रीतिसिद्ध काव्य धारा के प्रमुख कवि कौन है - reetisiddh kaavy dhaara ke pramukh kavi kaun hai

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रीतिसिद्ध उन कवियों को कहा गया है, जिनका काव्य ,काव्य के शास्त्रीय ज्ञान से तो आबद्ध था, लेकिन वे लक्षणों के चक्कर में नहीं पड़े । लेकिन इन्हें काव्य-शास्त्र का पूरा ज्ञान था । इनके काव्य पर काव्यशास्त्रीय छाप स्पष्ट थी । रीतिसिद्ध कवियों में सर्वप्रथम जिस कवि का नाम लिया जाता है, वह है : बिहारी । बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । बिहारी की एक ही रचना मिलती है, जिसका नाम है "बिहारी सतसई" । सतसई का शाब्दिक अर्थ है : सात सौ (सप्तशती) । "बिहारी सतसई" में सात सौ दौहे होने के कारण इसका नाम सतसई रखा गया । डॉ. गणपति चंद्र गुप्त "बिहारी सतसई" लिखने का कारण कुछ यूं बताते हैं : कहते हैं कि जयपुर के महाराजा जयसिंह अपनी एक नवविवाहिता रानी के सौंदर्यपाश में इस प्रकार बंध गए थे कि वे रात-दिन महल में ही पड़े रहते थे । इससे उनका राज-काज चौपट होने लग गया । सभी राज्य-अधिकारी परेशान हो गए । सब चाहते थे कि राजा महल से निकल कर बाहर आए, किंतु किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह इसके लिए राजा से प्रार्थना कर सके । ऐसे ही समय में महाकवि घूमते हुए जयपुर पहुँचे । उन्होंने सारी बात सुनकर राजा के पास एक दोहा लिखकर भेजा- 

नहिं परागु, नहिं मधुर मधु, नहिं विकासु इहिं काल ।
अलि ! कली  ही  सौं बंध्यो, आगे   कौन   हवाल ॥


महाराजा जयसिंह इस दोहे को पढ़कर सारी स्थिति समझ गए और अपना राज-कार्य सम्भालने लगे । साथ ही उन्होंने आदेश दिया कि वे ऐसे ही सुंदर दोहे और लिखें । इसी से प्रेरित होकर बिहारी ने सात सौ  दोहों की रचना की  जो "बिहारी सतसई" कहलाई । 


बिहारी की सतसई में प्रकृति और नारी सौंदर्य के विभिन्न रूप मिलते हैं । प्रेम, विरह, भक्तिभाव, दर्शन आदि का प्रतिपादन भी इसमें मिलता है । सौंदर्य और प्रेम के निरूपण में बिहारी को सफलता मिली । किंतु विरह वर्णन में अतिशयोक्ति हो गई । जो अस्वाभाविक एवं हास्यास्पद प्रतीत होता है । एक जगह वे लिखते हैं कि विरह-दुख के कारण नायिका इतनी दुबली हो गई है कि वह सांस खींचने और छोड़ने के साथ-साथ छ:-सात हाथ इधर से उधर चली जाती है - ऐसा लगता है मानों वह झूले पर झूल रही हो । इसी प्रकार एक दोहे में वे कहते हैं कि विरह-वेदना के कारण नायिका के शरीर से ऐसी लपटें उठ रहीं हैं कि सखियाँ जाड़े में भी गीले कपड़े लपेटकर बड़ी कठिनाई से उसके पास जा पाती हैं । पर ऐसे उदाहरण बिहारी सतसई में अधिक नहीं हैं । 


राजनीति, दर्शन, नीति आदि के विचारों का भी प्रतिपादन बिहारी ने प्रभावशाली रूप में किया है । इसी प्रकार भक्ति की व्यंजना भी उन्होंने सफलतापूर्वक की है । यहाँ उनके कुछ दोहे प्रस्तुत हैं :- 


1. कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेशु लजात । 
    कहिहै  सब  तेरौ  हियो  मेरे  हिय  की  बात ॥
2. बंधु भए का दीन के, को  तरयो रघुराइ । 
    तूठे-तूठे  फिरत  हो  झूठे  बिरद कहाइ ॥
3. दीरघ सांस न लेहु दुख, सुख साईं हि न भूलि ।
    दई दई  क्यों  करतु  है, दई दई सु  कबुलि ॥


वास्तव में बिहारी ने अपने युग की रुचियों को ध्यान में रखकर उन सभी विषयों का समावेश अपनी सतसई में किया जो उस युग में पसंद किए जाते थे । इसलिए उन्होंने दावा किया था -" कही बिहारी सतसई भरी अनेक स्वाद" ।  किसी ने बिहारी के दोहों पर सटीक कहा है : 

हिंदी साहित्य के इतिहास को तीन भागों में बाँटा जा सकता है – आदिकाल, मध्यकाल व आधुनिक काल | मध्यकाल के पूर्ववर्ती काल को भक्तिकाल तथा उत्तरवर्ती काल को रीतिकाल के नाम से जाना जाता है |  रीतिकाल की समय-सीमा संवत 1700 से संवत 1900 तक है |

रीतिसिद्ध काव्य धारा के प्रमुख कवि कौन है - reetisiddh kaavy dhaara ke pramukh kavi kaun hai

रीतिसिद्ध काव्य परंपरा ( Reetisiddh Kavya Parampara )

रीतिसिद्ध कवि वे कवि  हैं जिन्हें काव्य का शास्त्रीय ज्ञान तो था लेकिन वे शास्त्रीय नियमों के चक्कर में नहीं पड़े | इनके काव्य में काव्य शास्त्रीय छाप स्पष्ट दिखाई देती है | यह भी कहा जा सकता है कि इन कवियों ने लक्षण ग्रंथ तो नहीं लिखे लेकिन काव्य- रचना करते समय इनकी दृष्टि काव्य लक्षणों की तरफ अवश्य रही |
बिहारी, रसनिधि, कृष्ण

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कवि आदि रीतिसिद्ध कवियों में प्रमुख हैं |

बिहारी ( Bihari ) रीतिसिद्ध कवियों में सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते हैं | इनका जन्म 1595 ईo में  ग्वालियर में हुआ | नरहरि दास इनके गुरु थे | ये  राजा जयसिंह ( Raja Jai Singh )  के दरबारी कवि थे | ‘बिहारी सतसई'( Bihari Satsai )  इनकी एकमात्र रचना है | यह रचना श्रृंगार,  अलंकार,  रस, नायिका-भेद आदि सभी दृष्टियों से रीतिकाल की सर्वश्रेष्ठ रचना कहीं जा सकती है |

रस निधि ( Rasnidhi )  की प्रमुख रचनाएं हैं- रस निधि सागर,  हिंडोला,  रत्नहजारा, बारहमासा | ‘रत्न-हजारा’ ( Ratna Hajara ) इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है |

वृंद ( Vrind ) की प्रमुख रचनाएं हैं – बारहमासा, भाव पंचाशिका,  यमक सतसई आदि |
कृष्ण कवि ने बिहारी सतसई  के प्रत्येक  दोहे पर नए सवयै की रचना की | इनकी प्रमुख रचना  ‘बिहारी सतसई की टीका’  है |

         रीति सिद्ध काव्य की विशेषताएं 
       ( Reetisiddh Kavya Ki Visheshtayen )

बिहारी रिद्धि-सिद्धि काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं |  उनकी रचना ‘बिहारी सतसई’ ( Bihari Satsai ) रीतिसिद्ध काव्यधारा की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें रिद्धिसिद्धि काव्य की सभी प्रवृतियां मिलती हैं | रीतिसिद्ध काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियों  का वर्णन इस प्रकार है  :

(1) श्रृंगार निरूपण – श्रृंगार वर्णन रीति-काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति है |  इस काल में भक्तिकाल के राधा-कृष्ण भी विलासी नायक-नायिका मात्र बन कर रह गए | इस काल में सर्वाधिक प्रमुख रस श्रृंगार-रस था | इन कवियों ने श्रृंगार के संयोग-पक्ष का वर्णन अधिक किया है | वियोग वर्णन में मार्मिकता का अभाव है | संयोग-वर्णन में सुरत,  विपरीत-रति, हास-परिहास का वर्णन मिलता है | विभिन्न तीज त्योहारों पावस आदि का सुंदर वर्णन मिलता है |  श्रृंगारी भावना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण इन कवियों का दरबारी कवि होना था | अपने स्वामी को खुश करना ही इनका प्रमुख ध्येय था | अतः इन कवियों ने श्रृंगार-वर्णन को सर्वाधिक महत्व दिया |

(2) अलंकार प्रयोग व चमत्कार वर्णन- रीतिकालीन कवियों ने अपनी आश्रय-दाता  राजाओं व सामंतों को प्रसन्न करने के लिए चमत्कार का सहारा लिया | इन कवियों ने विलासी राजाओं को खुश करने के लिए कल्पना की उड़ान, वाकपटुता,  चमत्कार- वर्णन आदि का सहारा लिया | इन कवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं को अलंकृत करने के लिए अनेक ढंग अपनाये | इसलिए डॉo रामकुमार ने इस काल को कलाकाल व मित्र-बंधुओं ने अलंकृत काल की संज्ञा दी है | इन कवियों के लिए अलंकार साधन नहीं बल्कि साध्य बन गए थे |

(3) प्रकृति वर्णन- रीतिकाल में प्रकृति का चित्रण आलंबन और उद्दीपन दोनों रूपों में मिलता है |. यह प्रकृति-चित्रण नायक-नायिका की मनोदशा के अनुरूप हुआ है | संयोग दशा में प्रकृति का मनोहारी चित्रण है तथा वियोग दशा में त्रास  उत्पन्न करने वाला रूप है | रीतिकाल में स्वतंत्र प्रकृति-वर्णन दुर्लभ है | प्रकृति के विभिन्न अवयवों का वर्णन इन्होंने नायक व नायिका के रूप-सौंदर्य का वर्णन करने के लिए भी किया है | नायक-नायिका की सुंदरता के लिए अनेक उपमाएं प्रकृति से ली गई हैं | इन कवियों ने प्रकृति चित्रण में अनेक नए उपमान भी प्रयोग किए हैं | इनका प्रकृति-चित्रण उद्दीपन रूप में कहीं अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है |

(4) नारी वर्णन- रीतिकाल के कवियों ने नारी का कामुक वर्णन किया है |  इनके  लिए नारी केवल भोग विलास की वस्तु है | इन्होंने नारी को प्राय:  नायिका के रूप में चित्रित  किया है जो नायक के प्रेम में बंधी है अर्थात इन्होंने नारी को अधिकार क्षेत्र में प्रेमिका के रूप में चित्रित किया है | यह कवि नारी के शारीरिक-सौंदर्य का वर्णन ही करते रहे | इसका प्रमुख कारण यह था कि अधिकांश रीतिकालीन कवि दरबारी कवि थे | इनका प्रमुख उद्देश्य अपने आश्रय दाता  राजा को प्रसन्न करना था जो प्रायः भोग विलास में डूबे रहते  थे | अतः इन्होंने नारी को भोग-विलास के साधन के रूप में प्रस्तुत किया | मानो वासना ही इन कवियों के लिए सब कुछ थी |

(5) विरह-वर्णन : बिहारी आदि रीतिसिद्ध कवियों ने संयोग के साथ-साथ वियोग का भी सफल चित्रण किया है | लेकिन बिहारी को विरह-वर्णन में अधिक सफलता नहीं मिली है | उनके विरह-वर्णन में मार्मिकता का अभाव है | चमत्कार उत्पन्न करने के लिए विरह-वर्णन इस प्रकार किया गया है कि पाठक को कई बार हंसी आ जाती है | अन्य रीतिसिद्ध कवि  भी विरह-वर्णन करते समय  नौसीखिए प्रतीत होते हैं |

(6) भक्ति भावना : रीतिसिद्ध  कवियों ने प्रेम के साथ-साथ अपनी भक्ति भावना को भी अभिव्यक्त किया है | रीतिसिद्ध कवि उच्च कोटि के कवि होने के साथ-साथ  उच्च कोटि के भक्त भी माने जाते हैं  | बिहारी  के काव्य में प्रेम के साथ-साथ भक्ति व नीति की भी सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है | उन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है | इनकी भक्ति में दांपत्य भक्ति की प्रधानता है | कहीं-कहीं वात्सल्य भाव भी प्रकट होता है | दास्य-भक्ति भी रीतिसिद्ध  कवियों के  काव्य में मिलती है |  फिर भी भक्ति की भावना इन कवियों के काव्य में उतना अधिक विकास नहीं पा सकी  जितना सूर,  तुलसी,  कबीर,  जायसी जैसे भक्ति कालीन कवियों के काव्य में मिलती है |

(7) काव्य-रूप- रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने मुक्तक काव्य की रचना की है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुक्तक काव्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखा है लेकिन रीतिकाल की मांग ही  मुक्तक-काव्य थी | राजाओं तथा नवाबों के पास इतना समय नहीं था कि वे प्रबंध-काव्य सुन सकें और दरबारी कवियों का एकमात्र उद्देश्य अपने आश्रयदाता  राजाओं को प्रसन्न  करना था | उन्होंने मुक्तक काव्य की रचना की |

(8) कला– इन कवियों ने अपने काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए छंदों,  अलंकारों, बिंबों आदि का बड़ा सुंदर प्रयोग किया है |
छंदों की दृष्टि से इन कवियों ने प्राय: दोहा, कवित्त, सवैया का प्रयोग किया है | इसके अतिरिक्त छप्पय, बरवै,  सोरठा आदि का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिलता है | फिर भी इन कवियों ने दोहा, कवित्त, सवैया का अधिक प्रयोग किया है क्योंकि ये छंद ब्रज-भाषा की प्रकृति के अनुकूल थे |
चमत्कार उत्पन्न करने के लिए इन कवियों ने विभिन्न प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है | इन्होंने शब्दालंकार और अर्थालंकार ; दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग बखूबी किया है | इन कवियों ने अपने काव्य में अनुप्रास,  यमक, श्लेष, पुनरुक्ति,  रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा,  रूपक अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग बखूबी किया है | इन कवियों के लिए अलंकार साधन नहीं बल्कि साध्य बन गए थे |

(9) ब्रजभाषा की प्रधानता- रीति काल में अधिकांश काव्य ब्रजभाषा में रचा गया | ब्रज भाषा ही इस युग की प्रधान साहित्यिक भाषा थी | इसका प्रमुख कारण यह था कि ब्रजभाषा श्रृंगार-रस व कोमल भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त भाषा थी |  रीतिकाल के अधिकांश कवि केवल अपने स्वामी अर्थात अपने आश्रयदाता राजा को प्रसन्न करने के लिए काव्य-रचना कर रहे थे | अतः उन्होंने ब्रजभाषा जैसी मधुर भाषा को चुना |
डॉ नगेंद्र इस विषय में लिखते हैं-  ” भाषा के प्रयोग में इन कवियों ने एक खास नाजुक मिजाजी बरती है | इनके काव्य में किसी भी ऐसे शब्द की गुंजाइश नहीं जिसमें माधुर्य न हो |”
वस्तुतः ब्रजभाषा का जितना उत्कर्ष किस काल में हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ | फिर भी हम इनकी भाषा को पूर्ण तरह निर्दोष नहीं मान सकते | रीतिकालीन कवियों की भाषा में कई स्थान पर कारक-चिन्हों की त्रुटि है | कहीं-कहीं लिंग-संबंधी दोष हैं परंतु उनकी भाषा में सर्वत्र मधुरता व मादकता के दर्शन होते हैं |

निष्कर्षत:  हम कह सकते हैं कि रीतिकालीन काव्य श्रृंगार व मधुरता का काव्य है | इसमें सर्वत्र श्रृंगार व कलात्मकता के दर्शन होते हैं | जितना अधिक कला का विकास इस काल में हुआ वह इससे पहले कभी नहीं हुआ | शायद इसलिए ही डॉo रामकुमार वर्मारमाशंकर शुक्ल रसाल  ने इस काल को ‘कलाकाल‘  व विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘श्रृंगार-काल‘ नाम दिया है |
अनेक त्रुटियां होने के बावजूद यह काल अपनी मधुरता, कलाप्रियता  व अलंकार-प्रियता  के लिए जाना जाएगा |

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रीतिसिद्ध धारा के प्रमुख कवि कौन है?

रीतिबद्ध काव्यधारा में केशवदास, चिंतामणि त्रिपाठी, कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास, पद्माकर और मतिराम आदि महत्वपूर्ण कवियों को रखा जा सकता है। रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी में रीति ग्रंथों की परंपरा का आरंभ चिंतामणि त्रिपाठी (१६४३ ई.) से माना है

रीतिमुक्त काव्य धारा के कवि कौन थे?

रीतिमुक्त कवि : इसके अंतर्गत शेख आलम, घनानंद, बोधा, ठाकुर एवं द्विजदेव आते हैं।

रीतिसिद्ध काव्य धारा क्या है?

रीतिसिद्ध कवि काव्यशास्त्र आधारित काव्यांगविवेचन नहीं करते। वे नायक-नायिका, रस, छंद, अलंकार, गुण, दोष के लक्षण नहीं विवेचित करते, बल्कि वे सीधे काव्यांगों के सरस उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जहाँ उनकी कविताई का चरम परिपाक दृष्टिगत होता है। यही कारण है कि रीतिसिद्ध कविता काव्य-रीति के भार से दबकर बोझिल नहीं हुई है।

रीतिकाल के कवि कौन है?

इस समय अनेक कवि हुए— केशव, चिंतामणि, देव, बिहारी, मतिराम, भूषण, घनानंद, पद्माकर आदि। इनमें से केशव, बिहारी और भूषण को इस युग का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है।