पान के पेड़ को क्या कहते हैं? - paan ke ped ko kya kahate hain?

पान एक बहुवर्षीय बेल है, जिसका उपयोग हमारे देश में पूजा-पाठ के साथ-साथ खाने में भी होता है। ऐसा लोक मत है कि पान खाने से मुख शुद्ध होता है, भारत वर्ष में पान की खेती प्राचीन काल से ही की जाती है। इसे संस्कृत में नागबल्ली, ताम्बूल हिन्दी भाषी क्षेत्रों में पान मराठी में पान/नागुरबेली, गुजराती में पान/नागुरबेली तमिल में बेटटीलई,तेलगू में तमलपाकु, किल्ली, कन्नड़ में विलयादेली और मलयालम में बेटीलई नाम से पुकारा जाता है। पान की खेती बांग्लादेश, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर,थाईलैण्ड, फिलीपिंस, पापुआ, न्यूगिनी आदि में भी सफलतापूर्वक की जाती है। भारत में बेताल पत्ती को "पान" के नाम से जाना जाता है और पान के पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं, जो दिल के आकार के होते हैं जो भारत में व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं और पान का वैज्ञानिक नाम पाइपर बीटल है। पान का संबंध पाइपरेसी के परिवार से है। दुनिया में सुपारी की 90 से अधिक किस्में हैं, जिनमें से लगभग 45 भारत में और 30 किस्में पश्चिम बंगाल में पाई जाती हैं। पान को इसकी सदा हरी पत्तियों के लिए उष्णकटिबंधीय और उपप्रकार में उगाया जाता है जो पूजा / धार्मिक आयोजनों में और चबाने वाले उत्तेजक के रूप में उपयोग किया जाता है।

भारत में पान के स्थानीय नाम

तमलपाकु (तेलुगु), वेत्रिलई (तमिल), कवला (कन्नड़), बीदा / पान (हिंदी), विद्याचे पान, नागिनिच पान (मराठी), वेटिला (मलयालम)। पान (बंगाली), तमुल (असामी), नागरवेल ना पान (गुजराती)।

पान अपने औषधीय गुणों के कारण पौराणिक काल से ही प्रयुक्त होता रहा है। आयुर्वेद के ग्रन्थ सुश्रुत संहिता के अनुसार पान गले की खरास एवं खिचखिच को मिटाता है। यह मुंह के दुर्गन्ध को दूर कर पाचन शक्ति को बढ़ाता है, जबकि कुचली ताजी पत्तियों का लेप कटे-फटे व घाव के सड़न को रोकता है।

पान एक लताबर्गीय पौधा है, जिसकी जड़ें छोटी कम और अल्प शाखित होती है। जबकि तना लम्बे पोर, चोडी पत्तियों वाले पतले और शाखा बिहीन होते हैं। इसकी पत्तियों में क्लोरोप्लास्ट की मात्रा अधिक होती है। पान के हरे तने के चारों तरफ 5-8 सेमी0 लम्बी,6-12 सेमी0 छोटी लसदार जडें निकलती है, जो बेल को चढाने में सहायक होती है।

Seed Specification

उत्तर भारत में मुख्य रूप से जिन प्रजातियों का प्रयोग किया जाता है, वे निम्न है- देशी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई, बनारसी आदि।

उत्तर भारत में पान की खेती हेतु कर्षण क्रियायें 15 जनवरी के बाद प्रारम्भ होती है। पान की अच्छी खेती के लिये जमीन की गहरी जुताई कर भूमि को खुला छोड देते हैं। उसके बाद उसकी दो उथली जुताई करते हैं, फिर बरेजा का निर्माण किया जाता है। यह प्रक्रिया 15-20 फरवरी तक पूर्ण कर ली जाती है। अच्छी खेती के लिये पंक्ति से पंक्ति की उचित दूरी रखना आवश्यक है। इसके लिये आवश्यकतानुसार पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30×30 सेमी0 या 45×45 सेमी0 रखी जाती है।

पान की फसल को प्रभावित करने वाले जीवाणु व फंफूद को नष्ट करने के लिये पान कलम को रोपण के पूर्व भूमि शोधन करना आवश्यक है।

पान के कलमों को रोपाई के समय के साथ-साथ प्रबर्द्वन के समय भी उपचार  की आवश्यकता होती है। इसके लिये बुवाई के पूर्व भी मृदा उपचारित करने हेतु 50 प्रतिशत बोर्डा मिश्रण के साथ 500 पी0पी0एम0 स्ट्रेप्टोसाईक्लिन का प्रयोग करते हैं। उसके बाद बुवाई के पूर्व भी उक्त मिश्रण का प्रयोग बेलों को फफूंद व जीवाणुओं से बचाने के लिये किया जाता है। 

पान की खेती के लिये यह एक महत्तवपूर्ण कार्य है। पान की कलमें जब 6 सप्ताह की हो जाती है तब उन्हें बांस की फन्टी,सनई या जूट की डंडी का प्रयोग कर बेलों को ऊपर चढाते हैं। 7-8 सप्ताह के उपरान्त बेलों से कलम के पत्तों को अलग किया जाता है, जिसे ”पेडी का पान“ कहते है। बाजार में इसकी विशेष मांग होती है तथा इसकी कीमत भी सामान्य पान पत्तों से अधिक होती है। इस प्रकार 10-12 सप्ताह बाद जब पान बेलें 1.5-2 फीट की होती है, तो पान के पत्तों की तुडाई प्रारम्भ कर दी जाती है। जब बेजें 2.5-3 मी0 या 8-10 फीट की हो जाती है, तो बेलों में पुनः उत्पादन क्षमता विकसित करने हेतु उन्हें पुनर्जीवित किया जाता है। इसके लिये 8-10 माह पुरानी बेलों को ऊपर से 0.5-7.5 सेमी0 छोडकर 15-20 सेमी0 व्यास के छल्लों के रूप में लपेट कर सहारे के जड के पास रख देते हैं व मिटटी से आंशिक रूप से दबा देते है व हल्की सिंचाई कर देते हैं।

Land Preparation & Soil Health

अच्छे पान की खेती के लिये जलवायु की परिस्थितियां एक महत्वपूर्ण कारक हैं। इसमें पान की खेती के लिये उचित तापमान,आर्द्रता,प्रकाश व छाया,वायु की स्थिति,मृदा आदि महत्तवपूर्ण कारक हैं।

पान की उत्तम खेती के लिये जलवायु के विभिन्न घटकों की आवश्यकता होती है। जिनका विवरण निम्न है-

1. तापमान: पान का बेल तापमान के प्रति अति संवेदनशील रहता है। पान के बेल का उत्तम विकास उन क्षेत्रों में होता है, जहां तापमान में परिवर्तन मध्यम और न्यूनतम होता है। पान की खेती के लिये उत्तम तापमान 28-35 डिग्री सेल्सियस तक रहता है।

2. प्रकाश एवं छाया: पान की खेती के लिये अच्छे प्रकाश व उत्तम छाया की आवश्यकता पडती है। सामान्यतः 40-50 प्रतिशत छाया तथा लम्बे प्रकाश की अवधि की आवश्यकता पान की खेती को होती   है।

3. आर्द्रता: अच्छे पान की खेती के लिये अच्छे आर्द्रता की आवश्यकता होती है। उल्लेखनीय है कि पान बेल की बृद्वि सर्वाधिक वर्षाकाल में होती है, जिसका मुख्य कारण उत्तम आर्द्रता का होना है। अच्छे आर्द्रता की स्थिति में पत्तियों में पोषक तत्वों का संचार अच्छा होता है।

4. वायु: उल्लेखनीय है कि वायु की गति वाष्पन के दर को प्रभावित करने वाली मुख्य घटक है। पान के खेती के लिये जहां शुष्क हवायें नुकसान पहुंचाती है, वहीं वर्षाकाल में नम और आर्द्र हवायें पान की खेती के लिये अत्यन्त लाभदायक होती है।

5. मृदा: पान की अच्छी खेती के लिये महीन हयूमस युक्त उपजाऊ मृदा अत्यन्त लाभदायक होती है। वैसे पान की खेती देश के विभिन्न क्षेत्रों में बलुई, दोमट, लाल व एल्युबियल मृदा व लेटैराईट मृदा में भी सफलतापूर्वक की जाती है। पान की खेती के लिये उचित जल निकास वाले प्रक्षेत्रों की आवश्यकता होती है।

पान की अच्छी खेती के लिये जमीन की गहरी जुताई कर भूमि को खुला छोड देते हैं। उसके बाद उसकी दो उथली जुताई करते हैं, फिर बरेजा का निर्माण किया जाता है। यह प्रक्रिया 15-20 फरवरी तक पूर्ण कर ली जाती है।

Crop Spray & fertilizer Specification

पान के बेलों को अच्छा पोषक तत्व प्राप्त हो इसके लिये प्रायः पान की खेती में उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। पान की खेती में प्रायः कार्बनिक तत्वों का प्रयोग करते हैं। उत्तर भारत में सरसों ,तिल,नीम या अण्डी की खली का प्रयोग किया जाता है, जो जुलाई-अक्टूबर में 15 दिन के अन्तराल पर दिया जाता है। वर्षाकाल के दिनों में खली के साथ थोडी मात्रा में यूरिया का प्रयोग भी किया जाता है।

(1) पर्ण/गलन रोग: यह फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक “फाइटोफ्थोरा पैरासिटिका” है। इसके प्रयोग से पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो वर्षाकाल के समाप्त होने पर भी बने रहते हैं। ये फलस को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।

- रोग जनित पौधों को उखाडकर पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहिये।

- इस रोग के मुख्य कारक सिंचाई है। अतः शुद्व पानी का प्रयोग करना चाहिये।

- वर्षाकाल में 0.5 प्रतिशत सान्द्रण वाले बोर्डोमिश्रण या ब्लाइटैक्स का प्रयोग करना चाहिये।

(2) तनगलन रोग: यह भी फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक “फाइटोफ्थोरा पैरासिटिका” के पाइपरीना नामक फंफूद है। इससे बेलों के आधार पर सडन शुरू हो जाती है। इसके प्रकोप से पौधो अल्पकाल में ही मुरझाकर नष्ट हो जाता है।

- बरेजों में जल निकासी की उचित व्यवस्था करना चाहिये।

- रोगी पौधों को जड से उखाडकर नष्ट कर देना चाहिये।

- नये स्थान पर बरेजा निर्माण करें।

- बुवाई से पूर्व बोर्डोमिश्रण से भूमि शोधन करना चाहिये।

- फसल पर रोग लक्षण दिखने पर 0.5 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का छिडकाव करना चाहिये।

(3) ग्रीवा गलन या गंदली रोग: यह भी फंफूदजनित रोग है, जिनका मुख्य कारक “स्केलरोशियम सेल्फसाई” नामक फंफूद है। इसके प्रकोप से बेलों में गहरे घाव विकसित होते है, पत्ते पीले पड़ जाते हैं व फसल नष्ट हो जाती है।

- रोग जनित बेल को उखाडकर पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहिये।

- फसल के बुवाई के पूर्व भूमि शोधन करना चाहिये।

- फसल पर प्रकोप निवारण हेतु डाईथेन एम.-45 का 0.5 प्रतिशत घोल का छिडकाव करना चाहिये।

(4) पर्णचित्ती/तना श्याम वर्ण रोग: यह भी फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक “कोल्लेटोट्राइकम कैटसीसी” है। इसका संक्रमण तने के किसी भी भाग पर हो सकता है। प्रारम्भ में यह छोटे-काले धब्बे के रूप में प्रकट होते हैं, जो नमी पाकर और फैलते हैं। इससे भी फसल को काफी नुकसान होता है।

- 0.5 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का प्रयोग करना चाहिये।

- सेसोपार या बावेस्टीन का छिडकाव करना चाहिये।

(5) पूर्णिल आसिता या;च्वूकतल डपसकमूद्ध रोग: यह भी फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक ”आइडियम पाइपेरिस“ जनित रोग हैं। इसमें पत्तियों पर प्रारम्भ में छोटे सफेद से भूरे चूर्णिल धब्बों के रूप में दिखयी देते हैं। ये फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।

- फसल पर प्रकोप दिखने के बाद 0.5 प्रतिशत घोल का छिडकाव करना चाहिये।

- केसीन या कोलाइडी गंधक का प्रयोग करना चाहिये।

(6) जीवाणु जनित रोग: पान के फसल में जीवाणु जनित रोगों से भी फसल को काफी नुकसान होता है। पान में लगने वाले जीवाणु जनित मुख्य रोग निम्न है:-

(क)- लीफ स्पॉट या पर्ण चित्ती रोग: इसका मुख्य कारक ”स्यूडोमोडास बेसिलस“ है। इसके प्रकोप होने के बाद लक्षण निम्न प्रकार दिखते हैं। इसमें पत्तियों पर भूरे गोल या कोणीय धब्बे दिखाई पडती है, जिससे पौधे नष्ट हो जाते हैं।

- इसके नियंत्रण के लिये ”फाइटोमाइसीन तथा एग्रोमाइसीन-100“ ग्लिसरीन के साथ प्रयोग करना चाहिये।

(ख)- तना कैंसर: यह लम्बाई में भूरे रंग के धब्बे के रूप में तने पर दिखायी देता है। इसके प्रभाव से तना फट जाता है।

- इसके नियंत्रण के लिये 150 ग्राम प्लान्टो बाईसिन व 150 ग्राम कॉपर सल्फेट का घोल 600 ली0 में मिलाकर छिडकाव करना चाहिये।

- 0.5 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का छिडकाव करना चाहिये।

(ग)- लीफ ब्लाईट: इस प्रकोप से पत्तियों पर भूरे या काले रंग के धब्बे बनते हैं, जो पत्तियों को झुलसा देते हैं।

- इसके नियंत्रण के लिये स्ट्रेप्टोसाईक्लिन 200 पी0पी0एम0 या 0.25 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का छिडकाव करना चाहिये।

पान की खेती को अनेक प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है, जिससे पान का उत्पादन प्रभावित होता है। पान की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीटो का विवरण निम्न है:

(1.) बिटलबाईन बग: जून से अक्टूबर के मध्य दिखायी देने वाला यह कीट पान के पत्तों को खाता है तथा पत्तों पर विस्फोटक छिद्र बनाता है। यह पान के शिराओें के बीच के ऊतकों को खा जाता है, जिससे पत्तों में कुतलन या सिकुडन आ जाती है और अंत में बेल सूख जाती है।

उपचार: इसके नियंत्रण के लिये तम्बाकू की जड का घोल 01 लीटर घोल का 20 ली0 पानी में घोल तैयार कर छिडकाव करना चाहिये। 0.04 प्रतिशत सान्द्रता वाले एनडोसल्फान या मैलाथियान का प्रयोग करना चाहिये।

(2.) मिली बग: यह हल्के रंग का अंडाकार आकार वाला 5 सेमी0 लंबाई का कीट है, जो सफेद चूर्णी आवरण से ढ़का होता है। यह समूह में होते हैं व पान के पत्तों के निचले भाग में अण्डे देता है, जिस पर उनका जीवन चक्र चलता है। इनका सर्वाधिक प्रकोप वर्षाकाल में होता है। इससे पान के फसल को काफी नुकसान होता है।

उपचार: इसको नियंत्रित करने के लिये 0.03-0.05 प्रतिशत सान्द्रता वाले मैलाथिया्रन घोल का छिडकाव आवश्यकतानुसार करना चाहिये।

(3.) श्वेत मक्खी: पान के पत्तों पर अक्टूबर से मार्च के बीच दिखने वाला यह कीट 1-1.5 मिमी. लम्बाई व 0.5-1 मिमी. चौड़ाई के शंखदार होता है। यह कीट पान के नये पत्तों के निचले सतह को खाता है, जिसका प्रभाव पूरे बेल पर पडता है। इसके प्रकोप से पान बेल का विकास रूक जाता है व पत्ते हरिमाहीन होकर बेकार हो जाते हैं।

उपचार: इसके नियंत्रण हेतु 0.02 प्रतिशत रोगार या डेमोक्रान का छिडकाव पत्तों पर करना चाहिये।

(4.) लाल व काली चीटियां: ये भूरे लाल या काले रंग की चीटियां होती है, जो पान के पत्तों व बेलों को नुकसान पहुंचाती है। इनाक प्रकोप तब होता है जब माहूं के प्रकोप के बाद उनसे उत्सर्जित शहद को पाने के लिये ये आक्रमण करती है।

नियंत्रण व उपचार: इनको नियंत्रित करने के लिये 0.02 प्रतिशत डेमोक्रॅान या 0.5 प्रतिशत सान्द्रता वाले मैलाथियान का प्रयोग करना चाहिये।

(5.) सूत्रकृमि: पान में सूत्रकृमि का प्रकोप भी होता है। ये सर्वाधिक नुकसान पान बेल की जड़ व कलमों को करते हैं।

नियंत्रण व उपचार: इनको नियंत्रित करने के लिये कार्वोफ्युराम व नीमखली का प्रयोग करना चाहिये। मात्रा निम्न है: कार्बोफ्युराम 1.5 किग्रा. प्रति है. या नीमखली की 0.5 टन मात्रा में 0.75 किग्रा. कार्वोफ्युराम का मिश्रण बनाकर पान की खेती में प्रयुक्त करना चाहिये।

Weeding & Irrigation

सिंचाई व जल निकास व्यवस्था

उत्तर भारत में प्रति दिन तीन से चार बार (गर्मियों में) जाडों में दो से तीनबार सिंचाई की आवश्यकता होती है। जल निकास की उत्त व्यवस्था भी पान की खेती के लिये आवश्यक है। अधिक नमी से पान की जडें सड जाती है, जिससे उत्पादन प्रभावित होता है। अतः पान की खेती के लिये ढालू नुमा स्थान सर्वोत्तम है।

खरपतवार नियंत्रण व मेडें बनाना

पान की खेती में अच्छे उत्पादन के लिये समय-समय पर उसमें निराई-गुडाई की आवश्यकता होती है। बरेजों से अनावश्यक खरपतवार को समय-समय पर निकालते रहना चाहिये। इसी प्रकार सितम्बर, अक्टूबर में पारियों के बीच मिटटी की कुदाल से गुडाई करके 40-50 सेमी. की दूरी पर मेड बनाते हैं व आवश्यकतानुसार मिटटी चढाते हैं।

Harvesting & Storage

खली को चूर्ण करके मिटटी के पात्र में भिगो दिया जाता है तथा 10 दिन तक अपघटित होने दिया जाता है। उसके बाद उसे घोल बनाकर बेल की जडों पर दिया जाता है।

मात्रा: प्रति है. 02 टन खली का प्रयोग पान की खेती के लिये पूरे सत्र में किया जाता है। उल्लेखनीय है कि प्रति है. पान बेल की आवश्यकता नाइट्रोजनःफास्फोरसःपोटेशियम का अनुपात क्रमशः 80:14:100 किग्रा. होती है, जो उक्त खली का प्रयोग कर पान बेलों को उपलब्ध करायी जाती है।

1. पान बेलों के उचित बढबार व बृद्वि के लिये सूक्ष्म तत्वों और बृद्वि नियामकों का प्रयोग भी किया जाता है।

2. भूमि शोधन हेतु बोर्डोमिश्रण के 1 प्रतिशत सान्द्रण का प्रयोग करते हैं तथा वर्षाकाल समाप्त होने पर पुनः बोर्डोमिश्रण का प्रयोग (0.5 प्रतिशत सान्द्रण) पान की बेलों पर करते हैं।

बोर्डोमिश्रण तैयार करने के विधि 

01 कि.ग्रा. चूना (बुझा चूना) तथा 01 कि.ग्रा. तुतिया अलग-2 बर्तनों में (मिटटी) 10-10 ली. पानी में भिगोकर घोल तैयार करते हैं, फिर एक अन्य मिटटी के पात्र में दोनों घोलों को लकडी के धार पर इस प्रकार गिराते हैं कि दोनों की धार मिलकर गिरे। इस प्रकार तैयार घोल बोर्डामिश्रण है। इस 20 ली. मिश्रण में 80 ली. पानी मिलाकर इसका 100 ली. घोल तैयार करते हैं व इसका प्रयोग पान की खेती में करते हैं

पान बेल की जडें बहुत ही कोमल होती है, जो अधिक ताप व सर्दी को सहन नही कर पाती है। पान की जडों को ढकने के लिये मिटटी का प्रयोग किया जाता है। जून, जुलाई में काली मिटटी व अक्टूबर, नवम्बर में लाल मुदा का प्रयोग करते हैं।

पान का पौधे को क्या कहते हैं?

पान का पत्ता जिसे बेटल लीफ के नाम से जाना जाता है।

पान की जड़ को क्या कहते हैं?

पान की जड़ भी, जिसे कुलंजन या कुलींजन कहते हैं, दवाई के काम आती है । उपर्युक्त दो प्रांतों को छोड़कर भारत के सभी प्रांतों में खपत और जलवायु की अनुकूलता के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में इसकी खेती की जाती है । इसकी खेती में बड़ा परिश्रम और झंझट होता है । अत्यंत कोमल होने के कारण अधिक सरदी गरमी यह नहीं सहन कर सकती ।

पान का पर्यायवाची शब्द क्या है?

पान विभिन्न भारतीय भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे ताम्बूल, पक्कू, वेटिलाई और नागुरवेल आदि।

घर में पान का पेड़ लगाने से क्या होता है?

वास्तु के अनुसार पान का पौधा घर में लगाने से शुभ फल की प्राप्ति होती है। वहीं प्रतिदिन पान के पत्ते का सेवन सेहत के लिए फायदेमंद होता है। हॉर्टिकल्चरिस्ट अनीता यादव के अनुसार पान के पत्ते में मौजूद विटामिन शरी को तंदरुस्त रखने का काम करते हैं।