडीजी (कोई अन्य जाति भी) का वोट राजनीतिक रूप से ताकतवर हो जाए तो हो जाए तो देश में कोई उन्हें एससी/एसटी का दर्जा दे देगा और जो कोई दर्जे में हो उसे निकाला जा सकता है. अब चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अब्दुल देते वक्त अशराफ नहीं रहते, पसमांदा नहीं रहते, ओबीसी नहीं रहते और दलित नहीं रहते. वे सिर्फ मुसलमान रहते हैं. वे किसी एक पार्टी के वफादार वोटर नहीं रहते. तमाम चीजों को लेकर देश में अलग-अलग कानूनों की वजह से समाज में इस तरह की विघटनकारी राजनीति हो रही है. जिसमें वाजिब के हक़ वोट पॉलिटिक्स के दबाव में डैम तोड़ रहे हैं. और सिंडिकेट वोट ब्लॉक बनाने के चक्कर में सत्ता के जरिए मनमानियां करता है. करेगा. क्योंकि वोट पॉलिटिक्स में कोई भी अधिकार सुरक्षित नहीं रहते. लोकतंत्र में किसी भी तरह की एकजुटता से भविष्य में ऐसी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी और आप कुछ कर भी नहीं सकते. 

अब्दुल सिर्फ एक बात पर ध्यान देते हैं कि उनकी दुश्मन नंबर एक पार्टी को कौन हरा रहा है- उसके प्रति कमिटमेंट रहता है. और दुश्मन पार्टी वह नहीं होती जो भय भूख और भ्रष्टाचार की बात करे, तुर्की को आंख दिखाए अरब से प्रतिद्वंद्विता करना चाहे- बल्कि वह होती है जो उनके मजहबी अधिकारों की सुरक्षा के लिए या तो क़ानून बनाए या फिर क़ानून ख़त्म करे. अब्दुल को मजहबी छुट्टी शुक्रवार की चाहिए. अगर आबादी बढ़ गई तो. लेकिन,

अगर कहा जाए कि अब्दुल आप इस्लामिक व्यवस्था ही चाहते हैं तो फिर यार शादी विवाह खानपान ही क्यों, दंड व्यवस्था के लिए भी उसी आधार पर चलिए. आपके लिए आईपीसी वगैरह क्यों? हाथ के बदले हाथ. गले के बदले गला. आंख के बदले आंख. फिर अब्दुल के अंदर का लोकतंत्र जाग जाएगा और इस बिंदु पर वे कहेंगे कि मुसलमानों का जीना दूभर कर दिया गया है.

बावजूद कि लोक व्यवहार, खानपान और पहनावा धार्मिक मसला हैं ही नहीं, असल में अब्दुल जो मजहबी अधिकार नजर आ रहा है. वे सरदारों की पगड़ी और भारतीयों के तिलक का उदाहरण दे देंगे. अब अब्दुल को कौन बताए कि यार सरदार जी के लिए पांच धार्मिक व्रत हैं जो उनका धार्मिक अधिकार है. ठीक वैसे ही जैसे अब्दुल को नमाज, हज, रोजा, मस्जिद में जाने, जकात आदि करने की आजादी है जो उनका मजहबी अधिकार है. और तिलक भारत की संस्कृति है. अब्दुल को जानना चाहिए कि दक्षिण में थॉमस भी तिलक लगाते हैं मनोहर-सरदार जी तो खैर लगाते ही हैं. यह उनके लिए सांस्कृतिक मसला है. बावजूद कि वह लगाने के लिए स्वतंत्र हैं. कोई आग्रह भी नहीं है कि ऐसा ही करें.किसी पारसी और जैनी को भी इसी तरह देखा जा सकता है. यह भौगोलिक और सांस्कृतिक चीजें हैं. भारत के भूगोल की जरूरत में जन्मी चीजें.

लेकिन अब्दुल की पत्नी अगर बच्चे को काजल का टीका लगा दे, सिन्दूर पहन ले- साड़ी पहन ले, कोई हाथ में कलावा बांध ले- जैसे आमिर खान अभी दिखे- कुफ्र मानते हैं उनके यहां. अब्दुल जिन तमाम चीजों को मजहबी अधिकार बताने की जिद करते हैं असल में वह अरब संस्कृति है. और उसी जिद के लिए पाकिस्तान बना था. अब्दुल जिद करेंगे कि उनकी बेटी बुरके में ही कॉलेज जाएगी और उर्दू फारसी या अरबी के प्रोत्साहन के लिए उसे सरकारी फंड भी चाहिए. हकीकत यह है कि बंटवारे से पहले तक हैदराबाद के निजाम की पत्नियां भी साड़ी पहनती थीं, और उनके घर के लोग तेलुगु बोलते थे- आपने ओवैसी को तेलुगु बोलते हुए और बदरुद्दीन को असमिया बोलते हुए कितना सुना है? अब तमाम चीजें किसी गांव देहात के अब्दुल या रहमान को भी कुफ्र लगने लगी हैं. उन्हें आम का स्वाद गैरइस्लामिक लगता है. क़तर के खजूर का स्वाद उनकी जीभ को आजकल ज्यादा भा रहा है. शायद उदरस्थ होने पर उसका पाचन आम से बेहतर हो. पता नहीं. वैसे बुरका आदि भी इस्लामिक पहचान तो नहीं, अरबी पहचान जरूर हैं. कहीं दूर क्यों जाना. लोगों को सोचना चाहिए कि बांग्लादेश उर्दू के दबाव परक्यों अलग हो गया? एक ही मजहब के साथ गए थे ना बंटवारे में.

अपनी केजीएफ बनाने में लगी है मनोहरों की टीम

लेकिन मनोहर (किसी भी जाति का हो सकता है) के लिए समस्याएं बहुत हैं. मनोहर ने अब्दुल की तरह दो शादियां कीं तो जेल जा सकता है. भले ही रजामंदी से. मनोहर को एक बच्चा है. चूंकि एक बच्चा है तो मनोहर ने उसे बेंचबांचकर अंग्रेजी के आला दर्जे स्कूल से पढ़वा लिया है. वह ग्रौजुएट है. लेकिन सबको एक समान मौका कहां मिल पाता है. वैसे भी हर साल जितनी संख्या में बेरोजगार निकलते हैं- मनोहर की इच्छा के मुताबिक़ उनके बच्चों को सरकारी या फिर एक बेहतरीन नौकरी मिल जाए यह भी असंभव है. मनोहर अपनी पीढ़ी के पहले खाते कमाते (बचत या दूसरी सोशल पूंजी उनके पास नहीं है) व्यक्ति हैं. नाते रिश्तेदार ऐसी हैसियत में नहीं कि मनोहर का बेटा चिट्टी लेकर अपनी डिग्री पर एक बढ़िया नौकरी जुगाड़ ले.

सरकारी नौकरियों की संख्या चाहकर बढ़ाई ही नहीं जा सकती. मान लीजिए किन्हीं वजहों से मनोहर के बेटे को नौकरी नहीं मिली. छोटे मोटे काम कर सकता है पर करे कैसे? उसके दिमाग में यह बैठाया जा चुका है कि पानी-पूरी बेंचने का काम बहुत छोटा होता है. तमाम नेता चिढ़ाते भी रहते हैं कि बीए करके पकौड़ी बेचोगे. अब मनोहर के बेटे ने भले बिना क्लास अटेंड लिए सिर्फ क्योश्चन बैंक पढ़कर परीक्षा पास किया और ग्रैजुएट बन गए हैं. मगर चाहिए उन्हें कोई बढ़िया क्लर्की. चिढाने की वजह से वह दूसरे छोटे-मोटे काम नहीं करते. और फ्रस्टेड होकर सोशल मीडिया पर राजनीतिक दलों, सरकारों, कंपनियों को गरियाते पाए जाते हैं.

सर्विस क्लास पर कब्जे और उसे लेकर नैरेटिव पर गौर नहीं किया होगा

वह बहुत मजबूरी में ही सर्विस क्लास में जाने को तैयार हैं. मनोहर के बेटों का फोकस पहले ठीक ठाक मोहल्ले, घर और सोसायटी में घुसना है. नहीं घुस पाए तो वह सरकार को शर्तिया गाली देंगे. अपने बच्चों के लिए महंगी फीस वाले प्राइवेट स्कूल खोजेंगे. भविष्य की अंग्रेजी परस्त संपन्नता का पहला दरवाजा यहीं खुलता है, जिसपर तीन दशक पहले तक सिर्फ सिंडिकेट का कब्जा था. उधर किसी सामाजिक स्टेटस की चिंता किए बिना अब्दुल सब्जी के ठेले से या फिर बिजली की कारीगरी से महीने में 50 हजार ठेल रहे हैं ठीक उसी वक्त जब मनोहर सोशल मीडिया पर अपनी बेकारी से उपजे गुस्से को जाहिर कर रहे हैं. अब्दुल के पास 50 हजार है तो अब्दुल तमाम नैरेटिव बनाने के लिए स्वतंत्र हैं. अपने वोट की ताकत से सरकार को इधर से उधर करेंगे.अब्दुल चिंता मुक्त हैं और अब इलेक्टोरल पॉलिटिक्स के जरिए अपने मकसद की तरफ आगे बढ़ रहे हैं. जिसे वोट की राजनीति करनी है तो उसे पीछे-पीछे आना पड़ेगा. नहीं भी आया तो अब्दुल को कोई फर्क नहीं.

वह तो एक दिशा में बढ़ ही रहा है. शहरों में हाल यह है कि एक खोली में रहकर भी अब्दुल खुश हैं. और उन्होंने सर्विस क्लास वाली जॉब पर लगभग वर्चस्व है. एक मामूली कबाड़ी वाला भी आज की तारीख में लाख रुपये महीना पीट रहा है. इधर के मनोहरों- वे चाहे जनरल हों, एससी हों एसटी हों या फिर ओबीसी, लाटसाहब बने बैठे हैं. सर्विस क्लास को लेकर जिस तरह की धारणाएं बना दी गई हैं, कल को रोजगार के फ्रंट पर कितनी विस्फोटक स्थिति होगी आप कल्पना नहीं कर सकते. पर अब्दुल को किसी चीज की परवाह करने की जरूरत नहीं है. आप सवाल करेंगे तो अब्दुल की ढाल अशराफ अपनी फैमिली फोटो लेकर फिर खड़ा हो जाएंगे. हम दो हमारे दो. हम जाहिल नहीं हैं. हम वैज्ञानिक चेतना से भरे लोग हैं. असल में आप लोगों को इस्लामोफोबिया हो गया है.

अब्दुल-मनोहर के बीच जो कृतिम खाई बनती जा रही है उसपर लाखों शब्द लिखे जा सकते हैं. मैं तो थक गया. आपको लग रहा होगा कि अब्दुल की इतनी चर्चा क्यों? इसकी वजह है. इन तमाम चीजों का इलाज यूनिर्फाम सिविल कोड (यूसीसी) में है. राज्यसभा में यूसीसी पर प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया गया है. संविधान बनने के समय से ही देश के सभी नागरिकों के लिए एक सामान क़ानून की जरूरत पर बल दिया गया था. डॉ. आंबेडकर समेत तमाम नेता इसे लागू करना चाहते थे. लेकिन मुस्लिमों के विरोध की वजह से तब लागू नहीं हो पाया. तब जब ईरानी-अफगानी नवाबों की पत्नियां भी रेगुलर साड़ी पहनती थीं, और कम से कम खानपान बोली और संस्कृति के लिहास से बंटवारा नहीं दिखता था. रंग रूप और खून तो खैर हमारा एक है ही. तब तर्क दिया जाता था कि अभी मुसलमान इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. बाद में समय के साथ तैयार हो जाएंगे तब लागू किया जा सकता है. आजादी के 75 सालों में वह समय अभी नहीं आया.

भारत को तमाम केंद्रीय कानूनों की जरूरत है. यूसीसी की वजह से मुख्य रूप से विवाह, तलाक, भरण-पोषण और गुजारा भत्ता (पूर्व पत्नी या पति को कानून द्वारा भुगतान किया जाने वाला धन) को विनियमित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता हो जाएगी. अब्दुल मनोहर सबके लिए एक जैसे क़ानून एक जैसे अधिकार. कोई भेदभाव नहीं. और जो तमाम विसंगतियां या विरोधाभास नजर आ रहे हैं फिलहाल वह दूर होंगे. सभी नागरिकों के लिए बेहद जरूरी क़ानून एक समान हो जाएंगे.  

75 साल पहले यूनिर्फाम सिविल कोड (यूसीसी) लागू नहीं हुआ, क्या हमें और उजड़ना है

लेकिन अब तो आलम यह है कि उजड़े गांव देहात में भी साड़ी पहनना कुफ्र घोषित हो चुका है. मजहब के नाम पर विदेशी परिधान और भाषा थोपने के संस्थागत काम हो रहे हैं. यह सच्चाई है. बावजूद कि कोई खानपान अपनी धार्मिक मान्यता के लिए स्वतंत्र है. भारत के तमाम कानूनों में उसकी गारंटी है. कोई आंच नहीं है. हमें कई कानूनों की जरूरत है जो किसी के भी धार्मिक ढकोसले को पूजास्थलों और उसके घर तक की अनुमति दे. या वहां दी जा सकती है जहां किसी को आपत्ति ना हो. और कई क़ानून तो हैं ही. लेकिन सार्वजनिक जगहों पर विदेशी सामाजिक-सांस्कृतिक-न्यायिक व्यवस्था को अनुमति नहीं दी जा सकती. क्योंकि वह मजहब का हिस्सा है नहीं बॉस, यह क्लियर है.

अब सवाल है कि क्या यह मान लिया जाए कि यूसीसी या तमाम केंद्रीय व्यवस्थाओं के लागू नहीं होने को लेकर जो आशंकाएं जताई गई थी कि इससे देश की अखंडता को नुकसान पहुंचेगा वह सच साबित होता दिख रहा है. जी हां. ऊपर जो तमाम विरोधाभास अब्दुल, मनोहर, थॉमस या सरदार जी आदि के जरिए बताने की कोशिश हुई उसे अनुच्छेदों के जरिए समझाया जाए तो बहुत सारे इफ बट नजर आएंगे. इसीलिए यूसीसी यानी समान नागरिक संहिता की जरूरत संविधान में साफ़ साफ़ बताई गई. तमाम न्यायालयों ने समय-समय पर इसकी सख्त जरूरत की ओर ध्यान भी दिलाया है. लेकिन प्रेसर पॉलिटिक्स ने गुरु हाल ऐसा किया कि कोई वीर बहादुर बिल्ली के गले में घंटी बांधने को तैयार ही नहीं हुआ. इसीलिए व्यावहारिक तरीके से यूसीसी के बारे में यहां समझाने की कोशिश है. यूसीसी का  सैद्धांतिक पक्ष समझना हो तो अभी हाल में रामायण पर विवाद की वजह से राइट विंग के निशाने पर आए विकास दिव्यकीर्ति की दृष्टि के जरिए इंटरनेट पर उपलब्ध कॉन्टेंट को यहां क्लिक कर समझ सकते हैं.

तो क्यों ना माना जाए कि कुछ लोग देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाने के लिए यूसीसी का विरोध कर रहे हैं. यूसीसी को लेकर विपक्ष ने जिस तरह से अल्पसंख्यकों के मजहबी अधिकार का सवाल उठाया है- उसके संकेत तो यही हैं. जबकि उसमें मजहबी अधिकार के अतिक्रमण का मसला है ही नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं कि आजादी के बाद इलेक्टोरल पॉलिटिक्स के जरिए देश को एक और बंटवारे के लिए आग की भट्ठी में झोंका जा रहा है. जबकि किसी बुद्धिष्ट, किसी जैनी, किसी सिख किसी, पारसी ने इसपर सवाल नहीं उठाया. गोवा में यूसीसी है. वहां ईसाई समुदाय की बहुत बड़ी आबादी है. बावजूद अभी तक वहां से मजहबी अधिकारों को लेकर कोई शिकायत नहीं है.

शिक्षा पर एक जैसी व्यवस्था से क्या बदलाव हो सकते हैं यूं समझें

यूसीसी तो सभी नागरिकों के लिए एक समान क़ानून की ही बात करता है. अब मान लीजिए सबको एक जैसी शिक्षा, एक जैसे संसाधन, एक जैसे मौके. एक जैसा न्याय मिले तो क्या बुरा है. धर्म निरपेक्षता का लक्ष्य भी तो कायदे से यूसीसी के जरिए ही पूरा हो सकता है. सभी नागरिकों के लिए एक जैसे क़ानून तो किसी भी देश की व्यवस्था के लिए जरूरी हैं. बात-बात पर यूरोप के जिस श्रेष्ठ समाज का उदाहरण पेश किया जाता है-  यह लक्ष्य तो उन्होंने नागरिकों के लिए बनाए गए समान कानूनों की वजह से ही पाया. भारतीय संसद और तमाम राजनीतिक दलों से पूछना चाहिए कि अमेरिका की तुलना में भारत की संसद ने ऐसे कितने क़ानून बनाए? संसद का काम तो कायदे से क़ानून बनाना ही है ना. कुछ अपरिहार्य चीजों में तो हम कर ही सकते हैं. और उसके नतीजे कितने प्रभावी होंगे हम इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते.

उदाहरण के लिए अगर भारत की सिर्फ शिक्षा और तमाम परीक्षाओं का एकीकरण कर दिया जाए. कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमें विज्ञान, गणित, भूगोल, इतिहास आदि की किताबें क्यों अलग-अलग रखनी चाहिए. हां, भाषा अलग हो सकती है. वैकल्पिक. और काफी हद तक इतिहास भी. उलटे देश की अखंडता और विकास के लिए हम मातृभाषा से अलग एक दूसरी भारतीय भाषा के विकल्प को अनिवार्य कर सकते हैं.

सिर्फ इतना भर हो जाए तो अमीर-गरीब के बच्चे में कोई फर्क नहीं रहेगा. सरकारी और निजी स्कूलों का फर्क मिट जाएगा. प्राइवेट स्कूलों की वजह से सिंडिकेट का जो राज रहा इस देश में अगर तमाम क्षेत्रों में केंद्रीय क़ानून आजादी के वक्त ही होते तो आज देश कहां होता? एक ही किताब से पढ़े बच्चे एक ही परीक्षा में बैठेंगे तो उन्हें स्वस्थ्य प्रतिद्वंद्विता मिलेगी. रिजर्वेशन के साथ इसके नतीजे बहुत बेहतर होंगे और तमाम जातीय भाषाई कटुता में कमी आएगी.

यूसीसी को जितना समझा जा सकता है वह तो कुछ ऐसा ही है. इसमें राज्यों के अधिकारों का हनन नहीं है. बल्कि नागरिकों को ज्यादा सहूलियत मिलेगी. क्या बुराई है इसमें.

मजेदार है कि एक ऐसा ही एक क़ानून जो सभी राज्यों के लिए समान रूप से लागू करने की कोशिश की गई थी, उसे कुछ राज्यों ने स्वीकार करने से मना कर दिया. मोटर वाहन अधिनियम, 2019 में कौन सा राजनीतिक एजेंडा था? अब मोटर वाहन अधिनियम के लिए भी हर राज्य को निजी कानूनों की जरूरत है क्या? यहां तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक व्यवस्था हो सकती है. एक क़ानून में तो चीजें ज्यादा पारदर्शी और नागरिकों के सहूलियत वाली हैं. भ्रष्टाचार भी काफी हद तक ख़त्म होगा.

सांस्कृतिक विविधता पूरी तरह सुरक्षित रहेगी

यूसीसी को लेकर सांस्कृतिक विविधता पर खतरे की आशंका जताई जाती है. बावजूद यह चिंता निरर्थक है. हमें सिर्फ भारत की संस्कृति के प्रति जवाबदेह रहते हुए बहुलता के आधार पर कुछ चीजों को यूसीसी के दायरे से बाहर रखना पड़ेगा. उदाहरण के लिए पारसियों को तमाम चीजों से मुक्त करना होगा. उनकी संख्या इतनी कम है कि उनपर परिवार नियोजन लादा नहीं जा सकता. संरक्षित करना है तो भारत की आदिम ट्राइब्स का होगा. और कोई सवाल भी नहीं हैं. हिमाचल में एक गांव है. एक समुदाय की महिलाएं बहु विवाह करती हैं. मतलब उनके एक से ज्यादा पति होते हैं. यह परंपरा समय के साथ खुद ब खुद कमजोर हो गई है. बावजूद अभी भी कुछ लोग उस परंपरा का निर्वाह करते हैं. बिना आग्रह के. तो उन्हें सरक्षण दिया जाएगा. इस तरह के छोटे-छोटे विरोधाभास हैं. उन्हें छूट दी जा सकती है. पर छूट भारत की सांस्कृतिक विविधता को मिलेगी, अरब को नहीं. शिक्षा के लिए एक व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती है. देशभर में मोटर क़ानून एक जैसे क्यों नहीं हो सकते?

पारदर्शी व्यवस्था के लिए और लाल फीताशाही, लोगों के जीवन में व्यर्थ के सरकारी दखल को ख़त्म करने के लिए, सामजिक टकराव को ख़त्म करने के लिए  यूसीसी से बेहतर क्या है भला? संविधान बनाने वाले मूर्ख तो थे नहीं. उन्होंने तमाम पहलुओं को लेकर ही काम किया. बावजूद समान नागरिक संहिता बनाने के हमने संविधान और संहिता को कमजोर करने वाले अनुच्छेद लाए या फिर संशोधन किए. बहुत से मसले हैं जिसमें यूसीसी जादू की छड़ी है. यह समय की जरूरत है. एक मजबूत राष्ट्र, एक स्वस्थ्य समाज के लिए हमें यूसीसी के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव डालना चाहिए. यूसीसी भारत की तमाम बीमारियों की सबसे कारगर दवा है.

(विश्लेषण का मकसद किसी धर्म या मजहब को नीचा दिखाना या उन पर तंज कसना नहीं है. हमारी कोशिश एक बेहतर समाज निर्माण की है. और उसके लिहाज से यूनिफॉर्म सिविल कोड बहुत अहम हो जाता है.)

बहू को अंग्रेजी में क्या कहा जाता है?

बहू MEANING IN ENGLISH - EXACT MATCHES Usage : My daughter-in-law is very cute.

बहू कैसे लिखते हैं?

बहु ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ वधू] दे॰ बहू' । उ॰—गे जनवासहि राउ, सुत, सुतबहुन समेत सब । —तुलसी (शब्द॰) । १.

बहु और बहू का क्या अर्थ होगा?

नवविवाहिता स्त्री; वधू; दुल्हन 2. पत्नी; बीवी 3. पुत्र की पत्नी; पतोहू; पुत्रवधू 4. छोटे भाई की पत्नी।

वस्तु को इंग्लिश में क्या बोलेंगे?

Goods are things that are made to be sold. ...